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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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"दिगंबर जैन ग्रन्थमाला" नं. ४७. नमः श्री वर्द्धमानाय। ।
श्री अशग कवि कृत। महावीर चरित्र।
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|| सभी मानापर अनुवाद अनूनामा. पं० खूबचंदजी
- संपादक, 'सत्यवादी-बम्बई।
একাদ
मूलचन्द किसनदास कापड़िया-सरला
। 'प्रथमावृत्ति ] , घोर सं० २४४४.
[प्रति २२...
मूल्य रु.१-८-..
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AAS.
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मुद्रक:
मूलचन्द किसनदास कापड़िया, " जैनविजय " प्रिंटिंग प्रेस, रूपाटिया चला, सूरत ।
赊
प्रकाशक:
मूलचन्द्र किसनदास कापड़िया,
चंदावाडी, सूरत।
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अपने अनिम तीर्थकर श्रीमहावीरम्वामीका जीवनचरित्र 'प्रकट होनेकी अतीव आवश्यक्ता श्री जिसके लिए करीब तीन वर्ष हा हमारे पूज्य मित्रवर पं० पन्नालालनी वाकलीवालसे यातालाप करतेसमय हमें सम्मति-मिली थी कि श्री महावीरपुराणमातमें म. संकलकीर्ति रुत है और एक दूसरा महावीरचरित्र अशगकवि रत है जो बम्बईक मंदिरके शास्त्र भंडाग्में है निममें अशग कवि, कृत महावीर चरित्रकी रचना उत्तम है इसलिए इसका अनुक्द प्रकट करना चाहिए । इमपरमे हमने 'मृत्यबादी मासिकके मुयोग्य संपादक और स्वर्गीय न्यायवाचस्पति वादिगनगरी पं० गोपालदासनी बरेयाके शिष्य पं० ग्वचंदनी शास्त्राने इस महावीर चरित्रका अनुवाद कराना प्रारंभ किया परंतु आपको अनुवाद करते देखकर इनके सहयोगी पं० मनोहरलाल शास्त्रीका विचार हमा कि पं० खुवचंदजी तो यह कार्य धीरे धीरे करेंगे परंतु में यदि भ० सालकीर्तिलत महावीरपुराणका अनुवाद शीय ही तयार करके प्रकट कर दूं तो अच्छी विक्री हो जायगी आदि। बस, उन्होंने ऐसा ही किया और श्री महावीरपुराणका अनुवाद प्रकट कर दिया जो करीब दो वर्षसे बिक रहा है।
अब हमारा इरादा तो यही था और है भी कि किसी भी
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[४] प्रकारसे इसका खूब प्रचार होना चाहिए. इसलिये देर होनानेपर भी हमने तो इस अशग कवि कृत महावीरचरित्र प्रकट करनेके निश्चयको नहीं छोड़ा और कुछ कोशिश करनेपर इन्दौर निवासी ख० ब० दानवीर सेठ कल्याणमलजी साहबने अपनी स्वर्गवासिनी मातेश्वरी श्रीमती फलीवाईके स्मरणार्थ ६१०००) का दान किया था, जिसमें ५००) शास्त्रदानके थे उसमें १००) बढ़वाकर ६००)., करवाये और उसमें से इस महावीर चरित्रको 'दिगंबर जैन के ग्राहकोंको उपहार स्वरूप भेंट देनेके लिए आपने स्वीकारता दी जिससे इस महावीरचरित्र जैसे अपूर्व ग्रन्थको हम उपहार स्वरूप प्रकट कर सके हैं । इसकी २२०० प्रतियां प्रकट की गई हैं जिसमेंसे १९०० भेटमें बटेंगी और ३०० विक्रीके लिए निकाली गई हैं।
इस ग्रन्थके मूल श्लोक भी हमने पंडित ग्यूबचंदीमे लिखवाये हैं और उसको भी साथ २ प्रकट करनेका हमाराः । इसदा था परन्तु खर्च बढ़नानेसे हम मूल श्लोक नहीं प्रकट कर सके हैं किन्तु हम इनश्लोकोको अलग प्रकट करनेकी भी कोशिश करेंगे क्योंकि इसके प्रकट होनेकी भी अतीव आवश्यकता है। . ___आजकल हमारे जैनियोंमें दान तो बहुत होते हैं. परन्तु
आदर्श दान बहुत ही कम होते हैं । रा० ब० दानवीर सेठ कल्याणमलजीने अपनी पूज्य मातेश्वरी श्रीमती फूलीबाईके स्मरणार्थ ६१०००) का जो दान किया है वह आदर्श. दान है और वह अन्य श्रीमानोंको अनुकरणीय है इसलिए श्रीमती फूलीबाईका
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[५] संक्षिप्त जीवनचरित्र (चित्र सहित) और ६१०००) के दानकी -सूची भी प्रथम दी गई है।
करीब ८ वर्षमे "दिगंबर जैन" के ग्राहकोंको हम करीब ५० पुस्तके भेटमें दे सके हैं परन्तु वे सब बहुत करके गुजरातके भाइयोंकी ही सहायतामे दे सके थे परन्तु इस बार हम हपके साथ प्रकट करने हैं कि ऐसे शास्त्रदानकी ओर अन्य प्रांतांक माइयांका भी ध्यान आकर्षित हुआ है और आशा है कि भवि'प्यमें अब शास्त्रदानके लिए हम विशेष सहायता प्राप्त कर सकेंगे । तथास्तु ।
जनजातिमेवकवीर सं० २४४४) मूलचन्द किसनदास कापड़िया, आवण नदी
प्रकाशक।
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रा० ० दानवीर सेठ कल्याणमलजी की पूज्य मातेश्वरीश्रीमती फूलीबाईका संक्षिप्त
जीवनचरित्र |
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यां तो न जाने कितने प्राणी इस अपार संमारमें जीने Weeeeeeeeeeee-acr
और मरते हैं परन्तु जिनका जीवन आदर्श जीवन है, जिनके जीवनसे संसारको कुछ लाभ पहुंचता है उन्हींका जीवन यथार्थ जीवन गिना जाता है और उन्हींसे यह संमार सुशोभित होता है।
प्रिय पाठकगण ! आप लोग जिनकी दिव्य मूर्ति इस पुस्तकमें देख रहे हैं उनका जीवन ऐसे ही जीवनमें गिनने योग्य है। आज हम आप लोगों को उन्हींका परिचय देना चाहते हैं ।
भारतवर्षकी प्रधान ऐतिहासिक और प्राचीन नगरी उज्जयनी नगरी है । यही नगरी आपका जन्म स्थान है । आपके पूज्य पिताका नाम मेठ सांवतराम था, आप बड़े ही व्यापार चतुर मनुष्य थे "आपके दो संतान थीं- पहिली संतान सेठ सेवारामजी और दूसरी संतान हमारी चरित्र नायिका श्रीमती फूलीबाई ।
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[<]
फूलीबाईका जन्म आषाढ़ वदि २ सं० १९११ को हुआ या । आपका स्वभाव बचपनसे ही मिलनसार था। यद्यपि बचपनमें आपको किसी तरहकी शिक्षाका संबंध नहीं मिला तथापि घरके .: कामकाजमें आप बड़ी ही निपुण थीं । पाहुनगत करना आप वृत्र [ जानती थीं और आपको धर्मप्रेम भी बहुत अच्छा था ।
आपका विवाह सं० १९२१ में हुआ था। आपके विवाहकी घटना भी सुनने लायक है इसलिये संक्षेपमें लिख देना अनुचित नहीं जान पड़ता ।
रा० ब० सेठ सर हुकमचंदजी, रा० ० नेट कल्याणमलजी, रा० ब० सेठ कस्तूरचंदजीसे तो हमारे पाठकगण खूब परिचित ही हैं, इन्हीं पितामह ( बाबा ) का नाम सेट मानिकचन्दजी था। सेठ माणिकचंदजी के पांच पुत्र थे मगनीरामजी, स्वरूपचंदजी, ओंकारजी, तिलोकचंदजी और मन्नालालजी । इनमेंसे मगनीरामजी और मन्नालालजी निःसंतान ही स्वर्गवासी हुए, शेष तीनों भाइयोंक घर स्वरूपचंद, हुकमचंद, तिलोकचंद कल्याणमल और ओंकारजी कस्तूरचंद के नामसे आज भी प्रसिद्ध हैं ।
इसी प्रसिद्ध घरानेमें फूलीबाईका विवाह सेठ तिलोकचंदके साथ हुआ था। इस संसारमें बहुतसे लोग ऐसे हैं जो भाग्य व प्रारब्धको कोई चीज नहीं मानते तथापि उन्हें ऐसी अनेक घटनाएं भोगनी पड़ती हैं जिनसे लाचार होकर उन्हें भाग्य मानना ही पड़ता है। जिन दिनों फूलीबाईके विबाहका उत्सव मनाया जा रहा था उन दिनों उज्जैनमें हैजा चल रहा था।
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९]
उन दिनों सेट माणिकचंदजीका स्वर्गवास हो चुका था इसलिये सेट मगनीरामभी सेठ और स्वरूपचंदजीको ही इस उत्सव की सब तैयारी करनी पड़ी थी । ये लोग खूब धूमधाम के साथ बरात ले गये थे ।
हैजेका प्रकोप घराती और बरातियों पर भी हुआ। सबसे पहिले फूलीबाईके पिता सेट सांवतगमजीको उसने घर दवाया और ऐन विवाह के दिन उक्त सेठ साहबको वह दुष्ट लेकर निकला । यह संसारकी विचित्र लीलाका बड़ा ही अच्छा उदाहरण हैं । जहां सवेरे गीत आनंद हो रहे थे, वहीं पर दोपहर के समय हायके हाय : शब्दने आकाशको गुंजा दिया और उस उक्तवकी महा लपटें शोक रूपी महासागर में जाकर सब शांत हो गई ।
सेठ साहवका अंतिम संस्कार कर लौटनेके बाद ही फिर उत्सवकी तैयारी होने लगी । घड़ी भर पहिले जो घर रोने चिल्लानेकी आवाजसे भर रहा था, वहीं घर घड़ी भर बाद ही फिर गाजेबाजेसे भरने लगा । यद्यपि उसमें सेठ साहबके शोककी लहर बार ' चार आकर धक्का देती थी तथापि वह विवाहक्रिया बड़े धूमके साथ समाप्त की गई।
पाटगण इतने में ही भाग्यका निपटारा न कर लें । थोड़ीसी विचित्रता सुननेके लिये और धैर्य रक्खं । जिस दुष्ट "हैजेने सबसे पहिले सेठ सांवतरामजी पर वार किया था 'अब वह दुष्ट वरातमें भी आ घुसा और उसने सबसे पहिले बरराज सेठ तिलोकचन्द्रजी पर ही अपना प्रभाव नमाया ! अब तो
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' [१०]
घरात वरात दोनों जगह खलबली मच गई और सब लोगोंमें सनसनी फैल गई, परन्तु फूलीबाईका भाग्य बड़ा ही प्रबल था, उनका सौभाग्य अटल था इसलिये रोग असाध्य होनेपर भी और सब लोगोंके हताश होजाने पर वरराज सेट तिलोकचन्दजी चंगे होगये और फिर सब जगह आनन्दकी सुहावनी धूप खिल उठी। ___ इसके बाद कोई विशेष घटना नहीं हुई। फूलीबाईके भाई सेठ सेवारामजीके भी बढ़तीके दिन आये। आपने सांवतराम सेवारामके नामसे दुकान कायम की। दुकानकी बढ़ती देखकर गगलियर स्टेटकी ओरसे आप सरकारी अफीम गोदामके कारभारी बनाये गये। थोडे दिन बाद स्टेटके खजांची भी रहे और म्यूनिसिपालिटीका काम भी आपने किया। आप अब भी विद्यमान हैं। आप इस बुढ़ापेमें सब तरह सुखी हैं।
विवाहके बाद सेठ तिलोकचन्दनीने दुकानका मब काम स्वयं किया । आप व्यापारमें बड़े निपुण थे और सब भाई मिलकर सलाहके एक सूत्रसे बंधकर व्यापार करते थे। सेठतिलोकचन्दनी बड़े धर्मप्रेमी थे | आपकी इच्छा एक चैत्यालय बनवाकर उसीमें धर्मध्यान करनेकी थी। परन्तु किसी कारणसे उन्होंने फिर अपना विचार बदल दिया और अपनी धर्मपत्नी श्रीमती फूलीचाईकी खास सलाहसे उजैनके एक जीर्ण शीर्ण मंदिरके उद्धार करनेका दृढ़ संकल्प किया। आपने उसे फिरसे बनवानेकी नीव डाल दी और बनानेका काम प्रारम्भ कर दिया। .
दुःखके साथ लिखना पड़ता है कि उस मंदिरकी प्रतिष्ठा
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[११] करनेका सौभाग्य आपको प्राप्त न होसका। सं० १९५९में मंदिरकी नीव डाली थी और सम्वत् १९६०में आप स्वर्गवासी हुए।
आपने सं. १९४८में अपनी सहधर्मिणी फूलीबाईकी सलाहसे वर्तमान रा. व. सेठ कल्याणमलजीको दत्तपुत्र लिया था और कामकाज लायक पढ़ा लिखाकर व्यापारमें निपुण कर दिया था. जिसका कि फल वे आज बड़े आरामसे भोग
पूज्य पतिक वियोग होनेके बाद हमारी चरित्रनाविका फलीबाईने उजनका बनता हुआ मंदिर बहुत अच्छा सैयार कराया और सं० १९६२ में उसकी प्रतिठा अपने प्रियपुत्र राव सेठ कल्याणमलजीके हाथ से बड़ी धूमधामसे कराई। इसके बाद तुकोगेनमें बंगला बन जानेके कारण वहांभी एक छोटासा जिनमदिर बनवानेका आपका. विचार हुआ और तदनुसार एक छोटा किंतु अत्यंत सुंदर और भव्य मंदिर बनवाकर सं. १९७१ में उसकी भी प्रतिष्ठा अच्छी धूमधामसे आपने कराई।
आप स्वयं पढ़ी लिखी नहीं थी तथापि शास्त्र सुननेका । आपको बहुत शौक था।आप पुत्रियोंको पढ़ाना भी पसंद करती थीं। इसीलिये सं. १९७२ में आपने एक कन्या पाठशाला खोली जो अभी तक बराबर चल रही है और उसे सदा चलते रहनेके लिये आप उसका स्थायी प्रबंध कर गई हैं। ___यह पहिले लिखा जा चुका है कि आपने वर्तमान रा० ब० सेठ कल्याणमलजीको दत्त पुत्र लिया था। उक्त सेठजी पर आपका
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[१२]
बहुत और आदर्श प्रम था, जबतक वे रहीं तबतक सेठ कल्याणमलजीके सब खाने पीने आदिका प्रबंध वे स्वयं करती थीं। सेठ कल्याणमलनी भी उनपर बहुत प्रेम करते थे, प्रत्येक काममें उनकी आज्ञा लेते थे और उनकी आज्ञाके प्रतिकूल कोई भी काम नहीं करते थे।
इसके सिवाय रा०व० सेठ सर हुकमचंदनी तथा.रा०प० सेठ कस्तूरचंदनी पर भी उनका बहुत प्रेम था और ये लोग भी बड़ी आदरकी दृष्टिसे उन्हें देखते थे तथा प्रत्येक घरू काममें उनको सलाह लेते थे। - आपके जीवनमें सबसे बड़ी बात यह है कि जबमे आपके 'पति सेठ तिलोकचंदजीका स्वर्गवास हुआ तभीसे आपकी यह इच्छा थी कि पूज्य पतिके स्मारकमें कोई अच्छी चीज बनाई नाय, निसके लिये आप बार बार प्रेरणा करती थीं। अंतमें उनकी राय व खास प्रेरणासे ही सेठ कल्याणमलनीने अपने पूज्य पिता मेठ तिलोकचंदनीके स्मारकमें तीन लाख रुपये लगा कर तिलोकचंद नैन हाईस्कूल इंदौरमें खोल दिया है, जो इलाहाबाद यूनीवर्सिटीमे रिकग्नाइज़ होकर हाईस्कूल हो गया है।
... इधर सं० १९७३से आपका स्वास्थ्य खराब हुआ था। इंदौरके • तथा बम्बईके प्रसिद्ध प्रसिद्ध वैद्य और डाक्टरों का महीनों इलान · कराया गया। यहांके महाराजाधिराजके खास डाक्टरका भी इलान • कराया परंतु सफलता कुछ हुई नहीं तथा शरीर बराबर क्षीण
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[ १६ ]
होता गया । अंतमें वैसाख यदि ६ सं० १९७४ को शामके समय सत्रको शोकसागर में डालकर आप स्वर्गवामिनी हुई।
·
अंतमें उक्त सेठ साहबने आपके नामसे एक अच्छी धर्मशाला बना देनेका निवेदन किया था और आपने यह बात स्वीकार भी करली थी | यह काम योग्य जगह आदि सब सुभीतोंके मिल जानेपर किया जानेवाला है । इन सब कामंक मिवाय आप अंतिम समय में ६१०००) की बड़ी रकम दान कर गई हैं और उसको नीचे लिखे अनुसार बांट गई हैं:
१००००) तुकोगंजक मंदिरके ध्रुवफंडमें
. १०२२) इंदौर, उज्जैन, विजलपुर आदिके मंदिरोंमें १०१) सिद्धांत विद्यालय, मोरेना
१०१) स्याहाद महाविद्यालय, बनारस
१०१) महाविद्यालय, मथुरा
५१) ब्रह्मचर्याश्रम, हस्तनापुर
१०१) कंचनवाई श्राविकाश्रम, इंदौर ( दो वर्ष में कपड़ा
आदि देना )
६२१) शिखरजी, गिरनार, बड़वानी आदि तीर्थोंमें १०१) बम्बईके मंदिर में उपकरण
२००) मालवा प्रांतके मंदिरांमें
.५०० ) शास्त्रदान वा कोई ग्रन्थ वांटनेके लिये १०१) समाचार पत्रोंकी सहायतार्थ
३९१३) सम्बन्धियोंको
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[१४] ४४०८४) स्त्रियोंके उपयोगी अथवा और कोई उपयोगी
संस्था इन्दौरमें खोलनेके लिये । । अन्तमें हमारी भावना है कि हमारे भारतवर्षकी पृज्य - माताएं आपका अनुकरण करेंगी और इसी तरह विद्याका प्रमार · कर भारतकी उन्नति करेंगी।
अन्तमें श्री जिनेन्द्र देवसे प्रार्थना है कि आपके आत्माकी • सद्गति हो और आपके चि० रा. व० संठ कल्याणमलजी आपके
आदेशानुसार धर्मकी उन्नति करते हुए बहुत दिन तक. सुखसे रहें । इति शम् ।
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विषयानुक्रम। पहला सर्ग-'पुत्रोत्पत्ति' वर्णन । ..... .... दूसरा सर्ग-मुनिवदनाके लिए भक्तिपूर्वक गमनका वर्णन | १७ तृतीय सर्ग-मारीच विलपन' वर्णन । .... .... ३० चौथा सर्ग-'विश्वनंदी निदान' वर्णन। .... .... ४३ पांचवां सर्ग-'त्रिपिष्ट संभव' वर्णन | .... .... ५८ छठा सर्ग-'अश्वग्रीव सभा क्षोभ' वर्णन। .... सातवां सर्ग-सेना निवेशन' वर्णन । .... .... आठवाँ सर्ग-दिव्यायुधागमन' वर्णन। .... .... नववाँ सर्ग-त्रिपिष्ट विजय' वर्णन | .... .... दशां सर्ग-'बलदेव सिन्हि गमन' वर्णन। .... १३५ ग्यारहवाँ सर्ग-सिंहप्रायोपगमन' वर्णन। .... १४९ बारहवाँ मर्ग-कनकविनयकापिष्ट' वर्णन। .... १६१
तेरहवाँ मर्ग-'हरिपेण महाशुक्र गमन' वर्णन !.... १७२' • चौदहवाँ सर्ग-'प्रियमित्र चक्रवर्ति सम्भव' वर्णन। १८६
पंद्रहवाँ सर्ग-'सूर्यप्रभ संभव' वर्णन । .... ... १९४ सोलहवाँ सर्ग-नंदन पुप्पोत्तर विमान' वर्णन।.... २२८ सत्रहवाँ सर्ग-'भगवत् केवलज्ञानोत्पत्ति' वर्णन !.... २३७ अठारहवाँ सर्ग-'भगवनिर्वाणोपगमन' वर्णन ! .... २६०
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स्वर्गवासी श्रीमती फूलीबाई, पूज्य मानेश्वरी, श्रीमान् दानवीर रायबहादुर
सेठ कल्याणमलनी, इन्दौर
जन्म सं. १९११ आपाढ़ यदि २.
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'जैन विजय' प्रेस, सूरत ।
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सं. १९७४ शादि ६०
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नमः श्रीवर्द्धमानाय
श्रीमहावीरचरित्र |
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पहला सर्ग ।
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जो आस्तिक हैं- जो स्वर्ग नरक आदि परलोकको और उनके कारणभूत कर्मेको तथा कर्मोसे रहित आत्माकी अनंत ज्ञानादि विशिष्ट अवस्थाको मानते हैं, वे अपने कार्य में विघ्न आनेके अन्तरङ्ग कारणभूत अन्तरायकर्मकी अनुभाग शक्ति (विन्न उपस्थित करनेवाली फलदान शक्ति) को क्षीण करनेके लिये कार्यके प्रारंमें ही मंगलाचरण करते हैं । यद्यपि यह मङ्गलाचरण मन और कार्यके द्वारा भी हो सकता है; तथापि आगे होनेवाले शिष्ट पुरुष भी इसका आचरण करें- आगे मी मङ्गलाचरणकी अविच्छिन्न परिपाटी चली जाय इस आकांक्षाले श्री अशग कवि भी महावीर
चरित्र रचनेके प्रारम्भ में शिष्टाचारका पालन करते हुए, जगज्जीवके
लिये हितमार्ग - मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाले सर्वज्ञ वीतराग अन्तिम तीर्थकर श्री महावीर स्वामीके गुणोंका स्मरण कर कृतज्ञता प्रकट करते हैं ।
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२ ]
महावीर चरित्र ।
सम्पूर्ण तत्वोंको जाननेवाली तथा तीना लोकके तिलकके समान
अनंत श्रीको प्राप्त होनेवाले श्री सन्मति जिनेन्द्रकी में बन्दना करता 1 जो कि उज्ज्वल उपदेशके देनेवाले हैं, और मोहरूप तद्वाके नष्ट करनेवाले हैं । भावार्थ - श्री दो प्रकारकी होती है- एक अंतरङ्ग दूसरी वाह्य । अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनंतपुंख अनंतवीर्य इस अनंत चतुष्टय रूप श्रीको अंतरग श्री कहते हैं। और समवसरण अष्ट प्रातिहार्य आदि वाह्य विभूतिको वाह्य श्री कहते हैं । यह श्री तीन लोककी तिलकके समान है; क्योंकि सर्वोत्कृष्ट है। दोनों प्रकारकी श्रीमें अंतरङ्ग श्री प्रधान है। अंतरङ्ग श्रीमें भी केवलज्ञान प्रधान है। इसीलिये कहा है कि वह समस्त तत्वोंकोसम्पूर्ण तत्व और उसकी भूत भविष्यत् वर्तमान समस्त पर्यायको जाननेवाली है । इस श्रीको श्री सन्मतिने अंतिम तीर्थकर, श्री महावीर स्वामीने प्राप्त कर लिया था, वे सर्वज्ञ थे, इस लिये उनको वन्दना की है। वे वीर भगवान् केवल सर्वज्ञ ही नहीं हैं, हितोपदेशी भी हैं - उनकी उक्तिमें उन्होंने जो जगज्जीवों को हितका - मोक्षका मार्ग बताया है, वह (हितोपदेश) उज्ज्वल हैउसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रमाणसे वाधा नहीं आती । तथा वीर भगवान मोहरूप तन्द्राके नष्ट करनेवाले हैं। अर्थात् वीतराग हैं । अतः सर्वज्ञता हितोपदेशकता वीतरागता इन तीन असाधारण गुणों को दिखाकर इष्ट देव अंतिम तीर्थकर श्री महावीर स्वामीको जिनका कि वर्तमानमें तीर्थ प्रवृत्त हो रहा है नमस्कार कर मंगलाचरण किया है ॥ १ ॥
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NMos.VOMMnArrum
: पहला सर्ग। [३ मोक्षमार्गरम रसत्रयको. नमत्कार करते है
मैं उस उत्कृष्ट परम पवित्र रत्नत्रय (सम्यदार्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र)को नमस्कार करता हूं जो कि तत्त्वका एक पात्र है,
और दुष्कर्माके छेदन करनेके लिये अस्त्र है, तथा मुक्तिरूप लक्ष्मीका मुक्तामय ( मोतियोंका बना हुआ) हार है। और जो अमूल्य होकर भी आत्महित करनेवाले भन्योंके द्वारा दत्तार्थ है । भावार्थयहां विरोधामास है। वह इस प्रकार है कि रत्नत्रय अमूल्य होकर भी दत्तार्थ ( मूल्यवान् ) हैं । यह विरोध है। क्योंकि जिसका मूल्य हो चुका उसको अमूल्य किस तरह कह सकते हैं ? इसका परिहार इस प्रकार है कि रखत्रय आत्महित करनेवालोंके लिये दत्तार्थ है
उनके समस्त प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाला है । अतएव वह अमूल्य "भी है । जो रत्नत्रयको धारण करते हैं वे मुक्तिरूप लक्ष्मीके गलेके हार होते हैं वे मुक्तिको प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार दूध वगैरहके पान करने के लिये पात्रकी आवश्यकता होती है, उसी प्रकार तत्त्व स्वरूपका पान करनेके लिये-उसका अवगम करनेके लिये यह रत्नत्रय अद्वितीय पात्रके समान है। जिस प्रकार किसी अस्त्र द्वारा शत्रुओंका छंदन किया जा सकता है, उसी प्रकार कर्मशत्रुओंका छेदन करनेके लिये यह रत्नत्रय एक अन है। अतएव इस उत्कृष्ट पवित्र रत्नत्रयको मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥ मंगलकी इच्छासे जिनशासनको आशीर्वादात्मक नमस्कार करते हैं
: जो.अनेक दुःखरूपी ग्राहोंसे (मकरमच्छ आदि जलजन्तुओंसे) व्यात, अतिशय दुस्तर, अनादि, और दुरन्त,-बड़े भारी संसाररूप समुद्रके:वेगमेंसे निकाल कर सम्पूर्ण भन्योंका उद्धार करनेमें
पान करने
करने के लिया है। जिस प्रकार का कर्मशत्रुओका
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महावीर चरित्र । दक्ष है, तथा जिसको प्रतिवादीगण कभी जीत . नहीं सकते, वह श्री निनशासन जयवंता रहो ॥ ३ ॥ अंयकता अपनी अशक्ति दिखाते हैं____कहां तो उत्कृष्ट ज्ञानके धारक गगधर देवोंका कहा हुआ वह . पुराण, और कहां गड़बुद्धि में । जिस समुद्रके पारको मनके समान वेगका धारक गरुड़ पा सकता है क्या उसको मयूर भी पा सकता है? कभी नहीं ॥४॥परन्तु तो भी यह पुण्याश्रवका कारण है इसलिये अपनी शक्तिके अनुसार श्री वर्द्धमान स्वामी के चरितको कहनके लिये मैं उद्यत हुआ हूं। नो फलार्थी हैं उनके मनमें इष्ट कार्य के विषयमें यह भानं भी कभी नहीं होता कि यह दुष्कर है ॥ ५॥ . _ जिस प्रकार विट पुरुष अर्थक–धनके अपव्ययकी अपेक्षा नहीं करता उसी प्रकार कवि भी अर्थकी (वाच्य पदार्थकी). हानिकी अपेक्षा नहीं करता। जिस प्रकार विट पुरुप वृत्तमंग (ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंके मंग) की अपेक्षा नहीं करता उसी प्रकार कवि भी वृत्तमंग (छन्दोमंग) की अपेक्षा नहीं करता । जिस प्रकार विट पुरुष, संसारमें अपशब्द (अपयश) की अपेक्षा नहीं करता उसी प्रकार कवि भी अपशब्द (खोटे शब्दोंके प्रयोग) की अपेक्षा नहीं करता ! इसी तरह दोनों कष्टकी भी अपेक्षा नहीं करते। . __ इस प्रकार कवि क्या और वेश्याको अपने हृदयका अर्पण करनेवाला विट पुरुष क्या, दोनों समान हैं। क्योंकि रसिक वर्ताव दोनोंको ही मूढ़ बना देता है । भावार्थ-वर्णन करते हुए मुझसे यदि कहीं पर वर्णन करने योग्य विषय छूट नाय, अथवा छन्दोमङ्ग
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पहला सर्ग ।
[ ५
या कुत्सित शब्दों का प्रयोग हो जाय तो रसिक गण उसकी तरफ ध्यान न दें ॥ ६ ॥
कथाका प्रारम्भ -
जम्बू वृक्षके सुंदर चिन्हसे चिन्हित जम्बूद्वीपके दक्षिण भागमें भारत नामक एक क्षेत्र है। जहां पर भव्यजीवरूपी धान्य जिनधर्मरूप अमृनकी वर्षा सिंचनसे निरंतर आह्लादित रहा करते हैं ॥ ७ ॥ उस क्षेत्र में अपनी कान्तिके द्वारा अन्य समस्त देशोंको जीतनेवाला पूर्व देश है, जहांपर उत्पन्न होनेके लिये स्वर्गमें अवतार ग्रहण करनेवाले देश भी स्पृहा करते हैं ॥ ८ ॥ वह देश असंख्य रत्नाकरोंसे (रत्नोंक ढेरोंसे) और रमणीय दंतिवनों (कनली वनों) से अलंकृत है । और विना जोते तथा विना वृष्टि जलक प्रतिबन्धके ही पकनेवाले धान्यको सदा धारण करनेवाले खेतोंसे शोभित रहता है || ९ || उस देश समस्त ग्राम और शहर अपने स्वामीके लिये चितामणिके समान मालूम होते हैं। क्योंकि उनके बाहरके प्रान्त भाग पौड़ा - ईखके खेतों से व्याप्त रहा करते हैं और साटी चावलोंक खेत बंत्रा या नहरके जलसे पूर्ण रहते हैं । तथो स्वयं भी पार्नकी वल्ली (वेल) और पके हुए सुपारी के वृक्षांक उद्यानसे रम्य हैं। जिनमें गौ आदि पशु, धन
और अनेक प्रकारकी विभूतिसे युक्त, जिनके यहां हजारों कुंभे धान्य रहता है ऐसे कुटुम्बीगण निवास करते हैं ॥१०-११ ॥ वहांकी नदियां अमृतके सारकी समताको धारण करनेवाले और नील कमलोंसे सुगन्धित जलको धारण करनेवाली हैं" ॥ १२ ॥
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१ एक परिमाणका नाम है। २ इस श्लोकंकं पूर्वार्धका अर्थ हमारी समझ नहीं आया, इसलिये उसका अर्थ यहां लिखा नहीं है।
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६ ]
महावीर चरित्र |
जहांपर सरोवरोंमें कमल खिले हुए हैं और उनके पास हंस शब्द कर रहे .
