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दुसरा सर्ग। [१९ रक्त नहीं होता ॥८॥ इस प्रकार नवीन और अनुपम सुखके अद्वितीय साधक त्रिवर्गका अविरोधेन सेवन करते हुए इस विवेकी नंदिवर्धनके कितने ही वर्ष बीत गए। यह राना साधुओंके विषयमं मसरमाव नहीं रखता था ॥॥
एक दिन यह राना (नंदिवर्धन) अपनी प्रियाके साथ अपने उन्नत महलके ऊपर बैठा था । उसी समय इसने एक धवल मेघको देखा, जिसमें कि चित्र विचित्र कूट बने हुए थे, और जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों समुद्रका नवीन फनमंडल ही है ॥१०॥ निस समय यह राना उस मेत्रको आश्चर्यक साय देख रहा था उसी क्षणमें वह अभ्र (बड़ामारी) मेघ आकाशमें ही लीन हो गया । स्वयं लीन हो गया परन्तु नंदीवर्धनको यह बात दिखा गया कि यह शरीर, चय, नीवित, रूप और संपत्ति सब अनित्य हैं ॥११॥ मेत्रक विनाश= विभ्रमसे इतनी शीघ्रताके साथ मेवका विनाश होता हुआ देखकर राजाके चित्तमें अपनी राज्य संपत्तिकी तरफसे विरक्तता उत्पन्न हो गई। उसने सपझा कि समस्त वस्तुकी स्थिति इस ही प्रकारकी है कि वह आधे क्षणके लिये रमणीय मालूम होती है। परन्तु वास्तवमें चंचल है-अनित्य है-विनश्वर है, और बहुधा जीवोंको छलनेवाली है। ऐसा समझकर वह राजा-विचारने लगा कि यह जीव उपमोगकी तूंप्णासे अनात्मीक वस्तुओंमें आसक्तिको प्राप्त हो जाता है। और इसीसे दुरंत दुःखोंके देनेवाले संसाररूपी खड्ग "पंजरके भीतर-तलवारों के बने हुएं शरीररूपी पीनरेमें हमेशाके लिये
बंध जाता है-फंस जाता है ॥१२-१३॥ जन्म मरणरूपी समुद्रमें: 'निरंतर गोते खानेवाले प्राणियोंको करोड़ों भवमें भी मनुष्य जन्मकी