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- पञ्चम सर्ग है
एकदा मुनिनायोऽसौ त्यनत्वा देहं बने दधौ । म्याने चित्तं नियोज्यातापनयोगं स्वमुक्तये ||४|| प्रथ सोजगरः प्राक्तनो नियंत्यायुषः क्षये । श्वभ्राद् दुःखं महद मुक्त्वा पापपाकेन पापधीः ।।६।। कुरङ्गाल्यो वने भिल्लोऽनेकसत्त्वक्षयंकरः । पापद्धांदिग्तो दुष्टो दुष्टकमकरोऽयभूत् ।।६।। भ्रमता तेन पापों बनेऽतिपापिनाऽशुभात् । क्रू रशियेन स दृष्टो मुनीन्द्रोऽतीवीरषी: ॥६॥ निस्सङ्गो वायुवच्छान्तमानसः स्वज्छनीरवत् । पृथिवीवत्क्षमायुक्तो मेरुवत्सुस्थिरो महान् ॥१८॥ कर्मेन्धनेऽग्निसादृश्यो गम्भीर इव सागरः । सिहनिर्भयोऽत्यन्तनि:स्पृहस्त्यक्तविक्रियः ॥ शोतवातोगदशादिकृतबाधासहः परः । ध्यानारूढः परित्यक्तकायोऽनेकगुणाम्बुधिः ।१०। ततः प्राक्तनवैरेण कोपारिणत लोचनः । भूत्वा घोरतरं पापी प्रोपसर्ग व्यपान्मने: ॥१० दुःसह विविध तीन प्राणघ्नं भीरुभीतिदम् । निर्भपनकरेक्यिः पटुक: कर्णभीतिदः ।।१०२।। श्रेदनर्भेदन स्तोत्रे बंधबन्धनसाढन : 1 सर्वदुःखाकरीभुतं श्चान्यः कातरभीतिदः ।।१०३।।
एक समय वे मुनिराज प्रपनी मुक्ति के लिये शरीर से ममता भाव छोड़कर तथा ध्यान में चित्त लगाकर वन में प्रातापन योग धारण कर रहे थे ।।६४॥ तदनन्तर वह पहले का अजगर प्रायु का भय होने पर बहुत भारी दुःख भोगकर नरक से निकला और पाप के उदय से धन में अनेक जोत्रों का क्षय करने वाला कुरङ्ग नाम का पापी भील हुदा । यह शिकार प्रादि में तत्पर रहता था, दुष्ट था और दृष्ट कार्यों को करने वाला भी था ॥५६६। एक बार वह तीव पापो शिकार के लिये वन में घूम रहा था, कि फर अभिप्राय वाले उसने अत्यन्त धीर बीर बुद्धि के धारक उन मुनिराज को देखा ॥६७॥ दे मुनिराज वायु के समाम निःसङ्ग थे, स्वच्छ जल के समान स्वच्छ अन्तःकरण के धारक थे, पृथियों के समान क्षमा से युक्त थे, मेरु के समान प्रत्यन्त स्थिर तथा महान् थे, कर्मरूपी इन्धन को भस्म करने के लिये अग्नि के समान थे, समुद्र के समान गंभीर थे, सिंह के समान निर्भय थे, अत्यन्त निःस्पृह थे, निविकार थे, शीत वायु, उष्ण तथा देशमशक प्रादि के द्वारा की हुई वाधा को सहन करने वाले थे, उत्कृष्ट थे, ध्यान में प्रारुढ थे, शरीर की ममता का त्याग कर कायोत्सर्ग मुद्रा में लीन थे तथा अनेक गुणों के सागर थे ।।६८-१००॥
- तदनन्तर पूर्व वैर के कारण क्रोध से लाल लाल नेत्रों वाला होकर उस पापो भोस ने मुनिराज पर अत्यन्त भयंकर उपसर्ग किया ॥१०१।। तिरस्कार करने वाले, कटुक तथा कानों को भय दायक वचनों के द्वारा, छेदन, भेवन, तीन वध, बन्धन, ताडन, समस्त दुःखों को खानभूत तथा कायर मनुष्यों को भय देने वाले अन्य साधनों द्वारा उसने दुःख से सहन करने योग्य, प्राणघातक, तथा भीरु मनुष्यों को भय देने वाला नामा प्रकार का सोन उप१. म्वनये ।। २. नरकान् . मृगयाव्यिवनामकः । मृगणाग भृगपोहे ध्ये नेदर्थ ।