। मालूम होता है कि वे सरोपर अपने खिलते हुए कमलरूप
नेत्रोंसे कृपापूर्वक मार्गके खेदसे खिन्न और प्याससे पीड़ित हुए
पायोंको देख रहे है, और हंसोंके शब्दोंके द्वारा उनको जल पीनेके लिये बुला रहे हैं ॥१३॥
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उस पूर्व देश में स्वर्ग पुरीके समान रमणीय श्वेतातपत्रा नामकी नगरी है, जिसमें सदा पूण्यात्मा निवास करते हैं। उसका यह नाम अन्वर्थ है । क्योंकि उसमें श्वेत छत्रवाले राजाका हमेशह निवास रहता है ॥ १४ ॥ इस नगरी के प्राकार ( परकोटा ) पर सूर्य हजार करोंसे - किरणोंसे दूसरे पक्षमे हाथोंसे युक्त होने पर भी आरोहण नहीं कर सकता; क्योंकि इस मेघचुम्बी प्राकारमें लगी हुई नीलमणियोंसे उसको राहुके द्वारा अपने मर्दन होनेकी शंका हो जाती है ॥ १९ ॥ जलपूर्ण खाई आकाशका आक्रमण करनेवाली, तमाल पत्रके समान नील वर्ग वायुके धक्कोंसे ऊपरको उठनेवाली 'तरङ्गपक्ति संचार करनेवाली पर्वत परम्पराके समान मालुम होती है। ॥ १६ ॥ उस नगरीके बाहर अनेक गोपुर हैं। जिनके द्वारोंमेंसे भीड़के प्रवेश करते समय अथवा निकलते समय ऊपरको देखनेका प्रयत्न करनेवाले लोकोंको, उनके (गोपूरके ) ऊपर उठी हुई शिखरोंके अप्र .. भाग में लगे हुए मेघोंके सफ़ेद खण्ड कुछ क्षणके लिये ध्वजा सरीखे - मालूम होने लगते हैं. ॥१७॥ जहांके जिनालयोंकी श्री मिथ्यादृष्टियोंको भी अपने देखनेकी इच्छा बढ़ा देती है। क्योंकि वह हजारों कोटि रत्नोंके स्वामी, शास्त्र के अभ्यासी, श्रावक धर्ममें आशक्त, मांयाचार त्यागी, मदरहित, उदार, और अपनी खीमें ही संतोष
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पहला सर्ग। रखनेवाले वैश्योंसे युक्त है। तथा: जिसकी अटारीपर चढ़ता हुआ लोकसमूह · पूनाके लिये लाये हुए अमूल्य और विचित्र रत्नसमूहके प्रभाजालमें शरीरके छिप जानसे ऐसा मालूम होता है मानों इन्द्र धनुपके बने हुए कपड़े पहरे हुए हो। पारावत (कबूतर) अथवा नीलकमल ही जिसके कर्णफूल हैं, भीतों पर लगी हुई नीलमणियोंका किरणकलाप ही निसका वस्त्र (अधोवस्त्र).है, शिखरों मन्य-भागमें लटकती हुई संत मेवमाला ही जिसकी चंचल ओढ़नी है, ऊपर बैठे हुए मयुरोंके पंच ही जिसके केश हैं, चंचल स्वर्णकमलकी माला ही जिसकी बाहु हैं, सुवर्ण पूर्ण कलश ही जिसके पीन (कठोर ) स्तन हैं, झरोखे ही जिसके सुंदर नेत्र हैं, अलंकृत द्वार ही जिसका मुख है, कमलिनियोंका बना हुआ निसका चंदोवा है, ऐसी यह जिनालयश्री एक स्त्रीके समान है जो कि अतिकामको प्राप्त हो चुकी है। भावार्थ-जगत्नें स्त्रियां अतिक्राम-अत्यन्त कामी पुरुषको प्राप्त होती हैं। पर सर्वाङ्म सुंदरी जिनालयश्री भतिकाम-कामरहित-जिन भगवानको प्राप्त हुई है। इस नगरीके जिनालयोंकी श्री (शोमा) इतनी सुंदर थी कि निसको देखकर या सुनकर मिथ्या दृष्टि भी उसको देखनके लिये स्पृहा करने लगते थे, और वे अपनी उस इच्छाको रोक नहीं सकते थे ॥१८-२२|| इस नगरीकी दीवालोर कहीं-२ पड़ती हुई नीलमणिकी. लम्बी किरणें सर्पके समान मालुम होती हैं। अतएव उनको
पकड़ने के लिये वहांपर मयूरी (मोरनी) वार २ आती हैं। क्योंकि __ . काले सांपका स्वाद लेनके लिये उनका चित्त चंचल रहता है।॥२३॥
स्फटिक अथवा लोंकी निर्मल भूमिमें वहांकी स्त्रियोंके मुखकीजो
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महावीर चरित्र । प्रतिच्छायायें पड़ती हैं उनपर कमलकी अभिलापासे भ्रमरगण आ बैठते है। ठीक ही है-जिनकी आत्मा भ्रान्त हो जाती है उनको किसी भी प्रकारका विवेक नहीं रहता ॥२४॥ वहांके घरोक बाहर चबूतरोंपर लगी हुई हरित मणियोंकी किरणें घासक अंकुर जैसी मालूम होती हैं। अतएव उनके द्वारा बालमृग छले जाते हैं । पीछे यदि उनके सामने दूर्वा भी आती है तो उसको भी वे उसी शनासे चरते नहीं हैं ॥२५॥पद्मराग मणिके चमकते हुए कुंडल और कर्णफूलोकी छायासे जिनका मुखचंद्र लाल मालूम पड़ने लगता है ऐसी वहांकी स्त्रियोंको उनके पति 'कहीं यह कांता कुपित तो नहीं हो गई है। यह समझकर प्रसन्न करनेकी पेश करने लगते हैं। सो ठीक ही है क्योंकि कामसे अत्यन्त व्याकुल हुआ प्राणी क्या नियमसे मूढ़ नहीं हो जाता है ? ॥ २६ ॥ जहाँके निर्मला स्फटिकके बने हुए आकाशस्पर्शी मकानोंके ऊपरके भागपर बैठी हुई रमणीय रमणियोंको उस नगरके लोग कुछ क्षणके लिये इस तरह भ्रमके साथ देखने लगते हैं कि क्या ये आकाशगत अप्सरा हैं ॥ २७ ॥ नहांके महलोंके भीतरकी रत्नभूमिपर जिस समय झरोखोंमें होकर बाल सूर्यका प्रकाश पड़ता है उस समय मालूम होता है मानों इस मूमिको कुंकुमसे लीप दिया है
२४॥ सामने स्फटिककी मित्तियों में अपने प्रतिविम्बंको अच्छी तरह देखकर सपत्नीकी शंकासे वहांकी प्रमदाओंका चित्तचंचल हो उठता है।
और इसीलिये वे अपने पतियोंसे भी कोप करने लगती हैं।॥२९॥ नहाँके महलोंके शिखरोंपर मेघ आकर विना समयके (वर्षाके) ही मयूरोंको मत्त कर देते हैं, क्योंकि जब मेघ वहाँ आते हैं तब शिखरोंके
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' . पहला सौ। [९ चित्रविचित्र लोंके किरणकलापकी मालाओंके पड़नेसे उनमें इन्द्र धनुष बन जाते हैं ॥३०॥ वहांकी गलियोंमें इधर उधर निरंतर घुमते रहनेवाले. लोगोंके हारोंके मोती परस्पर संघर्षण हो जानेसे एंट कर गलियोंमें विखर जाते हैं। जिससे मालूम होता है कि इन गलियोंमें तारागणोंके टुकड़े विखर गये हैं ॥३१॥ वहांकी वापिकाएं किनारोंपर लगे हुए प्रकाशमान रत्नोंकी किरणोंसे रात्रिमें भी दिनकी शोमा बना देती हैं। मालम होता है कि चक्रवियोंके वियोगननित शोकको दूर करनेकी इच्छासे ही वे इस कामको कर रही हैं ॥३२॥ वहांपर चन्द्रकान्त मणिके बने हुए मकानोंकी बाहरकी भूमिमेंसे चन्द्रमाका उदय होनेपर, जो जल निकलता है उसके ग्रहण करनेसे मेवोंका शरीर घन सघन हो जाता है अतएव व यहां पर यथार्थताको प्राप्त हो जाते हैं ॥३शा उस नगरीमें रात्रिके समय बरोंकी वावड़ियों में समस्त दिशाओंको मुगन्धित करनेवाले कमलोंकी कणिकाओंपर जो भ्रमर उड़ते हैं, वे ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों चन्द्रमाके उदयसे अंधकारके खंड झड़ रहे हैं ॥३४॥ सायंकाल के समय वहांकी मणिनिर्मित भूमिपर झरोखोम होकर पड़ती हुई सुधाफेनके समान सफेद-स्वच्छ चांदनीको विल्लीका बच्चा दुध समझ प्रसन्न होकर चाटने लगता है ॥३५॥ वहाँके वनोंमें लता गृहोंके भीतर जो पति पत्नी विलास करते हैं उनके उस विलास सौंदर्यके देखनेकी इच्छासे ही मानों सब ऋतुओं में फूलनेवाले और सब नातिके सुन्दर.२ वृक्ष उन वनोंमें सदा निवास करते हैं ॥३६॥
. इस नगरके राजाका नाम नदिवर्धन था । उसकी विभूति * इन्द्र के समान थी, और वृत्ति विश्वके लोगोंको कल्याणकारिणी थी।
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महावीर चरित्र ।
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उसका जन्म एक विख्यातवंशमें हुआ था । वह शत्रुओंके वंशके लिये दावानलके समान था । अर्थात् जिस तरह दावानल वांसों को जलाकर नष्ट कर देता है उसी तरह वह राजा भी अपने शत्रुओंके कुल्को नष्ट करनेवाला था ॥ ३७॥ वह प्रतापरूप सूर्यके लिये उदयाचल के समान, कलाओंके लिये पूर्णमासीके चन्द्रसमान, विनयरूप वृक्षके लिये वसंतऋतुके समान था । एवं मर्यादाकी उत्पत्ति स्थानका न्यायमार्गका समूह, और लक्ष्मीके लिये समुद्र के समान था ॥ ३८ ॥ . इस राजाका स्वभाव निर्मल था । राजाओंके योग्य सम्पूर्ण विद्याएँ इस महात्माको प्राप्त होकर इस तरह शोभाको प्राप्त हो गई, जिस "तरह रात्रि के समय मेघों का आवरण हटनाने पर आकाशमें तारागण शोभाको प्राप्त हो जाते हैं ||३९|| जो स्वभावसे ही शत्रुता रखनेवाले ये ऐसे शत्रु भी यदि उसकी शरण में भाते तो उनका भी वह पोषण करता, अर्थात् उनका राज्य आदि उनको ही लौटाकर उन पर दया करता । क्योंकि इस राजाका अंतरात्मा आई- कोमल था। जिस तरह तृण वृक्ष अथवा वन आदिको भस्म करनेवाली अग्निकी ज्वालाओंके समूहको समुद्र धारण करता है, उसी तरह इस राजाने भी अपने शत्रुओंको धारण कर रक्खा था ॥ ४० ॥ नंदिवर्धनने प्रजाकी विभूतिको बढ़ाने के लिये, बुद्धिरूप नलका सिंचन करके, अनेक इ· च्छित फलोंको उत्पन्न करनेवाले नीतिरूप कल्पवृक्षको बड़ा कर दिया । क्योंकिः सज्जन पुरुषोंकी समस्त क्रियाएँ परोपकारके लिये ही हुआ करती हैं ||११|| इस राजाका यश, जिसकी कि कान्ति खिले हुए कुन्दपुष्पके- समान स्वच्छ थी, सम्पूर्ण पृथ्वीतलको भलंकृत करनेवाला
"१. समुद्र के पक्ष : आर्द्र, शब्दका अर्थ शीतल करना चाहिये ।
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- पहला सर्गः । -
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था । तथापि यह आश्चर्य है कि उससे शत्रुओं की, त्रियोंके मुखरूप चंद्रमा अति मलिन हो जाते थे ॥ ४२ ॥
इस नन्दिवर्धन राजाकी प्रियांका नाम वीरवती था । वह ऐसी मालूम पड़ती थी मानों कान्तिकी अधिदेवता हो, लावण्यरूपी महासमुद्रकी वेला (तरङ्ग - सीमा) हो, अथवा कामदेवकी मूर्तिमती विजयलक्ष्मी हो ॥ ४३ ॥ जिस तरह विजली नवीन मेचको विभूषित करती है, अथवा नवीन मंजरी आम्रवृक्षको विभूषित करती है, यद्वा फैलती हुई प्रभा निर्मल पद्मराग मणिको विभूषित करती है,. उसी तरह यह विशालनयनी भी अपने स्वामीको विभूषित करती थी ॥ ४४ ॥ ये दोनों ही पति पत्नी सम्पूर्ण गुणोंके निवास स्थान थे, और परस्पर के लिये - एक दूसरेके लिये योग्य थे, अर्थात् पति पत्नी के योग्य था और पत्नी पतिके योग्य थी। इन दोनोंको विधिपूर्वक बनाकर विधिने भी निश्चयसे कुछ दिनके बीत जानेपर किसी तरहसे इन दोनोंकी सृष्टिका प्रथम फल देखा | भावाथ - नंदिवर्धनकी प्रिया वीरवतीके गर्मसे कुछ दिनके बाद प्रथम पुत्रकी उत्पत्ति हुई ॥ ४५ ॥ जिस तरह प्रातः काल पूर्वदिशामें प्रतापके पीछे २ गमन करनेवाले सूर्यको उत्पन्न करता है। उसी तरह उस राजाने भी रानीके गर्भ से प्रफुलित पद्माकरके समान सुंदर चरणोंके धारक और जगतको प्रकाशित करनेके लिये दीपकके समान पुत्रको उत्पन्न किया ॥ ४६ ॥ जिस समय उस पुत्रका जन्म हुआ उस समय आकाश निर्मल हो गया, सम्पूर्ण दिशाओंके साथ में पृथ्वीने भी अनुरागको धारण किया, कैदियों के बंधन स्वयं छूट गये, और सुगन्धित - वायु मंद २ बहने लगी ||४७ ॥ राजाने पुत्रके नन्मके दिनसे दशमे दिन
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महावीर चरित्र ।
'जिनेन्द्रदेवकी महापूजा करके अपने पुत्रका नंदन यह अन्वर्थ नाम . रक्खा । नंदन शब्दका अर्थ होता है आनंद उत्पन्न करनेवाला | यह 'पुत्र भी समस्त प्रजाके मनको आनंदित करनेवाला था इसलिये इसका भी नाम नंदन रक्खा || ४८ || पुत्रका मणिबन्ध ( पहुंचा ) ज्याघात रेखासे अंकित था । इसने बाल्यावस्था में ही समस्त विद्याओंका अभ्यास कर लिया । और शत्रुओं की सुंदरियाँको वैधव्य दीक्षा : देनेके लिये आचार्यपद प्राप्त कर लिया ||४९ || पुत्रने उस यौवनको • प्राप्त किया जो लीलाकी निधि है, बड़े भारी रागसहित रसरूप समुद्रका सारभूत रत्न है, मूर्तिरहित भी कामदेवको जीवित करनेचाला रसायन है, वेश्याओंके कटाक्षरूप वाणका अद्वितीय लक्ष-निशाना है ||१०|| उठते हुए नवीन यौवन के द्वारा छिद्रको पानवाल, अनेक प्रकारकी चेष्टा करनेवाले, फिर भी दृष्टिमें न आनेवाले और 'जिनको कोई भी पृथ्वीपति जीत नहीं सकता इस तरहके अंतः स्थित शत्रुओंको इस एकाकी वीरने जीत लिया था । भावार्थ- काम क्रोध आदिक अंतरङ्ग शत्रु हैं । ये यौवनके द्वारा छिद्र पाकर मनुष्य में'विशेषकर बड़े आदमियों में प्रवेश कर जाते हैं। पीछे अनेक प्रकार'की चेष्टा करने लगते हैं; क्योंकि कामादिकके निमित्तसे जीवोंकी क्या २ गति होती है वह सबके अनुभव में आई हुई है। ये इस 'तरह के शत्रु हैं कि जो आंखसे देखने में नहीं आते और भीतर प्रवेश कर ही जाते हैं । जिस प्रकार कोई शत्रु गुप्तचर या दूती आदिके द्वारा छिद्र मौका पाकर अपने शत्रुके भीतर बिना दृष्टिमें आये ही "प्रवेश कर जाता है, और पीछे अनेक प्रकारकी चेष्टा करके अपने उस शत्रुको नष्ट कर देता है, उसी तरह ये अंतरंग शत्र भी
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पहला सर्ग - [१३ यौवनके द्वारा मौका पाकर प्रवेश कर जाते हैं, और पीछे अनेक चेष्टा करके मनुष्यको नष्ट कर देते हैं। बड़ेर राना मी इन अंतरङ्ग शत्रुओंको जीत नहीं सकते। परन्तु केवल इस कारने उनपर विजय प्राप्त कर ली थी। क्योंकि कोई भी राना जब तक कामकी १० अवस्थाऑपर, कोषकी ८ अवस्याओंपर इसी तरह और भी अंतरंग शत्रुओंकी अनेक अवस्थाओंपर विजय प्राप्त न कर ले तब तक वह राज्यका अच्छी तरह शासन नहीं कर सकता ॥ ५१ ।। ___. एक दिन यह पुत्र अपने पिताकी अवश्य पालनीय आना लेकर, अपने साथ २ बड़े होनेवाले (लंगोटिया मित्र ) राजपुत्रोंके, साथ तथा और भी मंत्री आदिके पुत्रोंके साय क्रीड़ा करनेके लिये क्रीडावनको गया। जिसका प्रांत भाग कृत्रिम पर्वतोंसे अत्यंत शोभायमान है ॥ १२ ॥ तथा जो भ्रमरोंके शब्दसे होकारमय हो रहा है, और मलयात्रलकी वायुसे आंदोलित हो रहा है, फूलोंकी सुगन्धिसे जिसका समस्त प्रांत सुगन्धित हो रहा है, जिसमें सरस: और सुंदर फछ.फले हुए हैं, इस प्रकारके इस धनमें विहार करके राजपुत्र तथा उसके साथियोंकी इन्द्रियां तुप्त हो गई ॥ १३ ॥ इसी वनमें क्लेश रहित अशोकक्षके सुंदर तलमें अर्थात् उसके नीचे निर्मल और उन्नत स्फटिक पापाणकी शिलापर बैठे हुए, इन्द्रियों और मनके जीतनेवाले, उत्कृष्ट चारित्रके धारक, श्रुतसागर नामक मुनिको इस राजकुमारने देखा । ये. मुनि स्फटिक शिलापर बैठे हुए ऐसे मालूम पड़ते.थे मानों, अपने पुंनीभूत यशपर ही बैठे. हैं ॥ ५४॥ पहले तो अति हर्पित होकर इस रानकुमारने दूरसे ही अपने ननीभूत शिरको पृथ्वी तलसे सर्श कराते हुए मुनिको
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• १४] महावीरः चरित्र ।
नमस्कार किया। पीछे उनके निकट पहुंच कर अपने करकमलोंक द्वारा मुनिके चरणोंकी पूजा कर स्वयं कृतार्थ हुआ ॥५५॥ संसारकी असारताका निसको ज्ञान हो गया है ऐसा यह राजकुमार उन मुनिराजके निकट वैठकर और दोनो हाथोंको मुकुलित कर अर्थात् नोड़कर यह पूछता हुआ कि हे ईश! इस भयंकर संसार सागरको लांघकर यह जीव सिद्धिको किस तरह प्राप्त करता है ? ॥५६॥ जब राजकुमारने यह प्रश्न किया तब मुनिमहाराज उमके उत्तरमें इस प्रकार बोले कि जब तक " यह मेरा है" ऐमा वृथा अभिनिवेश लगा हुआ है तब तक यह जीव यमरानके मुंखमें हैअर्थात् इस मिथ्या अभिनिवेशके निमित्तसे ही संसार है, किन्तु जिस समय यह अभिनिवेश छूट जाता है उसी समय यह आत्मा अपने निन शुद्धभावको प्राप्तकर मुक्तिको प्राप्त करता है ।। ५७ ॥ मुनिरूप सूर्यसे निकले हुए इस अपूर्व प्रकाशको पाकर राजकुमाररूप पद्माकर सहमा स्वसमयमें विवोधको प्राप्त हो गया। . .
भावार्थ-जिस तरह कमल सूर्यके.प्रकाशको पांकर प्रातः कालमें विबोधको प्राप्त हो जाता है-खिल जाता है, उसी तरह यह रानकुमार भी मुनिके उपदेशको पाकर शीघ्र ही निन आत्मस्वरूपकें विषयमें वोधको प्राप्त हो गया। क्योंकि मुनि महाराजका उपदेशरूपीः सूर्य समस्त-वस्तुओंका ज्ञान करानेवाला है, यथार्य है, और मिथ्यात्वरूप अंधकारका भेदन करनेवाला है ।।५८॥ इस राजकुमारने व्रतोंके भूषण धारण किये जिनसे कि यह और भी मनोहर मालूम पड़ने लगा । यह गुणज्ञ, भक्तिसे 'मुनिकी बहुत. देर तक . उपासना करके उठकर उनके निकटं ना आदर पूर्वक नमस्कार कर
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पहला : सर्ग:
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दूसरे मुनियों की भी वंदना कर अपने घरको गया ॥ ५९ ॥
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राजाने शुभ लग्न श्रेष्ठ पुण्य नक्षत्र शुभ वार और सूर्यकी दृष्टि 'पूर्वको देखकर सामंत मंत्री और उनके नीचे रहनेवाले समस्त लोगों के साथ अनुपम अभिषेक करके बड़े भारी वैभवके साथ उस राज - कुमारको युवराज पद दे दिया || ६ || जिस दिन इस राजकुमारने गर्ममें निवास किया उसी दिनसे इसकी सेवामें तत्पर रहनेवाले राजकुमारोंको, समयके बतानेवालों को और दूसरे मुखियाओं को इस राजकुमारने निजको छोड़कर दूसरी हरएक प्रकारकी विश्वसे पूर्ण कर दिया । ठीक ही है । सज्जनोंके विषय में यदि कोई क्लेश उठानेका प्रयत्न करता है तो वह क्लेश उनके लिये क्ल्लवृक्षका काम देता है. ।। ६१ ।। इस राजकुमारकी दूसरे अनेक राजाओंके द्वारा दिये हुए क्षेत्रों को तथा अद्वितीय अनेक प्रकारके रत्नोंके करको ग्रहण करनेसे; किन्तु विपयोंका त्याग करनेसे दीप्ति बढ़ गई थी। जो विषय संसार और व्यसन - परम्पराके मूल कारण हैं, तथा जिनका सेवन असाधु लोग ही करते हैं ॥ ६२॥ जगन्में समस्त याचकोंको दान करनेवालोंमेंस किसीने भी ऐसी वस्तुका दान नहीं किया जो कि उसके पास हो - ही नहीं। भावार्थ - भान तक जितने दानी हुए, उन्होने समस्त याचकोंको दान किया; परन्तु वह दान ऐसी ही वस्तुका किया जो कि उनके पास विद्यमान थी क्योंकि अविद्यमान वस्तुका - दान ही किस तरह किया जा सकता है; परन्तु यह बड़ा आश्चर्य है कि इस राजकुमारने अपने शत्रुओं को जो अपने पास विद्यमान नहीं थी ऐसी भी वस्तुका भयका दान कर दिया
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१६]. महावीरं चरित्रः . था ॥६३ ॥ सौंदर्य, यौवनं, नवीन उदय, और राजलक्ष्मी ये सब सामग्री मद उत्पन्न करनेवाली हैं। किन्तु ये संत्र प्राप्त होकर भी । इस उदार राजकुमारको एक क्षणके लिये भी मद उत्पन्न न कर सकी। इसका कारण यही था कि इन सामग्रियोंके सायमें उसको. निर्मल मति भी प्राप्त हुई थी । ठीक ही है जो शुद्धात्मा हैं उनको कोई वस्तु विकार उत्पन्न नहीं कर सकती ॥६४। इस राजकुमारका समय बड़ी भक्तिके साथ मिनमंदिरोंकी पूजन करते हुर, महामुनियोंसे जिनेन्द्रदेवके चरित्रोंको मुनते हुए, विधिपूर्वक ब्रोंका पालन करते हुए बीतता था क्योंकि भव्य जीवोंक चित्तमें सदा धर्मका अनुराग बना रहता है ॥६५॥ महात्माओंके मुखिया और जितेन्द्रिय इस रानकुमारने रागभावसे नहीं किन्तु पिताके आग्रहसे प्रियंकाका पाणि ग्रहण किया । यह प्रियंका अपनी श्रीसे देवांगनाओंकी आकृतिको भी जीतनेवाली थी, और कामदेवकी अद्वितीय वागुरा समानजालके समान थी ॥६६॥ अपने पतिके प्रसादसे इसने भी सम्यक्त पूर्वक व्रतोंको धारण किया और सदा धर्मरूप अमृका पान करती रही। क्योंकि नो कुलांगनाएं होती हैं वे अपने पतिक अनुकूल होकर ही रहा करती हैं ।।६७॥ यह प्रियंका कांतिकी उत्कृष्ट संपत्ति विनयरूपी समुद्र के लिये चन्द्रकला, लज्जाकी सखी और कामदेवकी विजय प्राप्त करनेकी धनुपकी प्रत्यंचाके समान थी। अतएव समीचीन चरित्रका पालन करनेवाली इस नतांगीने अपने पतिको वश कर रखा था। इस जगत्में गुण समूहकी वृद्धि क्या २ नहीं करती है ॥ १८॥ इस प्रकार अशंग कवि कृत वर्षमान चरित्रमें पुत्रोत्पत्ति.. .
- नामका. पहला सर्ग समाप्त हुआ।
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- दूसरा सर्ग । : १७. दूसरा सर्ग।
Sonoesemo इस प्रकार समस्त गुणोंके अद्वितीय अधिष्ठान अपने पुत्रके उपर राज्यभारको छोड़कर स्वयं महारान अपनी प्रियाक साथ निश्चित होकर संतोपको प्राप्त हुए । ठीक ही है-जो सुपुत्र होता है वह अपने माता पिताको हर्ष उत्पन्न करता ही है ॥ १॥ किसी २ समय अत्युन्नत सिंहासनके ऊपर बैठे हुए उस वैश्यातिको देखकर राजाके साथ समस्त लोक आनन्दित होते थे । क्योंकि अपने प्रमुका दर्शन किसको सुखकर नहीं होता ? ॥ २ ॥ याचकोंकी जितनी इच्छा थी उससे भी अधिक सम्पत्तिका दान कर उनके मनोरथोंको अच्छी तरह पूर्ण करनेवाला, और देवताओं के समान विद्वानोंल सदा वष्टित रहनेवाला यह राना जंगम कल्पवृक्षके समान मालूम होता था। भावार्थ-निस तरह कल्पवृक्ष देवताओंसे सदा वष्ठित रहता है उसी तरह यह राना सदा विद्वानों से वेष्ठित रहता था।
और जिन तरह कलावृक्ष यात्रकोंको इच्छित पदार्थका दान करते हैं उसी तरह-त्रलिक उनसे भी कहीं अधिक यह दान करनेवाला था। इसलिये यह राना कल्पवृक्षके समान मालूम होता था । अंतर इतना ही था कि कल्पवृक्ष स्थावर होता है और यह जंगम था ॥ ३ ॥ सज्जनोंके प्रिय इस राजाने सुवर्णकी बनी हुई शिखरोंके अप्रभागमें प्रकाशमान रक्त वर्ण पद्मरागमणियोंको लगाकर उनकी किरणों के द्वारा जिनालयोंको पल्लवोंसे युक्त करावृक्षके समान बना दिया था। भावार्थइस राजाने नो निनालय वनवाये थे उनके शिखर सुवर्णके बने हुए थे। और उनमें प्रकाशमान पद्मरागमणियां लगी हुई थीं। जिनसे वे
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१८] महावीर चरित्र । निनालय कल्पवृक्ष के समान मालूम होते थे। क्योंकि निस तरह वृक्ष लाल वर्णके नवीन पल्लव होते हैं उसी तरह यहां पर पद्मरागमणियां लगी हुई थीं । अर्थात् जिनालयोंके बनवानमें इसने खूब ही धन खर्च किया था। क्योंकि साधु पुरुषोंका धन धर्म ही होता है || ४ || जिनके कर्णके मूलसे मद कर रहा है, निन पर कि भ्रमर-पंक्ति भ्रमण कर रही हैं तथा जिनके कानमें स्वच्छ चमर लटक रहे हैं ऐसे अनेक मत्त हस्ती इस रानाकी मटमें आते थे, वे इस राजाको बहुत प्रिय मालूम होते थे। टीक ही है जो बड़े दानी हैं वे किसको प्रिय नहीं लगते ? दानी नाम हाथीका भी है और दान करनेवालेका भी है ॥ ५ ॥ दूसरे देशोंक राजाओं के मंत्री अथवा दुसरे मुखिया जो कि स्वयं कर अथवा भेट लेकर आते थे उनके साथ यह राना कुशल प्रश्नपूर्वक बहुत अच्छी तरह संभाषण करता था। ऐसा कोई भी शन्न नहीं बोलता था जो कि उनके हृदयोंको भेदनेवाला हो; क्योंकि जो महापुरुष होते हैं वे छोटोंक ऊपर. सदाप्रीति रखते हैं ॥६॥ चारों समुद्र ही जिसके चार जन हैं, रक्षाकी विस्तृत रस्सीसे नाथ (जांघ:) कर जिसका नियमन कर दिया गया है। समीचीन न्यायरूपी बछड़ाके पोपणस जो पसुराई गई है, इस प्रकारकी पृथ्वीरूप -गौसे यह गोप ( रक्षक-राजा तथा ग्वालिया ) दूधक्के समान अनेक रत्नोंको दुहता हुआ ॥७॥ रानीके
मुखपर सपक्ष्मल नेत्र ललित 'कुटी और साक्षात् कामदेव. . निवास करता था। उसके अधर पल्लव कुछ थोड़ीसी हंसीसे मनोहर
मालूम होते थे । अतएव यह राना अपनी प्रियाके मुखकों देखनसे उपराम नहीं लेता था..क्योंकि मनोहर वस्तुके देखनेमें कौन अनु
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दुसरा सर्ग। [१९ रक्त नहीं होता ॥८॥ इस प्रकार नवीन और अनुपम सुखके अद्वितीय साधक त्रिवर्गका अविरोधेन सेवन करते हुए इस विवेकी नंदिवर्धनके कितने ही वर्ष बीत गए। यह राना साधुओंके विषयमं मसरमाव नहीं रखता था ॥॥
एक दिन यह राना (नंदिवर्धन) अपनी प्रियाके साथ अपने उन्नत महलके ऊपर बैठा था । उसी समय इसने एक धवल मेघको देखा, जिसमें कि चित्र विचित्र कूट बने हुए थे, और जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों समुद्रका नवीन फनमंडल ही है ॥१०॥ निस समय यह राना उस मेत्रको आश्चर्यक साय देख रहा था उसी क्षणमें वह अभ्र (बड़ामारी) मेघ आकाशमें ही लीन हो गया । स्वयं लीन हो गया परन्तु नंदीवर्धनको यह बात दिखा गया कि यह शरीर, चय, नीवित, रूप और संपत्ति सब अनित्य हैं ॥११॥ मेत्रक विनाश= विभ्रमसे इतनी शीघ्रताके साथ मेवका विनाश होता हुआ देखकर राजाके चित्तमें अपनी राज्य संपत्तिकी तरफसे विरक्तता उत्पन्न हो गई। उसने सपझा कि समस्त वस्तुकी स्थिति इस ही प्रकारकी है कि वह आधे क्षणके लिये रमणीय मालूम होती है। परन्तु वास्तवमें चंचल है-अनित्य है-विनश्वर है, और बहुधा जीवोंको छलनेवाली है। ऐसा समझकर वह राजा-विचारने लगा कि यह जीव उपमोगकी तूंप्णासे अनात्मीक वस्तुओंमें आसक्तिको प्राप्त हो जाता है। और इसीसे दुरंत दुःखोंके देनेवाले संसाररूपी खड्ग "पंजरके भीतर-तलवारों के बने हुएं शरीररूपी पीनरेमें हमेशाके लिये
बंध जाता है-फंस जाता है ॥१२-१३॥ जन्म मरणरूपी समुद्रमें: 'निरंतर गोते खानेवाले प्राणियोंको करोड़ों भवमें भी मनुष्य जन्मकी
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२०] महावीर चरित्र । प्राप्ति होना दुर्लभ है । मनुष्य जन्मके प्राप्त हो जानपर भी योग्य देश कुल आदिकी प्राप्ति होना दुर्लभ है । हितपिणी बुद्धिका मिललना इन सबसे भी अधिक दुर्लभ है । भावार्थ-इस संसार में परिभ्रमणः करनेवाले जीवको मनुष्य जन्मका मिलना उतना ही कठिन है। जितना कि समुद्रके मध्यमें पड़े हुए रत्नका पुनः मिलना। कनाचित् मनुष्य जन्मकी भी प्राप्ति हो जाय तो भी योग्य क्षेत्रमा मिलना उतना ही कठिन है जितना कि धनिकाम उदार दानियों का मिलना, क्योंकि मनुष्य जन्म पाकर भी यदि कोई म्लेच्छ. क्षेत्र आदिकमें उत्पन्न हुआ तो वहां चारित्र धारण कानकी योग्यता . ही नहीं है। कदाचित कोई उत्तम क्षेत्रमें भी उत्पन्न हुआ तो मी उत्तम कुलका मिलना उतना ही कठिन है जितना कि विद्वानों परोपकारीका मिलना कठिन है; क्योंकि कोई उत्तम क्षेत्रमें उत्पन्न होकर भी ऐसे नीत्र कुलमें उत्पन्न हुआ जिसमें कि संयम दीक्षा नहीं ली जा सकती तो उस कुलका प्राप्त करना ही व्यर्थ है। इत्यादिक रत्नत्रयकी साधक सामग्रियों का मिलना उत्तरोउत्तर अति दुर्लभ है। सामग्रियों के प्राप्त हो जाने पर भी उस हितैपिणी बुद्धिका-तत्त्वश्रद्धा, सम्यग्ज्ञान, तथा उपेक्षाबुद्धि ( चारित्र )का मिलना उतना ही कठिन है जितना कि समस्त गुणोंके मिल जाने पर भी कृतज्ञताका मिलना कठिन है। इस प्रकार इस नगत् जीवको रत्नत्रयका मिलना सबसे अधिक दुर्लभ है ॥१४॥ यद्यपि यह सम्यग्दर्शनरूपी सुधा हितकी साधक है तो भी अनादि मिथ्यात्वरूपी रोगसे आतुर हुए प्राणीको वह रुचती नहीं । किन्तु आत्मासे मिन्न औरआत्माके असाधक तत्वों में एकमात्र रुचि होती है। केवल इसी लिये यहः .
