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* तृतीय सर्ग *
[ ३१ यदेव जायते दोषो बतानां कर्मगौरवात् । निःप्रमादोऽपि तच्छुवर्ष प्रायश्चित्त व्यधात्तदा ।।४६।। । ज्ञानदर्शन चारित्रतपसां तदता यतिः । त्रिशुद्धया विनयं कुर्याद गुरूणां गुणशालिनाम्।।४।। प्राचार्यादिमनोज्ञान्तानां विषयसुगुणात्मनाम् । तनोति दशधा वैशावृत्त्यं सोऽनन्तशक्तये ।।४।। पाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मदेशनाः । करोत्यक्षमनः शान्त्यै मोक्षाध्यवर्तनाय सः ।।६।। पक्षमासादिवर्षान्तं व्युत्सर्ग सोऽकरोद्यमी' । कायादी ममता त्यक्त्वा धैर्यशाली स्वमुक्तये ।।५।। पनिष्टेष्ट-प्रसंयोग-वियोग-जनितं नित नीति -निदानोमानं तुर्विधम् ।।५।। तिर्यग्गतिकरं पापाकरं सोऽनर्थ मन्दिरम् । ध्यायत्यत्र न स्वप्नेऽपि धर्मशुक्लादितत्परः ।। ५२।। सस्वहिंसानृतस्तेयानन्दास्यं पापसागरम् । पोरं विषयसंरक्षणाभिधं एवभ्रकारणम् ।। ५३।। शुमध्यानासिना हन्याद्रौद्रध्यानमहारिपुम् । चतुर्धा सोऽघभोतारमा प्रागेवारमसुषाप्तये ।।५४।। पाशापाय-विपाकाल्प-संस्थानविचयाभिधम् । धम्यंध्यानं चतुर्भेदं महापुण्यनिबन्धनम् ।।५५।।
कर्मोदय की गुरुता से जब भी उनके व्रतों में कोई दोष लगता था तो वे उसी समय उसको शुद्धि के लिये प्रमाद रहित होकर प्रायश्चित्त करते थे ॥४६॥ वे सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यषचारित्र और सम्यक् तप तथा इनसे युक्त गुरगशाली गुरुषों की त्रिशुद्धिपूर्वक बिनय करते थे ।।४७।। वे अनन्तवीर्य की प्राप्ति के लिये समस्त गुणों से युक्त प्राचार्य उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गरग, कुल, सङ्घ, साधु और मनोज्ञ, इन वश प्रकार के मुनियों की पेयावृत्य-सेवा करते थे ॥४८॥ वे मुनिराज इन्द्रिय और मन की शान्ति तथा मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिये वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, प्राम्नाय और धर्मोपदेश, इन पांच प्रकार के स्वाध्यायों को करते थे ।।४६।। वे धैर्यशाली मुनिराज अपनी मुक्ति के लिये शरीर प्रादि में ममता भाव छोड़कर पक्ष, मास तथा वर्ष पर्यन्त व्युत्सर्ग तप करते थे।॥५०॥
अनिष्ट-संयोगज, इष्टवियोगज, वेदनाजन्य और निदानज के भेव से प्रार्तध्यान चार प्रकार का है । यह प्रार्तध्यान तियंचगति का बन्ध करने वाला है, पाप की खान है तथा समस्त प्रनयों का घर है । पय॑ध्यान और शुक्लध्यान में तत्पर रहने वाले वे मुनिराज कहीं स्वप्न में भी इस मार्तध्यान का चिन्तन नहीं करते थे ।।५१-५२॥ जीवहिसा. नन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और विषयसंरक्षणानन्द के भेद से रौद्रध्यान चार प्रकार का हैं । यह रौद्रध्यान पाप का सागर है, भयंकर है, और नरक का कारण है। जिनकी आत्मा पाप से भयभीत है ऐसे उन मुनिराज ने प्रात्मसुधा की प्राप्ति के लिये इस चार प्रकार के रोज प्यानरूपी महाशत्रु को शुभध्यानरूपी खड्ग के द्वारा पहले ही नष्टकर दिया था ॥५३-५४। प्राजादिचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के भेद से धर्म्यध्यान धार
१. मुनिः ।