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* तृतीय सर्ग *
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लौकान्तिकपदं शपदं रत्न निष्यादिसंपूर्णां मन्त्रेण वाकृष्टा बन्धु महामित्रः
देवनमस्कृतम् । धर्मात्सर्वार्थसिद्धिश्च सतां संपद्यते क्षणात् ॥ ६ ॥ षट्खण्डपृथिवी भवाम् । चक्रवतिप्रजां भूर्ति नभन्ते धर्मिणो वृषात् ।। १० ।। सुश्रीर्लोकत्रयोद्भवा । घोमतां वशमायाति गृहदासीव शर्मदा ।। ११ ।।
धर्मो
पापक्षयकरः । मोक्षदाता सुखाब्धिश्व सहगामी जगद्धितः । ११२ ।। तिम स्वास्ति तस्य चिन्तामणिः करे । कल्पद्रमो गृहद्वारे कामधेनुइन किङ्करी ।।१३।। Made विना भोज्यं श्रीदर्शनेन विना क्वचित् । शोलाहते नरो नारो विद्वानुपशमं विना ।। १४ । धर्मोदयां विना लोके संयमेन बिना यमी । भ्राजते न यथा तद्वत् सतामायुषं बिना ।।१५। जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया निर्गन्धकुसुमोपमाः । धर्मवन्तो मृता मर्त्या प्रत्रामुत्र च जीविताः ।। १६ ।। जीवितन्येन तेनाथ किं साध्यं पापवर्तिना । येन न क्रियते धर्मा हत्या श्रेयः सुस्वार्णवः ॥ १७ धन्यास्त एवं लोकेऽस्मिन् में सर्वत्र मुक्त् कुर्वन्त्यहो सदा |१६|
सर्वथा एक
ही प्राप्त कर लेते हैं ||८|| धर्म से सत्पुरुषों को लौकान्तिक देवों का पद, देवों के द्वारा नमस्कृत इन्द्र का पर और सर्वार्थसिद्धि क्षरणभर में प्राप्त हो जाती है ||६|| धर्मात्मा जन धर्म से चौदह रत्न और मौ निधियों प्रादि से परिपूर्ण, षट्ण्ड पृथिवी में होने वाली aran की विभूति को प्राप्त होते हैं ॥१०॥ तीनों लोकों में उत्पन्न, सुखदायक उत्तम लक्ष्मी, धर्मरूपी मन्त्र के द्वारा आकृष्ट हुई गृहदासी के समान बुद्धिमानों के वश को प्राप्त होती है || ११ || धर्म ही बन्धु है, महा मित्र है, पापरूप शत्रु का क्षय करने वाला है, मोक्ष को देने वाला है, सुख का सागर है, साथ जाने वाला है तथा जगत् का हितकारी है | १२ | इस लोक में मुनिधर्म जिसके पास है चिन्तामणि रत्न उसके हाथ में है, कल्पवृक्ष उसके घर द्वार पर है और कामधेनु उसकी किङ्करी है ||१३|| जिस प्रकार नमक के बिना भोजन, दान के बिना लक्ष्मी, शील के बिना नर नारी, शान्तभाव के बिना विद्वान्, aur के बिना धर्म और संयम के बिना मुनि, लोक में कहीं सुशोभित नहीं होता उसी प्रकार धर्म के fart सत्पुरुषों की श्रायु सुशोभित नहीं होती ॥१४- १५॥ गन्ध रहित फूलों के समान धर्महीन मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृत हैं और धर्मसहित मनुष्य मर कर भी इस लोक तथा परलोक में जीवित जानने के योग्य हैं ।। १६ ।। यहां पाप में प्रवर्तने वाले उस जीवन से क्या साध्य है जिसके द्वारा प्रक्षेय-कल्याण को नष्ट कर सुख का सागर स्वरूप धर्म नहीं किया जाता है। भावार्थ- वही जीवन सफल है जिसमें पाप से निवृत होकर सुखदायक धर्म की प्राराधना की जाती है ||१७|| श्रहो ! इस लोक में वे ही धन्य हैं जो सब जगह सब प्रकार से मुक्ति के लिये एक मुनि धर्म का यत्नपूर्वक सवा प्राचररण
१२. हत्वा श्रेय इति कल्याण दुरीकृत्येत्यथे ३ मुनिवमं ।