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दूसरा सर्ग ।
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जीव यमराजरूपी राक्षसके मुखका ग्रास बनता है || १५॥ किन्तु जो
निकट मव्य है वह इन विषयोंसे निस्पृह होकर, और बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार की समस्त परिग्रहका त्यागकर, रत्नत्रय रूपी महान् भूपणको धारणकर, मुक्तिके लिये जिनेन्द्रदीक्षाको ही ग्रहण करता है ॥ १६ ॥ यह रत्नत्रय और जिनेन्द्रदीक्षा ही आत्माका हित है इस बातको मैं अच्छी तरहसे जानता हूं इस चातका मुझे दृढ़ विश्वास है, तो भी इस विषय में जिस तृष्णाने मुझे मूढ़ बना दिया उस तृष्णाका अब मैं इसतरह मूलोच्छेदन करना चाहता हूं जिसतरह हस्ती लताको जड़से उखाड़कर फेंक देता है
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|| १७ || इस प्रकार दीक्षाकी इच्छास महाराजने महलके ऊपरसे · उतरकर सभागृहमें प्रवेश किया । सभागृह में पहले से ही सिंहासन रख दिया गया था। उसी सिंहासनपर बैठकर कुछ क्षणके बाढ़ अपने पुत्रसे इस तरह बोले:- १८ ॥ " हे वत्स ! तू अपने आश्रितोंस वात्सल्य - प्रेम रखनेवाला है और तू ही इस समस्त विभूतिका आश्रय है । तूने सत्र राजाओंकी प्रकृतिको भी अपनी तरफ अनुरक्त कर रक्खा है | प्रातःकालमें उदयको प्राप्त होनेवाले नवीन सूर्यको छोड़कर और कौन ऐसा है कि जो दिन- श्रीकी प्रकृतिको अपनी तरफ अनुरक्त कर सके कोई भी नहीं कर सकता । अर्थात् जिस प्रकार दिनकी शोभाको नवीन सूर्यको छोड़कर और कोई भी अपनी तरफ आसक्त नहीं कर सकता उसी प्रकार तुझको छोड़कर समस्त राजाओंकी प्रकृतिको भी अपनी तरफ कोई आसक्त नहीं कर सकता ॥ १९ ॥ तू प्रजाके अनुरागको निरंतर बढ़ाता है, मूलवल-सेना आदिकी भी खूब उन्नति करता है, शत्रुओंका कभी विश्वास नहीं
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२२] महावीर चरित्र । करता। फिर इसके सिवाय और कौनसी ऐसी बात वाकी रही कि निसको मैं तुझे अच्छी तरह समझाऊं ॥२०॥ इस विशाल राज्यका संचालन तुम्हारे सिवाय और कोई नहीं कर सकता । तुमने समस्त शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली है। अतएव इस राज्यको . तुम्हारे ही सुपुर्द कर मैं पवित्र तपोवनको जाना चाहता हूं। है पुत्र ! इस विषयमें तुम मेरे प्रतिकूल न होना" ॥ २१ ॥ मुमुच महाराजके कहे हुए इन वाक्योंको सुनकर कुमार कुछ क्षणके लिये विचार करने लगा। विचार कर चुकने पर, यद्यपि उसको समस्त शत्रुमंडल नमस्कार करते थे तो भी उसने पहले पिताको नमस्कार किया। और नमस्कार करके बोल्नमें अति चतुर वह कुमार अपने पितासे इस प्रकार बोला- ॥२२॥ "हे नरेन्द्र ! आप हिताहितका . विचार करनेवाले हैं। इसलिये यह राज्यलक्ष्मी आत्माके हितकी साधक नहीं है" ऐसा समझकर ही आप इसका . परित्याग करना चाहते हैं। परन्तु हे तात! जरा यह तो विचार करिये कि अपन कल्याणकी विरोधिनी होनेसे जिसको आप अपना इष्ट नहीं समझते-स्वीकार नहीं करते-छोड़ते हैं उसको अब मैं किस तरह स्वीकार करसकता हूं क्योंकि वह मेरे कल्याणकी भी तो विरोधिनी है ॥२३॥ इसके सिवाय क्या आप यह नहीं . जानते है कि आपके चरणोंकी सेवाके विना मैं एक मुहर्त भी नहीं ठहर सकता हूं। अपने जन्मदाता अर-विंद-वधु (सुर्य) के चले . जानेसे दिवस क्या एक क्षणके लिये भी ठहर सकता है ? ॥२४॥ पिता अपने प्रिय पुत्रको इस प्रकारकी शिक्षा देता है कि जिससे वह कल्याणकारी.मार्गमें प्रवृत्त हो। परन्तु नरकके अंधकृपमें प्रवेश
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• दूसरा सर्ग ।
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करानेवाले इस अनर्गल मार्गका आपने किस तरह उपदेश किया ! ॥ २५ ॥ आपसे जो याचना की जाती है आप उसको सफल करते हैं। आपको नो प्रणाम करते हैं उनकी पीड़ाओंको आप शीघ्र ही दूर करते हैं । इसलिये हे आर्य ! मैं आपसे प्रणाम करके यही याचना करता हूं कि " मैं भी आपके साथ दीक्षा ही लूंगा और दूसरा कार्य न करूंगा"। ऐसा कहकर वह राजकुमार अपनी स्त्रीके साथ खड़ा हो गया ॥ २६ ॥ जत्र विद्वद्वर महाराजने यह निश्चयसे समझ लिया कि पुत्र भी दीक्षा ग्रहण करनेके निश्चयपर दृढ़ आरूढ़ है तब वे इस प्रकार बोल्नेका उपक्रम करने लगे। जिस समय महाराज बोलने लगे उस समय उनकी मोतियोंके समान दंतपंक्तिसे स्वच्छ प्रभा निकल रही थी। प्रभापंक्तिसे उनके अधर अति शोभायमान मालुम पड़ते थे। महाराज बोले कि । २७ ॥ " तेरे विना कुत्रक्रमसे चला आया यह राज्य विना मालिकके योंही नष्ट हो जायगा । यदि गोत्रकी संतान चलाना इष्ट न होता तो साधु पुरुष भी पुत्रके लिये स्पृहा क्यों करते ! ॥ २८ ॥ पिताके वचन चाहे अच्छे हों चाहे बुरे हों उनका पालन करना ही पुत्रका कर्तन्य है --- दूसरा नहीं । इस सिद्ध नीतिको जानते हुए भी इस समय तेरी मति अन्यथा क्यों हो गई है ! ॥ २९ ॥ 'नंदिवर्धन स्वयं मीं तपोवनको गया और साथमें अपने पुत्रको भी ले गया, अपने, कुलका उसने नाम भी बाकी नहीं रक्खा' ऐसा कह २ कर लोक मेरा अपवाद करेंगे। इसलिये हे पुत्र ! अभी कुछ दिन तक तू वरमें ही रह " ॥ ३० ॥ ऐसा कहकर पिताने अपने पुत्रके मस्तकपर अपना मुकुट रख दिया। इस मुकुटमेंसे निकलती हुई चित्र
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महावीर चरित्र । विचित्र रत्नोंकी दीप्तिमान् किरणोंके द्वारा इन्द्र धनुपका मंडलं बन गया था ॥ ३१ ॥ उस समय नंदिवर्धन राजा दूसरे राजाओंसे जो कि शिर नवाये हुए और हाथ जोड़े हुए खड़े थे मंत्रियोंक साथ इस प्रकार बोला । ' मैं जाता हूं, परन्तु अपने हाथकी निशानीके तौर पर अपने पुत्रको आप महात्मागोंके हाथमें छोड़े जाता हूं। ॥३२॥ उस समय रुदनके शब्दोंका अनुसरण करनेवाली बुद्धि
और दृष्टिको आगे रखकर, तथा स्त्री, मित्र, स्थिर-बंधु बांधवास यथायोग्य पूछकर, राजा नंदिवर्धन बरसे बाहर हो गयां ॥ ३३ ॥ पांचमी गतिको प्राप्त करनेकी इच्छासे नंदिवर्धनने पांच सौ राजाओंक साथमें पिहिताश्रव मुनिके निकट दिक्षा ग्रहण की। और . ज्ञानावरण आदि आठ उद्धत कर्मों पर विजय प्राप्त करनेके लिये निरवद्य चेष्टा करने लगा ॥ ३४ ॥ आत्मकल्याणके लिये चले जानेसे अपने श्रेष्ठ पिताका जो वियोग हुआ उससे पुत्रको विपाद हुभा :वह दुःखी होने लगा । ठीक ही है सज्जनोंका वियोग होनेसे संसारकी स्थितिको जाननेलाले विद्वानोंको भी संताप होता ही हैं॥३५॥ पिताके वियोगसे व्यथित हुए नंदनको मंत्री सेनापति
आदि समस्त लोगोंकी समा दूसरी अनेक प्रकारकी कथा करके प्रसन्न करती हुई। ठीक ही है, महापुरुषोंके सुखके लिये कौन चेष्टा नहीं करता है। सभी करते हैं । ॥३६॥ समाने महाराजसे कहा कि "हे राजन् ! इस प्रनाका नाथ चला गया है। इसलिये अब आप विषादको छोड़कर प्रजाको आश्वासन दीजिये। जो कापुरुष होते हैं वे ही शोक्के वश होते हैं। किन्तु जो धीरबुद्धि हैं वे कमी उसके अधीन नहीं होते ॥३७ । इसलिये हे नरेन्द्र आप अपनी इच्छा
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दूसरा सर्गः। [२९ नुसार पहलेकी तरह अब भी दैनिक क्रिया-कलाप करें। क्योंकि यदि आप इस तरह शोकके अधीन होकर बैठे रहेंगे तो दूसरे और कौन ऐसे सचेतन हैं कि जो सुखपूर्वक रहे। ॥ ३८ ॥ इस प्रकार उस वैश्यपति (राना ) को सांत्वना देकर सभा विसर्जन की गई। जिससे कि समस्त याचकोंको आनंदित करनेवाला वह राजा नंदन विपादको छोड़कर घरको गया। और पहलेकी तरह यथोक्त क्रियाऑको करने लगा ॥ ३९ ॥
थोड़े दिनों में ही इस नवीन नरेश्वरने, किसी बड़े मारी कटके उठाये बिना ही, केवल बुद्धिवलसे ही, पृथ्वीला भार्याको अपने गुणोंमें अनुरक्त कर लिया। और जितने शत्रु थे उन सबको केवल भयस ही नम्रीभूतवना लिया॥४०॥ यह एक अद्धत बात है कि इस नवीन रानाको प्राप्त करके चला भी लक्ष्मी अचलताको प्राप्त हो गई । एवं यह और भी आश्चर्य है कि इसकी स्थिर भी कीर्ति अखिल भूमंडल पर निरंतर भ्रमण करने लगी ॥४१॥ यह राजा किसीसे मत्सरभाव नहीं रखता था। इसका सत्व (बल) महान् था। इसके समस्तं गुण शरदऋतुके चन्द्रमाकी किरणोंके समान मनोहर थे। अपने गुणों से इस सज्जनने केवल भूमंडलको ही सिद्ध नहीं किया था; किन्तु लीला मात्रमें शत्रुकुलको भी सिद्ध कर लिया था-वश कर लिया था ॥४२।। इस प्रकार इस राजा नंदनने अपनी तीनों शक्तियोंसे (कोपबल, सैन्यवल, मंत्रबल या बुद्धिबल)जो कि सारभूत संपत्ति थीं,
समस्त पृथ्वीको कल्पलताके समान बना दिया। जिससे दिन पर दिन राज्यका मुख · बढ़ने लगा। . . , . . . __ . इसी समयमें सबको हर्ष उत्पन्न करनेके लिये राजांकी प्रियाने
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महावीर चरित्र । गर्भको धारण किया ॥ ४३ ॥ और समय पाकर उस सती प्रियंका महाराणीने भूपालको प्रीतिके उत्पन्न करनेवाले पुत्रका इस प्रकारसे प्रसव किया जिस प्रकार आनकी लता मनोहर पल्लवको उत्पन्न करती है । पुत्रका "नंद " यह नाम जगनमें प्रसिद्ध हुआ ॥४४॥ नंद अपनी नातिरूपी कुमुदिनीकी प्रसन्नताको बढ़ाता हुआ, उज्वल कांतिरूपी चंद्रिकाको मानो अपनी कला
ओंका बोध करानेक ही लिये फैलाता हुआ बाल चंद्रमाके समान दिनपर दिन वहने लगा ॥ ४५ ॥ ___ इसके बाद हर्पसे मानो अपने स्वामीको देखनकी इच्छास ही । खिले हुए पुष्प और नवीन पछवांकी भेंट लेकर वसंत ऋनुराग दूरसे आकर प्राप्त हुआ। और आकर मानो अपने परिश्रमको दूर करनेके ही लिये उसने वनमें विश्राम किया ॥४६॥ ऋतुरानने दक्षिण वायुको वहाकर वृक्षोंके पुराने पत्ते सत्र दूर कर दिये ! और वनको अंकरों तथा कलियोंसे अलंकृत, तथा मत्त भ्रमरोस व्याप्तकर दिया ॥ ४७ ॥ कुछर मुकुलित (अधखिले) अंकूरोस अंकित, जिसका भविष्यमें मेघ-सम्पत्तिसे सम्बन्ध होनेवाला है, खून सरल, और दानशील आमके वृक्षको चारों तरफसे घेरकरभ्रमरगण इसतरह उसकी सेवा करने लगे, जैसे किसी बड़ीमारी सम्पत्तिके स्वामी वननेवाले, सरल तथा दानशील बन्धुको घेरकर उसके मतलवी. बांधव सेवा करते हैं ॥ १८ ॥ अशोकका वृक्ष मृगनयनियोंके चरणकमलसे ताड़ित होकर निरंतर अपने मूल से ही मुकुलित कलियोंके गुच्छोंको धारण करने लगा । उन कलियोंसे वह लोगोंको ऐसा मालम होने लगा मानो उसके विलक्षण रोमांच
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दूसरा सर्गः
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ही हो गया हो ॥ ४९ ॥ ढाकके फूल निरंतर फूलने लगे । जो ऐसे मालूम पड़ते थे मानो कामदेवरूपी उग्र राक्षसने विरहपीड़ित मनुष्योंके मांसको नोच २ कर यहां खूब खाया और जो खाते २ शेष वत्र गया है उसको फूलोंके व्याजसे सुखाने के लिये यहां फैला दिया है । भावार्थ - इस वसंत के समय में डाक फूलने लगे। जिनको देखकर विरही मनुष्योंको 'कामदेवकी पीड़ा होने लगी । और इस पीड़ाके निमित्तसे उनका मांस सुखन लगा ॥ १० ॥ विलासिनियोंके मुखकमलकी आसवका पानकर केसर- पुन्नाग वृक्ष फूलने लगा। उसके पास शब्द करते हुएगुंजार करते हुए मधुपान करनेवालोंका - श्रमरों का समूह आकर संतोपको प्राप्त हुआ । ठीक ही है, जो समान व्यसनके सेवन करनेवाले होते हैं वे आपस में एक दूसरे के प्रेमी हो ही जाते हैं ॥५१॥ . उस बनके भीतर; जो कि कोयल तथा सारस आदिकी ध्वनिसे, और उसके साथ भ्रमरोंके स्वने गीतोंसे शोभित हो रहा था, दक्षिण वायुरूपी नृत्यकार कामानुबंधी नाटकको रचकर लतारूपी अंगनाको ' नत्राने लगा ॥ ५२ ॥ सूर्य सबकी सब पद्मिनियोंको बर्फसे मुर्झाई हुई देखकर क्रोवसे दक्षिणायनको छोड़ हिमालयकी तरफ मानी उसका निग्रह करनेके ही लिये लौट पड़ा। भावार्थ- सूर्य दक्षिणायन से -उत्तरायण पर आ गया और अब हिमका पड़ना कम हो गया ॥ १३॥ कन्नेर उज्ज्वल वर्णकी शोभासे तो युक्त हो गया; परन्तु उसने सौरम
कुछ
भी नहीं पाया। ठीक ही हैं, जगतमें इस बातको तो सभी लोग १ शब्दविशेष-जैसा कि वांसुरीसे अथवा हवा भरजानेपर वांसोंसे निकलता है ।
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महावीर चरित्र देखते हैं कि सब प्रकारकी सम्पत्तिका स्वामी कोई एकाध ही होता है ॥५४॥ चंपा दुसरेमें नो न पाई नासके ऐसी असाधारण सुगंधिसे भी युक्त है, और उसने निर्मल एप्पसंपत्तिको भी धारण कर रखवा. है, तो भी भ्रमर उसकी सेवा नहीं करते । सो ठीक ही है जो मलिन होते हैं वे उत्कृष्ट गंधवालोंसे रति-प्रेम नहीं करते ॥५५॥ शिशिर ऋतुका अंत हो जानेसे कमलिनियान बहुत दिनके बाद अब किसी प्रकारसे अपनी पूर्व संपत्ति प्राप्त की है। अतः हर्षसे मानो वसंतने उस लक्ष्मीको देखने के लिये ही बड़े २ कमलरूपी नेत्रोंको खोल रखा है ॥१६॥ अष्टपूर्वाकी तरह अपनी पहली वरमा कुंदलतिकाको छोड़कर भ्रमर खिली हुई माधवी लताको प्राप्त होने लगे। सो ठीक ही है-जगतमें जो मधुपान करनेवाले होते हैं उनकी रति चंचल होती है ।। ६७ ॥ कमलवनका प्रिय-चन्द्रमा हिमके नष्ट हो जानेसे विशद और कमलिनियोंको आनंद देने वाली अपनी चांदनीका रात्रि समयमें प्रसार करने लगा । जो ऐसी मालूम होती थी मानो बढ़ती हुई श्रीको धारण करनेवाले कामदेवकी कीर्ति ही हैं ॥ १८ ॥ वसंतकी श्री-शोमा मानों अपनेको विशेष बनानेकी इच्छासे ही मधुपान करनेवाले भ्रमरोंके साथ अपनी सुगंधिसे समात दिशाओंको सुगन्धित . करनेवाले मनोहर तिलक वृक्षकी स्वयं सेवा करने लगी ॥१९॥ मनोज्ञ गंधको धारण करनेवाला दक्षिण-वायु पा'रिभातके पुष्पोंकी परागको सब तरफ फैलाने लगा। मानो कामदेवने जगत्को वंश करनेके लिये दूसरोंसे औषधियोंके चूर्णका प्रयोग कराया है ॥६०॥ मार्गमें आमके वृक्षोंपर बैठी हुई, और मनोहर शब्द करती हुई कोयलें ऐसी मालूम पड़ने लगीं मानो वटोहियोंको
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दूसरा सर्ग। इस प्रकार भर्सना कर कह रही हैं कि अपनी प्रिय स्त्रीका सदा स्मरण कर २ के कामदेवके वंश होकर व्यर्थ मर क्यों रहे हो, लौट कर अपने अपने घर क्यों नहीं चले जाते ? ॥ ६१ ॥ इस प्रकार सब जगह फूली हुई वृक्षराजियोंसे शोभायमान' वनमें घूमते हुए वनपाल-मालीने उसी वनमें एक जगह मुनि महाराजको देखा । ये प्रमु जिनके कि अवधितान स्फुरायमान हो रहा था एक सुंदर शिलाके ऊपर बैठे हुए थे ।। ६२ ॥ वनपालने महामुनिको खूर्व भक्तिसे प्रणाम किया। प्रणाम करनेके बाद मुनि महाराजका
और वसंतका दोनों ही का आगमन महाराजको इष्ट है-अथवा मुनि महारानका शुभागमन महारानको वसंतके आगमनसे भी अधिक इष्ट है इसलिये दोनों ही की सूचना महाराजके पास करनेके लिये वह वनपाल जोरसे शहरकी तरफ दौड़ा ॥ १३ ॥ महाप्रतीहारसें अपने आगमनकी सुत्रना कराकर वनपालने सभामें बैठे हुए भूपालको जाकर नमस्कार किया। और नवीन . आमके पल्लवोंको दिखाकर वसंतका, तथा वचनोंस मुनीन्द्रके आगमनका निवेदन किया. ॥६४॥ वनपालके वाक्योंको सुनकर राना अपने सिंहासनसे उठा। निधर मुनिमहाराज थे और उस दिशाकी तरफ सात पैंड चलकर उपवनमें स्थित मुनीन्द्रको अपने मुकुटमणिका पृथ्वीसे स्पर्श कराते हुए नमस्कार किया ॥६५॥ राजाने वनपालको जिन भूषणोंको स्वयं पहरेथा वैभूपण तथा उनके साथ और भी बहुतसा धन इनाममें दिया। तथा नगरमें इस बातकी मेरी बजवादी-डयोंढी पिटवा दी कि सब जने मुनीन्दकी बंदनाके लिये प्रयाण करो ॥६६॥ प्रतिध्वनिसे समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले भेरीके शब्दको सुनकर नगरके सब लोग जिनेन्द्र-धर्मको
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३. ]
महावीर चरित्र । सुननेके लिये उत्सुक होने लगे, और उसी समय एकदम बाहर निकले ॥६७|| तथा शीघ्र ही अपने २ अमीष्ट वाहनोंपर-सवारियोपर चढ़कर राजद्वारपर जिसके आगे आठ नौ पदाति-संतरी मौजूद थे, आ उपस्थित हुए कि सभी लोग महाराजके निकलनेकी प्रतीक्षा करने लगे ॥६॥ ज्ञानके निधि उन मुनि महारानके दर्शन करने के लिये महाराजकी आज्ञासे, अलंकार और हावभावसे युक्त, अंगरक्षकोंसे 'चारों तरफ घिरा हुआ महारानका अंत:पुर भी रथमें सवार होकर चाहर निकला ॥६९॥ महाराज नंदन भी धनसे याचकोंकेमनोरथोंको -सफल करते हुए, मत्त इस्तीके ऊपर चढ़कर, उस समयके योग्य वेषको धारण कर, चारों तरफसे रानाओंसे वेष्टित होकर, मुनिबदनाक लिये बड़ी विभूतिके साथ वनको निकले। जिस समय महाराज बाहर निकले उस समय मकानोंके पर बैठी हुई नगरकी सुंदर रमणियोंने अपने नेत्र कमलोंसे उनकी पूजा की। भावार्थ-उनको देखकर अपनेको धन्य माना ॥ ७० ॥ इस प्रकार जिसमें मुनिवंदनाके लिये भक्तिपूर्वक गमनका वर्णन किया गया है ऐसे अशगकविकृत वर्धमान चरितका
दूसरा सर्ग समाप्त हुआ।
तीसरा सर्ग। इन्द्रतुल्य वह राजनंदन नंदनवनके समान अपने उसवनमें पहुंचा। ...जो कि मुनिके निवाससे पवित्र हो गया था ॥१॥ सुगंधित दक्षिणवायुने राजाका श्रम दूर ही से दूर कर दिया, और उस दक्षिण . नायकको प्राप्त कर बंधुकी तरह खूब आलिंगन किया ॥२॥ राजा
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तीसरा सर्ग |
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दूरसे ही पर्वत समान ऊंचे हस्ती परसे उतर पड़ा उसने मानो इस उक्तिको व्यक्त कर दिया कि विनयरहित श्री किसी भी कामकी
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नहीं ||३|| छत्र आदिक राज चिन्होंको दूर कर नौकरोंके हस्तावलंबनको भी छोड़कर उसने वन में प्रवेश किया || ४ || वहां लाल अशोक वृक्ष के नीचे निर्मल स्फटिक शिला पर मुनिको इस तरह बैठे हुए देखा, मानो समीचीन धर्मके मस्तक ही बैठे हों ॥ ५ ॥ राजाने अपने दोनों हाथोंको कमल कलिकाके सदृश बनाकर अपने मुकुटके पास रख लिया, और महामुनिको तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया ॥ ६ ॥ वह राजाओंका स्वामी उनके निकट पृथ्वीपर ही बैठा। इसके बाद हाथ जोड़कर नमस्कार करके हर्षित चित्तसे मुनिसे इस प्रकार वोला- ॥७॥ हे भगवन् ! वीतराग अर्थात् मोहके नष्ट करनेवाले आपके सम्यग्दर्शनके समान दर्शन से भव्य प्राणियोंकी क्या मोक्ष नहीं होती ! अवश्य होती है ॥ ८ ॥ हे नाथ ! मुझे इसके सिवाय और कुछ आश्चर्य नहीं है कि आपने अकाम होकर मुझको पूर्णकाम किस तरह कर दिया ? अर्थात् काम नाम कामदेवका मी है और इच्छाका भी है। मुनि कामदेवसे रहित हैं, उनके दर्शनसे सम्पूर्ण इच्छाएं पूर्ण होती हैं ॥ ९ ॥ आप सम्पूर्ण मंन्य जीवोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। आपसे मैं अपनी भवसंतति - पूर्व भवको सुनना चाहता हूं ॥ १० ॥ इस प्रकार स्तुतिकर जब राना चुप हो गया
तवं सर्वाधिरूप नेत्रके धारक यति इसतरह बोले ॥ ११ ॥ हे
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भव्य चूड़ामणि ! मैं तेरे जन्मान्तरोंको अच्छीतरह और यथावत् कहता हूं सो तू उनको एकाग्र चित्तसे सुन ॥ १२ ॥ :
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३२]
महावीर चरित्र । इसी भरतक्षेत्रमें कुलाचलके सरोवरसे हिमवान् पर्वतके पादहस उत्पन्न होनेवाली गंगा नामकी नदी है। वह अपने फेनोंसे ऐसी मालूम पडती है मानों दूसरी निम्नगाओंकी हसी कर रही है |१३|| . उसके उत्तर तट पर वराह नामका पर्वत है । जो अपने शिखरोंसे . आकाशका उल्लंघन कर चुका है। जिससे ऐसा मालुम होता है मानों यह स्वर्गको देखनेके लिये ही खड़ा है ॥ १४॥ हे राजेन्द्र ! इस भवसे पहले नौगे भवमें तू उसी पर्वतरर मृगेन्द्र सिंह था । बड़े २ मत्त हस्तियोंको त्रास दिया करता था ॥१५॥ वाल चंद्रपाकी सा करने वाली डाढोंसे वह विखाल मुख भयंकर-विकराल मालूम पड़ता था। कंधेपर जो सटाएं थीं वे दावानलकी शिखाके समान पीली और टेढ़ी थीं ॥ १६ ॥ भौंरूपी धनुपसे भयंकर, पोले जाज्वल्यमान उल्काके समान नेत्र थे। पूंछ उठानेपर वह पीठको तरफ लौट जाती थी और अंतका भांग कुछ मुड़ जाता था। तब ऐसा मालूम पड़ता था कि मानो इसने अपनी ध्वना ऊंची कर रक्खी हो ॥ १७ ॥.. शरीरके अत्युन्नत-विशाल पूर्वभागसे मानो. आकाशपर आक्रमण । करना चाहता है ऐसा मालूम पड़ता था । स्निग्ध चंद्रमाकी किरणोंके पड़नेसे खिले हुए कुमुदके समान शरीरकी छवि थी ॥१८॥ उस पहाड़की: शिखर पर नो मेवःगर्नते थे उनपर क्रोध करता और अपनी गर्जनासे उनकी तर्जना करता था, तथा वेगके साथ उछल . . २. कर अपने प्रखर नखोंसे उनका . विदारण · करता था ॥१९॥ जबतक हस्ती भाग कर पर्वतकी. किसी कुंनमें नहीं घुस जाते तबतक उनके पीछे भागता ही जाता था। इस प्रकार : स्वतन्त्रतासे उस पर्वतपर रहते हुए उस सिंहको बहुत काल वीत गया ॥२०॥
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तीसरा संर्ग
[ ३३ एक दिन वह सिंह जंगली हस्तिराजों को मारकर श्रम - थकावटसे आर्तुर होकर गुफाके द्वारपर सो गया। मालूम पड़ने लगा मानों पर्वतका साधिक्षेत्र हास्य ही हो ॥ २१ ॥ उसी समय अमितकीर्ति और अमितप्रभु नामके दो पवित्र चारण मुनिओंने आकाश मार्गले जाते हुए उप सिंहको उसी तरह सोता हुआ देखा || २२ || आकांश विहारी व दोनों यतिराज आकाशसे उतरकर सप्तपर्ण वृक्षके नीचे एक निर्मल शिला पर बैठ गये ॥ २३ ॥ विद्वान और अकां- नि भय वे दोनों ही चारण मुनि अनुकंग- दयासे सिंहको बोध देनेके लिये अपने मनोज्ञ कंसे ओजस्विनी प्रज्ञप्ति विद्याका पाठ करने लगे ॥ २४ ॥ उनकी उस ध्वनिप्त-विद्याके पाठसे मृगराजका निद्राप्रमाद नष्ट हो गया । क्षणभर में उसकी साहजिक क्रूरता दूर हो गई, और उसके परिणाम को नल हो गये || २५ || कानके मूलनें अपनी पूंछको रखकर वह सिंह गुफाके मुखसे बाहर निकला | निकलकर अपने मीरण आकारको छोड़ कर मुनि के निकट जां
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भावसे दोनों मुनियों के सन्मुख मुखके दर्शन में प्रीति प्रकट कर थे ॥ २७ ॥ उदार बुद्धि अमिनकीर्ति उसको देखकर इस प्रकार बोले कि - अहो मृगेन्द्र ! समीचीन मार्गको प्राप्त न करके ही तू ऐसा हुआ है ॥ २८ ॥ हे सिंह ! यह निश्चय समझ कि तू निर्भय है । तूने केवल यहीं सिंहत्व घारग नहीं किया है; किंतु दुरंत और अनादि संसाररूप बननें भी धारण किया है ॥ २९ ॥ यह जीत्र, परिणामी और अपने कर्मोका कर्ता तथा भोक्ता होकर भी, शरीर मात्रं - शरीर, प्रमाण और 'अनादि अनंत हैं । ज्ञानादि गुण
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म० चं० ३ :
बैठा ॥ २६ ॥ वह अत्या शांत बैठ गया । उसके नेव मुनियोंके
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महावीर चरित्र ।
इसके लक्षण है ॥ ३० ॥ तूने अभी तक काल्टन्वि भादिको प्राप्त नहीं किया है इसलिये तू पहले उनको प्राप्त कर और रागादिककं साथ मिध्यात्व बुद्धिका परित्याग कर ॥ ३१ ॥ बंध और मोक्षके विषयमें जिनेन्द्र देवका संक्षेपमें यह उपदेश है कि जो रागी है व कर्मों का बंध करता है, और जो वीतराग है वही कर्मोंस मुक्त होता है ॥ ३२ ॥ बंघ आदिक दोषोंके मूल कारण राग और द्वेप बताए हैं । इनके उदयसे ही सम्यक्तत्व नष्ट होता है ॥३३॥ रागादि दोषोंके कारण तूने जिस भवपरंपरामें भ्रमण किया है । हे सिंह ! तू उसको मेरे वचनोंसे अपने श्रोत्रको पात्र बनाकर सुन ॥३४॥
