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• चतुर्थ सर्ग * केचित्सवाप्य सत्पात्रं कुर्वन्ति तोप मद्धतम् । मध्याह्न केचिदप्राप्य तद्विपाद वजन्त्यहो ।।२।। विधिद्रव्य सुपात्रादिसामग्या दानिन: शुभात् । लभन्ते पञ्चकापचय रलवृष्टयादिजं सुरैः ।।३०॥ तदालोक्य जना: केचित्पात्रदाने मति व्यधुः । केचित्तत्परा जाताः प्रत्यक्षफलदर्शनात् ।।३१।। केचिन्मोहभटं हत्या कर्मणोनार तपोऽसिना । तत्रत्याः प्राप्य देवार्चा यान्ति मुक्ति विरागिणः ॥३२॥ केचित् वृत्ताजितायेन' वाहमिन्द्रपदं महत् । केविच्छ क्रपदं लौकान्तिकभूति भजन्ति ॥३३॥ पाववानजपुण्येन केनिभद्राशया जनाः । भोगभूमौ महाभोगान प्राप्नुवन्ति च राजजाम् ॥३४॥ षामिका दानिनो जैना जिनधर्मप्रभावकाः । जिन भक्ताः सदाचारा व्रतशीलाविभूषिताः ॥३५।। न्यायमार्गरता दक्षाः सिद्धान्तमा विवेकिनः । सदृष्टयोऽतिभागाद्या महाविभवसंकुलाः ॥३॥ रूपलावण्यभूषादिमण्डिता यत्र सन्नराः ! सिम्ताहगोगेना. फोले सोधे नासिव :७।। नवयोजनविस्तीर्ण द्वादशायामम तम् । सहस्रगोपुरः क्षुल्लकद्वारशतपञ्चकः ।।३।। को बासना से युक्त गृहस्थ पात्रदान के लिये प्रतिदिन घर के द्वार का प्रेक्षण नियम पूर्वक करते हैं ॥२८॥ मध्याह्न के समय कोई गृहस्थ सत्पात्र को प्राप्त कर प्रडू त संतोष करते हैं और कोई पात्र के न मिलने से विषाद को प्राप्त होते हैं ॥२६॥ बानी पुरुष विधि, व्य सथा सत्पात्र प्रावि सामग्री से उत्पन्न पुण्य के फलस्वरूप देवों के द्वारा किये हुए रनवृष्टि प्रादि पञ्चाश्चर्यों को प्राप्त होते हैं ॥३०॥ उन पञ्चाश्चर्यो को देखकर कितने ही लोग ऐसी इच्छा करते थे कि हम भी पात्रदान वेंगे और कोई प्रत्यक्ष फल देखने से वान देने में तत्काल तत्पर हो जाते थे ॥३१॥ वहां उत्पन्न हुए कोई मनुष्य तपरूपी तलवार के द्वारा मोररूपी योद्धा को नष्टकर देवकृत पूजा को प्राप्त होते हैं और फिर वीतराग होकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥३२॥ कोई चारित्र के द्वारा उपाजित पुण्य के द्वारा प्रहमिन्द्र के उत्कृष्ट पद को, कोई इन्द्रपद को और कोई लौकान्तिक देवों को विभूति को प्राप्त होते हैं ॥३३॥ भद्र परिणामों से युक्त कोई मनुष्य पात्रवान से उत्पन्न पुण्य के द्वारा भोगभूमि में महाभोगों को और कोई कर्मभूमि में राजाओं के बड़े बड़े भोगों को प्राप्त होते हैं ॥३४॥जो धर्मात्मा है, वानी हैं, जनधर्म के धारक है, जिनधर्म को प्रभावना करने वाले हैं, जिनभक्त हैं, सदा. चारी हैं, व्रत शील प्रादि से विभूषित हैं, न्यायमार्ग में रत हैं, चतुर हैं, सिद्धान्त के ज्ञाता हैं, विवेकी हैं, सम्यग्दृष्टि हैं, भोगोपभोग की अत्यधिक सामग्री से युक्त हैं, महान वैभव से साहित हैं तथा रूप लावण्य और आभूषणों प्रादि से सुभोभित हैं ऐसे समीचीन पुरुष तथा ऐसे ही गुरणों से सहित स्त्रियां जहां घर घर में निवास करती हैं ॥३५-३७॥ जो नगर नौ योजन चौड़ा है। बारह योजन लम्बा है, प्राश्चर्य कारक है तथा एक हजार गोपुरों, पांच १. रत्नवृष्टिः, पुष्पवृष्टिः, मन्दसुगन्धिममीरः, देवदुन्दुभिध्वानः, महोदामम् महोदानम् इति शम्दः, एतानि पम्याावर्गकानि 1 २.कर्मणोमा क-कर्मणाम न कर्मणा उना रहिता इति यावत् ३. पारिवामितपुण्येन ४. राज्यजारक.