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* श्री पार्श्वनाथ चरित
सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तमहाफलकरं परम् । निःप्रमादेन सिद्धयं स ध्यायत्येव निरन्तरम् ।। ५६ ।। चिदानन्दमयं शुद्ध मन्तगुण सागरम् । महाशर्ममयं सिद्धसमानं स्वोपमातिगम् ||५७॥ स्वात्मानं स हृा विश्य ध्यायत्याशु मुक्तिदम् । नं हित्वा खिलसंकल्पात् शुक्लध्यानाय शान्तधीः | ५० इत्यादीनि सर्पास्येव द्विषड्भेदानि' सिद्धये । करोत्येवानिशं श्रीमान् सर्वशक्य प्रयत्नतः ।। ५६ ।। एकाकी बिहरजानायामदेशान वाटतीम् सिवद्दरिगिद्विगुहां प्राप्तोऽतिनिर्भयः ॥ ६॥
दषतत्र योगं * मनोवाक्कायरोपम् । निश्वाङ्ग विषायक रेनो ध्यानसिद्धये ॥ ६१ ॥ अथ कुकुंटसर्पः प्राक्ततो मुक्त्वा सुखं महत्। निर्गत्य नरकात्तत्र बभूबाजगरोऽशुभात् ।। ६२ ।। निगीर्णो सुनिनाथोऽसौ तेनालोक्यातिकोपिना पूर्वजन्मादिवरेण पापिना स्वगामिना ।। ६३॥ तथा संन्यासमादामाश्वाराध्याराधनाः शुभाः । मनो निधाय तीर्थेशपादाब्जे धर्मवासियम् || ६४ सहित्वा तत्कृतं घोरमुपसर्ग समाधिना । धध्यानेन म त्यक्त्वा प्रारणान्सर्व प्रयत्नतः ।।६५ । बभूवाच्युतकल्पस्थे विमाने पुष्कराभिधे विद्युत्प्रभा भिषो देवः पुण्यपाकान्महद्धिकः ||६६ ||
प्रकार का है। यह धर्मध्यान महान पुण्य बन्ध का कारण है, सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त महाफल को करने वाला है तथा उत्कृष्ट है। ये मुनिराज मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर प्रमाद रहित होकर इसी का ध्यान करते थे ।। ५५-५६ ।। जो ज्ञानानन्द से तन्मय है, शुद्ध है, अनन्त गुरंगों का सागर है, महासुखमय है, सिद्ध के समान है, अपनी उपमा से रहित है, तथा शीघ्र ही मुक्ति को देने वाला है ऐसा स्वकीय शुद्ध आत्मा है । शान्त बुद्धि से युक्त वे मुमिराज शुक्लध्यान के लिये समस्त संकल्प विकल्पों का त्याग कर हृदय से निरन्नर उसी स्वकीय शुद्धात्मा का ध्यान करते थे ।। ५७-५८ ।। इत्यादि बारह तपों को वे बुद्धिमान सुनिराज मुक्ति प्राप्ति के लिये निरन्तर सर्वशक्य प्रयत्नों से करते थे ॥ ५६ ॥
सिंह के समान प्रत्यन्त निर्भय रहने वाले थे मुनिराज एक बार नाना ग्राम देश और बोहर पटवियों में प्रकेले विहार करते हुए पर्वत की गुहा में पहुंचे ||६०। वहां उन्होंने शरीर को निश्चल कर ध्यान की सिद्धि के लिये मन बचन काय के निरोध से युक्त तथा पापों को नष्ट करने वाला उत्कृष्ट प्रतिमायोग धारण कर लिया || ६१ ||
तदनन्तर पहले का कुर्कुट सर्प बहुत भारी दुःख भोगकर नरक से निकला और पापोदय से उसी गुहा में अजगर हुआ ।। ६२ ।। देखते ही पूर्वजन्म के और से जिसका कोष प्रबल हो गया है ऐसे उस पापी नरकगामी अजगर ने उन मुनिराज को निगल लिया । ६३॥ उस समय संन्यास लेकर मुनिराज ने शुभ प्राराधनाओं की प्राराधना को धर्म से सुवासित अपना मन जिनेन्द्र देव के चरण कमलों में लगाया, और अजगर के द्वारा किया हुआ घोर १. द्वादणभेदानि ।