इसी द्वीपके (जम्बूद्वीपके) पूर्व विदेह में पुंडरीकिणी नामकी नगरी है | वहां एक न्यायी धर्मात्मा व्यापारी रहता था ॥ ३५ ॥ . एकवार उसके कुछ आदमिओं की एक टोली बहुतसा धन लेकर किसी कामके लिये कहीं गई। उसके साथ तपके निधि सागरसेन नामके विख्यात घर्मात्मा मुनि भी गये ॥ ३६ ॥ बीचमें डाकुओंने उम टोलीको लूट लिया । उस समय जो आदमी शूर थे वे मारे गये, जो डरपोक थे चे पास ही नगरके भीतर भाग गये || ३७ || मुनिशन दिग्मूढ़ हो गये - मार्ग भूल गये । उनको यह नहीं मालूम रहा कि कहां होकर किधरको जाना चाहिये। उन्होंने मधुवनके भीतर कांसी नामकी स्त्रीके साथ पुरुरवा नामके वनेचर (भील) को देखा ॥ ३८ ॥ यद्यपि दह भोल अत्यंत क्रूरपरिणामी था, तो भी उसने इन मुनिके वाक्योंसे अकस्माद घमको धारण कर लिया । साधुओंके संयोगसे ऐसा कौन है जो
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शांतिका - प्राप्त नहीं होता ? ||३९| उस डोकूने भक्तिसे बहुत दूर तक साथ जाकर उनको बहुत अच्छे मार्ग पर लगा दिया | और वे
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तीसरा सर्ग।
यति निराकुलतास चले गए ॥ ४० ॥ पुरुरवाने अहिंसादिक . व्रतोंकी बहुत दिन तक रक्षा की । पीछे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें दो सागरकी आयुसे उत्पन्न हुआ ॥ ४१ ।। वहां अणिमा आदिक ऋद्धिओंको प्राप्त कर तथा स्वर्गीय सुखान्तका पानकर जब पूर्व 'पुण्यका क्षय हो चुका तत्र वह वहांसे उतरा ॥ ४२ ॥
इसी भारतक्षेत्रमें नगरोंकी स्वामिनी विनीता नामकी एक नगरी है, जो ऐसी मालुम होती है मानों स्वयं इन्द्रने ही स्वर्गक सारमागको इकट्ठा करके फिर उससे उसे बनाया है ।। ४३॥ रात्रि मानो चंद्रमाके निरर्थक उदयकी हंसी किया करती है क्योंकि -रत्नोंक परकोटके प्रभाजालसे वहां अंधकारका आगमन रुक जाता है। ॥४४॥ वहाँके मकानोंके ऊपर शिखरों में लगी हुई नीलमणि जो चमकती हैं उनके किरण समूहसे उस नगरीमें सूर्य इस तरह ढक जाता है जैसे काले मेत्रोंसे ॥४५॥ वहां मदोन्मत्त भ्रपा युवाओंक नेत्रोंके साथ २ स्त्रिोंक निःश्वासको सुगंधि खिचकर उनके मुखकमलपर पड़ने लगते हैं ॥४६॥ जहांकी मणिओंकी बनी हुई मृमि, वहांकी रमणिऑके चपल नेत्रोंक प्रतिबिम्बके पड़नेस नील कमलोंसे - शोमित सरोवरकी तुलना करने लगती है ॥ ४७ ॥ महलोंक छन्नोंपर नो पद्मराग-माणिक लगे हुए हैं, उनके किरण मंडलसे वहां असमयमें ही आकाशमें संव्याक वादलोंका भ्रम होने लगता है. ॥४८॥ वहां मकानोंके ऊपर बैठे हुए मयूर मरक्तमणियोंकी-पन्नाओंकी कांतिसे इस तरह ढक जाते हैं नो पहले तो 'किसीकी मी दृष्टि में ही नहीं आते; परन्तु जब व मनोन शब्दबोलते हैं तत्र व्यक्त होते हैं. ॥१९॥ इस नगरीमें जगनके हितैषी समस्त गुणोंकि
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निधान धर्मके स्वामी श्रीमान् आदि तीर्थकर श्री वृषभदेव निवास करते थे ||१०|| जिस समय ये वृषभदेव स्वामी गर्भ में आये थे त पृथ्वीपर इन्द्रादिक सभी देव इकट्ठे हुए थे। जिससे पृथ्वीने स्वर्गलोककी समस्त शोभाको धारण कर लिया था ॥ ५१ ॥ तथा उनका जन्म होते ही दिव्य-स्वर्गीय दुंदुमि बाजे बजने लगे थे, अप्सराएं नृत्य करने लगीं थीं, आकाशते पुष्पोंकी वर्षा होने लगी थी, मानों उस समय आकाश भी हंस रहा था ॥५२॥ उत्पन्न होते ही आनन्दसे इन्द्रादिक देवोंने महके ऊपर ले जाकर उनका क्षीर समुके से अभिषेक किया था ॥ ५३ ॥ मति श्रुत अवधि ये तीन ज्ञान उनके साथ उत्पन्न हुए थे। इनके द्वारा उन्होंने मोक्षके सभीचीन मार्गको स्वयं जान लिया था । इसीलिये ये स्वयंभू हुए ॥ ५४ ॥ उन्होंने कल्पवृक्षों का अभाव हों जानेसे आकुलित प्रजाको पदं कर्मका - असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्पका उपदेश देकर जीवनके उपाय में लगाया था । इसीलिये वे कल्पवृक्षके समान हैं ॥ ५९ ॥ इनका पुत्र भरत नामका पहला चक्रवर्ती हुआ । यह समस्त भरतखंडकी पृथ्वीका रक्षक था और नवीन साम्राज्यसे भूषित था ॥ ५६ ॥ इसने चौदह महारत्नों की संपत्तिको प्राप्त कर उन्नतिका सम्पादन किया था । इसके घरमें नवनिधि सदा ही किंकरकी तरह रहा करती थीं ॥ ५७ ॥ जिस समय यह दिग्विजयके लिगे निकला था उस समय इसकी विपुल सेना के भार से उत्पन्न हुई पीड़ाको सहन न कर सकनेके कारण ही मानों पृथ्वी धूलिके व्याजसे- धूलिरूप होकर आकाश में जा चढ़ी थी ॥ १८ ॥ समुद्र तटके बनोंमें जो लताओंपर पल्लव लगे हुए थे वे पद्यपि भग्न हो गये थे
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तो मी जब मरतकी सेनाकी सुंदरिओने उनको अपना कर्णभूषणं बना लिया तब वे ही दीप्त प्रकाशित होने लंगे ॥ ५९ ॥ समुद्रके किनारे पर जो फेनराशि थी उसके कारण भरतकी सेना के लोगोंको समुद्र ऐसा दीखा-मालून पड़ा मानों पहले माकी किरणोंको पीकर पीछेसे उगल रहा हो ॥६० ॥ मरतके हस्ती रणका आरम्भ होने पहले ही समुद्र में जो जलकुंजर उकरते थे उनके साथ मदके आवंशसे क्रुद्ध होकर लड़ने लगते ॥ ६१ ॥ साम, दाम, दण्ड, भेदमें पौरप रखनेवाला यह भरत स्कुरायमाण चक्रकी श्रीको धारण करनेवाली बाहुसे छह खंडके मंडलसे युक्त पृथ्वीका शासन करता था ।। ६२ ॥ उसकी पट्टानी प्रियाका नाम धारिणी था। । यह तीन लोकके सौंदर्यकी सीमा थी। पृथ्वीपर इसका धारिणी यह नाम जो प्रसिद्ध हुआ था सो इसीलिये कि वह गुण-धारिणीगुणोंको धारण करनेवाली थी ॥ १३ ॥ पूर्वोक्त देव-पुरुरवाका जीव स्वर्गसे उतरकर इन्ही दोनों महात्माओंका पुत्र हुआ। उसका नाम मरीचि रक्खा गया । मरीचि अपनी कांतिसे उदयको प्राप्त होनेवाले सूर्यकी मरीचि-किरणोंको लज्जित करता था ॥ ६४ ॥ स्वयंभू-स्वयंवुद्ध पुरुदेव आदिनाथ स्वामीको स्वर्गसे आकर लोकांतिक देवोंने जब संवोधा, और संबोधित होकर जब उन्होने दीक्षा ली तब उनके साथ मरीचिने भी दीक्षा ले ली। परंतु वह दीनदुःसह परीपहोंका सहन न कर सका क्योंकि जिनका चित्त अत्यंत धीर है वे ही निग्रंथ लिंगको धारण कर सकते हैं-जो कातर हैं वे इसको वारण नहीं कर सकते ॥ ६५-६६ ॥ अनेक प्रकारको तर्क वितर्क करनेवालोंके गुरु इस. मरीचने संसारका मूलोच्छेदन करने में समर्थ
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जैन तपका परित्याग कर स्वयं सांख्यमतकी प्रवृत्ति की ॥ ६७ ॥ घोर मिथ्यात्वके वश होकर मस्करी - मरीचि दूसरे अनेक मंदबु द्विभको भी उस कुपथमें लगाकर स्वयं घोर तप करने लगा ॥ ६८ ॥ कुछ कालमें मृत्युको प्राप्त / कर वह काय क्लेशके वलसे पांचवें स्वर्ग में कुटिल परिणामी देव हुआ ॥ ६९ ॥ वहां इसकी दश सागरकी आयु हुईं। देवांगनाएं इसको अर्ध नेत्रोंसे देखती थीं। इस प्रकार यह दिव्य स्वर्गीय दशाका अनुभव (सुखानुभव ) करने लगा | ॥७०॥ आयुके अंतमें उसके पास निरंकुश यमराज आ उपस्थित हुए । संसार में ऐसा कौन जो मृत्युको प्राप्त न होता हो ॥ ७१ ॥
कौलीयक नगर में कौसीद्यवर्जित कौशिक नामका एक ब्राह्मण था । वह समस्त शास्त्रोंमें विशारद था ॥ ७२ ॥ उसकी कपिला - रेणुका के समान कपिला नामकी प्रिया थी। वह स्वभावसे ही मधुरभापिणी और अपने पतिके चरणोंको ही अद्वितीय देवता समझने वाली थी ॥ ७३ ॥ इन दोनोंके यहां वह देव स्वर्गसे च्युत होकर प्रिय पुत्र हुआ । यह अपने हृदय में मिथ्या तत्वोंको अच्छी तरह धारण करता और उनका ही प्रसार करता था ॥ ७४ ॥ इसने परित्रानकके घोर तपका आचरण ' कर आचार्यपद प्राप्त कर लिया । मानो इसी लिये क्रुद्ध होकर यमराज इस पापीके निकट आ उपस्थित हुए ||७५ || यहांसे मरकर यह .. पहले स्वर्ग में अमेय कांति और संपत्तिको धारण करनेवाला तथा देवियोंके मनका हरण करनेवाला महान् देव हुआ ॥ ७६ ॥ निर्विचार - अविवेकी अपनी प्रियाके साथ प्रसन्न चित्तसे प्रकाशमान मणि
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ओंके विमान में बैठकर, देवोंपनीत भोगोंकों भोगकर काल यापन करने लगा || ७७ || दो सागर की आयुके पूर्ण होनेपर ये भोग कहीं छूट न जांग इस भय से इसके हृदयमें अत्यंत शोक उत्पन्न हुआ | मानों इस शोकका मारा हुआ ही स्वर्गसे गिर पड़ा ॥ ७८ ॥ स्थूणा गौर नामके नगर में भारद्वाज नामका एक उत्तम ब्राह्मण रहता था । राजहंसकी तरह इसके दोनों पक्ष शुद्ध थे । अर्थात् जिस तरह राजहंसके दोनो पक्ष - पंख शुद्ध स्वच्छ होते हैं उसी तरह इसके भी माताका और पिताका दोनों पक्ष शुद्ध थे ||७९ || इसके घरकी भूषण पुष्पदंता नामकी गृहिणी थी। यह अपने दांतोंकी शोभासे कुंद्रकलिकाओंकी स्वच्छ कांतिका उपहास करती थी ॥ ८० ॥ वह देव स्वर्गसे उतरकर इन्हीं दोनोंके यहां पुप्पमित्र नामका पुत्र हुआ। भारद्वाज और पुष्पदंत दोनों आपस में सदा अनुरक्त रहते थे । अतएव मालुम होता है कि मानों उनके मोहरूप वीजसे यह अंकुर उत्पन्न हुआ हो ॥ ८१ ॥ एक सन्यासीकी संगतिको पाकर स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से इस अविवेकीने हठसे बाल्यावस्थामें ही दीक्षा ले ली ॥८२॥ चिरंकालतं तप करके मृत्युके वंश हुआ जिससे दो सागरकी आयुसे ईशानं स्वर्गमें जाकर देव हुआ || ८३ ॥ कंदर्प देवोंके द्वारा गंजाये गये हरएक प्रकारके बाजे और उनके गान तथा गानके क्रमके अनुसार अप्सराओंके मनोहर नृत्यको देखते हुए वह उस स्वर्ग में रहने लगा ॥ ८४ ॥ पुण्यकें क्षीण होनेपर
स्वर्गने उसको इस तरह गिरा दिया जिस तरह दिनके बाद सोनेवाले पीलवानको मत्तं हस्ती गिरा देता है । भावार्थ- जिस तरह रात्रिमें नींदसे झोका लेनेवाले पीलवानको मत्त हस्ती अपने
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महावीर चरित्र। . ऊपरसे गिरा देता है उसी तरह कुछ दिनोंके बाद आयुके वीत. जानेपर स्वर्गने उस देवको गिरा दिया ॥ ८५ ॥ :
वेतिविका नामकी नगरीमें अग्निभूति नामका एक अग्निहोत्री ब्राह्मण रहता था। इसकी भार्याका नाम गौतमी था। वह सती और लक्ष्मीके समान कांतिके धारण करनेवाली थी ॥ ८६ ॥ स्वर्गसेच्युत . होकर वह देव इन्हींके यहां उत्पन्न हुआ। इस पुत्रका नाम अग्निसह रक्खा । विनलीकी तरह प्रकाशमान अपने शरीरकी कांतिसे इसने समरस दिशाओंको पीला बना दिया ॥ ८७ ॥ यहां पर भी सन्यासियोंके तपका आचरण करने में अपने जीवनको पूर्ण कर सनत्कुमार स्वर्गमें बड़ी भारी विभूतिका धारक देव हुआ ॥ ८८ ॥ उसकी सात सागरकी आयु इस तरह बीत गई मानों देखनेके छउसे अप्सराओंके नेत्रोंने उसको पी लिया हो ॥ ८९ ॥ ___ भरतक्षेत्र में मंदिर नामका पुर है। जहां सदा आनंदका निवास रहता है। एवं जहांके मंदिरों-मकानोंपर उड़ती हुई ध्वनाओंकी पंक्तिसे आताप-सूर्यका ताप मंद हो जाता है ।।९०॥ इस नगरमें कुंद पुष्पक समान स्वच्छ दंतपंक्तिको धारण करनेवाला गौतम नामका ब्राह्मण रहता था। इसकी घरके काममें कुशल और घरकी स्वामिनी कौशिकी नामकी बल्लमा थी ॥११॥ वह देव इन्ही दोनोंके यहाँ अग्निमित्र नामका पुत्र हुआ। इसके वालोंका झुन्ड दावानलकी शिखाओंके समान था। जिससे वह ऐसा मालूम होता था मानों दूसरे मिथ्यात्वसे जल रहा हो ॥५२॥ गृहवासके प्रेमको छोड़कर सन्यासीके रूपसे खूब ही तपस्या करने लगा और मिथ्या उपदेश भी देने लगा ॥ ९३ ॥ खोटे मदको धारण करनेवाला अग्निमित्र बहुत दिनके .
सात सागौन उसको पा
है । जहाँ सदा
की पंक्तिसे
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बाद मृत्युको प्राप्त हुआ । 'यहांसे मरकर माहेंद्र स्वर्ग में इन्द्रके समान विभूतिका धारक देव हुआ ॥ ९४ ॥ वहां सान सागर प्रमाण काल तक इच्छानुसार स्वतंत्रता से रहा । पीछे निःश्रीक होकर वहांसे ऐसा गिरा जैसे वृक्षसे सुखा पत्ता गिर पड़ता है ॥९१॥
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स्वस्तिमती नामकी नगरीमें सलंकायन नामका एक श्रीमान् ब्राह्मण रहता था । गुणोंकी मंदिर मन्दिरा नामकी उसकी प्रिया श्री ॥ ९६ ॥ इन दोनों के कोई संतान न थी । स्वर्गसे च्युत होकर वह देव इनके यहां भारद्वाज नामका पुत्र हुआ । जिस तरह विष्णुका गरुड़ आधार है उसी तरह यह भी दोनोंका आधार हुआ ॥ ९७ ॥ यहां भी सन्यासीके तपको तपकर, बहुत दिनमें अपने जीवनको पूर्ण कर उत्कृष्ट माहेन्द्र स्वर्ग में महनीय श्री - विभूति - ऋद्धिका धारक देव हुआ ॥ ९८ ॥ स्वर्गीय रमणियोंके मध्यम रीतिसे नृत्य करनेवाले विस्तृत नेत्र तथा कानों में पहरनेके कमल और कटाक्षोंसे इच्छानुसार ताड़ित होकर हर्षको प्राप्त होता हुआ ॥ ९९ ॥ सात सागर प्रमाण कालकी स्थितिवाली श्रीसे संयुक्त देवाङ्गनाओंके अनवरत रतका अनुभव किया ॥१००॥ कल्पवृक्षोंके कांपनेसे, मंदारवृक्षके पुप्पोंकी मालाके म्लान हो जानेसे -कुमला जानेसे, दृष्टिमें भ्रम और भी कारणोंसे नत्र उसका स्वर्गसे निर्वासन सूचित हो गया तब रो रो कर खूब विलाप करने लगा । शरीरकी कांति मंद हो गई । अपनी खेड खिन्न विरहिणी दृष्टिको इष्ट रमणिओंपर डालने लगा ॥१०१॥१०२॥ मेरा चित्त चिंताओंसे संतप्त हो रहा है, मैंने जो आशाका चक्र बांध रक्खा था उससे में निराश हो गया हूं,
पड़नानेसे, इत्यादि
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४२ ] - महावीर चरित्र । मेरे पुण्यका. दीपक बुझ गया है, आज मैं अंधकारसे क गया है। ॥ १०३ ॥ विभ्रम-विलास करनेवाली दिव्य देवाशनाओंसे पृजित । स्वर्ग! मैं अत्यंत दुःखी और निराश्रय होकर गिर रहा हूं, हा! क्या तू मी मुझे आधार न देगा? ॥ १०४ || मैं किसकी शरण : लूं, क्या करूं, मेरी क्या गति हो होगी अथवा किस उपायसे . में असलमें मृत्युका निवारण कर॥१०शा हाय! हाय! शरीरका साहनिक-स्वाभाविक लावण्य भी न मालुम कहां चला गया। अथवा ठीक ही है-पुण्यके क्षीण होनेपर कौन अलग नहीं हो जाता ॥ १०६ ॥ प्रेमसे मेरे कंठका गाढ़ आलिंगन करके हे कृशोदर ! मेरे शरीरसे जो ये प्राण निकल रहे हैं उनको तो रोक ॥१०॥ करुगाके आंसुओंसे पूर्ण दोनों नेत्रोंसे अपने कष्टको प्रकाशित कर . उसकी दिव्य अङ्गनाएं उसको देखने लगी, और उनके देखते २ही वह उक्त प्रकारसे विलाप करता २ स्वर्गसे सहसा गिर पड़ा। मानों मानसिक दुःखके मारकी प्रेरणासे ही गिर पड़ा हो ॥ १०८॥
. जिसके बड़े भारी पुण्यका अस्त हो गया एवं जिसकी आत्मा मिथ्यात्वरूप दाहन्वरसे विह्वल रहती थी वह मारीचका जीव वहांसे उतरकर दुःखोंको भोगता हुआ स और स्यांवर योनिमें चिरकालतक भ्रमण करता रहा ॥१०९॥ कुयोनियों में चिरकालंतक
भ्रमण कर किसी तरह फिरभी मनुप्य भवको पाया; परन्तु यहां भी पापका • भार अद्मुत था। सो ठीक ही है-अपनर किये हुए कौके पाकसे यहं नीव संमार में किस चीनको तो पाता नहीं है, किसको छोड़ता नहीं है, और किसको धारण नहीं करता है ।।११०॥ भारतवर्षकी लक्ष्मीके क्रीडाकमल रानगृह नगरमें सांडिल्यं नामका ब्राह्मण रहता
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तीसरा सर्ग |
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था। उसकी स्त्रीका नाम पाराशरी था ॥ १११ ॥ इन्हीके यहां स्थावर नामको धारण करनेवाला पुत्र हुआ। वह युक्त कर्मको छोड़ मस्करी - सन्यासीका तपकर दश सागरकी आयुसे ब्रह्म स्वर्गमें जाकर उत्पन्न हुआ ॥ ११२ ॥ यहां स्वाभाविक मणिओंके भूपणोंसे सुन्दर सुगंधित कोमल मंदार - कल्पवृक्षकी मालाओंके तथा मलयागिरि चंइनके रसे रमणीय शरीरको सहसा प्राप्तकर स्वच्छ संपत्तिको धारणकर, अत्यंत सफल मनोरथ होकर तथा देवाङ्गनाओंसे वेष्टित होकर चिरकाल तक रमण करने लगा ॥ १३ ॥
इस प्रकार अशग कविकृत श्री वर्द्धमान चरित्रम मारीच विलपन नामका तृतीय सर्ग समास हुआ ।
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चौथा सर्ग |
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इस भारत वपकी भूमिपर अपनी कांतिसे स्वगकी श्रीको वारण करनेवाला, पुण्यात्माओंके निवास करनेमें अद्वितीय हेतु मगध नामका देश प्रसिद्ध है ॥ १ ॥ जहांवर सम्पूर्ण ऋतुओं में धानके खेतोंमें मंजरी - बालकी सुगंधिसे भ्रमरोंके समूह आजाते हैं जिनसे व खेत ऐसे मालुम पड़ते हैं मानों किसानोंने तोताओंके डर से - "खे-तको कहीं तोता न खा नांय" इस मयसे उनपर काला कपड़ा बिछा दिया है || २ || तालाबों के सुंदर बांधोंकी मालाओंसे यह देश चारो तरफ व्याप्त है। जिनमें कहीं तो खिले हुए बड़े २ कमलोंके पत्तों पर सारस, हंस, चकवा आदि विहार करते हैं। किंतु कहीं पर इन बांधोंके घाटोंको ने गदला कर रक्खा है ॥ ३ ॥ यह देश ऐसे नगरोंसे अत्यंत भूषित था कि जहांपेर बड़े २ ईखके यंत्र - कोल.
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महावीर चरित्र । तथा गाड़ियोंके चीत्कारोंसे कानके पर्दे भी फटे जाते थे, और धान्यके शिखरबंध करोड़ों ढेर लगे हुए थे जिनके निकट उनको वि. दीर्ण करनेवाले बैल भी थे ॥४॥ जहाँक वनाम पविकगण केलाओंको खाकर, अजमें नवीन नारियलका पविन नइ पीकर, और नवीन कोमल पत्तोंकी शय्यापर सोकर विश्राम लेने थे.॥ ५॥ इसी देशमें पृथ्वी तलकी समस्त सारभृत संपत्ति-योंकास्थान, उत्कृष्ट राजगृहसे-रानभवनसे-राजधानीस शोभायमान रानगृह नामको धारण करनेवाला एक रमणीय नगर है।॥ ६ ॥ जहां पर बड़े २ मकानोंमें कालागुरुका घर जलता है और उसके 'धुंआके गुब्बारे उन मकानोंके झरोखोंकी जालीम होकर निकलत हैं, जिससे कि सूर्यका प्रकाश अनेक वर्णका हो जाता है और वह मृगचर्मकी लीलाको धारण करने लगता है ।। ७ ॥ जहाँको खाईका 'जल नगरके परकोटेमें लगी हुई पद्मरागमणिोंके प्रकाशके प्रतिबिम्बके · पड़नेसे गुलाबी रंगका हो जाता है। जिससे वह ऐसे समुद्रकी कांतिको धारण करने लगता है जिसकी लहरें नवीन मूंगाओंके जालसे रंग गई हो ॥ ८॥ बड़े २ मकानोंक ऊपर बैठे हुए स्त्री पुरुषोंकी अतुल रूपलक्ष्मीको देखकर सहसा विस्मयक उत्पन्न होनेसे ही मानों सम्पूर्ण देवताओंके नेत्र निश्चल हो गये ॥९॥ जहां मकानोंके ऊपर लगी हुई नीलमणिोंकी किरणोंसे चंद्रमाकी किरणें रात्रिमें मिल जाती हैं। जिससे ऐसा मालूम होता है मानों चंद्रमा अपने कलंकको 'किरणरूपी हाथोंसे सब जगह छोड़ रहा हो ॥ १० ॥ इस नगरका शासन विश्वभूति नामका राना करता था। उसका जन्म जगत् प्रसिद्ध और विश्वस्त
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• . चौथा. सर्ग।
mmmmmmmmmcinemmmmm कुलमें हुआ था। इसने अपने तेजरूपी दावानलसे शत्रुवंशको जला . डाला था। इसका । विश्वभूति । यह नाम सार्थक था, क्योंकि अर्थी लोग इसकी विश्वभूति-समस्त वैमवको स्वयं-विना याचनाके ग्रहण करते थे ॥११॥ यह राना नयचा था-नीतिशास्त्र में अत्यंत निपुण और उसके अनुसार शासन करनेशला था-महान् पराक्रमका. धारक था । जो इसकी सेवा करते थे उनके मनोरयोंको पूर्ण करनवाला था। खुद अद्वितीय विनय-धनको धारण करता था। अपनी आत्मापर इसने विजय प्राप्त कर लिया था।गुण-संपदाओंका यह उत्कृष्ट स्थान था ॥१२॥ इस राजाकी रानीका नाम जयिनी (नैनी)था। यह ऐसी मालूम होती थी मानो यौवनकी लक्ष्मी हो अथवा तीनलोककी क्रांति एकत्रित हुई हो यद्वा सतीत्रतकी सिद्धिकी राह हो॥१३॥ समस्त भूमंडलपर विजय प्राप्त कर राज्यभारकी त्रिताको अपने हितैषी मंत्रि•योंके सुपुर्दकर रानाने उस मृगनयनीके साथ सम्पूर्ण ऋतुकालके सुखोंमें प्रवेश किया॥१४॥ उक्त देव स्वर्गसे उतरकर इन दोनोंके यहाँ विश्वनन्दी नामका पुत्र हुआ। इसने अपनी स्वर्गीय प्रकृति-स्वभावका परित्याग नहीं किया। विश्वनंदी, विद्वान् उदार. नीतिका वेत्ता तथा समस्त कलाओं में कुशल था ॥१५॥
. एक दिन राजाके पास एक द्वारपाल आया, जिसकी मूर्ति बुढ़ापेसे विकृत हो रही थी । उसको देखकर राजाने शारीरिक परिस्थितिकी निंदा की, और दृष्टिको निश्चलकर इस प्रकार विचार किया कि इसके शरीरको पहले स्त्रियां लौट २ कर देखा करती थीं; और उस विषयमें चर्चा किया करती थीं; परन्तु इस समय उसीका
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महावीर चरित्र । “वेली बुढ़ापेने अभिभव-तिरस्कार कर दिया है। इस विषयमें किसको 'शोक न होगा? ॥ १६॥ १७ ॥ वृद्धावस्थाने आकर समान, इन्द्रियोंकी शक्तिरूपी संपत्तिसे इसको दूर कर दिया है आश्चर्य है कि तो मी यह जीनेकी आशाका त्याग नहीं करता है। ठीक हीहै जो वृद्ध होता है उसका मोह नियमसे बड़ाही जाता है ॥ १८ ॥ पेंड ३: पर गर्दनको नमाकर-झुकाकर दोनों शिथिल भौहोंकों दृष्टिसे रोककर यह बड़े यत्नसे मानो मेरा नवीन योवन कहां गिर गया उसको पृथ्वीमें ढूंढ़ रहा है ॥ १९ ॥ अथवा जन्म मरण रूपी. -वनका मार्ग विनष्ट है। उसमें अपने २ कर्मक फलके अनुमार निरंतर भ्रमण करनेवाले शरीरधारियोंका-संसारिओका क्या कल्याण हो सकता है। इस प्रकार राजा वैराग्यको प्राप्त हो गया ॥२०॥ उसने यह समझकर कि राज्यसुख ही परिपाकमें दुःख देनेवाला . बीन है, उसका-राज्यसुखका त्याग कर दिया। टोक ही है-जिन । महापुरुषोंने संसारकी समस्त परिस्थितिको जान लिया है क्या उनको विपयोंमें आशक्ति हो मक्ती है? ॥ २१॥ स्वच्छ उत्रके • मूल-राज्यासनपर अपने छोटे भाई विशाखभूतिको बैठाकर, और युवराजके पदपर पुत्रको नियुक्त कर, "वैमवमें निस्पृहता रखना ही सज्जनोंका भूषण है" इसलिये चारसौ राजाओंके साथ श्रीधर आचार्यके चरणकमलोंके निकट जाकर, अजर अमर पढ़के प्राप्त करनेकी इच्छासे पृथ्वीपतिने जिन दीक्षाको धारण कर लिया ॥२२ | २३॥
। यहांपर श्लेश है, जिससे बल शब्दके दो अर्थ होते हैं, एक पराक्रम दूसरा ऐसा बुढ़ापा कि जिसके निमित्तसे शरीरमें सिकुड़न" पड़ जाय ।
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- चौथा सर्ग। विशाखभूतिने शत्रुपक्षको. जीत लिया तथा षड्वर्गपर मी नय प्राप्त कर लिया । इसलिये राज्यलक्ष्मी इसको पाकर निरंतर इसतरह अतिवृद्धिको प्राप्त हुई जिस तरह कल्पवृक्षको पाकर कल्पलता वृद्धिको प्राप्त होती है ॥२४॥ युवराज नीति, वीरलक्ष्मी, और वलसंपत्तिकी अपेक्षा अधिक था तो भी अपने काकाका जो कि राज्यपदपर थे उल्लंघन नहीं किया। क्या कोई मी महापुरुष मर्यादाका आक्रमण करता है:॥२५॥ . :
युवराजने अच्छी तरहसे एक बहुत बढ़िया उपवन-बगीचा बनवाया। जोकि नंदनवनकी शोभाका मी तिरस्कार करता था। तथा जहांपर सम्पूर्ण ऋतु सदा निवास करती थीं। यह गीचामत्त भ्रमर और कोयलोक शब्दोंसे सदा शब्दायमान रहता था ॥२६॥ केवल दूसरी रतिके साथ सहकार-आम्रवृक्षके नीचे के हुए कामदेवको आदरसे मानों हूंढनके लिये ही क्या युवराज ललित और विलासपूर्ण स्त्रियोंके साथ तीनों समय उस रमणीय वनमें विहार करता था ॥ २७ ।। न राजाधिराज विशाखभूति और उनकी प्रिया लक्ष्मणाका पहला प्रियपुत्र विशाखनंदी नवीन यौवन और कामदेवसे मत्त तथा निरंकुश हस्तीकी तरह दीप्तिको प्राप्त होने लगा ॥ २८ ॥ एक दिन मत्त हस्तीकी तरहगमन करनेवाले विशाख़नंदीने युवराजके दर्शनीय वनको देखकर अन्नग्रहण करना छोड़ दिया, और मातासे नमस्कार करके वह दर्शनीय वन मुझको दे देगिलादे यह याचना की ॥२९॥ विशाखभूति यद्यपि युपरानपर हृदयसे अद्वितीय आत्महितको रखता था तथापिप्रियाके वचनसे सहसा विकारको प्राप्त हो गया । जिनको अपनी स्त्री ही प्रिय है :निश्चयसे उनको अपने दूसरे कुटुम्बके.
