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*श्री पारवनाय धरित मतोऽप्रमादयोगेन द्वादशाङ्गश्रुताम्बुधः । पारं सोऽगान्महाबुद्धिः श्रीगुरोवंदनाम्बुजात् ॥३६॥ करोति प्रत्यहं सर्वतोभद्रादि तपोविधान् । पक्षमासोपवासादोन्मुनीन्द्रः कर्महानये ।।३७।। एकग्रासादिमादत्त ऽवमोदर्याय स क्वरित । वाहारे वृत्तिसंख्याय प्रतिज्ञा इत्यरादिभिः ।।३।। प्राचाम्लनिविकृत्यादीन् क्वचित्कुर्यान्मुनीश्वरः । रसत्यागाय दुर्दान्तेन्द्रियारिदमनाय च ||३६।। प्रमशाने गिरिशून्यागारे वृक्षकोट रादिषु । बनेषु स्यादिहीनेषु । गच्छर नासम् ।४।। प्राददे वृक्षमूलेऽसौ प्रावृट्कालेऽहिसंकुले' | कायोत्सर्ग सदैवोन शीतझझा मरुद्धते ।।४।। म्युत्सर्ग' विदधे शीतकाले दग्धयने मुनिः । भूत्वा काष्ठोपमो मुक्त्यं चत्वरे भोकभीतिदे ।।४२।। उग्ररश्म्योपसंतप्ते तुङ्गाद्रघरशिलातले । उष्णाकालेऽघघाताय सोऽस्थाद्भानुप्रसन्मखः ।।४३।। भूत प्रेतादिघसंसेव्ये श्मशानेऽतिभयङ्करे । सोऽधाद्ध सर्गमेकाको वने व्याघ्रादिसंकुले।।४४।। इत्यादि-विदिघं घीमान् कायक्लेशं भजेत्सदा । कायशर्मातिगो' धीर: सो कायपद सिद्धये।।४५।।
अध्ययन कर द्वादशाङ्गश्रत रूपी सागर के पार को प्राप्त हो गया।॥३६॥ मुनिराज अग्निवेग कर्मों का क्षय करने के लिये प्रतिदिन सर्वतोभद्र प्रादि तप के भेदों को तथा पक्ष और मास प्रादि के उपवासों को करने लगे ।।३७॥ अवमोवयं सप के लिये वे कहीं एक ग्रास प्रादि को लेने लगे और वृत्तिपरिसंस्थान तप के लिये पाहार के समय चौराहे प्रादि की प्रतिज्ञा करने लगे ॥३८॥ मुनिराज कहीं रस परित्याग तप के लिये प्रौर इन्द्रियरूपी प्रबल शत्रुनों का दमन करने के लिये प्राचाम्ल अथवा निविकृति पाहार प्रादि का नियम करने खगे ।।३६।। विविक्त शय्यासन तप के लिये वे श्मशान, पर्वत को गृहानों, वृक्ष को कोटरों तथा स्त्री प्रावि से रहित बनों में शयनासन करने लगे ॥४०॥ कायक्लेश तप की साधना के लिए वे सदा सपों की प्रचुरता से युक्त तथा ठण्डी झञ्झा वायु से उसत वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे पाप को नष्ट करने वाला कायोत्सर्ग ग्रहण करते थे ॥४१॥ जिसमें सुषार से वन दग्ध हो गये हैं ऐसे शीतकाल में वे मुक्ति प्राप्ति के लिये काष्ठ के समान होकर भीहफायर मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाले चौराहे प्रादि स्थानों पर कायोत्सर्ग करते थे ॥४२॥ और ग्रीष्मकाल में वे पापों का क्षय करने के लिये सूर्य के सन्मुख होकर तीक्ष्ण किरणों के समूह से संतप्त चे पर्वत के अग्रभाग पर स्थित शिला तल पर प्रारूत होते थे ॥४३॥ भूत प्रेत प्रादि से सेवनीय अत्यन्त भयंकर श्मशान में तथा व्याघ्र प्रादि से भरे हुए वन में थे अकेले ही व्युत्सर्ग तप थे ।।४४।। इस प्रकार शरीर सम्बन्धी सुख से दूर रहने वाले के बुद्धिमान धीर दीर मुनिराज मोक्षपद की सिद्धि के लिये सबा नाना प्रकार का कायपलेश तप करते थे ॥४५॥
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---- - - -- समूह-संतप्त ४. शारीरिममुख नि स्पहः ५. मोक्षपदप्रातये ।
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- .... -... १ सर्पमाप्ते : गापा
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सेवा-वि