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सत्रहवाँ सर्ग ..
[ २४७ 'उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रपर वृद्धियुक्त विराजमान था पुष्पोत्तर विमानसे उतर कर उस देवराजने रात्रि के समय स्वप्न में धवल गजराज के रूपसे देवीके मुखमें प्रवेश किया ॥ ४८ ॥ उसी समय अपने सिंहासनके • कंपित होनेसे इन्द्र और देवगण भी जानकर - भगवान् के गर्म कल्या
को जानकर आये और दिव्य मणिमय भूपगोंसे तथा गंधमाल्य और वस्त्रादिकसे देवीका अच्छी तरह पूजनकर अपने २ स्थानको • गये ||४९ || अपनी कांतिसे प्रकाशित कर दिया है वायु मार्गको जिन्होंने ऐसी श्री, ही, धृति, लेवणा, चला, कीर्ति, लक्ष्मी और सरस्वती ये देवियां इन्द्रकी आज्ञानुसारं विकशित हर्षके साथ प्रियकारिणी - त्रिशला के निकट आकर उपस्थित हुई ॥ ५० ॥ इन - देवियोंने प्रियकारिणी के यथोचित स्थानों में हर्षसे इस प्रकार निवास -क्रिया 'लक्ष्मीने मुखमें, धृतिने हृदय में, उवणाने तेजमें, कीर्तिने गुणों में, बलाने बलमें, श्रीने महत्व में, सरस्वतीने वचनमें, और लज्जाने दोनों नेत्रों में निवास किया ॥ ११ ॥ जगत् के लिये - जग
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तुको प्रकाशित करनेके लिये अथवा जगत् में अद्वितीय चक्षुके समान
तीन निर्मल ज्ञानोंने माता के उस गर्मस्थित बालकको भी बिल्कुल न छोड़ा | उदयाचलकी तटी - तलहटीरूप विशाल कुक्षिमें स्थित सूर्यको रुचिर- मनोज्ञ तेज क्या घेरे नहीं रहता है ? ॥५२॥ मलोंसे विल्कुल अलिप्त है कोमल अंग जिपका ऐसे उस बालक ने गर्ममें निवास करनेका या निवास करने से कुछ भी दुःख न पाया । सरो-घरके जलके भीतर मग्नं किंतु कीचके लेपसे रहिन मुकुलित पद्मकों ..क्या कुछ भी खेद होता है ? ॥ ५३ ॥ उसी समय उस मृगनयिनीके पीन और उन्नत तथा कनक कुम्भके समान दोनों रत्नोंके
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