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४८ ]
महावीर चरित्र ।
लोग शत्रुओंके समान हो जाते हैं || २० || लक्ष्मणाने महाराज (विशाभूखति ) से एकांत में आग्रहपूर्वक, क्योंकि वह उसका वहम था, यह कहा कि हे राजन् ! मेरे जीवनसे यदि आपको कुछ भी प्रयोजन हो तो वह वन मेरे पुत्रको दे दीजिये ॥ ३१ ॥ राजा किंकर्तव्यतासे व्याकुल हो गया । उसने शीघ्र ही एकांत में मंत्रिवर्गको बुलाकर सम्पूर्ण वृत्तांत कहा, और उपका उत्तर भी पूछा ॥ ३२ ॥ प्रशस्त मंत्रिगणने कीर्तिसे कहने के लिये प्रेरणा की। उसने समय दृष्टिसे ही राजाकी नीतिहीन चित्तवृत्तिको जानकर इप प्रकारसे वचन कहना शुरू किया ॥ ३३ ॥ "हे भूवल्लभ ! विश्वनंदीने मन वचन और किवासे कमी भी आपका अपराध नहीं किया है। जिसकी को कोई भी नहीं जान सकता ऐसे गुप्तचरोंके द्वारा और खुद मैंने भी बहुत बार मित्रका उसकी परीक्षा की है ३४ ॥ उनको समस्त मुख्य लोक नमस्कार करते हैं। उसके पराक्राका का नीति-संवाद होता है । हे राजन् ! यदि फिर भी आपको उसके जीने की इच्छा है तो कहिये कि समस्त धरातल पर असाध्य क्या है ? || ३६ || आपके सहोदरका प्रिय पुत्र आपसे ऐसी अनुकूलता रखता है जैसी कोई नहीं रखता हो; परंतु फिर भी आपकी जो कि मर्यादाका पालन करनेवाले हैं - बुद्धि उसके विषय में विमुखता धारण करती है तत्र यही कहना होगा कि चैरके उत्पन्न करनेवाली इस राज्यलक्ष्मीको ह्रीं धिक्कार है ॥ ३६ ॥ मरनेका हेतु विष नहीं होता, अंधकार भी दृष्टि मार्गको रोकने में प्रवीण नहीं है, एवं घोर नरक मी अत्यंत दु:ख नहीं दे सकते; किंतु इन सबका कारण नीतिकारोंने स्त्रीको बताया
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• चौथा सर्ग। [४९ है ॥ ३७. ॥ आप नीतिमार्गके जाननेवालोंमें प्रधान माने जाते हैं। आपको इस तरह स्त्रीका मनोरथ पूर्ण करना युक्क नहीं है। क्योंकि जो असत-पुरुषोंके वचनके अनुसार प्रवृत्ति करता है वह अवश्य विपत्तियों का पात्र होता है ॥ ३८ ॥ वह वनकी रमणीयता पर आशक्त है, अतएव यदि आप मागेंगे तो भी वह उसको देगा नहीं। हे नाथ ! आप ही निष्पक्ष दृष्टिसे विचारिये कि अपनेर अमिमतपर मला किसकी बुद्धि लुब्ध नहीं होती ? ॥ ३९ ॥ वचनके पराधीन प्रियासे ताड़ित हुए आप वनको न पाकर कोपको प्राप्त होंगे, और फिर रोपसे प्रतिपक्षके पक्षकी कुछ भी अपेक्षा न कर हरण करनेके लिये आप प्रवृत्त होंगे ॥ ४० ॥ उस समय राज्यमें जो २ मुख्य पुरुष हैं वे सभी 'ये मर्यादाके तोड़नेवाले हैं। यह समझकर तुमको छोड़कर उस वीरका ही साथ इस तरह देंग-उसीमें मिल जायगे जिस तरह लोकमें प्रसिद्ध, नद समुद्र में मिल जाते हैं ॥ ११॥ आपन दूसरे राजाओंको जीत लिया है तो भी युद्धमें युवराजके सामन आप अच्छे नहीं लगेंगे ! चंद्रमा यद्यपि कमलवनको प्रसन्न करनेवाला है तो भी दिनकी आदिमेंप्रातःकालमें किरणोंको विकीर्ण करनेवाले--सब जगह फैलानेवाले सहस्त्र रश्मि-सुर्यके सामने वह अच्छा नहीं लगता ॥४२॥ अथवा आपने उसको युद्धकी रंगभूमिसे देववश या किसी भी तरह परास्त भी कर दिया तो भी जगत्में बड़ा भारी. लोकापवाद इस तरह व्याप्त हो जायगा जिस तरह रात्रिमें निविड़ अंधकारका समूह व्याप्त हो जाता है ।। १३ ।। इस प्रकार, नीतिका परित्याग न करनेवाले, विषाकमें रमणीय, विद्वानोंको हितकर, कानोंको रसाय
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५० ]
महावीर ' चरित्र |
नके समान वचन कहकर जब मन्त्रिमुख्यने विराम ले लिया त राजराजेश्वर इस प्रकार वोला ॥ ४४ ॥ : ---
""जैसा आपने कहा वह वैसा ही है । जो कृत्याकृत्यक 13 जाननेवाले हैं उनको यही करना चाहिये । परंतु हे आर्य ! कोई ऐसा उपाय बताइये कि जिससे कोई क्षति भी न हो और वह-न मी सुखसे मिल जाय ॥ ४५ ॥ "
स्वामीके इस तरहके वचन सुनकर विचार-कुशन मंत्री फिर बोला:- हम ऐसे श्रेष्ठ उपायको नहीं जानते जो कि वनकी प्रामि और परिपाक दोनोंमें कुशल हो । अर्थात हमारी दृष्टिमें ऐसा कोई उपाय नहीं आता कि जिससे सुखपूर्वक वन भी मिल सके और परिपाक में कोई क्षति भी न हो ॥ ४६ ॥ यदि आप कोई ऐसा उपाय जानते हैं तो उसको अपनी बुद्धिसे करियः क्योंकि प्रत्येक पुरुपकी मति भिन्न २ होती है। और यह ठीक भी है; क्योंकि मंत्री अपने मतको - अपनी सम्मतिके कहने का स्वामी है; परंतु उसको करना न करना इस विषय में प्रमाण स्वामी (आप) ही हैं ॥ ४७ ॥ इस तरहके वचन कहकर जब वह मंत्रिमुख्य चुप हो गया तन राजाने मंत्रिओं का विसर्जन कर दिया। और मन में स्वयं कुछ विचार करके, शीघ्र ही युवराजको बुलाकर उससे बोला- ॥ ४८ ॥ मुझे मालूम हुआ है कि कामरूप देशका स्वामी मेरे प्रतिकूल मार्ग में चढ़ने लंगा है क्या तुमको यह बात मालूम नहीं हुई है ? अतएव मैं शीघ्र ही उसको नष्ट करनेके लिये जानेवाला हूं । हे पुत्र ! मेरे पीछे राज्यका शासन तुम करना ॥ ४९ ॥ राजाके ये वचन सुनकर और उन पर अच्छी तरह विचार कर विश्वनंदी बोला कि " मेरे
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चौथा सर्ग।
[५१ रहते हुए आपको यह प्रयास करनेकी क्या आवश्यकता है ? हे राजन् ! मुझको भेनिये मैं उसको अवश्य जीतूंगा ॥ ५० ॥ किसी प्रतिपक्षीको न पाकर ही मेरा प्रताप बहुत दिनसे मेरी मुनाओं में ही लीन हो रहा है । हे नरनाथ ! निसको आपने कभी नहीं देखा है उसीको वहां आप प्रकट करें । अर्थात् मेरा प्रताप आपने अमी तक देखा नहीं है अतएव इस वार उसीको देखिये ॥ ११ ॥ इस तरहकी सगर्व वाणीको कह कर भी पीछेसे उसने अपने पूर्व शरीनको नन्न कर दिया । अर्थात् राजाके सामने शिरको नवा दिया । राजाने भी शत्रुके ऊपर उसीको भेना, । विश्वनंदीने भी अपने उपवनकी अच्छी तरह रक्षा करके शत्रु पर चढ़ाई कर दी ।। ५.२॥
कुछ थोड़ेस-परिमित दिनोंमें अपने देशको पार करके विश्वनंदी मार्गमें जोर अनेक राना नीतिसे इंसको आकर प्राप्त हुए उनके साथ २ . शीघ्र ही शत्रु देशके समीप जाकर पहुंच गया ॥ १३ ॥ एक दिन . -गुवराजने निसकी सारी देहमें घावोंक कर पट्टियां बंधी हुई थीं ऐसे विश्वस्त वनपालको ड्योढ़ीवानके साथ २ समामें प्रवेश करते हुए दूर हीसं देखा ॥ ५४ ॥ उसने "सिंहासन पर बैठे हुए और अनाथ, वत्सल नाथको भूमिमें शिर रखकर नमस्कार किया । और उनके "पास पहुंचकर विश्वनंदीने अपनी प्रिय दृष्टिसे नो स्थान बताया "वहां बैठ गया ॥ १५॥ यद्यपि पहले कुछ देर तक बैठकर अपने घायल शरीरसे ही वह निवेदन कर चुकं था तो मी मानों दुहरानेके लिये ही उसने राजाके पूछनेपर अपने आनेका कारण इस तरह बताया ॥५६॥ "आपका उपवन आपके प्रतापके योग्य है; परंतु महारांनकी “आज्ञासे हम लोगोंकी अबहेलना करके विशाखनदीने उसमें प्रवेश किया
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१२] . 'महावीर चरित्र । है। इस विषयमें वनके रक्षकोंने क्या किया सो आपके सुननेमें पीछे आ जायगा ॥ ५७॥ वनपालने उपवनके विपयमें जो समाचार सुनाया उसको जानकार-सुनकर विश्वनंदीको क्रोध आगया तो भी उसका चित्त धीर था इस लिये उसने उस वातको किसी दूसरी हंसी दिल्लगीकी बातसे उड़ा दिया ॥ ५८ । इसके बाद स्नानपूर्वक भोजनादिकके द्वारा उसका खूब सत्कार कराकर स्वयं महाराज, और उनके इस प्रसादको पाकर विनयसे नन्त्रीभूत हुआ वनपाल दोनों ही शोमाको प्राप्त हुए ॥ ५९॥ .
विश्वनंदीने अपनी नीति और बढ़ी हुई प्रताप शक्तिके द्वारा शत्रुको नन्न बादिया । और वह भी शीघ्र ही नमस्कार करके तथा भेट देकरके विश्वनंदी आज्ञासे लौटकर चला गया ॥ ६ ॥
महाराजकी आज्ञाको सफल करके युवराज उसीसमय वहांसे (शत्रदेशसे) पूज्य रानलोकको वहां छोड़कर अपने देशको शीघ्र ही लौट आया। क्योंकि लौटना बहुत लम्बा था । अर्थात् मार्ग बहुत लम्बा था इस लिये आनेमें समय बहुत लगता किंतु विश्वनंदीको शीघ्र ही आना था इस लिये कार्य सिद्ध होते ही वह रानलोकोंको छोड़करके वहां शीघ्र ही अपने देशको लौट आया ॥ ६१ ॥ .
. विश्वनंदी शीघ्र ही अपने देशमें आ पहुंचा । आकर देखा कि. देशमेंसे देशको छोड़ २ कर लोग भाग रहे हैं। उसने अनिरुद्ध. नामके एक आदमीसे पूछा कि " कहिये तो यह क्या बात है." इस पर उसने जवाब दिया कि ॥६.२॥ " हे स्वामिन् ! विशाखनंदी • आपके उपवनके चारो तरफ भयंकर और मजबूत किलेको बनाकर
आपके साथ लड़ाई करना चाहता है। किंतु महारान, आप और
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'चौथा सर्ग। rrrrrrrrn.in.vomwwwm विशाखनंदी दोनोंमें समान-वृत्ति-मध्यस्थ हैं ।।६३|| इस वातको जानकर और भयंसे कुछ शंकित हो कर यह लोकसमूह जल्दी २ भाग रहा है। हे देव ! जिस तरहकी बात लोगों में उड़ रही है यह वही बात मेंने कही है, इसके सिवाय मैं और कुछ नहीं जानता ॥६॥ 'अनिरुद्धके ये वचन सुनकर कुछ विचार करके विश्वनंदी गंभीर
शब्दोंमें बोला-" निस कामके करनेमें मेरी चित्त-वृत्तिको 'लज्जा आती है, देखता हूं कि विधाता उसीको लेकर आगे खड़ा हुआ है ॥६५॥ यदि मैं लौटकर पीछा जाता हूं तो यह निर्भय सेवक नहीं लौटता है। यदि मैं मारता हूं तो लोकमें अपवाद होता है। अब आप इन दोनोंमेंसे एक काम बताइये कि कौनसा करना चाहिये या कौनसा न करना चाहिये ॥६६॥ जब विश्वनंदीने मंत्रीसे यह प्रश्न किया तब वह स्फुट शब्दों में इस तरह वोला"हे नर नाथ ! जिस काम करनेमें वीर, लक्ष्मी विमुख न हो बस एक .वही काम करना चाहिये ॥ ६७ ॥ पहले भी यह बात सुनकर कि विशाखनंदीने आपके बनको छीन लिया है, आप उससे विमुख न हुए । किंतु इस समय वह भाप ही के बनको छीन कर और जबर्दस्तीसे आपको मारनेकी मी चेष्टा करता है !!६८|| अथवा यह भी एक बड़ा आश्चर्य है कि ऐसे शख्सपर भी आपको क्रोध उत्पन्न क्यों नहीं होता! लोकमें यह देखा जाता है कि यदि कोई वृक्ष अत्यंत उद्धत हो और वह अपने मार्ग प्रतिकूल पड़ता हो तो उसको नदीका वेग उखाड़ डालता है ।। ६७ ॥ शत्रु अपना बहुत पराभव करता हो; किंतु उसपर जो मनुप्य अपने पौरुपका उलया प्रयोग करता हो-जिस तरह अपने पौरुपको काममें
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५४] महावीर नरित्र। लेना चाहिये उस तरह नहीं लेता तो वह मनुष्य पीछसे अपनी स्त्रियोंके मुखरूप दर्पणमें कलंकके प्रतिविम्बको देखता है ॥ ७० ॥ .. यदि तुम्हारेमें उसको बंधुबुद्धि है, वह यदि तुमको अपना बंधु समझता है तो एक ऐसा दृत क्यों नहीं भेजता है कि "मुझसे आपका . अपराध हुआ है, अब मैं आपके सामने भयसे हाथ जोड़ता है, फिर भी हे आर्य : आप मुझपर कोप क्यों करते हैं: ॥ ७ ॥ आप मनस्त्रियोंके अधीश्वर हैं । आपके पराक्रमका समय यही है। मैंने जो कहा है आप उसपर विचार करें, और विचार करकं वहीं करें; क्योंकि आपकी मुनाओंके योग्य यही है और कुछ नहीं ॥७२॥ विश्वनंदीने समझा कि मंत्रीक ये वचन नीति जाननेवालों
और पराक्रमशालियोंकेलिये मनोन हैं । इसलिये किसी तरहका विलंब न कर शीघ्र ही विशाम्खनंदीके विलकी तरफ उसने । उप्रकोपसे प्रयाण किया ।। ७३ ॥ युद्धकं आनस जो हर्षित हो उठी थी उस सेनाको कुछ दूर ही छोड़कर अभटोंके साथ २ चुवराज-सिंह दुर्ग देखनेक मिपसे; किंतु मनमें युद्धको रखकर शीन' ही आगे गया ।। ७४ ॥ और उस अनुपम कोटक पास पहुंच गया, जिसकी खाई अलभ्य थी, निक चारो तरफ यंत्र लगे हुए थे, तथा प्रसिद्धर वीरोंके झुंड जिसकी रक्षा कर रहे थे, जिसके बहुतसे स्थानोंपर सफेद झंडे उड़ रहे थे, जिनसे ऐसा मालूम होता था मानों वह दुर्ग झंडेरूपी पंखोंसे दिशाओंकी हवा कर रहा हो । ७५ ॥ जब विश्वनंदी जरासी देरमें खाईको पार करके कोटको मी . लांघ गया और शत्रुसैन्यके साथ २ इसका भी तीक्ष्ण खग भग्न हो गया तब उसने झटसे पत्थरका बना हुआ एक खंभा उखाड़ लिया.
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चौथाः सर्गः।
जिससे कि उसका हाय दीप्त होने लगा और कोपसे. शत्रुपर टूट पड़ा । भावार्थ-विश्वनंदी खाई और कोटको लांघकर जब भीतर पहुंचा तत्र शत्रुको सेनासे उसकी मुठभेड़ हुई जिसमें शत्रुकी सेना भान हुई, और अंत में इसका भी खड्ग मग्न हो गया। खनके टूटते ही एक पत्थरके खमको उखाड़कर और उसीको लेकर यह शत्रुपर टूटा ।। ७६ ।। उप्र पराक्रमके धारक विश्ढनंदीको यमराजकी तरह 'आता हुआ देखकर विशाखनंदीका सारा शरीर कांपने लगा, मयसे शरीरकी द्युति-कांति मंद पड़ गई, और झटसे कैयके पड़पर चढ़कर बैठ गया ॥ ७७ ॥ परन्तु जब उस महाबलीने मनमें विचार करनेके साथ ही उस कैथके महान् वृक्षको भी उखाड़ डाला, तंब अशरण होकर मयस त्रासके राससे हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ विशाखनंदी इसीकी शरणमें आया ॥ ७८ ॥ विशाखनंदीको सत्वहीन तथा पैरोंमें पड़ा हुभा देखकर विश्वनंदीको लजा आगई। यह निश्चय है कि-जिनकी पौरुष निधि प्रख्यात है उनका शत्रु यदि मनमें भी नत्र हो जाय तो उनको स्वयमेव लज्जा आ नाती है। ७९ ॥ रत्नमुकुटस भूपित विशाखनंदीका मस्तक जो कि नन्न हो रहा था उसको विश्वनंदीने दोनों हाथोंसे ऊपरको उठा दिया
और उसको अभय दिया। जिन महापुरुषोंका साहस बढ़ा हुआ हो उनका शरणागों के विषयमें यही कर्तव्य युक्त है ।। ८० ॥
. "मैं इस तरहके कामको जो कि मेरे लिये अयुक्तं था करके विशाखभूतिके सामने किस तरह रहूंगा " ऐसा विचार करके और हृदयमें लज्जाको धारण करके विश्वनंदी. तप. करनेके. लिये. राज्य छोड़कर घरसे निकल : गया । ८१. || मुनियोंके. चारित्रका
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५६ ]
महावीर चरित्र। आचरण करनेके लिये जानेवाले . विश्वनंदीको उसके वाचा. आकर रोकने लगे यहांतक कि सम्पूर्ण बंधुवर्गके :साथ इसके लिये पैरोमें भी पड़गये; परन्तु तो भी रोक न सके । क्या महापुरुष जो निश्चय कर लिया उससे कभी लौट भी जाते हैं ? ॥२॥ पहले मंत्रिओं के वधनका उल्लंघन करके जो कुछ किया उस विषयमें पश्चात्ताप करके महाराज विशाखभूतिने भी लोकापवादसे चकित होकर--डरकर. अपने पुत्र-विशाखनंदीके ऊपर समस्त लक्ष्मीका मार छोडकर विश्वनदीका अनुगमन किया।। (३॥ काका और भतीजे दोनों ही हजारों राजाओंके साथ संभृत नामके मुनिराजके निकट गये । वहां. उनके चरणयुगलको शिर नवाकर नमस्कार किया। तथा उन राजाओंके साथ दोनोंने मुनिदीक्षाको ग्रहण किया जिससे कि वे बहुत दीप्त होने लगे; ठीक ही है तप मनुष्योंका अद्वितीय भूषण ही है ॥ ८४ ॥ विशाखमुतिने चिरकालतक तपश्चर्या की, विना किसी तरहके कष्टके दुर्निवार परीषहाँको नीता, तीनों शल्योंका ( माया मिथ्या निदानका) परित्याग किया, अन्तमें दशमें वगैमें जाकर प्राप्त हुंआ 'जहाँपर कि इसको अनल्प सुख प्राप्त हुआ और सोलह सागरकी आयु प्राप्त हुई ॥ ८ ॥
- विशाखनंदोके कुटुम्बके एक रानाको शीघ्र ही मालूम हो गया कि विशाखनों देव और बलप्रयोगसे भी रहित है. तब उसने युद्धमें उसको जीतकर राजधानी के साथ २ राजलक्ष्मीकों ले लिया ॥८६॥ विशाखनंदीको पेट भरनेके सिवाय और कुछ नहीं आता। इसी कारणसे लोग निःशंक होकर अंगुली दिखा२ कर यह कहते थे कि पहले ये.ही राजा थे तो भी वह अपने मानको छोड़कर अत्यन्त निर्लज. कामोंसे राजाकी सेवा करने लगा था। ८७॥
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चौथा सर्ग। [५७ · · एक दिन उग्र तपश्चरणकी विभूतिको धारण करनेवाले और जिनका शरीर मासोपासके करनेसे कृप हो रहा था ऐसे विश्वनंदीने अत्यन्त उन्नत धनिओंके मकानोंसे पूर्ण मथुरा नगरीमें अपने समयपर मिक्षाके लिये प्रवेश किया ॥ ८ ॥ गलीके मुखपर-गली में घुसते ही किसी पशुके सींगका धक्का लगते ही ये साधु गिर गये । इनको गिरा हुआ देखकर विशाखनंदी नो कि पास ही एक वेश्याके मकानके उपर बैठा हुआ था हंसने लगा ॥ ८९॥ बोल-जिस बलसे पहले किलेको और समस्त सेनाको जीत लिया था, पत्थरके विशाल संभको तथा कैयके वृतको भी उखाड़ डाला था, तेरा वह बल आज कहां गया ?॥ १० ॥ विश्वनंदीने इन वचनोंको सुनकर और विशाखनंदीकी तरफ देखकर अपना क्षमा गुण छोड़ दिया। और उसी तरह-विना आहार लिये उलया वनको प्रयाण किया। अंतमें वहां निदान बंध करके अपने शरीरका परित्याग किया । ठीक ही है-कोप ही अनर्थ परंपराका कारण है ॥ ९१ ॥ निदान महित शरीरके छोड़नेसे महांशुक्र नामक दशवें स्वर्गको प्राप्त कर इंद्र तुल्य विभूतिका बारक देव हुआ । वहां इसकी सोलह सागरकी आयु हुई । इसकी लालसासे युक्त इंद्रियां स्वर्गीय अंगनाओंके देखने में ही लगी रहती ॥९२॥ विचित्र मणियोंकी किरणोंसे जिनसे कि समस्त दिशाओं के मुख मी चौध जाते हैं चंद्रमाकी किरणों के समूहकी कांतिका भी हरण करनेवाले, तथा जिसकी अनेक शिखरॉपर सफेद ध्वनाएं लगी
१-एक महीना तक चारों तरइके (खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय) आहारके त्यांगको मासोपवास कहते हैं। "
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५८. ]
महावीर चरित्र ।
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हुई हैं; और जो समस्त सुख-संपत्तिका स्थान है ऐसे उत्तम विमानको पाकर वह विश्वनंदीका जीव अत्यंत तृप्त हुआ ॥ ९३ ॥ लक्ष्मणाके इस कृपण पुत्रने अनुपम जैन को पाकर भी भाकाशमें प्रचुर वैभवके धारक किसी विद्याधरोंके स्वामीको देखकर भोगोंकी इच्छासे खोटा निदान बांधा जिससे कि वह तप करके समीचीनः व्रतोंके पालन और कायक्लेशके प्रभावसे दशमें स्वर्ग में पहुंचा ॥८४॥ इस प्रकार अशग कवि कृत वर्द्धमान चरित्र विश्वनंदिनिदान नामका चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ ।
IBCHEM
पांचवां सर्ग |
जम्बूद्वीप में भारत नामका एक क्षेत्र है । उसमें विजयार्ध नामका एक पर्वत है । जिसकी अत्यंत उन्नत अनेक शिखरों की किरणोंसे सम्पूर्ण भाकाशमंडल सफेद हो जाती है ॥ १ ॥ जिस पहाड़के ऊपर निर्मल स्फटिककी शिखरों की टोंकपर खड़ी हुई अपनी बहुओंको देख कर विद्यावर लोक समानता के कारण भ्रममें पड़ कर पहले देवांगनाओंकी तरफ जाते हैं; किंतु उनके हंसते ही झट लौट आते हैं ||२|| जिसके आसपासके समीपवर्ती छोटे २ पर्वतों पर प्रकाशित होनेवाली मणिओंकी प्रभासे सिंहके बच्चे कितनी ही वार ठगे गये हैं- वे अपने मनमें- गुहाके द्वारकी शंका करने लगते हैं:- वे । समझने लगते हैं. कि यहां गुहाका द्वार है परंतु बुसते ही वंचित हो जाते हैं। इसीलिये वे सच्ची गुहाओं में भी बहुत देर तक नहीं घुसने
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॥ ३ ॥ शिखरोंमें लगी हुई पद्मरागमणिओंकी किरणोंसे जब आकाश. • लाल पड़ जाता है तब नित्य अनंत तेजका धारक वह मनोज्ञ-पर्वत
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. पांचवां सर्ग।. [५९. भत्यंत शोभाको प्राप्त होता है, और उसको देखकर यह संदेह होने लगता है कि कहीं. संध्या तो नहीं हो गई ॥ ४ ॥ जहां जंगलीमदांध हस्ती पर्वतके किनारोंमें अपनी प्रतिविचको देखकर दौड़कर वहां आते हैं और दूसरा हस्ती समझकर उसके उपर अपने दातोंका प्रहार करने लगते हैं । ठीक ही है-जो मत्त होते हैं क्या. उनको विवेक रहता है ! ॥५॥ जिसके लगनेसे ही जहर चढ़ जायः ऐसी जहरीली वायुकी उत्कटतास जिनका फण विकराल हो रहा है। ऐसे मुनंग वहां इधर उधर घूमा करते हैं; परंतु गरुड़मणिओंकी स्वच्छ किरणोंका स्पर्श होत ही वे विपरहित हो जाते हैं ॥६॥ इस पर्वतकी पश्चिम. श्रेणी में अलका नामकी नगरी है जो पृथ्वीकी तिलकके समान है। वहां उत्सव और गान बजानके शब्दोंसे दिशाएं पूर्ण रहती हैं। जिससे वह ऐसी मालूम पड़ती है मानों साक्षात् स्वर्गपुरी हो ॥ ७ ॥ इस नगरीकी शोभायमान विशाल खाईने: अपने अत्यंत प्रचारसे दिशाओंको पूर्ण कर दिया है। यह खाई सत्पुरुष या समुद्रके समान मालुम पड़ती है; क्योंकि यह भी सत्पुरुष या समुद्रकी तरह महाशय, अत्यंत धीर, गंभीर, और. अधिक. सत्वकी धारक है। जिस तरह सत्पुरुष महान् आशय-अभिप्रायको' धारण करता है, तथा जिस तरह समुद्र . महान् आशय गड्ढोंको धारण करता है उसी तरह खाई भी महान्-बड़े आशयों-गड्ढोंको. धारण करती है । जिस तरह सत्पुरुष धीर और गंभीर होता है: उसी तरह समुद्र और खाई, मी धीर-स्थिर और गंभीर-गहरे हैं। जिस तरह सत्पुरुष अधिक सत्वका--पराक्रमका:धारक होता है. उसी. तरह समुद्र और खाई.मी.अधिक सत्व-प्राणिओंके धारक हैं-III.
