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•षी पाश्र्वनाथ चरित
प्रप्रसस्तं द्विधा ध्यानं त्यक्त्वा दूर दुरुत्तरम् । धर्मध्यानं भजेनित्यं चतुर्धा स सुखाकरम् ॥८॥ निःसंकल्पं मनः कृत्वा स्वसंवेदनसन्मुखम् । कृत्स्नचिन्तातिगं निमलं सुसंवेगवासितम् |1 अनन्तगुणराशेः स्वचिदानन्दमयात्मनः । ध्यानं शुक्लाभिधं घने कर्मन्धनहुताशनम् ।।८।। भनेकान् विहरन देशान् ग्रामझेटपुरादिकान् । वनाटव्यद्रिदुर्गादीन् निर्ममत्वाय वायुवत् ॥८६॥ घोपदेशना दद्याद्भव्येभ्यो मुक्तिहेतवे । स्वर्गमोक्षकरी दिव्यगिरा नित्यं मुनीश्वरः ॥८७।। पादौ क्षुधातृषाशीतोष्णदंशमशकाभिधाः । तथा नागन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्यापरीषहाः ।। शय्याकोशबधा याञ्चालामरोगसमाह्वयाः । तृणस्पर्शमलो सरकारपुरस्कारनामभाक ॥ प्रज्ञाशानाभिधी चादर्शन मेताम् हि दुई रान् । सहते धीरधीनित्यं द्वाविंशतिपरीषहान् ॥१०॥ दुःकर्मनिर्जरार्थ सन्मार्गाच्यवन हेतवे । सर्वशक्त्या प्रयत्नेन प्रतीकारं विनाजसा ॥१॥ उत्तमा क्षान्तिरेवादी मार्दवोऽन्वार्जवं ततः । त्यं शौचं तथा संयमतपस्त्याग एव हि ।।१२, पाकिञ्चन्यं वरं ब्रह्मचर्य चेति दशात्मकम् । धर्म स्वमुक्तिकरि विशुद्धघा स भजेत्सदा ।।६३||
ये ॥२॥ वे दो प्रकार के प्रप्रशस्त ध्यान को दूर से ही छोड़कर अतिशय कठिन तथा सुख की खान स्वरूप चार प्रकार का धय॑ध्यान निरन्तर धारण करते थे।।३।। वे मन को संकल्प रहित, स्वसंवेवन के सम्मुख, समस्त चिन्तामों से शून्य, निर्मल और उत्तम संवेग से सुवासित कर अनन्त गुणों की राशि स्वरूप ज्ञानानन्द से सम्मय स्वकीय शुद्ध प्रात्मा का चिन्तन करते हुए कर्मरूपी इन्धन को भस्म करने के लिये अग्नि स्वरूप शुक्लध्यान को धारण करते थे ॥८४-८५॥ अनेक वेस, प्राम, खेट, नगर, वन, अटवी, पर्वत और दुर्ग आदि स्थानों में ममता का प्रभाव करने के लिये वायु के समान बिहार करते हुए वे मुनिराज भव्य जीवों को मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर मधुर वाणी से स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त कराने वाले धर्म का उपदेश देते थे ।।६६-६७।। स्थिर बुद्धि को धारण करने वाले वे मुनिराज खोटे कर्मों की निर्जरा के लिये तथा समीचीन मार्ग से चयुत न होने हेतु अपनी समस्त शक्ति से प्रयत्नपूर्वक पथार्थ रूप से झुधा, तृषा, शीत, उष्ण, वंशमशक, नाम्न्य, परति, स्त्री, चर्या, निषथा, शय्या, प्राक्रोश, वध, पाञ्चा, प्रलाभ, रोग, तपस्पशं, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रमा, प्रज्ञान और प्रदर्शन इन दुर्धर बाईस परोषहों को सहन करते थे ।।११।। वे सदा त्रियोग की शुद्धिपूर्वक स्वर्ग और मोक्ष के करने वाले उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, स्याग, पाकिञ्चन्य और उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य इन दश धमों की पाराधना करते थे ॥६२-६३।।
१. सुखाकर: ब. २ परमार्थेन ।