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- श्री पार्श्वनाथ चरित * परिवारेण सा विभूत्या तज्जातकर्मणि । दीनानाथजनेभ्यश्च ददौ दानान्यनेकशः ॥१०३।। बालचेष्टमुंदं कुर्वन् पित्रोस्तयोग्यमानमः । वद्धितु लग्न एवासी बालचन्द्र कलेव न ।।१०४।। कौमारत्वं कमात्प्राप स पित्रोरञ्जयन्मन: । मुग्धादिहसनैः पुण्यादरमन्मनभाषणः ॥१०५।। ततोऽध्यापकमासाद्य जनं शास्त्रास्त्रविद्ययोः । पारं सोऽगाद्धिया तीक्ष्णप्रज्ञयाऽविरतो बुधः ।।१०६।। सम्पूर्णयौवनो धीमान् मुकुटादिविभूषितः । जिनभक्तः सदाचारी शमी रूपो मदातिगः ।। १ ०७।। शुभाशयो विचारको मन्दमोही कृपापर: । प्रत्यासन्नभवी धर्मरजित: स्वजनप्रियः ।।१०।। दिव्यदेहधरः सोऽभात्कुमार: सहजगुणः । विवेकादिभत्रै रन्यर्लोकान्तिकसुरोऽत्र वा ॥१०॥
मालिनी इति सुकृतविपाकात्प्राप्य कौमारभूति, विविधमखिलसौख्यं स्वस्य योग्यं भुनक्ति ।
स्वजन-परजनानां वल्लभोऽनङ्गमूर्ति-हृदि बरवृतमुच्चैरग्निवेगो निधाय ।।११।। अनेक महोत्सबों के साथ जिन मन्दिर में जिनेन्द्र भगवान की महामह नामक उत्कृष्ट पूजा को ॥१०२।। परिवार के साथ मिलकर उसने बड़े वैभव से पुत्र का जन्मोत्सव किया और दोन तथा अनाथ जनों को अनेक दान दिये ॥१०३।। बालचेष्टाओं तथा अपने योग्य वाहन प्राधि की कौडाओं से माता-पिता के हर्ष को उत्पन्न करता हुआ वह बालक बालचन्द्र की कला के समान दिन प्रतिदिन बढने लगा ॥१०४।। सरल मन्द मुसकानों तथा पुण्योदय से प्राप्त उत्कृष्ट तोतली बोली से माता पिता के मन को अनुरजित करता हुआ वह क्रम से कुमारावस्था को प्राप्त हुप्रा ।।१०।।
तदनन्सर बुद्धि और तीक्ष्ण प्रज्ञा से युक्त बह विवेकी अग्निवेग जैन अध्यापक को प्राप्त कर शास्त्र और शस्त्रविद्याओं में पार को प्राप्त हो गया अर्थात् दोनों विद्यानों में निपुण हो गया ॥१०६॥ जो सम्पूर्ण यौवन को प्राप्त था, बुद्धिमान था, मुकुट आदि से विभूषित था, जिनभक्त था, सदाचारी था, शान्त था, रूपवार था, अहंकार से रहित था, शुभ अभिप्राय वाला था, विचारश था, मन्दमोह था, दयालु था, निकट संसारी था, धर्म में अनुरक्त था, प्रात्मीयजनों को प्रिय था और सुन्दर शरीर का धारक था ऐसा वह कुमार अपने सहज गुणों से तथा विवेक प्रावि से होने वाले अन्य गुणों से इस लोक में लौकान्तिक देव के समान सुशोभित हो रहा था ॥१०७-१०६॥
इस प्रकार जो स्वजन और परजनों को प्रतिशय प्रिय था तथा जिसका शरीर कामदेव के समान सुन्दर था ऐसा अग्निवेग, पुण्योदय से कुमार काल को विभूति को प्राप्त कर तथा हृदय में उत्कृष्ट जैन धर्म को धारण कर अपने योग्य नाना प्रकार के समस्त सुक्षों का उपभोग करता था ॥ ११० ॥ यह अग्निवेग पूर्वभव में धर्म से देवगति सम्बन्धी