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६. ] . महावीर चरित्र । इस नगरीका विशाल परकोटा सती स्त्रीके वसः स्थलके समान मालूम . होता है क्योंकि दोनों ही किरणनालसे स्फुरायमान हैं, और परपुरुपके लिये अभेद्य हैं। दोनोंकी मूर्ति भी निरवद्य हैं, तथा दोनों ही की श्रेष्ठ अम्बरश्रीने (आकाशश्रीने दूसरे पक्षमें इनकी शोभाने) पयोधरोंका (मेवोंका दूसरे पक्षमें स्तनोंका) स्पर्श कर रखा है ॥ ९ ॥ वाहरके दरवाजे-मदर फाटकके आगे खड़े हुए कोटमें जो कंगा । खुदे हुए हैं उनके मध्य भागमें आकर विलीन होनानेवाली शरद् ऋतुकी मेवमाला. उत्तम दुपट्टेकी शोमाको धारण . करती है ॥ १० ॥ महलोंके उपर लगे हुए झंडे मंद २'वायुको पाकर हर्षित-चंचल होने लगते हैं। जो ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों . ये अंडे नहीं हैं किंतु इस नगरीके हाथ हैं, जिनको परको उठा। कर यह नगरी मानों स्वर्गीय पृथ्वीको बुलाकर उसे अपनी चारों तरफकी शोभाको हमेशा दिखाती हो ॥ ११ ॥ जहांके वैश्य अच्छे नैयायिककी तरह विरोधरहित तथा प्रसिद्ध मानसे सत्
और असतका विचार करके किसी भी वस्तुका अच्छी तरह निर्णय . करते हैं, और दक्षतासे अपने वचनोंका प्रयोग करते हैं । भावार्थ-- जिस तरह कोई नैयायिक प्रसिद्ध-प्रमाणसे सिद्ध तथा अव्यभिचारी । प्रमाणके द्वारा सत असतका निर्णय करके किसी वस्तुका ग्रहण करता हैं उसी तरह इस नगरीके वनिये किसी चीजको भली बुरी देखकर, . जिसमें किसीका विरोध न हो तथा प्रसिद्ध-निसको सब जानते हों ऐसे मानसे-तराजू आदिकसे तोल कर लेते हैं। और नैयायिककी . -तरह ही अपने वचनोंका बड़ी दक्षतासे प्रयोग करते हैं ॥ १२ ॥ इस अलका नगरीमें कोई अकुलीन नहीं थे, थे तो तारागण थे।
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पांचवां सर्ग। क्योंकि कुनाम पृथ्वीका है सो तारागण पृथ्वीसे कभी लीन नहीं' होते स्पर्श नहीं करते; किंतू ताराओंको छोड़कर नगरीमें और कोई भी अकुलीन-नीचकुली नहीं था। इसी तरह यहांपर सदा दोषाभिलापी कोई थे तो उल्लू ही थे, अर्थात यहां कोई. मनुष्य दोषोंकी अभिलाषा नहीं करता था; किंतु उल्लू ही सदा दोषा-रात्रिकी अमिलापा रखते थे। यहां कोई मनुष्य अपने सवृत्तका-सदाचारका मंग नहीं करता था; किंतु सद्वत्तका-श्रेष्ठ. छंदोंका भंग केवल गद्य रचनामें ही होता था, यहां रोष होता तो शत्रुओंका ही होता औरका नहीं ॥ १३ ॥ दंड केवल ध्वजामें ही पाया जाता, किसी पुरुषको दंड नहीं होता था। बंध केवल मृदंगका ही होता । भंग-कुटिलता सुंदरिओंके केशोंमें ही पाई जाती। विरोध केवल पीनरोंमें ही रहता-वि अर्थात् पक्षियोंका .रोध अर्थात धिराव केवल पीनरों में ही मिलता, और कहीं भी विरोध-झगड़ा नहीं दीखता था। वहां कुटिलताका सम्बंध केवल सांपोंकी गतिमेंही रहता है-अन्यत्र नहीं ॥ १४ ॥
. इस नगरीका स्वामी नीलकंठ नामका महा प्रभावशाली राजा था । वह विद्याधर और धैर्यरूप धनका धारक था। इंद्रके समान क्रीड़ा करनेवाला तथा विविध ऋद्धियोंका स्वामी था । इसका सुंदर . हृदय विद्याओंके संबंधसे उन्नत था॥ १५ ॥ यह राना.श्रेष्ठ पुरुषोंसे पूजनीय जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति-प्रना आसक्त रहती है तथा निसका उदय नित्य रहता है, और जो अंधकारके प्रचारको दूर करनेवाला
इस लोकके अंतमें " सदनस्य चाक्ष " ऐसा पाठ · है, उसका अर्थ हमारी समझमें नहीं आया। . .
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६२ ]
- महावीर' चरित्र |
'है' ऐसे सूर्यके समान प्रतापी था । इसीलिये जिसतरह सूर्य पद्माकरका - कमलवनका स्वामी होता है उसी तरह यह मी पद्माकर-. का - लक्ष्मी समूहका स्वामी था। अधिक क्या कहा जाय, यह राजा जंगत का अद्वितीय दीपक था ॥ १६ ॥ इस राजाको मनोहर शरीरको धारण करनेवाली कनकमाला नामकी रानी श्री । वह ऐसी - मालूम होती थी मानों कमलरहित कमला हो, अथवा मूर्तिको वारण करके स्वयं आकर प्राप्त होनेवाली कांति हो, यहा कामदेवको - स्त्री - रति हो ॥१७॥ श्रेष्ठ कट्टी मानों इसकी जंयाओंकी मृदुतांसे अत्यंत लज्जित होकर ही निःसारताको प्राप्त हो गई, अत्यंत कठिन मी 'बेल इसके पयोधरोंसे तनोंसे जीते जाने के कारण ही मानों वनमें जाकर रहने लगा है ॥ १८ ॥ यह सुंदर नीलकमल 'इसके नेत्रकमलोंके आकारको न पाकरके ही मानों अपने मानकों छोड़कर पराभवजनित संतापको दूर करनेकी इच्छासे अगाध सरो'वरमें जाकर पड़ गया है ॥ १९ ॥ पूर्ण भी चंद्र इसके मुखकी शोभाको न पानेसे कलंकित ही रहा। ऐसा कौन पदार्थ है जो मत्तमातंग - - हस्तीकी गतिको भी तिरस्कृत करदेने वाली इस रमणीकी कांतिसे अपमानको प्राप्त न हुआ हो ॥ २० ॥ यह कनकमाला श्रेष्ठ गुणोंसे भूषित, मधुर भाषण करनेवाली, और निर्मल शीलसे युक्त थी। इसमें विद्याधरकी-नीलकंठकी असाधारण भक्ति थी । भला कौन ऐसा होगा जो 'मनोहर वस्तु पर आशक्त न हो ! ॥२१॥ कमनीय मूर्तिके धारण करनेवाले इन दोनों के यहां विशाखनंदीका जीव स्वर्गसे उतरकर पुत्र हुआ। उसी समय ज्योतिषीने 'हंर्पित " होकर बताया कि यह पुत्र इस समीचीन भारतवर्षके आधे भागका स्वामी होगा ॥२२॥
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... माया मर्गी . [६३ जिसके गर्मभारसे लांत होनेपर भी माता तीन - लोकको जीतनेकी इंछा करने लगी, तंथा सूर्यके सी र आनेपर मुख और नेत्र क्रोधसे लाल करने लगी। सपुत्रका जन्म होते ही रानाने पृथ्वीको " देहि " इस शब्दसे रहित कर दिया-अर्थात् इतना दान दिया कि जिससे पृथ्वीमरमें कोई याचक हीन रहा । तयासम्पूर्ण आकाश मंडलको आनंदवाने और सुंदर गीतोंके नादसे शब्दात्मक बना दिया ॥२३-२४॥ विद्याधरामें श्रेष्ठ नीलकंठने निनेंद्र देवकी बड़ी मारी पूजा करके और अपने गोत्रके महान् २ पुरुपोंकी अनुज्ञा-ले करके इस तेजस्वी पुत्रका नाम हयकंधर अश्वग्रीव सखा ॥२५॥ लक्ष्मीको प्रिय, कोमल और शुद्ध पादको धारण करनेवाला, लोगोंके नेत्रकमलोंको आनंद उत्पन्न करनेवाला, और कन्लासमूहको प्राप्त करनेवाला यह चालचंद्र दिन पर दिन बढ़ने लंगा ॥२६॥ एकदिन यज्ञोपवीतको धारण करके यह अश्वग्रीव गुफामें पल्यंक आसन माइकर बैठा। वहां पर इसने नव तक अच्छी तरह ध्यान करना शुरू भी नहीं किया कि इतने हीमें इसके सामने सम्पूर्ण विद्यायें आकर उपस्थित हो गई। अर्थात्-हयकंधरको शीघ्र ही समस्त विद्यायें सिद्ध हो गई ॥२४॥ इस तरहसे यह कृतार्थ होकर, सुरगिरिकी-मेरुकी शिखरोंपर जो चैत्यालय हैं. उनको प्रणाम करके और उनकी प्रदक्षिणा करके, तथा पांडुक शिलाकी पूजा करके, घरको लौट आया ॥२९॥हजार आरोंसे युक्त चत्रको अमोघशक्तिके धारण करनेवाले दंड औरखनको तया "खेत छत्रको इसने प्राप्त किया जिससे कि आधे भरतक्षेत्रको लक्ष्मीका
आधिपत्य भी इसको प्राप्त हुआ।मला पुण्यका उदय होनेपर क्या 'साव्य नहीं होता।२९ अत्यंत उन्नत और कठिन स्तनोंकी शोभा
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महावीर चरित्र |
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से भूषित, सुंदर ईपत् हास करनेवाली, अड़तालीस हजार, इसकी मनोहर नितंबनी हुई ॥ ३० ॥ जिनका साहस उन्नत है, तथा जो विद्या और प्रभाव में उन्नत और प्रसिद्ध हैं, ऐसे सोलह हजार रा जाओंके साथ अशग्रीव समस्त दिशाओंको कर देनेवाला बनाकर राज्य करने लगा ॥ ३१ ॥
भारतवर्षमें स्वर्गके समान मुरमा नामका अनुपम देश है, जो ऐसा मालूम होता है मानों जगत् में जो अनेक प्रकारकी कांतिशोभा देखने में आती हैं व सत्र यहां स्वयमेव इकठी हो गई ॥ ३२ ॥ जहां वृक्ष भी सत्पुरुषों के साथ समस्त साधारण मनुप्योंको अपने नीचे करनेवाले, जिनके फलको अर्थी - याचक स्वयमेव ग्रहण करते हैं ऐसे और उन्नति सहित तथा सरस हो गये हैं ॥ ३३ ॥ . जहांकी अटबिओंकी - इनिओकी नदिओंके तीरका जल कमलिनिओंके सरस पत्तोंसे ढक जाता है ! अतएव उसको प्यासी तृषातुर मी हरिणी सहसा पीती नहीं है; क्योंकि उसकी बुद्धि इस भ्रम में पड़ जाती है कि कहीं यह हरिन्नणियों का पन्नाओं का बना हुआ स्वच्छ तो नहीं है ॥ ३४ ॥ यहांकी नदियां और अंगना दोनों समान शोभाको धारण करनेवाली हैं। क्योंकि स्त्रियां सुपयोधरासुंदर स्तनोंको धारण करनेवाली हैं, नदियां भी सुपयोधरा - सुन्दर पय - जलको धारण करनेवाली हैं स्त्रियोंके नेत्र मछलियोंकी तरह चंचल होते हैं, नदियोंके भी मछलियां ही चंचल नेत्र हैं। स्त्रियां · कलाओंको धारण करनेवाली हैं, नदियां भी कलकल शब्द करनेवाली हैं। स्त्रियां कृप लहरोंके समान भूजाओंको धारण करती हैं, नदियां कृष लहरोंको ही भुजा बनाकर धारण करती हैं ।
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पायवां सर्ग स्त्रियों के नितंब स्थानोंका लोग-उनके पति सेवन करते हैं,नदियों के नितंत्र-स्थानोंका-तटोंका भी लोग सेवन करते हैं। स्त्रियां पापसे रहित हैं, नदियां कीचसे रहित हैं। इस तरह यहांकी स्त्रियां और नदियां दोनों समान हैं ॥ ३५ ॥ इस देशने अपने उन ग्रामोंसे कुरुदेशको भी नीचा बना दिया, जो कि सदा पुष्प और फलोंसे लझे रहनेवाले सुंदर वृक्षोंसे व्याप्त हैं, मुघा समान या सुधा-कलईसे धवल महलोंसे पूर्ण हैं, तथा जिनमें उज्वल पुरुष निवास करते
इस देशमें विद्वानोंसे भरा हुआ पोदन नामसे प्रसिद्ध एक बहुत वड़ा नगर हैं । जिसने अपनी कांतिसे दूसरे समस्त नगरोंको नीचा कर दिया है । यह ऐसा मालूम होता है मानो . आकाशसे स्वर्ग ही उतर आया है ॥३७॥ जहांपर रात्रिके समय मकानोंके ऊपरकी जमीन-उत, जिसकी कि प्रभा मणियोंके दर्पणकी तरहं निर्मल है तारागणोंकी प्रतिविम्बके पड़ जानपर ठीक ऐसी शोभाको प्राप्त · होती है मानों इसपर चारों तरफ नवीन-अनधि मोती विखर
गये हैं ।। ३८ ॥ जहाँपर स्फटिक मणियोंके बने हुए मकानं हिमालयकी सम्पूर्ण शोमाको धारण करते हैं। क्योंकि यहांके मकान भी हिमालयकी तरहसे ही धवल मेघोंसे घिरे रहते हैं । एवं जिस तरह हिमालयमें बहुतसी भूमि-गुहां होती हैं उसी तरह मकानोंमें भी बहुतसी भूमि-खन हैं। जिस तरह हिमालयके ऊपर तारागणोंके समान पक्षियोंकी पंक्ति रहती है उसी तरह मकानोंके ऊपर भी रहती है . ॥ ३९ ॥ जहां सामान्य तलावोंके तटोपर लगी हुई शिरीष समान कोमल हरिमणियोंकी-पन्नाओंकी कांति, नवीन शैवालके
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६] महावीर चरित्र । खातेमें कौतूहल-क्रीड़ा करनेवाली मस हंसानियोंको. ठग लेती है ॥ १०॥ नहींके मकानोंक पर चंद्रकांत मणि तथा नीलमणि दोनों लगी हुई हैं। उनमें से नीलमणिके कांतिपटलसे जब रात्रिके समयमें चंद्रमाका आधा भाग नक नाता है तैन उसको युव- . तियां सहभा देखकर यह समझने लगती हैं मानों इसको राहून असा लिया है ॥ ४१ ।। नहां पर घरकी वावड़ियोंकी मंद २ लहरोस । उत्पन्न होनेवाली वायु वहांकी ललनाओंके मुखकमलकी सुगंधिको लेकर निरंतर इस तरह उड़ती रहती है मानों घनाओंमें लगे हुए सुंदर पत्रोंकी .. गणना कर रही हो॥४२॥ जहां पर निर्मल रत्नोंकी बनी हुई भूमिमें : सूर्य मंडलका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है उसको कोई मुग्ध-वधू तपाये । हुए सुवर्णका दर्पण समझकर सहसा उठाने लगती है, परंतु उसकी . सखी जब उसको ऐसा करते हुए देखती है तब वह हसने लगती है . ॥४३॥ खाई और कोटके बनानेसे शत्रुपक्षको यह बात सुचित होती है कि हमारा इसको भय है । अतएव सत्पुरुषोंको उनके-वाई और : कोटके बनानेसे भी क्या फायदा है। ऐसा समझ कर ही मान धनको धारण करनेवाले वाहुबलीने इस नगरकी न तो खाई ही बनवाई थी और न कोट बनवाया था ॥ १४ ॥ इस अप्रतिम नृपतिने इस नगरको भूपित कर रक्खा था । वह अपने गुणोंसे सार्थक प्रजापति था.। उसके चरणयुगल, समस्त सूपालोंके राजाओंके मुकुट पर लंगी हुई. मणियोंकी कांति-मंजरीसे जटिल रहते थे ॥ ४५ ॥ जिसके आत्मगुण अत्यंत निर्मल हैं, जो समस्त प्राणिगणकी परिस्थितिसे भाषित रहता है, ऐसे इस महापुरुषों में श्रेष्ठ रानाको पाकर लक्ष्मी भी इस तरह. अत्यंत शोभाको प्राप्त. हुई जिस तरह आकाशमें रहनेवाली
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। पचिवां सर्ग . ..१७ कला-चंद्रकला रात्रिसमयमें चंद्रमांको पाकर शोभाको प्राप्त होती है ॥४६॥ यह राजा. धैर्यको धारण करनेवाला, विनयरूपी सारभूत घनको ग्रहण करनेवाला, और नीतिमार्गमें सदा स्थित रहनेवाला था। इसकी मति विशुद्ध थी। इसने अपने इंद्रियं और मनके संचारको अपने वश कर रक्खा था। यह इस तरह शोभाको प्राप्त होती था मानों स्वयं प्रशमका-शांतिका स्वरूप ही हो ॥४७॥ जगतमें इसने यह प्रसिद्ध कर रखा था कि वह शुत्रुओंमें सदा अपने महान् 'पौरुखको लगाता है, सज्जनोंसे प्रेम करता है, प्रनाको नय न्याय)
और गुरुओंका विनय करता है, एवं जो उसको आकर नम्र होने हैं उनको वह खूब धन देता है ।। ४८ ॥
इस विमुके अपनी क्रांतिस अप्सराओंको यी नीतनेवाली जयावती. और मृगनवी नामकी दो रानियां थीं । इन दोनोंको पाकर यह राजा इस तरह सोमाको प्राप्त होने लगा मानों उसने मूर्तिमती धृति (धैर्य) और साधुताको ही प्राप्त कर लिया हो ॥४९॥ ये दोनों ही अनन्यसाधारण थीं। ये ऐसी मालूम पड़ती थीं मानों स्वय. लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही प्रकट हुई हो । इन्होने. अपनी मनोजताके. कारण पृथ्वीनाथको एकदम अपने वशमें कर लिया था... ५० ॥.
विशाखभूति स्वर्गसे:उतरकर इसी रानाके यहांविनय नामका पुत्र हुआ । जो पहले मगधदेशका. अधिरति था वह अव यहां , 'जयावतीके हर्पका कारण हुआ॥ ५१ ॥ निसं तरह. संसारमें पूर्ण
शंशी-चंद्रमा निर्मल आकाशकों, फूलोंका. महान् उद्गम-फूलना उप 'बनको प्रशमशांति-क्रोधादिक कपायौंका न होना प्रसिद्ध या
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महावीर चरित्र । अभ्यस्त श्रुतं-शास्त्रज्ञानको अलंकृत करता है उसी तरह वह मी अपने धवल कुलको अलंकृत करने लगा ॥ ५२ ॥ .. :: . . .
पृथ्वीका साधन करनेके लिये हीस्वर्गसे आनेवाले निर्मल देवको मुंगवतीने अपने उदरके द्वारा शीघ्र ही धारण किया, मानों सीपने पहली जलविंदुको धारण किया ॥ ५३॥ मृगवतीका मुख बिलकुल पीला पड़ गया, · मानों उदरके भीतर रहनेवाले वालकके यशका सम्बन्ध हो जानेसे ही वह ऐसा हो गया । उसका शरीर भी कृष हो गया, क्योंकि वह गर्भमारके, वहन करनेमें असमर्थ थी ॥ ५४॥ शत्रुपक्षकी लक्ष्मीके साथ २ इसके स्तन युगलका मुख भी काला पड़ गया । और सम्पूर्ण पृथ्वीके साथ २: इसका उदर भी हर्षसे बहने लगा ॥१५॥ सारभूत खजानेको धारण. करनेवाली पृथ्वीकी तरह, अथवा उदयाचलसे छिपे हुए चंद्रमाको धारण करनेवाली रात्रिकी तरह, प्रथम गर्भको धारण करनेवाली मृगवतीको देखकर राजा हर्पित होने लगा ॥ ५६ ॥ क्रमसे गर्म सम्बन्धी समस्त सुंदर विधिके पूर्ण हो जाने पर ठीक समय पर मृगवतीने इस तरह पुत्रका प्रसव किया जिस तरह शरद ऋतुमें: कमलिनी विपुल गंधसे पूर्ण, लक्ष्मीके निधान, मुकुलित कमलको उत्पन्न करती है ॥ ५७ ॥ . ..जिस समय पुत्रका जन्म हुआ उसी समय सारे नगरमें बड़ी भारी हर्षकी वृद्धि हो उठी। और चारो तरफ निर्मल आकाशंसे पांच प्रकारके रत्नोंकी वृष्टि होने लगी ॥ ५.८॥ वाजोंकी निर्दोष लय और तालके साथ:२ रानमहलमें मयूरोंका समूह भी उत्सवमें मन लगाकर वारांगनाओंके वेश्याओं के साथ नृत्य करने लगा ॥१९॥
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पांचवां सर्ग
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'धवल छत्र और उसके सिवाय दूसरे भी सब तरहके रामः चिन्होंको छोड़कर बाकी अपने २ मनके अभिलषित धनको राज्यके लोगोंने सहसा स्वयं प्राप्त किया ॥ ६० ॥
अतुच्छ शरीरके धारक तीन कालकी बातों के जाननेवाले ज्योतिषीने जो कि सम्पूर्ण दिशाओंमें शिरोभूषण की तरह प्रसिद्धं था राजासे यह स्पष्ट कह दिया कि आपका यह पुत्र अर्ध चक्रको धारण करनेवाला होगा ॥ ६१ ॥ राजाने अपने कुलके योग्य जिनेंद्र देवकी महती पूजाको विधि पूर्वक करके जन्म से दशमें दिन हर्षसे पुत्रका 'त्रिपिष्ट' यह नाम रक्खा ॥ ६२ ॥ शरद ऋतुके आकाशकी शोभाको चुरानेवाले शरीरके द्वारा धीरे २ कठिनताको प्राप्त करते हुए. राजाकी रक्षासे वह इस तरह बढ़ने लगा जिस तरह समुद्र में अमूल्य नीलमणि : बढ़ती है ॥ ६३ ॥ त्रिपिष्टने रामविद्याओंके साथ २ सम्पूर्ण लिया । अहो ! गुणका संग्रह करनेमें प्रयत्न करनेवाला बालक भी जगत् में सत्पुरुष होता है । भावार्थ — गुणोंके होने पर एक बालक मी महापुरुष समझा जाता है। तदनुसार त्रिपिष्टने भी बाल्यावस्था में विद्याओंको और कलाओं को प्राप्त कर लिया इसी लिये वह बालक होने पर महापुरुप समझा जाने लगा । ६४ ॥
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असाधारण बुद्धिके धारक कलाओंको स्वयमेव सीख:
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जिस तरह. वसंत ऋतु में आम्र वृक्षके सम्बंधसे पहले ही निकलनेवाले 'बौरकी शोभा होती है और उस बौरको पाकर भम्र वृक्ष अच्छा लगता है, उसी तरह त्रिपिष्टको पाकर यौवन
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अत्यंत शोभाको प्राप्त हुआ, और अत्यंत सुभगताको प्राप्त हुआ ॥ १६५॥
यौवनको पाकर त्रिपिष्ट भी क्षत्रियोंके हरण करनेवाले
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७०. ]
महावीर : चरित्र ।
पुरुषश्रेष्ठ त्रिपिष्टका विजयगोपी पहले ही अप्रकटरूपले स्वयमेत्र इस तरह: आलिंगन करने लगी जिस तरह कोई अभिसारिका स्त्री जिसकी कि बुद्धि कामदेव से व्याकुल हो उठी हो अपने मनोभिलषित पुरुषका आलिंगन करै ॥ ६ ॥
एक दिन राजा सिंहासनके ऊपर, जिसमेंसे कि लगी हुई पद्यरंग (माणिक) मणियोंकी किरणोंके अंकूर निकल रहे थे, सभाभवन में अपने दोनों पुत्र तथा दूसरे 'राजकीय लोगोंके साथ आनंदसे बैठा हुआ था ॥ ६७॥ उसी समय एक बुद्धिवान् प्रांतीय मंत्रीने राजासे अपने कर कमलोंको मुकुलित करके हाथ जोड़कर 'और नमस्कार कर प्रकट रूपमें इस बातकी सुचना की कि है 'पृथ्वीनाथ ! आपकी असिलताकी तीक्ष्ण धारसे पृथ्वी सब जगह सुरक्षित है तो भी एक बलवान सिंह उसको बाघा दिया करती है । अहो ! जगत् में कर्मरूप शत्रु बड़ा बलवान् है ।। ६८-६९ ॥ उसको देखकर ऐसा भ्रम हो जाता है कि क्या सिंहके उलसे स्वयं यमराज पृथ्वी हिंसा कररहा है ? अथवा कोई महान असुर है! यद्वा आपके पूर्व जन्मका शत्रु · कोई देव है ! क्योंकि उस तरह का कार्य सिंह नहीं हो सकता ॥ ७० ॥ शहरके सम्पूर्ण लोगोंने उसके भय से अपने स्त्रीपुत्रोंकी तरफ मी दृष्टि नहीं दी और दे आपके शत्रुओं की तरह पलायन कर गये हैं-भाग गये है। संसारियोंको अपने जीवनसे अधिक प्रिय कुछ भी नहीं है ॥७१॥ सिंहके निमित्तसे प्रजाको नो व्यथां हो रही थी उसको मंत्रीके वचनोंसे सुनकर राजाको उस समय हृदय में बहुत संताप हुआ । अहो ! यह बात निश्चिंत है कि जगत्को उसका दोष ही संतापका देने
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पांचवा सर्गः।
'. वाला होता है | रोना गंभीर शब्दसि सम्पूर्ण संभाभवनको रुंद करता हु इस तरह बोला मानों चंद्रमाके समान दांतोंसें अपने हृदयके भीतरंकी निर्मलं कृपाकी ही बखेर रहां हो ॥७॥ राना बोला कि संसारमें धान्यकी रक्षा करनेके . लिये घासका आदमी बना दिया जाता है तो उससे भी मृग वगैरहको मयं होने लगता है। परंतु जिसने समस्त रानाओंको कर देनेवाला बना लिया यह उस घासके आदमीसे भी अधिक असामर्थ्यको प्राप्त हो गया है, यह कितनी निंदाकी बात है। ७४ जगतके भयका निवारण किये विना ही जो नगत्का अधिपति जनता है उसको नमस्कार करनेवाली मी जनता इस तरह वृथा देखती है जिस तरह चित्रामक रानीको ॥ ७९ ॥ इस समय सिंहं मार डाला लायंगा तो भी क्या यह अपयश समस्त दिशाओंमें नहीं फैलेगा कि मनुवंशमें उत्पन्न होनेवाले पृथ्वीपतिक रहते हुए भी प्रनाम इस तरहकी इति ( उपद्रव ) उत्पन्न होगई ।। ७६ ॥ इस तरहके वचनोंको कहकर राजा उसी समयं भृकुटियोंको चढ़ाकर सिंहको मारनेके लिये स्वयं उठा; किंतु विजयके छोटे भाईने पिताको रोककर और कुछ हँसकर तथा नमस्कार करके पीछेसे इस तरह कहना शुरू किया ।। ७७ .. . . . "हे तात ! जगतमें पशुओंको निग्रह करने के लिये भी यदि आपको इतना बड़ा प्रयत्न करना पड़ा तो बतलाहये कि अब इसके सिवाय और ऐसा कौनसा काम है कि जिसको पहले हम सरीखे .पुत्र करें ? ॥ ७८:। इसलिये हैं आर्य !ऑपको जाना युक्त नहीं है। इसतरह. रीनासे कहकर अद्वितीय सिंहके समान वह बल
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७२ ]
महावीर चरित्र |
वान् विजयका छोटा भाई उसकी - राजाकी आज्ञासे सेना के साथ : सिंहका वध करनेके लिये गया ॥ ७९ ॥ वहां उसने ऐसे मनुष्योंके विनाशको देखा कि जो, नखक अग्रभागसे गिरी हुई मनुष्योंकी आंतों को ग्रहण करनेके लिये आकाशमें व्याकुल हो उठनेवाले गृध्रकुल- बहुत से गीधद्वारा उस यमराज सदृश मृगराजकी गतिको प्रकट कर रहा था ॥ ८० ॥ वह सिंह, मार हुए मनुष्योंकी हड्डियोंसे जो सब जगह पीला पड़ गया था ऐस पर्वतकी एक भयंकर गुफा में सो रहा था । उसको सेनाके शब्दोंस तथा मेरी वगैरहको पीटकर उसके शब्दोंस जगाया ॥ ८१ ॥ जग-ते ही जो उसने जंभाई ली उससे उसका मुख बहुत भयंकर मालूम होने लगा | वह भेड़ी आंखोंसे सेना के आदमियोंको देखकर उटा और शरीर जो टेढ़ा मेढ़ा हो रहा था अथवा आलस्यमें आ रहा था.. उसको सीधा करके धीरे २ अपनी पीली सटाओंको हिलाया ॥ ८२ ॥ अत्यन्त गर्जनाओंसे दिशाओंको शब्दायमान करते हुए जब उसने अपनी मुखरूपी कंदराको गुहाको फाड़कर. शरीरके आगेका भाग उठाया और उलंघन करने लगा - आक्रमण करने लगा उसी समय उसके सामने निर्भय राजकुमार अकेला ही भाकर खड़ा हुआ || ८३ ॥ राजकुमारने निर्दय होकर दक्षिण हाथसे तो उसके शिला समान कठिन आगेके पनोंको रोका - पकड़ा, और दूसराबायां हाथ शरीरमें लगाकर झटसे उस मृगराजको पछाड़ दिया ॥ ८४ ॥ वह सिंह रोपसे मानों अपने स्फुलिंगोंका वमन करने लगा । धारण करनेवाले नली
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दोनों नेत्रोंसे दावानलके
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राजकुमारने उसका उद्यम निष्फल
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पांचवां सर्ग ...
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कर दिया तब विवश होकर वह किसी अद्वितीय रक्षास्थानकी चिंता करने लगा || ८५ ॥ कुमारने नवीन कमलनालके तंतुकी तरह उस मृगराजका विदारण करके उसके रूधिरसे जगत् में जो संताप बढ़ रहा था उसको शांत कर दिया। जिस तरह मैत्र जलके द्वारा जगत्के तापको शांत कर देता है। उसका वह खून जगत्को तृप्त करनेवाला था ॥ ८६ ॥ जो महा पुरुष होते है वे नियमसे अपने बड़े भारी साहससे भी हर्षित नहीं होता । यही कारण हुआ कि जिसका कोई भी दूसरा वध नहीं कर सकता था ऐसे सिंहका वध करके भी वह हरी - नारायण पढ़वीका धारक - राजकुमार निर्विकार ही रहा ॥ ८७ ॥
एक दिन हरिने अपने दोनों हाथोंसे उस कोटिशिलाको भी लीला मात्र में ऊपरको उठाकर अपना पराक्रम प्रकट कर दिया, नोकि बलवानोंकी अंतिम कसोटी है। भावार्थ - साधारण पुरुप कोटिशिला को
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नहीं उठा सकता, जो नारायण होता है वही उठा सकता है, और वही उठाता है इसलिये वह उनके वरपरीक्षाकी कसौटी है ॥ ८८ ॥ विजयपताकाओं से सूर्यकी किरणोंको ढकता हुआ, तथा अनुरागमें लीन बालकों के भी द्वारा गाये गये अपने यशको सुनता हुआ वह कुमार वहांसे लौटकर नगर में आगया ॥ ८९ ॥ विजयके छोटे भाई. इस विनयी राजकुमार ने शीघ्र ही राजघर में जहांपर अनेक तरहका मंगलाचार हो रहा था. प्रवेश कर चंचल शिखामणिसे भूषित शिरको नमाकर पहले विजयको और पीछे - विजयके साथ साथ
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जाकर महारानको नमस्कार किया. ॥ ९० ॥ राजाने पहले तो हर्षके आंसुओंसे मरे हुए दोनों नेत्रोंसे उनका अच्छी तरह
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महावीर चरित्र ।
आलिंगन कर लिया, पीछे दोनों मुनाओंसे गाढ़ आलिंग किया । इस प्रकार उसने अपने दोनों पुत्रोंके आलिंगन करनेमें मानों पुनरुक्ति करदो-दो वार आलिंगन किया । ॥ ९१ ॥ राजाका शरीर हंपके अंकुरोंसे व्याप्त हो गया । उसने आलिंगन करके दोनों पुत्रोंको बहुत देर में छोड़ा। इसके बाद वे पिताकी आज्ञासे उसके साय में राज सिंहासनपर ही एक भागमें मन्त्र होकर बैठ गये ॥ ९२ ॥ महाराजने क्षेमकुशल पूछा, परन्तु उसके उत्तर में कुमारके विजयलाभने ही उसकी मुनाओंक यथार्थ पराक्रमेका. निरूपण कर दिया । अतएव वह चुप होकर नीचे की तरफ देखने लगा । ठीक ही है जो महापुरुष होते हैं उनको गुणस्तुति हर्षका कारण नहीं होती ॥ ९३ ॥ इस प्रकार शरद ऋतुको चंद्रकलाकी तरहं समस्त दिशाओं में निर्मल यंशको फैलाता हुआ, और लोगोंको. उनकी रक्षा करके हर्षित करता हुआ, वह राजा अपने दोनों पुत्रोंके साथ साथ समस्त पृथ्वीका शासन करता था ॥ ९४ ॥
1. एक दिन, आश्चर्यसे जिसके नेत्र निश्चल हो गये हैं ऐसा द्वारपाल हायमें सोनेका बेंत - उड़ी लिये हुए राजाके पास दौड़ता हुआ आया और इस तरह बोला, किंतु जिस समय वह बोलने लगा उस समय 'खुशीसे जल्दी जल्दी बोलनेके कारण उसके वाक्य रुकने लगे ॥ ९५ ॥ वह बोला- “ कोई आकाश मार्गले आकर हजुरके दरवाजेपर खड़ा है । वह तेजोमय है, और उसकी मूर्ति आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है । वह आपके दर्शन करना चाहता है। मंत्र जो आपका हुकम हो वह किया जाय । " यह कहकर द्वारपाल चुप हो गया ॥ ९६ ॥ " हे सुमुख ! उसको जल्दी भीतर मेन
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पांचवा सर्ग ७५ दो। राजाकी इस आज्ञाको पाकर द्वारपाल लौट आया। और दरवाजेपर जाकर उसको भीतर भेज दिया। जिसः समय वह भीतर पहुंचा आश्चंग और हर्पयुक्त नेत्रोंसे समा उसको मुड़ मुड़कर देखने लगी ॥ ९७ ॥.उसने आकर आदरस-अदबसे महाराजको नमस्कार किया । महाराजने भी अपने पासमें लगे हुए एक सुवर्ण सिंहासनपर उसको बैठनके लिये हायसे इशारा किया। बैठाकर, और उसको कुछ विश्रांत देखकर महारान बोले ॥९८॥--"इस सौम्य आकारको जो कि अपने समान दूसरेको नहीं रखता-धारण करनेवाले आप कौन हैं ? और इस भूमिपर किसलिये आये हैं.. तथा. यहाँपर किस प्रयोजनसे आना हुआ.है ? " स्वयं महारानके • इस पूछनेपर आगन्तुकने इस तरह कहना शुरू किया ।। ९९ ॥ ..
