________________
सत्रहवाँ सर्ग :
[२५७ मुक्तिका उपदेश किनंतरह दे सकते हैं ? ॥ १०७ ॥ तपके द्वारा समस्त घातिकर्मेकी प्रकृतियोंको दूर- नष्ट कर केवलज्ञानको प्राप्त कर संसारवास के व्यसन से भयभीत हो गया है चित्त जिनका ऐसे
प्राणियोंको मुक्तिका उपाय बताकर आप प्रतिबोधित करो ॥ १०८ ॥ इस प्रकार कालोचित बचनों को कह कर लौकांतिक देवगणने विराम लिया और मगवानने भी मुक्ति के लिये निश्चय किया । वचन अपने अवसर पर ही तो सिद्ध होता है ॥ १०९ ॥ उसी समय चतुर्निकायके चारों प्रकारके देवगणोंने शीघ्र ही कुंडलपुर में दर्शन के कौतुकसे निमेवरहित नगरकी स्त्रियोंको मानों अपनी 'वधुओं - देवाङ्गनाओंकी शंका ही देखा ॥ ११० ॥ विधिपूर्वक देवोंने की है महान् पूजा जिसकी और पूछ लिया है समन्धु वर्गको जिसने ऐसे वे मुमुक्षु भगवान् वनको लक्ष्यकर महलसे सात पैर तक अपने चरणोंसे चले ॥ १११ ॥ बादमें, श्रेष्ठ रत्नमयी चन्द्रमा नामकी पालकी में जिसकों कि आकाशमें स्वयं इन्होंने धारण कर रक्खा था आरूढ़ होकर भव्यननों से वेष्टित वीरनाथ नगरसे बाहर निकले ॥ ११२ ॥ नागखण्ड वनमें पहुंचकर इन्द्रोंने यान-लकीसे जिनको उतारा है ऐसे वे भगवान् अत्यंत निर्मल अपने पुण्यसमान दृश्य स्फटिक पापाण पर विराजमान हुए || ११३ ॥ उत्तर दिशा की तरफ मुख किये हुए उन भगवान्ने एक-एकाग्र चित्तसे समस्त कर्मरहित सिद्धोंको नमस्कार कर रागकी तरह प्रकट रूपमें प्रकाशमान आभरणोंके समूहको स्वतः हार्थोके द्वारा दूर कर दिया ॥ ११४ ॥ श्रीसे प्रथित हुए उन भगवान्ने वहां पर मगशिर शुक्ला दशमीको जब कि चन्द्रमा परमार्थमणि पर विराजमान था सायंकालके
१७
4
-