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* तृतीय सर्ग *
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सुबालं यावदवृद्धानां यमो नयनि स्वान्तिकम् । स्वेच्छया यदि नादेया कि दीक्षा तरुणैस्तदा ||२८|| वृद्धत्वेऽतिभरात् कार्यं तपो दानं यमादि च । बालत्वे नेति वेत्तारो यान्त्यहो यमग्रासताम् ।।२६। वासुपूज्यादितीर्थेशा: कौमारपदभूषिताः । प्राक्तनास्तपसा हत्वा कर्माण्यापुः परं पदम् ||३०॥ विलिप्य कर्दमेनाङ्ग कुर्यात्कः क्षालनं बुधः । यथातथाजयित्वाचं भोगैः कोऽत्र क्षिपेत्पुनः ।। ३१ ।। यदि नार्यादि संगृह्य पुनरन्ते विसर्जनम् । स्यातस्माद्धीमतां तस्याग्रहणं घोत्तमं भुवि ||३२|| ततोऽवश्यं मयादेयं दूतपूर्वं तपोऽनधम् । हत्वा मोहभट कामशत्रु जित्वा मुक्तये ।। ३३ ।। fore का प्रातः सादिकान्तरे । यश्विन्तस्तपोऽत्रेति वैराग्यं द्विगुणं भवेत् ३४ || ततो बाह्यान्तरं सङ्ग ं त्यक्त्वा दीक्षां सुखाकराम् । प्राददो मुनिवाक्येन मुक्त्यै मुक्तिसखीं पराम् ||३५||
जब बालक से लेकर वृद्धों तक सभी को यमराज स्वेच्छा से अपने समीप ले जाता है सब तरुण मनुष्यों को वीक्षा क्यों नहीं लेना चाहिये ? ||२८|| तप, दान और संयम प्रावि कार्य वृद्धावस्था में अत्यधिक करना चाहिये, बाल अवस्था में नहीं, ऐसा जानने वाले मनुष्य यमराज की प्रासता को मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । भावार्थ- ' तपश्वरण प्रावि कार्य वृद्धावस्था आने पर करेंगे' ऐसा विचार करते करते ही मनुष्यों को मृत्यु हो जाती है, वे कुछकर नहीं पाते ||२६|| पूर्वकाल में हुए वासुपूज्य श्रादि तीर्थंकर कुमार पद से विभूषित रहते ही तप के द्वारा कर्मों को नष्ट कर परम पद को प्राप्त हुए हैं। भावार्थ- वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और बर्द्धमान इन पांच तीर्थंकरों ने गृहस्थी में प्रवेश नहीं किया । कुमार अवस्था में ही दीक्षा लेकर कर्म शत्रुत्रों को नष्ट किया तथा मोक्षपद प्राप्त किया ||३०|| जिस प्रकार ऐसा कौन विद्वान् होगा जो कीचड़ से अपने शरीर को लिप्स कर पश्चात् उसका प्रक्षालन करे ? इसी प्रकार ऐसा कौन विवेकी होगा जो भोगों के द्वारा पाप का संचय कर पश्चात् उसे नष्ट करे ? ।। ३१ ।। यदि स्त्री प्रादि को ग्रहण कर प्रन्त में उसे छोड़ना पड़ता है तो बुद्धिमानों को पृथिवी पर उसका ग्रहण नहीं करना ही उत्तम है ।। ३२ । । इसलिये मोक्ष प्राप्त करने के लिये मुझे अवश्य ही मोहरूपी योद्धा और कामरूपी शत्रु को शीघ्र ही जीतकर चारित्र पूर्वक निर्मल तप ग्रहण करना चाहिये ||३३|| जो ऐसा विचार करता रहता है कि मैं श्राज प्रातः प्रथवा पक्ष या एक माह के भीतर तपश्चरण करूंगा उसका वैराग्य द्विगुणित हो जाता है ||३४||
तदनन्तर कुमार अग्निवेग ते मुनिराज के कहने से आह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर मुक्ति की प्राप्ति के लिए उसकी सखीस्वरूप, सुख की खान, उत्तम दीक्षा ले ली । ३५। दीक्षा लेने के पश्चात् यह महाबुद्धिमान किसी प्रमाद के बिना श्री गुरु के मुखारविन्द से
१ मृत्युम् ।