. इसी क्षेत्रमें चांदीके उन्नत :शिखरोंसे युक्त "विजयाई" नामका एक पर्वत है। जिसपर नरेन्द्र और विद्याधर लोक निवास करते हैं। वह दो श्रेणियोंसे भूषित है-उत्तर श्रेणी : और दक्षिण श्रेणी ॥ १०० ॥ दक्षिण श्रेणिमें स्थनुपुर नामका एक नगर है।। जिसका शासन उसमें निवास करनेवाला. इन्द्रके समान क्रीड़ा करनेवाला विद्याधरोंका स्वामी करता है उसका नाम ज्वलनजटी है ॥ १०१॥ आपके वंशमें - सबसे पहले बाहुबली हो गये हैं.। वे महात्मा तीर्थकरों से सबसे पहले तीर्थंकर श्री ऋषभदेवके पुत्र थे। जिन्होंने अपने बाहुवलसे क्रीडाकी तरह मरंतेश्वरको पीड़ित कर समस्त सम्पत्तिके साथ साथ छोड़ दिया .. १०२.हे राजन्ः। विद्याधरोंको स्वामी-ज्वलनगंटीभी, कच्छराजक.. पुत्र नमिके.चंद्रकिरण-सहा निर्मल कुलको अलंकृत करता है।
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महावीर चरित्र। इसलिये नीतिदक्ष वह आपका मानना लगता है ॥ १०३ ।। इस लिये सकुशल वह हमारा स्वामी और आपका पुराना बन्धु आपस दूरी पर रहता है तो भी जिस तरह चंद्रमा समृद्रका आलिंगन करता है उसी तरह प्रेमसे अच्छीतरह आलिंगन करके मेरे द्वारा आपका क्षेम कुशल पूछना है ॥१०॥ तथा हे इंश ! शत्रुओंकी कीर्तिको नष्ट करनेवाला अर्ककिति नामका उसका पुत्र, स्वयंप्रभा नामको 'पुत्री, तया अद्वितीया देवी-रानी आपके पूज्य चरणकमलोंकी अभ्यर्थना करते हैं ॥ १०५ ॥
। एक दिनकी बात है कि कमळताक समान अद्वितीय पुष्पयुक्त पुत्रीको देखकर जलनगटीको मालूम हुआ कि वह कामफलकी. उन्मुख दशाको प्राप्त हो चुकी है। परंतु मंत्रि-नेत्रों के द्वारा देखने-. पर भी उसको उसके समान योग्य वर कहीं भी नहीं दीखा ॥१०६॥ तब निमित्त शास्त्रमें कुशल आप्तकी तरह प्रमाण संमिन्न नामके देवतमें विश्वास किया । और मुख्य मुख्य मंत्रियों के साथ एकांतमें उनके पास जाकर इस तरह पूछा ।। १०७ ॥ “ सुलोचना-सुंदर नेत्रोंवाली • स्वयंप्रमाके योग्य पति हमको कोई भी नहीं दीखता है। इसलिये मत्र
आप अपने दिव्य चक्षुओंसे उसको देखिये। मुझे यह कार्य किस तरह करना चाहिये इस विषयमें आप प्रमाण हैं । ॥१०८॥ इस तरह जब राजा अपने कामके बीनको ताकर चुप हो गया तत्र संमिन्न विद्याधरोंके अधीशसे इस तरह बोला ।"हे आयुष्मन् ! अवधिज्ञानी.मुनिरानसे तेरा कर्तव्य मुझे पहले जैसा मालूम हो चुका है. उसको वैसाका वैसा ही कहता हूं । सुन, इसी मरतक्षेत्रमें भरत राजाके वंशमें प्रजापति नामका एक राजा है । वह बड़ा उदार है,
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. पांचवां सर्ग:
[७७. और उसका नाम भी अन्वर्य है-अपने नामके अर्थके.अनुसार प्रनाको पालक भी है। इसके दो विनयी पुत्र हैं । एकका नाम विनय है दुसरेका त्रिपिष्ट । यह समझो कि अमानुप बलके धारक ये दोनों • माई क्रमसे पहले बलभद्र और नारायण हैं । अर्थात् बड़ा भाई विनय पहला बलभद्र है और छोटा भाई त्रिपिष्ट पहला नारायण है ॥ ११०॥ त्रिपिटके पहले भवका शत्रु विशाखनंदी यह अश्वग्रीव हुआ है । इसलिये त्रिपिष्ट इस विद्याधरोंके इंन्द्रको रणमें युद्धकर दुर्मद कर देगा, और उसको मारकर आप अर्ध चक्रवर्ती होगा ॥ १११ ॥ अतएव विद्याधरोंक निवास स्थानमें सारभूत कन्यारत्नको निःसंदेह वासुदेवको-त्रिपिटको देना चाहिये उनके प्रसादसे उत्तर श्रेणीको पाकर आपकी भी वृद्धि होगी। ॥ ११२ ।। उस कार्तान्तिक-संभिन्न नामक दैवज्ञक निसके वचन कमी झूठ नहीं हो सकते इस आदेशसे जब सम्पूर्ण शंकायें दूर हो गई तब हे देव ! यह समझिये कि ज्वलननटीन इस कार्यको :घटित करनेके लिये मुझको ही दूत बनाकर भेना है । मेरा नाम इंदु है । मैंने स्थिर चित्तसे आपके समक्ष यह कार्य प्रकाशित कर दिया है । आगे आप स्वयं कार्य-कुशल है" ॥ ११३ । इस प्रकार जब वह आगतुक विद्याधर अपने आनेके कारणको अच्छी तरह वताकर चुप हो गया, तब उस समृद्धिशाली राजाने उसका उन समस्त भूपणोंको देकर सत्कार किया कि जिनको उसने स्वयं अपने शरीरपर धारण कर' रक्खा था। तथा मनुष्य शीघ्र ही विजयाद्ध पर नहीं पहुंच सकता इसलिये उस.आगंतुक विद्याधरके ही मारफत ‘अपना संदेश और उसके साथ कुछ भेट खुश होकर उस विद्याधरोंके अधिपति-ज्वलननटीके
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७८ ] . महावीर चरित्र। यहां भेनी ॥१.१४।। और यह कहकर उसको विदा किया कि " हमको दर्शन कराने के लिये उत्कंठा युक्त विद्याधरों के अधीशको शीघ्र लाइये।" इंदुने भी अपने नम्रीभूत मुकुटके किनारे पर हायाँको रखकर नमस्कार किया। पीछे अपने महान् विद्यारलसे दीप्तियुक्त विमानको बनाकर और उसमें बैठकर नीलकमल सदृश आकाश पर 'चला गया ।। ११५ ॥ इस प्रकार श्री अचंग कविकृतः वर्धमान चरित्रमें त्रिपिष्ट संभव - नामका पांचवां संग समाप्त हुआ ।
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छहास।
. कुछ दिनोंके बाद एक दिन प्रभापतिने वनपालसे सुना कि बाहर प्रशस्त वनमें विद्याधरोंका स्वामी अपने बल सहित आकर उतरा है । यह सुनकर हर्षसे उसको देखने के लिये वह निकला ॥ १ ॥ जन्नत और कठोर कंधाओंसे भूषित दोनों पुत्रोंके साथ २ राजा बहुत ही अच्छा मालूम पड़ता था। दोनों पुत्र ऐसे मालूम पड़ते थे मानों रानाकी ये दोनों भुनायें हैं। इनमेंसे पहला जो कि दक्षिणकी तरफ था मानों साधुजनोंके लिये, और दूसरा जो कि वाम भागमें था मानों शत्रुओंके लिये ना रहा है ॥२॥ प्रसिद्ध वंशोंमें उत्पन्न होनेवाले राजपुत्रोंके साथ २ राजा इनमें पहचा। मार्गमें ये राजपुत्र अपने अपने वाहनों पर सवार होकर जब वो चलने लगते उस समय उनके चंचल हो उटनेवाले हारोमेसे. निकले हुए किरण जाणसे सपूणे दिशायें प्रकाशित हो उठती थीं।
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थे. ऐसे मालूम पड़ते थे मानों ये राजपुत्र नहीं किंतु मार्गाने अगह जगह पर लगे हुए स्वयं राजाके...प्रतिविम्ब ही हैं ॥ ३ ॥ . ' :: विधाके प्रभावसे बनाये गये अद्भुत महलोंके कंगूरोंके कोनों पर बैठी हुई विधारियोंके चंचल नेत्रोंके साथ साथ, सहसा उटकर विद्याधरोंके स्वामीने अपनी प्रीतिपूर्ण दृष्टिको फैलाकर भूपालको देखा ॥ ४ ॥ धरणीनाथ-अभापति और धरणीधरनाथ-विज़याधका स्वामी ज्वलनजटी दोनों ही अत्यंत उत्सुक अपनी २ सवारीसे खुशीसे फुतीके साथ निकटवर्ती सुंदर भटोका हस्तावलंबन लेकर दूरसे ही उतरे । और दोनों ही एक दूसरेके सन्मुख आधा आधा चलकर आये । अर्थात् उधरसे ज्वलनजटी उतरकर आया और इधरसे प्रजापति गया इस तरह दोनोंका वीचमें मिलाप हो गया ॥५॥ यद्यपि इन दोनोंका सम्बन्धरूपी चंदनका वृक्ष बहुत पुराना पड़ गया था तो भी दोनोंने मिलकर गाढ़ आलिंगनके अमृतजलसे उसको सींचा निससे वह फिर हरामरा हो गया। दोनों राजाओंके वाज: चंद्रों में लगी हुई मणियों से जो किरणें निकलती थीं उनसे ऐसा मालूम पड़ता था मानों उस सम्बन्धरूपी चंदनके वृक्षसे ये नवीन अंकुर निकल रहे हैं ॥ ६ ॥ ज्वलनजटीके पुत्र अर्ककीर्तिनं यद्यपि उस समय पिताने आंख बगैरहके इशारेसे कुछ बताया नहीं था तो . भी दूरसे ही शिरको नमाकर नमस्कार किया। ठीक ही है- जो
महा पुरूप होते हैं उनका महात्माओंमें स्वभावसे ही विनय हो नाता है. ॥ ७ ॥ विनय और त्रिपिट, लक्ष्मी प्रताप वल शूवीरेता बुद्धि और विद्या आदिकी अपेक्षा सम्पूर्ण लोगोंसे. अधिक थे तो भी इन दोनों भाइयोंने साथ -२ उस विचारोंके स्वामीको प्रीतिसे
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महावीर चरित्र ।
प्रभामं किया । जो महान पुरूप होते हैं व गुणों में गुरुजनोंसे अधिक - होनेपर भी नम्र ही रहते हैं ॥ ८॥ अत्यंत शोभायुक्त ये दोनों भाई खूब ऊंचे शरीरके धारक और कामदेव के समान मनोहर निर्मत्र चंद्रमाके समान कीर्तिके धारक अर्ककीर्तिका आलिंगन कर प्रसन्न हुए । प्रिय बंधुओंका संबन्ध किसके हर्पको नहीं बढ़ाता है ॥२॥ मनुष्य--भूमिके और विजयार्धके स्वामियोंके मुखकी चेष्टासे जब यह मालुम हो गया कि इन दोनों के मनमें बोलनेकी इच्छा है तब राजा प्रजापतिका अत्यंत प्रिय मंत्री इस तरह बोला क्योंकि जो कुशल मनुष्य. होते हैं वे योग्य समयको समझा करते हैं ॥१०॥ " आज कुलदेवता अच्छी तरह प्रसन्न हुए, और शुभ कर्मका उदय हुआ । आपका जन्म सफल है कि जिन्होंने पूर्व पुरुषोंसे चली आई लड़ाके समान स्वता (निजत्व ) को जो किसी तरह छिन्न हो गई थी तो भी उसको फिरसे अंकुरित कर दिया || ११|| - जिस तरह कोई योगी, प्रतिपक्षरहित, साधारण मनुष्योंके लिये दुष्प्राप्य, आत्मस्वरूप केवलज्ञानको पाकर सम्पूर्ण मुत्रनोंक लिये मान्य हो जाता है, तथा सर्वोत्कृष्ट और ध्रुवपदको प्राप्त हो जाता है । हे देव ! प्रजापति भी आपको पाकर ठीक वैसा ही हो गया है " ॥१२॥ मंत्री जब इस प्रकारसे बोला तब उसी समय उसके वाक्योंको रोककर विद्याधरोंका स्वामी स्वयं इस तरह कहने लगा। बोलते समय इसके दांतमेंसे जो चंद्रमा के समान निर्मल किरणें नीकलीं उनसे वह ऐसा मालूम पड़ने लगा मानों खिले हुए कुंडके पुप्पोंसे अंतरंग में बैठी हुई वाग्देवता - सरवस्तीकी पूजा कर रहा है ॥ १३ ॥ ज्वलनजी बोला " हे विद्वानों में श्रेष्ठ! तुम इस तरहके वचन मत बोलो।
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छहा संगी · क्योंकि इक्ष्वाकु वंशवाले हमेशासै नमिवंशवालॊके स्वामी होते आये हैं। कच्छ रानाके पुत्रन आदीश्वर भगवानकी आराधना की थी तभी धरणेंद्रकी दी हुई विद्याधरोंकी विभूतिको प्राप्त किया था। ॥ १४॥ हे मित्र ! अनादरसे उठाई गई कुटिनेताको घारण न करनेवाली इनकी भृकुटि-मंजरोके विलासको उसके ज्यानसे दी हुई आज्ञा समझकर उसको पूरा करनेके लिये यह जन तयार है। क्योंकि भले आदमियोंको अपने पूर्व पुरुषोंके क्रमका उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।। १५ ॥
भूमिगोचरी और विद्याधरोंके स्वामी जब आपसमें इस प्रकार नम्र भाषणके द्वारा सत्कार कर चुके तब सुत और सुताके रमणीय विवाहोत्सवको करने के लिये उद्युक्त हुए। इस विवाहके उत्सवको इनका प्रतिनिधि एवनी ब्रह्मा पहले ही कर चुका था। जिसके ऊपर पताका वगैरह लगाई गई हैं ऐसे घरमें प्रजापति और ज्वलनजटीने प्रवेश किया ॥ १६ ॥ प्रत्येक मकानमें, तुरई शंख वगैरह मंगल बाजे बजने लगे। उनके ऊपर इतने घना और चंदोमा लगाये गये कि जिससे उनके भीतर अंधेरा हो गया। पहले ही दरवाजोपर-सदर फाटकोंपर जिनमें से धान्यके सुकुमार अंकुर निकल रहे हैं ऐसे सुवर्णके कुंभ रक्खे गये ॥ १७ ॥ जिनके मुख कमलोंपर कामुक पुरुषोंके नेत्र मत्तभ्रमरकी तरह अत्यंत आसक्त हो रहे थे ऐसी मदसे अलप्स हुई वधुएं वहाँपर नृत्य कर रहीं थीं । रंगवल्लीमें जो निर्मल पद्मराग मंणियां लगाई गई थीं उनमें से प्रमाके पटल निकल रहे थे। उनसे ऐसा मालूम होता था मानो वहांका आकाश पल्लवोंसे लाल लाल नवीन पत्तोंसे ज्याप्त हो रहा है.। १८॥ उचारण
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महावीर चरित्र । करनेमें अति चतुर चारण-कत्यक तया चन्दिननोंक कोलाहल सम्पूर्ण दिशायें शब्दायमान हो उठी थीं। नगर एवं विद्याधरोसे च्यात उपवन दोनों ही मानों परस्परकी विभूतिको जीतनकी इच्छा एक दूसरेसे अधिक रमणीय बन गये ॥ १९ ॥ संभिन्न नामक ज्योतिपीने विवाहके योग्य जो दिन बनाया उस दिन विधाघराके इन्द्र ज्वलननटीने पहले तो निनमंदिर तथा मंदिर मेरुके उपर । जिनेन्द्रदेवकी पूना की पीछे अपने निवासस्थान कमलको छोड़ देनेवाली लक्ष्मीके समान अपनी पुत्रीको विधिपूर्वक त्रिपिट नारायणके लिये अर्पण किया ॥ २० ॥ समस्त शत्रुओंको निःशेष करनेवाला नमिवंशकी धना भून ज्वलनटी, बाजुबंद, हार, कड़े, निर्मल कुंडल इत्यादि भूपोंसे दूसरे राजपुत्रोंका. मी सम्मानकर कन्यादान-विवाहको पूराकर, अपनी रानीके साथ २ त्रिता-समुद्रके पार तर गया ॥ २१ ॥ विनयके छोटे भाई त्रिपिष्टको इस प्रकार अपनी पुत्री देकर वह विद्याधरोंका स्वामी बहुत ही प्रान हुआ। भला कौन ऐसा होगा जो बढ़ते हुए महान् अभ्युदय और वैभत्रके पात्र महापुरुष के साथ सम्बन्धको पाकर संतुष्ट न हो ॥ २२ ॥
विद्याधरोंका चक्रवर्ती-अश्वग्रीव समाचारों का पता लगानेवाले अपने दूतके द्वारा इस वातको सुनकर कि विद्याधर पतिने अपनी कन्याका दान भूमिगोचरीको किया है उसी समय कुपित हुआ जैसे कि सिंह नवीन मेघके गंभीर-शब्दपर कोप करता है। अथवा वह सिंहकी तरह नवीन मेवके समान गंभीर. शब्द करने गर्नने लगा ॥.२३ । उसकी भयंकर दृष्टि कोपसे पल्लवित हो गई । जिससे ऐमा जान पड़ने लगा मानों वह समामें बहुतसे
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चंडा. सर्ग |
८३ अंगारोंको बखेर रहा है । उस समय उसके मुखपर पसीना के जलकी बहुतसी छोटी २ बिन्दु इकट्ठी हो गई। मालूम पड़ने लगा मानों वह बिंदुओंका समूह नहीं है उसका कर्ण भृषण है। वज्रके समानघोर नाको करता हुआ वह बोला - "हे विद्यावरो ! जो काम उस अघम विद्याधर ज्वलननटीने किया है क्या तुम लोगोंने उसको नहीं सुना! देखो ! उसने जीर्ण तृणकी तरह तुम्हारी अवहेलना करके, जगमें प्रधान भूत और मनोहर कन्या एक मनुष्यको दे डाली ॥२९॥ जब अव्वकंधरने हर एकके मुखकी तरफ करके उसके विषय में कहा तब उसके वचनोंसे सम्पूर्ण सभा क्षुब्ध होकर घूमने लगी । टस समय हर्षक नष्ट हो जानेसे समाने उस दर्शनीय लीला - अवस्थाको धारण क्रिया जोकि कल्लकालके अंत समय में पबनसे क्षुब्व हो जानेवाले समुद्रकी हो जाती है ॥ २६ ॥ कोपसे समस्त जगत्को कँपाता हुआ वह नीरथ मनुष्योंका -भूमिगोचरियों का क्षय करनेके लिये चला। मानों जनताका क्षय करनेके लिये हिमालय चला। यद्यपि वह नीकर था तो भी हिमालय के समान मालुम पड़ता था । क्योंकि उसकी और हिमालयकी कई बातें समान मिटती थीं। प्रथम तो वह हिमालयकी तरह स्थितिमानोंका (मर्यादा के पालन : करनेवालोंका और हिमालयके पक्ष में- पर्वतों का ) अमेश्वर था । दूसरे : अत्यंत अनुलंब्य उन्नति (वैपदकी अधिकता तथा हिमालयके पक्ष में
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टंचाई ) को धारण करनेवाला था। तीसरे, इसने अन्य स्थानपर 1 नहीं होनेवाले महान् सत्व (सत्यगुण अथवा अत्यंत उद्योग याः
बल और हिमालय के पक्षमें जंतुओं) को धारण कर रखा था ।
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६ ॥ २७ ॥ चित्रांगद खून किये गये अपने द्वारा मारे गये शत्रुओंके
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महावीर चरित्र । खूनसे विचित्र हुई गदाको हाथमें लेकर उठा । और उसने अपने वायें हाथसे उसको खूब जोरसे बुलाया । घुमाते समय गदामें लगी हुई पद्मराग मणियोंकी जो प्रमा निकली उससे ऐसा मालूम पड़न लगा मानों उसके हाथमेंसे रोपरूपी दावानल निकल रहा है ॥२ भृकुटियोंके टेढ़े पड़ जानेसे मुख टेढा पड़ गया, आखें गुलाबी हो. गई, पसीनाके जलकर्णोसे कपोल मूल व्याप्त हो गया, उन्नत शरीर झूमने लगा; और ओंठ कंपने लगे । वह भीम उग्र कोपको धारण कर समामें साक्षात् कोर सरीखा ही हो गया ॥ २९ ॥ नीलकंउने जिसका कि हृदय विद्याओंसे लिप्त था, जो प्रतिपक्षियोंका भय होनेपर शरणमें आनेवालोंको अभय देता था इस समय कोपसे किये गये अपने गंभीर कहकहाट शब्दके द्वारा सभाकै सभी मकानों-कमरोंके विरोंको प्रतिध्वनित करते हुए हंसा दिया ॥३०॥ इस समय जो कोई भी क्रुद्ध होता हुआ समामें आता था उसके शरीरका सेनके पसीनासे भीगे हुए निर्मल शरीरमें प्रतिबिम्ब पड़ जाता था, जिससे अनेक रूप हुभा वह-सेन ऐसा मालूम पड़ने लगता था मानों युद्ध रससे विचावलके द्वारा शत्रुओंको नष्ट करने के लिये वलकी विक्रिया . कर रहा है ॥ ३१ ॥ क्रोधसे उद्धत हुआ परिधी शत्रुओंके मत्त हाथियोंके दांतोंका अभिघात पाकर जिसपर बड़े २ व्रण हो गये हैं, जिनमें कि हार भी मग्न हो मया है, एवं निसपर रोंगटे खड़े हो गयेहैं ऐसे अपने विशाल वक्षःस्थलको सीधे हाथसे ठगेकर कर परिमार्जित करने लगा ॥३२॥ निष्कपट पौरुषसे शत्रुवर्गको वशमें करनेवाला, विद्यावैभवसे उन्नति करनेवाला, उन्नत कंधाओंसे युक्त अश्वग्रीव जिस समय कोपसे पृथ्वीको ठोंकने लगा उस समय उसके कर्मो
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छहा सर्ग।
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स्पळपर बैठे हुए भ्रमर व्याकुल होकर उड़ने लगे । ३३ ।। कोपसे विवर्ण हुआ यह दिवाकर विद्याधर सूर्यके समान अपने बहुत बड़े प्रतापसे समस्त दिशाओंको पूर्ण करता हुआ, जगत्से नमस्कृत अअपादोंको (चरणोंको-सूर्यके पक्षमें किरणोंको) पद्माकरके ऊपर रखता हुआ शीघ्र ही इस बातका बोध कराने लगा मानों यह अभी जनताका क्षय कर डालेगा ॥ ३४ ॥ सभामें कामदेवके समान सुन्दर मालूम पड़नेवाले चित्रांगदने शत्रुओंके कुल-पर्वतोंको मथनेवाले अपने दोनों हाथोंसे जिनमें कि उनका-शत्रुओंका घात करतेर छोटीर गांठे-ठेके पड़ गई थीं, गलेमें पड़ी हुई हारलताको ऐसा कू र्णित कर डाला जिससे उसमेंका सून मी बाकी न बत्रा ॥ ३५ ॥ ईश्वर और वज्रदंष्ट्र दोनों शत्रुके साथ युद्ध करनेके लिये आकाशमें डोलने लगे, पर सभासदोंने उन्हें किसी तरह रक्खा-रोका । उन्नत जलमें धोई गई जिसपर अत्यंत तीक्ष्ण पानी चढ़ाया गया है ऐसी तलवारमेंसे निकलते हुए किरणांकुरों से उन दोनों के दक्षिण बाहुदण्ड भासुरित हो रहे थे ॥३६॥ बहुत दिनों मुझको यह अवसर प्राप्त हुआ था तो भी मुझको इसने नहीं स्वीकारा इसीलिये मानों वह रुष्ट हुआ यथार्थनामा अकंपन रानाका कोप दूरसे हुआ । ठीक ही है-जो चंचल बुद्धि होता है वह समामें कोप करता है नकि धीर ॥३७॥ जिसने जल्दीर निर्दय होकर अपने रमणीय और आस्कालित ओठोंको चना डाला ऐसे शनिश्चरके समान पराक्रमके धारण करनेवाले क्रुद्ध बलीने झणझणाट शब्द करनेवाले भूषणोंसे युक्त अपने दक्षिण हाथसे गंभीर शब्द करते हुए. पृथ्वीको निःसत्य निस्तेज़ कर दिया ॥ ३८ ॥.
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महावीर चरित्र । क्रोधक मारे लाल हुई आंखास मानों उसकी आरती ही कर रहा है इस तरहसे समाकी तरफ देखकर अभिमानशाली उद्धत धूमशिख समामें इस तरह वोला । बोलते समय मुखके खुलते ही जो उसमेंसे धुंआ निस्दा उससे मानों समस्त दिशायें धन्न हो गई । वह बोला- हे अश्वग्रीव ! आप वृथा क्यों के हैं ! आंज्ञा कीनिय । असत् पुरुषों का पराभव करनमें बुद्धि लगानी चाहिये न कि उपेक्षा करनी चाहिये। हे चक्रवर! क्या मैं वायें हाथसे सारी पृथ्वीको उठाकर समुद्र में पटक हूँ ॥१०॥ उस भूमिगोचरी मनुष्यने नो नमिकुलमें श्रेष्ठ विद्याधरकी अनुपम और लोकोत्तम पुत्रीको अपने गलेमें धारण किया है सो क्या वह उसके योग्य है। यह ऐसा ही हुआ है जैसे कोई कुत्ता उज्ज्वल रत्नमालाको गलेमें पहर ले। इस विषयमें कौन ऐमा होगा जो विधिको असह्य मनीपाको देखकर हंसेगा नहीं ॥४१॥ इन विद्याधरोंके स्वामियोंमेंसे चाहे जिसको आप हुकुम करें वही अकस्मात् जाकर नमिके कुलका एक निमिप मात्रमें प्रलय कर डालता है। बाक समान उन मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ॥४२॥ यमराज समान आपके क्रुद्ध होनेपर एक क्षण भी कोई नहीं जी सस्ता, यह बात लोकमें प्रसिद्ध हो रही है। फिर भी इस बातको जानते हुए मी न मालूम क्यों उसने आपसे इस तरहका विरोध किया है ! अथवा ठीक ही है-जब विनाशकाल आजाता है तब बड़े बड़े विद्वानोंकी मी बुद्धि हवाखाने चली जाती है"॥४३|| इसी समय 'आत्मवंधुओंके साथ २ नागपाश वगैरहसे बांधकर वधू और पर दोनोंको अभी लाते हैं यह सोचकर वे विद्याधर ठे। परन्तु मंत्रीने किसी
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म्हा सर्ग। तरह उन्हें अनुनयादि कर रोक दिया; और रोककर पह अश्वग्रीवसे इस तरह वोला- : - हे नाथ! आप निष्कारण क्रोध क्यों कर रहे हैं ? आपकी सम्पूर्ण नीतिमार्ग में प्रवीण बुद्धि कहां चली गई? संसारियोंका कोपके समान कोई शत्रु नहीं। यह नियमसे दोनों माम विपत्तिका कारण होता है ॥४४-४५|| तृष्णाको बढ़ाता है, धैर्यको दूर करता है, विवेक बुद्धिको नष्ट करता है, मुखस नहीं कहने योग्य कामोंको मी कगता है, एवं शरीर और इंद्रियोंको संतप्त करता है, इस तरह हे स्वामिन् ! यह मनुप्यका उग्र कोप पित्तजरका एक प्रतिनिधि है ॥६॥ आंखोंमें राग (लाली-पुखर्जी) शरीरमें अनेक तरहका कंप; चित्तमें विवेकशून्य चितायें, अमार्गमें गमन और श्रम, इन बातोंको तथा इनसे होनेवाले और भी अनेक दुःखोंको या तो मनुष्यका कोप उत्पन्न करता है या मदिराका मद (नशा) ॥४७॥ संसारमें जो आदमी विना कारण ही दररोज क्रोध किया करता है उसके साथ उसके आप्त जन भी मित्रता रखना नहीं चाहते। विषका वृक्ष, मंद मंद वायुसे नृत्य करनेवाले फूलोंके भारसे युक्त रहता है तो भी क्या भ्रपरगण उसकी सेवा करते हैं ! कभी नहीं ॥४८॥ अमिमानियोंको शत्रु आदिका मय होनेवर आलम्बन, वंशसे मी उन्नत, प्रसिद्ध और सारभूत गुणोंसे विशुद्ध, श्रीमान् जिनसे कि असत्पुरुषों के परिवारने अपनी आत्माको छिया रखा है, तथा यह आपकी इसी तरहकी तलवार मालूम होती है अब मानव-कलंकको प्राप्त करें ॥ १९॥ अमिवांछित कार्य-सिद्धिकी रक्षा करनेवाली, "अंधी आंखोंके लिये सिद्धांजनकी अद्वितीय गोली और लक्ष्मीरूपी
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महावीर चरित्र । लताके वलयको बढ़ानेवाली जलधारा, यह क्षमा ही है । जगत्के मले आदमियों में से कौन ऐसा है जिसने उसको ऐसा ही नहीं माना है ॥ ५० ॥ यदि कोई अति बलवान् और पराक्रमका धारक भी अत्यंत उन्नत हुए दूसरोंपर कोप करे तो ऐसा करने से उसकी भन्लाई नहीं होती। मृगराज मेघोंकी तरफ स्वयं उछल उछल कर क्या व्यर्थका प्रयास नहीं उठाता ? ॥ ५१ ॥ जो मनुष्य अपने ही पक्षके बलका गर्व करके मूढ़ हो रहा हो, तथा जो अपनी और दूसरेकी. शक्तिमें कितना सार है इसके विना देखे केवल जीतनेकी इच्छासे ही उद्योग करता है वह मनुष्य उस अचिंत्य दशाका अनुभव करता है जोकि वन्हिके सम्मुख पड़कर पतंगको प्राप्त होती है ।। ५२ ॥ हे प्रमोः! जगत्में यदि शत्रु देव और प्रराक्रमकी अपेक्षा तुल्य हो तो नीतिशास्त्रकारोंने उसके साथ संधि करना बताया है । क्योंकि ऐसा करनेसे जो दोनोंकी अपेक्षा दोनोंमें हीन हो तो वह भी सहमा विद्वानोंमें निंद्य नहीं होता, बल्कि पूज्यतम और अधिक उन्नत होता है । ९३ ॥ जिस तरह हाथीकी चिंघाड़ उसके अंतर्मदको और प्रातःकालकी किरणें उदयमें आनेवाले सूर्यको बतलाती हैं इसी तरह मनुष्यकी चेष्टाएं लोकमें होनेवाले अंतरायरहित उसके आधिपत्यको वतला देती हैं ॥ ५४ ॥ करोड़ों सिंहोंका जिसमें वल था इस तरहके उस मृगराजको जिसने अपने आप अंगुलियोंसे नवीन कमलके तंतुकी तरह विदार डाला, जिसने - शिलाको एक ही हाथसे उठाकर छत्रकी तरह उपरको कर दिया
॥.५५ ॥ जिसकी विद्वान् ज्वलननटीने स्वयं जाकर विधिपूर्वक ' . कन्यादान कर उपासना की है, जो धीर त्रिपिष्ठ तेनकी निधि है
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छहा सर्ग: [८९ वह आज आपका अमियोज्य किस तरह हुआ ? और आप बताइये कि उसपर किस तरह चढ़ाई कर दी जाय ॥ ५६ और हे मानद! " मैं चन्द्रवर्तीकी विभूतिसे युक्त हूं" ऐसा अपने मनमें वृथाका गर्व भी न करना, क्योंकि जो लोग इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त नहीं कर सके हैं उन मूहात्माओंकी सम्पत्ति क्या बहुत काल तक अथवा परिपाक समयमें सुखके लिये हो सकती है ? ॥ ५७॥ आप हरएक नरेशके स्वामी हैं । अतएव मेरी रायमें आपको यह चढ़ाई नहीं करनी चाहिये । यह आपके लिये परिपाकमें हितकर न होगी।" मंत्री इस तरहके वचनोंको जोकि परिपाकमें, पथ्यरूप ये कहकर चुप हो गया । क्योंकि जो बुद्धिमान होते हैं वे अकार्यको कमी नहीं बताते ॥ १८॥ ___ मंत्रीके ये वाक्य वस्तु तत्त्वके प्रकाशित करनेवाले थे और इसीलिये वे जगत्में अद्वितीय दीपकके समान थे तो भी जिस तरह सूर्यके किरणसमूहसे उल्लूको बोध नहीं होता; क्योंकि उसकी वुद्धि अधकारमें ही काम करती है, उसी तरह यह दुष्ट अश्वग्रीव . मी मंत्रीके उन वाक्योंसे प्रबोधको प्राप्त न हुआ । क्योंकि इसकी भी अज्ञानान्धकारसे वुद्धि मारी गई थी ॥ ५९ ॥ खोटी शिक्षा पाले हुए अथवा जिन्होंने कार्यके परिपाककी तरफ दृष्टि ही नहीं दी है ऐसे ही कुछ लोगोंने मिलकर अपने बुद्धिवलपर गर्विष्ठ हुए अश्वग्रीवको उत्तेनित कर दिया। अश्वग्रीव अपने भुमंगसे उन्नत ललाटपट्टको मी टेढ़ाकर कोपके साथ मंत्रीसे इस तरह बोला। ६॥ .. परिपाकमें पथ्यको चाहनेवाला, शत्रुकी बढ़ी हई वृद्धिको जरा भी नहीं चाहता । शत्रु और रोग . दोनोंको यदि थोड़े काल
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महावीर चरित्र । तक भी सहसा बहते रहने दिया जाय तो थोड़े ही कालमें वे प्राणोंक ग्राहक हो जाते हैं। कंवल एक मेव-शत्र अपन समयपर तीन तलवारके समान विजलीको लेकर ना विकराल होकर गर्जना करता है व राजहंस पक्षयुक्त (सेनादिक सहायकोंसे युक्त, हमकी पक्षने पखासे युक्त)त्या पद्माकरका (लक्ष्मीका, पसमें कमल समूहका) अवलंबन लेकर भी पृथ्वी में प्रतिष्ठाइज्जत, दूसरी पक्ष में स्थिति)को नहीं पाता। ॥ ३२ ॥ जीतनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य, अत्यंत प्रतापशाली तेजस्वी शरीरसे अभिन्न अगणित सहायकों के साथ साथ उयुक्त होकर, समस्त दिशाओंको प्राप्त करनेवाले करोंसे सूर्यको तरह क्या समत मुवनको भी सिद्ध नहीं कर लेता है ? ॥६॥ मदनलन, सिंचन कर मीतके समान गंडस्यलोंको सुगंधित करनेवाले, निनकी कायकी ऊंचाईले देखकर एसा मालूम पड़ने लगता है मानों ये व फिन्त अननगिरि पर्वत ही हैं, ऐसे अनार समान सुंडोंको धारण कानवाले अनेक हाथियोंका सिंह जो बंध करता है सो सिका उपदेश पाकर!" ॥६॥इस तरह अपने वचनोंसे उधार वोधक देने • वाले प्रमाणभूत मंत्रीक वाक्योंका कोपसे उल्लंघन करके अश्वग्रीव इस तरह अत्यंत स्वतंत्रताको-जन् कद्धताको प्राप्त हो गया जिस तरह हत्ती मत्त पीलवानका उल्लंघन करके स्वतंत्र हो जाता है ॥६५॥ प्रसिद्ध सत्र पराक्रमको धारण करनेवाला दुर्वार अश्वग्रीव एक क्षगके बाद-शीघ्र ही जिस तरह कल्पकालके अंत समयमें समुद्र कल्लोलोंसे भर जाता है-आच्छन हो जाता है उसी तरह आकाशको असंख्य सेनासे आच्छन्न करता हुआ डंडा ॥६६॥ उल्टीबाक बहनेसे जिसकी ध्वनायें कांप रहीं थीं ऐसी सेनाको स पर्वतके ऊपर
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'छट्ठा सर्ग .
