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* पञ्चम सर्ग *
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सदा ।।१८।।
प्रदान्तेन्द्रिय चौराणां गृहचिन्ताविधायिनाम् । गृहस्थानां हितं नश्येदास्रवैरेनसां यतीनां निर्मलो धर्मो हिंसादिमलदूरगः । विश्वचिन्ताद्यतिक्रान्तो निष्वापोऽनेकशर्मकृत् ॥११॥ तद्भवे मुक्तितिस्यापि शीघ्र सिद्धयं कर्मारिहानये ।। २० ।। स्त्वया चिरं भुक्ला चक्रिलक्ष्मीमनोहरा । तथापि तृप्तिरेवाथ न ते जाता खसेवनं : २ ।। २१ ।। इदानीं त्वं महाभाग स्थक्त्वेमां चक्रिरणः श्रियम् । हत्वा मोहभट खैः सार्द्धं गृहाण तपोऽनषम् ॥ २२ ॥ इत्यादिमुनि पीयूषनिर्गतम् | समस्त पापसंतापहरं भूयोर सावहम् ।। २३ ।। पीत्वा कर्णाञ्जलिभ्यां स भोगतृष्णा महाविषम् हत्वा प्राप्यातिनिर्वेदं हृदि चक्रीति चिन्तयेत् ।। २४ ।। ग्रहो मयातिरागेण स्वेच्छया वक्रिगोचरा: । भुक्ता भोगा हि दुःप्रापास्तृप्तिर्मे नाभवन्मनाक् ।। २५ ।। एति देवा व चिसृप्तिमिन्धनेश्नलो महान् । सरित्पूरेः समुद्रो वा तीव्रलोभी धनागमः ||२६||
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चोरों का दमन नहीं कर पाया है, तथा जो निरन्तर गृह की चिन्ता करते रहते हैं ऐसे गृहस्थों को सवा पापों का प्रात्रव होता रहता है अतः उनका हित नष्ट हो जाता है । भावार्थ - गृहस्थ के कार्यों से कभी निर्जरा होती है, कभी बम्ध होता है । अतः वह अपने प्राप को कर्म - अन्ध से सर्वथा निवृत्त करने में असमर्थ रहता है ।।१७-१८ ।।
मुनियों का धर्म निर्मल है, हिंसादि दोषों से दूर रहने वाला है, समस्त चिन्ताओं से परे है, पाप रहित है, अनेक सुखों को करने वाला है, उसी भव में मोक्ष को देने वाला है, प्रत्यन्त प्रसिद्धि तथा प्रतिष्ठा को करने वाला है और अपने श्राप में उत्कृष्ट है, श्रतः धर्मात्मा ओबों को शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने और कर्मरूप शत्रुओं का क्षय करने के लिये इसे ग्रहण करना चाहिये ।।१६-२० ।। हे चक्रवत ! तूने चक्रवर्ती की मनोहर लक्ष्मी का चिरकालतक उपभोग किया है तो भी इसमें इन्द्रियों के सेवन से तुझे तृप्ति नहीं हुई है ||२१|| हे महाभाग ! अब तू चक्रवतों की इस लक्ष्मी का त्याग कर तथा इन्द्रियों के साथ मोहरूपी सुभट को नष्ट कर निर्दोष तप को ग्रहण कर ||२२||
इस प्रकार जो मुनिराज के मुख कमल से निकला हुआ है, समस्त पाप और संताप को हरने वाला है, तथा प्रत्यधिक रस को धारण करने वाला है ऐसे धर्मरूपी प्रमृत को करूपी प्रजलियों से पोकर चक्रवर्ती ने भोगतृष्णारूपी महाविष को नष्ट कर दिया और प्रत्यधिक वैराग्य को प्राप्त कर हृदय में इस प्रकार का विचार किया ।। २३-२४।। अहो ! मैंने तीव्रराग वश अपनी इच्छानुसार चक्रवर्ती के दुर्लभ भोग भोगे परन्तु इनमें मुझे रचमात्र भी तृप्ति नहीं हुई ||२५|| कदाचित् देववश महान प्रग्नि ईन्धन से तृप्ति को प्राप्त हो सकती है, प्रथवा समुद्र नदियों के प्रवाह से और तीव्र लोभी मनुष्य धन १. हिंसादिमनदूरतः ० २. इन्द्रियसेवनं ३ इन्द्रियः