________________
__ अढारहवाँ सर्ग। [२७३ ॥ ७८ ॥ हे ईश! प्राणियोंकी भव्यता आपमें रुचि-प्रीति
(सम्यग्दर्शन ) को उत्पन्न करती है। प्रीति सम्यग्ज्ञानको, : सम्यग्ज्ञान तपको, तप समस्त कर्माके क्षयको, और वह क्षय
अष्टगुणविशिष्ट अनंत सुखरूप मोक्षको उत्पन्न करता है ।। ७९ ।। हैं जिनेश्वर ! विना रंगे ही रक्क, वित्रम-विलासकी स्थितिसे रहित होने पर मी मनोज्ञ, विना धोये ही अत्यंत निर्मल ऐसे "आपके चरणयुगल. नमस्कार करनेवाले मुझको सदा प्रशमकी वृद्धि करो॥८० ॥ इस प्रकार मैंने किया है नमस्कार जिसको, तथा सघन घाति ककि निर्मूल कर देनेसे उत्पन्न हुए अतिशय ऋद्धिस युक्त भक्क आर्य पुरुषोंको आनन्दित करनेवाले, तीन भुवनके अधि. पति आप जिनभगवान्में, हे वीर ! मेरी एकांत भक्ति सदा स्थिर रहो।। ८१.। इस प्रकार जिन भगवान्की अच्छी तरहसे या बहुत देर तक स्तुति करके अनेकवार प्रणाम करनेसे नम्र हुए मुकुटको वाम हाथसें अपने स्थानार (शिरपर) रखते हुए बार बार वंदना
कर इन्द्रने इस प्रकार प्रश्न किया । ८२॥ . . .यह लोक किस प्रकारसे स्थित है ! और वह कितना बड़ा है ! तत्व कौन कौनसे हैं ! जीवका वध किस तरहसे होता है। और वह किसके साथ होता है ? अनादिनिधनकी मोक्ष किम तरह हो जाती है। वस्तुस्थिति कैसी हैं ! सो हे नाथ! आप अपनी दिव्य वाणीके द्वारा समझाइए ॥ ८३ ॥ इम प्रकार प्रश्न करनेवाले इन्द्रको वीर जिनेन्द्रने भन्योंको मोक्षके मार्गमें स्थापित करने के लिये जीवादिक पदार्थों (नव पदार्थो) और तत्वों (सात तत्वों) को या जी. वोदिक पदार्थोके स्वरूपा यथावत् उपदेश कर इस प्रकार-निम्नलि.