________________
४८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित *
सन्याम गोपितो नम्' भुगा नृपात्मजा: । षण्णवतिसहस्राणि पुण्यात्पुण्यगुणान्विता: ।।१।। रत्नानां सारवस्तूनां भोगादीनां च शर्मणाम् । प्रमाणं वेत्ति को धीमान पुण्याचे तस्य धामनि ।१२। दृषं चित्ते निघायोच्च उक्ते भोगान्निरन्तरम् । स स्वश्रेयोऽपितान् सारान बहून्भार्यादिभिः समम् ।८३ दयासत्यनतादीनि धृत्वा स मानसेऽनिशम् । स्वराज्यं पालयत्येव राजनीत्या सुधीर्महान् ||४|| प्रोषधं कुरुते नित्यं चतुःपर्वसु मुक्तये । राज्यारम्भाखिलं त्यक्त्वा कर्मघ्नं स सुखार्गवम् ।।६।। मार्सरीद्रादि-दुनिं हत्वा सामायिकं महत् । धर्मबीजं करोत्येव चक्री कालत्रये सदा ।।८६॥ सामायिक समापन्नो दिवाजाताघसंचयम् । निन्दागर्हणयोगेन क्षिपेद्धीमान्गुणाप्तये ।७।। जिनागारे जिनेशाना विषाते स महामहम् । विभूत्या परया नित्यं सर्वविघ्नहरं परम् ।।८।। कृरस्नाभ्युदयसिद्धयर्थं पूजन श्रीजिनेशिनाम् । विश्वाभ्युदयदातारं स कुर्यात्स्वगृहे सदा ।। श्रीतीर्थोशां भजत्येव महान्तं स महोत्सवम् । नानाभूत्या जनः साद्धं जैनमार्गप्रभावक: ।।१०||
ये रत्न उपभोग के रूप थे, राज्यवृद्धि तथा अनेकों बार कठिन कार्यों को सम्पन्न करते थे ॥५०॥ पुण्योदय से इसकी छयानवे हजार सुन्दर स्त्रियां थीं जो भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजामों को पुत्रियां थीं, और पवित्र गुरणों से सहित थीं ॥५१॥ पुण्य से परिपूर्ण उसके घर में रत्न, श्रेष्ठ वस्तुओं और भोगोपभोग प्रादि सुखों के प्रमाण को कौन बुद्धिमान जानता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥२॥ वह निरन्तर धर्म में चित्त लगाकर अपने पुण्योदय से प्राप्त हुए उत्कृष्ट, सारभूत नाना प्रकार के भोगों का स्त्री प्रावि के साथ उपभोग करता था ॥५३॥ वह महान् बुद्धिमान निरन्तर दया, सत्य तथा व्रत प्रादि को मन में धारण कर ही राजनीति से अपने राज्य का पालन करता था ॥४॥
वह मुक्ति प्राप्त करने के लिये दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इस प्रकार माह के चारों पदों में राज्य सम्बन्धी सम्म प्रारम्भ को छोड़कर कर्म निर्जरा के कारण तथा सुख के सागर स्वरूप प्रोषधोपवास को करता था ।।८५॥ वह चक्रवर्ती पात रौद्र आदि खोटे ध्यान को छोड़ कर सदा तीनों काल धर्म के बीजस्वरूप उत्कृष्ट सामायिक को नियम से करता था ॥८६॥ सामायिक को प्राप्त हुआ वह बुद्धिमान, गुरणों की प्राप्ति के लिये दिन में उत्पन्न हुए पाप समूह का निन्दा गर्दा के द्वारा क्षय किया करता था।८७॥ वह निरन्तर जिन मन्दिर में बड़ी विभूति के साथ श्रीजिन प्रतिमानों को सर्व विघ्नहारी उत्कृष्ट महापूजा करता था ॥८॥ वह सदा अपने गृहचैत्यालय में समस्त अभ्युदयों को सिद्धि के लिये समस्त अभ्युदयों को देने वाली श्रोजिन प्रतिमाओं की पूजा करता था ॥८६॥ जैन मार्ग की
१. पुण्यात्तसा धापनि ब. २ समायिकसमानो - ३. क. प्रतौ पूजनमित्यारभ्य श्लोकान्त पाठो नास्ति ।