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* तृतीय सगं . तत्रोपपादशिलायां यौवनं घटिकाद्वपात् । संपूर्ण प्राप्य तच्छय्याया उत्थाय विभूषितः ।।६७॥ दियो विमानदेव्यादीन सैन्यर्थीन् स्वप्नवत्तदा । वृष्ट्वा विस्मयमापन्नोऽवधिज्ञानमवाप सः ।।६८।। सेन शारवाखिल पूर्वजन्मवृत्तफलं महत् । संभव स्वस्य स्वर्गेऽस्मिन् धर्म रक्तोऽभवसराम् ।।६।। दतो जिनालयं गत्वा स्वपरीवारवेष्टितः । चकार जिनबिम्बानां महापूजां स भक्तितः । ७०।। दिव्यजलः सुगन्धविलेपमेश्य बराक्षतैः । मुक्ताफलमयश्चारुपुष्पैः कल्पद्र मोद्भवः ।।७।। सुधापिण्डजनैवेद्य रत्नदीपस्तमोपहः । धूपैः फलोत्तमैः सारस्तत्पदाय सुभप्रदैः ।।७२।। गीतमानश्च याविनर्सनैरप्सर:प्रजः ।महोत्सवं जिनेन्द्राणां सोऽकरोत्तर संमुदा ।।७३|| ज्यपाद स विविधामचर्चा मेरुनन्दीश्वरादिषु । मन्वहं जिनमूर्तीनां भूत्या तइभूतयेऽभरः ।।७४॥ गर्भादिपञ्चकल्याण के जिनेश महामहम् । तनोति परया भक्त्या तद्विभूत्यै शुभार्गवम् ॥७॥ उपसर्ग समताभाव से सहन किया । अन्त में पूर्ण प्रयस्त से धर्म्यध्यान पूर्वक प्रारणों का परित्याग कर वे अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में पुण्योदय से महान ऋद्धियों को धारण करने वाले विद्युत्प्रभ नाम के देव हुए ॥६४-६६।। वहाँ उपपाद शिला पर दो घड़ी में पूर्ण यौवन प्राप्त कर प्राभूषणों से विभूषित हुआ वह देव उपपाद शय्या से उठा और विशात्रों विमान देवी प्रादि विभूति तथा सैनिक सम्पत्ति को देखकर प्राश्चर्य को प्राप्त हुमा । उस समय उसे ऐसा जान पड़ता था कि क्या मैं स्वप्न देख रहा है। इसी के मध्य उसे अवधि जान प्राप्त हो गया उस अवधि ज्ञान से उसने जान लिया कि यह सब पूर्वजन्म में किये हुए मेरे चारित्र का महान फल है । उसी चारित्र के फलस्वरुप मेरा इस स्वर्ग में जन्म हुमा है । यह सब जान कर बह धर्म में प्रत्यन्त अनुरक्त शुभा ॥६७-६६॥
तदनन्तर अपने परिवार के साथ जिन मन्दिर जाकर उसने भक्तिपूर्वक जिन प्रतिमानों की महापूजा को ।।७०॥ विम्य जल, सुगन्धित बन्बम, मोतियों के उत्तम प्रक्षत, कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए सुन्दर पुष्प, अमृत के पिण्ड से उत्पन्न नैवेद्य, अन्धकार को नष्ट करने वाले रस्न वीप, धूप, और सारभूत उत्तम फलों से उसने जिनप्रतिमाओं की पूजा की थी। साथ ही जिनेन्द्र भगवान का पद प्राप्त करने के लिये शुभभावों को वेने वाले पीप्तगान, वावित्र और प्रप्सराओं के नृत्य प्रादि के द्वारा उसने बड़े हर्ष से जिनेन्द्र भगवान का महोत्सव किया ।।७१-७३॥ वह देव मेरु तथा नन्दीश्वर प्रावि द्वीपों में प्रतिदिन जिन प्रतिमाओं की नाना प्रकार की पूजा बड़े वैभव के साथ उनकी विभूति-अष्ट प्रातिहार्य रूप विभूति की प्राप्ति के लिये किया करता था ।।७४॥ वह तीर्थकरों के गर्भ प्रावि पञ्च कल्याणकों के समय उनकी विभूति प्राप्त करने के लिये बड़ी भक्ति से पुण्य के सागर स्वरूप १. शुभमागरण।