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जहांपर कि छोटे २ राजकीय मकान बना दिये गये थे और जहांपर घास लकड़ी तथा नल सुलभता से मिल सकता था, ठहरा कर भाप भी दूसरोंका पालन करता हुआ ठहर गया ॥ ६७ ॥
ज्वलननटीने सभामें एक बुद्धिमान हूतके द्वारा अश्वग्रीव की इस निरंकुश चेष्टाको स्पष्टतया सुना। और सुनकर वह प्रजापतिसे विनयपूर्वक इस तरह बोला ॥ ६८ ॥ रौप्यगिरि - विजयाधकी उत्तर श्रेणी में वैबसे भूपित नाना समृद्धिशाली अलका नामकी नगरी है। जिसमें मयूरकंठ और नीलांजनाके शरीरसे यह अर्धचक्रवर्ती अश्वग्रीव उत्पन्न हुआ है ॥ ६९ ॥ अश्वग्रीवका वीर्य पराक्रम दुर्निवार्य हैं । इस समय वह दूसरे विद्याधरोंको साथ लेकर उठा है। अतएव इस विषय में अब जो कुछ करना हो उसका एकांत में आत्महितैपीनिजी-समासदों के साथ विचार कर लेना चाहिये ॥ ७० ॥ ज्वलननटीकी इस वाणीको सुनकर पृथ्वीनाथने जब मंत्रिसभाकी तरफ मुड़कर देखा तो सभा स्वामीके अभिप्रायको समझकर उठ चली । मनुष्योंको बुद्धिरूपी सम्पदाके प्राप्त करनेका फल यही है कि. मौके अनुसार वे वर्ताव करें ॥ ७१ ॥
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इस प्रकार अशग कवि कृत वर्धमान चरित्रमें अश्वमीव
'सभा क्षोभ नामक छडा सर्ग समाप्त हुआ।
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९२३ महावीर चरित्र ।
सातवा सर्ग। विद्याधरोंके स्वामीने जब मंत्रिशालामें सम्पूर्ण मंत्रियोंको बुला लिया तब विनयके साथ २ आकर प्राप्त होनेवाले प्रजापतिन इस तरह बोलना शुरू किया ॥ १ ॥ हमारी यह अभीष्ट सम्पूर्ण “सम्पदा आपके प्रतापसे ही हुई है। वृक्ष क्या ऋतुओंके विना स्वयमेव पुष्पश्रीको धारण कर सकते हैं ? ॥ २ ।। हम सब तरहसे बालकके समान हैं। अभी तक हमने अपनी मुग्धताको नहीं छोड़ा
है। परंतु अब निश्चय है कि पियुक्त हुई जननी समान हितक . करनेवाली आपकी मति हमको सब तरहसे देखेगी। क्योंकि वह
वत्सल है, उसका हमपर बड़ा प्रेम है और कृत्याकृत्यके विषयमें भी वह कुशल है ॥३॥ जगत में जो गुणहीन है वह भी गुणियों के सम्बन्धसे गुणी बन जाता है। गुलाबके पुप्पोंसे सुगंधित हुआ जल मगजको भी सुगंधित कर देता है ॥ ४ ॥ अच्छा हो चाहे बुरा हो; परंतु विधि प्राणियोंको ऐसे प्रयोजनको बिना किसी तरहके प्रयत्नके किये ही स्वयं उत्पन्न कर देना है जिसका उन्होंने चितवन भी न किया-हो । क्योंकि वह अपने अद्वितीय कार्य में निरंकुश है ॥ ५॥ अति बलवान् चक्रवर्ती अश्वग्रीव दूसरे विद्याधर राजाओंके साथ २ सहसा उठा है। अतएव अब हमको आप बताइये कि उसके प्रति कैसा बर्ताव किया जाय ? ॥ ६ ॥ यह बात कहकर . तथा और भी बहुतसे कारणोंको दिखाकर जब राजाने विराम लिया तब.बार बार मंत्रियोंसे देखे जानेपर सुश्रुत नामका मंत्री इस तरहके बचन बोला ॥ ७ ॥ " ज्ञानके विषयमें विशुद्धताको हमने आपके
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सोतवां सर्ग।
[९३ प्रसादसे ही प्राप्त किया है। यह बात पृथ्वीपर प्रसिद्ध है कि. पद्म-कमलं तो सदा जडात्मक (कमलको पक्षमें जलस्वरूा, मंत्रीकी पक्षमें जहरूप) ही होता है, किंतु सूर्यके प्रसादसे वह प्रबोध. (कमलकी पक्षमें खिलना, मंत्रीकी पक्षमें ज्ञान )को प्राप्त होता है।
॥ हिमके समान युतिको धारण करनेवाले चंद्रमाकी प्रतिविम्बकी संगति करनेवाला मृग मलिन है तो भी प्रतिमासित होता है। इसक्न कारण.यही है कि वह नो कुछ भी प्रकाश करता है सो स्वभावसे शुचिताको पाकर ही करता है ।। ९॥ जो जड़ है वह भी उपाधि विशेषके पानानसे चतुरताको पानाता है। जरासा पानी तलवारको पाकर हस्तियोंक कठिन मतकको भी काट डालता है ।। १०॥ .
आप सरीखे बचन-कुशल पुरुषोंके सामने जो मैं बोलता हूं सो यह . अधिकार प्राप्त पदकी (मंत्रिपदकी) चपलता है। अन्यथा कौन ऐसा . सचेतन है जो आपके सामने बोलनेका प्रारम्भ भी कर सके ॥११॥
निस तरह परस्परमें मिली हुई एवं उन्नत तीनों पर्वोंने इस चराचर (जीव और अजीवकै समूहरूप) जगत्को धारण कर रक्खा है उसी . '. तरह अति प्रभावशाली और प्रतिभाके धारण करनेवाले आप
तीनोंने भी नीति शास्त्रको धारण कर रक्खा है ॥१२॥ श्रोता यदि 'निर्वाध है तो उसके सामने बोले हुए वचन चाहे वै सम्पूर्ण दोषोंसे · रहित ही क्यों न हों शोमाको नहीं पाते । यदि स्त्री नेवरहित
पतिके सामने अपना विभ्रम-विलास दिखावे मी तो उससे फल क्या ? ॥१३॥ नीतिकारोंने यह स्पष्ट बताया है कि पुरुषका उत्तम भूषण परमार्थ है। और वह परमार्थ श्श्रुतज्ञान ही है दूसरा नहीं। श्रुतका
. धनोदधिवान् धनवान तनुवान ।
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महावीर चरित्र । फल प्रशम-कपायोंकी मंदता और विनय है ॥ १४ ॥ जो विनय और प्रशमको धारण करनेवाला है उसको साधु लोग भी स्वयमेव नमस्कार करने लगते हैं । जगन्में साधु समागम अनुरागको करने लगता है, केवल इतना ही नहीं, अनुरागसे पराजित हुआ सारा जगत् स्वयमेव दासनाको प्राप्त हो जाता है । इसलिये हे महीपतः ! विनय और प्रशमको कभी न छोड़ना ॥१५-१६॥ वेगक साथ चलनेवाले हरिणोंको भी वनमें नियमसे बनेचर पकड़ लेते हैं। कुत्सित गुणवाल प्रशंसनीय गुणमे भी किसके कार्यको सिद्ध नहीं करता ? ॥१॥ पायक जानकारोंने यह कहा है कि कठोरस कोमल अधिक मुखकर होता है। सूर्य पृथ्वीको तपाता है और चंद्रमा आल्हादित करता है ॥१८॥ प्राणियोंके लिये प्रिय वाक्योंकि सिवाय और कोई अच्छा वशीकरण नहीं है। कोयल यथोचित मधुर शब्द करती है इसीलिये लोकोंकी प्रियपात्र होती है ॥ १९ ॥ अतएव हे विद्वत् ! आप सरीखे भूपालोंको सामवे.-सांत्वनाक सिवाय दूसरा कोई ऐसा अन्न नहीं है जो विनयके लिये माना जाय । यह तीक्ष्ण नहीं है तो मी हृदयमें प्रवेश करनेवाला है। अपेक्षारहित है. तो भी सकल अर्थका साधक है ॥२०॥ यदि कोई राजा कुपित हो रहा हो तो उसको शांत करनेके लिये विद्वान्लोग पहले सामसांत्वनाका ही उपयोग करते हैं। कीचड़-मिश्रित जल क्या निर्मलीके बिना प्रसन्न हो सकता है ॥२१॥ उत्पन्न हुआ क्रोध कोर वचन बोलनेसे और बढ़ता है। किंतु कोम शब्दोसे वह शांत हो जाता है। जिस तरहसे कि दावानल स्वासे घपकता है, किंतु मेंबांना बहुतसा जलं पड़नेसे शांत--हो... जाता है ॥ २२ ॥ जो
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सातवां सर्गः। मृदुतासे-कोमलतासे. शांत हो सकंता है उसके ऊपर गुरू शन नहीं छोड़ा जाता. | जो शत्रु साम-सांत्वनासे सिद्ध किया जा सकता है उसके लिये दूसरे उपायोंके करनेसे क्या प्रयोजन ? ॥ २३ ॥ जो शत्रु सामसे सिद्ध कर लिया गया फिर वह मौकेपर विरुद्ध नहीं हो सकता । निस अग्निको पानी डाल कर ठंडा कर दिया जाय क्या वह फिर जलनेकी चेष्टा कर सकती है? ॥२४॥ जो महापुरुप हैं व कुपित-क्रुद्ध हो जाय तो भी उनका 'मन विकारको कमी प्राप्त नहीं होता । समुद्रका जल पूंसकी आगसे कमी गरम नहीं किया जा सकता ॥२५॥ जो अच्छी तरहस निश्चय करके नीति मार्गपर चलनेका प्रयत्न करता है उसका कोई शत्रु : ही नहीं होता । टीक ही है, जो पथ्य भोजन करनेवाले हैं उनको क्या व्याधियां जग मी बाधा दे सकती हैं ॥२६॥ उपायका यदि योग्य रीतिसे विनियोग न किया जाय तो क्या वह अभीष्ट फलको दे सकता है ? यदि दूधको कंच घड़ेमें रख दिया जाय तो क्या वह सहन ही दही बन सकता है ? ॥ २७ ॥ सामने खड़े हुए . 'परिपूर्ण शत्रुका भी मृता-कोमलतासे ही भेद हो सकता है। नदियोंका वंग प्रति वर्ष क्या सारे पर्वतका मेदन नहीं कर डालता ? . |२८|| जगत्में भी तेज निश्चयसे मृदुताके साथ रह कर ही हमेशा स्थिर रह सकता है । दीपक क्या स्नेह-तेल सहित अवस्थाके विना बुझ नहीं जाता ॥२९॥ अतएव मेरी समझ ऐसी है कि अश्वग्रीव विषयमें निश्चयसे सामस वर्ताव करना चाहिये और किसी तरह नहीं। यह कहकर मंत्री सुश्राने यह जाननेके लिये विराम लिया कि. देखें इसार दूसरे लोग अपना २ क्या मत देते हैं । ॥३०॥,
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९६ ] महावीर चरित्र।
सुश्चतकी इस तरहकी वाणीको सुनकर अत्यंत तेजस्वी विद्वान और विजयलक्ष्मीका पति विनय अंतःकरणमें हृदयमें जल गया, अतएव वह इस तरहके वचन कहने लगा ॥३१॥ पढ़े हुए सम्बन्ध रहित अक्षरोंको तो क्या तोता भी नहीं बोल देगा ?. यथार्थमें तो विद्वान् लोग उस नीतिवत्ताकी प्रशंसा करते हैं कि जिसके वचन अर्थक साधक हों ॥ ३२ ॥ जो किसी कारणसे कोप करता है वह तो हमेशा अनुनयसे शांत हो जाता है, किंतु यह बताइये कि जो विना निमित्तकारणके ही रोष करे उसका किस रीतिसे प्रतीकार करना चाहिये ? ॥ ३३ ॥ अति प्रिय अचन:
अतिरोष करनेवालेके कोपको और भी उद्दीप्त कर देते हैं। • आगसे अत्यंत गरम हुए घीमें यदि जल पड़ जाय तो वह
मी आग हो जाता है ॥ ३४ ॥ जो अभिमानी है किंतु : हृदयंका कोमल है ऐसे पुरुषको तो प्रिय वचन नम्र कर सकते हैं । परन्तु इससे विपरीत चेष्टा करनेवाला दुर्जन क्या सांत्वनासे . अनुकूल हो सकता है ? ॥३५॥ लोहा आगसे नरम होता है और जलसे कोर बनता है। इसी तरह दुर्जन भी शत्रओंसे पीड़ित होकर ही नम्रताको धारण करता है, अन्यथा नहीं ॥३६॥ नीतिके. जाननेवाले महात्माओंने दो तरहके मनुष्योंके लिये दो ही तरहके मतका भी विधान किया है । एक तो यह कि नो महापुरुष हैं उनका और अपने बांधवोंका विनय करना, दुसरा-शत्रुके समक्ष
आनेपर महान् पराक्रम करना ॥३७॥ सत्पुरुष मी 'इस' वा . मानते हैं कि पुरुषके दो ही काम अधिक सुखकर हैं। एक तो, • शत्रुके सामने खड़े होनेपर निर्मयता । दूसरा प्रियं नारीके कटाक्ष
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सातवां सर्ग। [९७ पातसे भीरुता ॥३८॥ यद्यपि तृण. बहुत दुर्बल होता है तो भी वह अपने प्रतिकूल पवनको नमना नहीं है। वह उस पुरुषसे अच्छा है जो स्वयं शत्रुको नमस्कार करने लगता है ॥३१॥ नित कारगसे मरा हुआ आदमी गुरुत्व (महत्व, दूपरी पक्षमें भारीपन; क्योंकि मरा हुआ आदमी भारी हो जाता है) को पाता है वह कारण मुझे अस मालून हुआ। क्योंकि लघुता (दीनना, दूसरी पंक्षम हलकापन; क्योंकि जिदे मनुष्यका शरीर हलका रहता है) का कारण याचना है सो बह निन्द्रा आइमी विस्कुल नहीं रहती || समाधर (समा-शांतिको धारण करनेवाला या राजा, दूसरी पसमें पर्वत) बहुत उन्नत होता है तो भी उसको लोग सहनहीमें लांघ जाते हैं। बात ठीक ही है। क्योंकि जगत में कौन ऐमा है जिसके पराभवका कारण समा नहीं. होती ॥ ११ ॥ दिन में तेजके नष्ट हो जानेसे ही मूर्य अच्छी तरह को प्राप्त होता है। . . अतएव जो उदारबुद्धि हैं वे एक टणक लिरे भी जानल्यमान तेनको नहीं छोड़ते ॥१२॥ समावस ही महापुरुषोंसे शत्रुता । करनेवाला सांत्वनाओंसे शांतिको धारण कर लेना है ? कभी नहीं। प्रत्युत. उससे और भी वह प्रचण्डता धारण करता है। समुद्रकी चंडमानल जलसे शांत नहीं होती, प्रचण्ड होती है ॥४३॥ जिसकी बुद्धि मंदसे मूर्छित हो रही है ऐसा उद्धत पुरुष हस्तीकी तरह तभी तक गर्नता है जब तक वह सामने मीपण आकारके धारक सिंह समान शत्रुको नहीं देखता है ॥४४॥ एक तो जगतमें दुर्नामक (भयंकर जलनंत) पहले ही प्राण हरण करनेवाला है फिर भी वह महान् उदयको धारण कर विक्रियाको प्राप्त हो जाय तो कौन बुद्धिमान
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NANVARNAVAN
९८] महावीर चरित्र । है जो विना छेदन किये उसको शांत कर दे॥ ४५ ॥ जो कसरी स्वयं चारो तरफ हाथीको हूंह हूंहकर मारता है क्या वह स्वयं युद्धकी इच्छासे अपने निवासस्थान गुहापर ही आये हुए हस्तीको छोड़ देगा? ॥ ४६॥ आपकी वाणी अनुलंब्य है तो भी उसका उलंघन करके मेरा छोटा भाई, अनर्गल हाथीके बच्चेका गंधहस्तीकी तरह क्या अश्वग्रीवका बात नहीं करेगा ! ॥ ४७ ॥ जो मनुष्योंमें नहीं रहता ऐसे इसके दैविक (देवसम्बन्धी ) पौरुपको और कोई नहीं जानता, एक मैं ही जानता हूं। इसलिये इस विषयमें आपका केवल मौन ही भूपण है ॥ ॥ ४८ ॥ पौरुप जिसका प्रधान साधन हैं ऐसे कार्यको पूर्वोक्त रीतिसे बताकर जब दुर्जय विजयने विराम लिया तब मतिसागर नामका बुद्धिमान मंत्री अपने वचनोंको इस तरह स्पष्ट करने लगा ॥ ४९ ॥ कर्तव्यविधिक विषयमें श्रेष्ठ विद्वान् विजयने यहां-आपके सामने सब बात स्पष्ट कर दी है तो भी हे देव! यह जड़बुद्धि जन कुछ जानना चाहता है ।। ५० ॥ ज्योतिषीने क्या यह सब बात हमसे पहले ही.वास्तव में नहीं कही थी? अवश्य कही .थी, तो भी.मैं इसकी उत्कृष्ट अमानुष लक्ष्मीकी परीक्षा करना चाहता ई॥ ११ ॥ जो काम अच्छी तरह विचार करके किया जाता है उससे.परिणाममें भय नहीं होता। अतएव जो विवेकी हैं वे बिना विचारे कमी कामका आरम्म नहीं करते हैं ।। ५२ ।। जो सात ही दिनमें सम्पूर्ण रथविद्याओंको सिद्ध कर लेगा वह पृथ्वी नारायण
समझा जायगा और वह इस अर्धचक्रवर्तीको युद्ध में नियमसे जीतेगा •॥५३॥ कर्तव्य वस्तुके लिये कसौटीके समान मंत्रीके कहे हुए इन
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सातवां सर्गः
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'वचनों को सुनकर सबने वैसा ही माना कि निःसंदेह यह करना चाहिये ॥ ५४ ॥
त्रिपिष्टकी विभूतिकी परीक्षा करने के लिये ज्वलननटीने उसके --साथ-२. विजयको मी पुरुविद्याओंके सिद्ध करनेकी उत्तम विधि - बताई || १५ || जिसको दूमरे बारह वर्ष में विधिसे भी सिद्ध नहीं कर सकते वही महारोहिणी विद्या इसके सामने स्वयमेत्र आकर सहसा प्रकट होगई ॥ १६ ॥ पद्वाहिनी, ईशवाहिनी आदिक दूसरी -समस्त विद्यायें भी आकर उपस्थित हुई । अहो उत्कृष्ट पुण्य-सं"त्तिके धारक महात्माओंको असाध्य क्या है ? ॥५७॥ सिंहवाहिनी,
गवत, विनया, प्रमंकरी इत्यादि पांचसौ उत्कृष्ट विद्यार्थी सात दिनमें विजयंक वश हुई - ॥ १८ ॥ विजयके छोटे भाई त्रिपिष्टने भी जन अति परिमित दिनोंमें विद्याओंको बशमें कर लिया तत्र - राजा - प्रजापति और विद्याधरोंका स्वामी ज्वलननटी इन दोनोंन निश्चितरूपसे उसको भगत् के धुरापर विराजमान कर दिया ||१९||
युद्धमें शत्रुओंका हनन करने लिये जानेकी इच्छा करनेवाले त्रिपिष्टकी विजय - श्रीका मानों कथन ही कर रहे हैं। इस तरहसे पृथ्वी और आकाश मृदंगों के अत्युन्नत शब्दोंसे एकदम पाप्त हो गया ॥ ६० ॥ मंगलसूत्र शुभ शकुनोंसे जिसकी समस्त सेना संतोपको प्राप्त हो गई ऐसा त्रिपिष्ट तोरण और ध्वजाओंसे सुसज्जित नगरसे हाथीपर चढ़कर निकला ॥६९॥ मकानोंके आगे
खड़े होकर स्त्रियोंने अपने नेत्रोंके साथ २ खीलोंकी भरी हुई अंजलियाँ इसके ऊपर इसतरह बखेरीं मानों ये इसकी निर्मल कीर्तिको ही पृथ्वीपर फैला रही है ॥६२॥ हाथियोंकी अंगारियोंपर लगी
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१०. ] . . महावीर चरित्र ।
mmmmmmmmmmmmmmninin हुई ध्वजाओंके समूहसे केवल आकाश ही नहीं ढका; किंतु दूसरे राजाओंके लिये अत्यंत दुःसह चक्रवर्तीका समस्त - तेन .मी .ढक · गया ॥६३॥ रथोंके अंडोंकी टापोंके पड़नेसे पृथ्वीमें जो, गधेके बालोंकी तरह धूलि उठी उससे केवल समस्त जगत ही मलिन नहीं. हो गया; किंतु.शत्रुका यश भी उसी समय मलिन हो गया।६४॥ गुरु सेनाके भारसे पीड़ित होकर केवल पृथ्वी ही चलायमान नहीं हुई; किन्तु पवनके मारे मूलमेंसे ही उखड़ जानेवाली लताकै समान शत्रुके हृदयमेंसे लक्ष्मी भी चलायमान हो गई ॥६५॥ उम समय जिनसे मदनलकी झड़ी,चुचा रही थी फिर भी जो पीलवानों के वश थे और इसीलिये जिन्होंने अपनी रोष-क्रोध-वृत्तिकों दूर कर दिया था, ऐसे मदोन्मत्त हस्ती क्रीडासे लालित्यको दिखाते.. हुए निकले ॥६६॥ बिजलीके समान. उज्जल सोनेके भूषणोंकों धारण करनेवाले, जिनके गलेमें चमर चंचल हो रहे हैं; एवं : नों. इतनी जल्दी चलते थे कि.निमसे यह नहीं मालूम पड़ सकता कि इनके चरणोंके बीचमें विलम्ब भी लिया या नहीं, घुड़सवार ऐसे घोड़ोंपर चढ़. २ कर निकले ॥६७॥ दूसरे देशोंके राजा मी . यथेष्ट वाहनोंपर चढ़कर, श्वेतछत्रसे आतापको दूर कर, गमनके योग्य मेषको धारणकर उसके पीछे २ निकले ॥६८॥ रज, सेनाकी धूलि: के भयसे भूतलको.छोड़कर आकाशमें चला गया। वहां व्याकुल होकर संबसे पहले उसने विद्याधरकी सेनाको घेरकर ढक दिया ii६९| परस्परमें एक दूसरेके रूप, भूषण, स्थिति, सवारी आदिके देखने में उत्सुक दोनों सेनाएं आकाशमें चिरकालं तक अधोमुख और उन्मुख रहीं। अर्थात प्रजापतिकी सेना उन्मुख और विद्याधरकी सेना.
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......... सातवा सगे.1:. [१०१. अधोमुख रही ॥७०॥ निसकी धनाये वेगसे निश्चल होगई हैं ऐसे उत्तम विनानमें पुत्र सहित बैठकर विद्याधरोंका अधिरति आकाशमार्गसे सेनाकों देखता हुआ निकला ॥ ७१ ॥ उसने देखा-अतिसौम्य और अतिथीम दोनों पुत्रों के आगे आगे मार्गमें नाना तुमा प्रनापति ऐमा मालुम पड़ता है, मानों नय ( नीति ) और पराक्रमके आंगे :२ प्रशम ( शांति-पायों का अनुद्रेक) ही जारहा है
७२. अपनी २ पनिताओं के साथ साथ विद्याधरोंने ऊंटको देखा कि जिससे उनके मुखार कुछ हसी. आगई । ठीक ही है"अपूर्वना उसीका नाम है जो कातिशून्य वस्तुमें भी मनोहरताको उत्पन्न करदे ॥ ७३ ।। आकाशमागसे. जाते हुए हार्थियों का जो निर्मल पापाणमें प्रतिबिम्ब पड़ा उसकी तरफ झुकता हुआ मदोन्मत्त हस्ती:पीलवानकी भी परवाह न करके मार्गमें ही रुक गया ||७|| आश्चर्यकारी भूपोंसे भूषित, पीनों में चढ़े हुए, जिनके आगे-२ : कंचुकी चल रहे हैं. ऐसे गनाओंके अंत:पुरको लोग मार्ग में भय और कौतुकके साथ देखने लगे ॥७५|| गहरे २ कड़ाहोंको, कठोटियोंकों, . कलशों- हंडोंको तथा पहरनेके कपड़ों-बर्दियोंको एवं और भी 'अनेक तरहकी सामग्रीको लेकर मात्र ढोनेवाली गढ़ियां इतनी तेजीसे चलने लगी, जिससे यह मालूम पड़ने लगता मानों इनमें बिल्कुल चोझा ही नहीं है .।। ७६ ।। जिन्होंने किरणोंके द्वारा अपने आनं- . 'दकों प्रकट करनेवाली तलवारको हाथमें ले रक्खा है, मो झटसे गड्ढों और छोटे २ वृक्षोंको भी लांब जाते हैं, ऐसे बड़े २ योद्धा । अपने अपने स्वामियोंके घोड़ोंके आगे २ चपलतासे दौड़ने लगे या ७७ ॥ सहसा आगे हाथींको देखकर संवारने अपने घोड़ोंको
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१०२ ] . महावीर चरित्र.
wwwmirmianmorerminis कुदाया और वह भी निशंक होकर कूद गया, ठीक ही है-जातिक अनुसार चेष्टा हुआ करती है ॥ ७८ ॥ निसको खोटी शिक्षा मिलती है वह विपत्तियोंका ही स्थान होता है। देखिये नं बुरी तरह शब्द करनेवाले-हिनहिनानेवाले घोड़ेने बारबार उछलकर अपने सवारको नवीन गेंदकी तरह ऐसा पटका कि जिससे उसका सारा शरीर घायल होगया ॥ ७९ ॥ गोरसोंकी-धी-दूध दहीकी खूब भेट करनेवाले, मर्दित-दाय चलेहुए धान्यको लिये हुए.किमा-. नोंने मार्ग में भूपालको देखा, जो कि जोर जोरसे यह कह रहे थे कि कोटयों राजाओंसे वेप्टिन यह प्रजापति-राजा अपने पुत्रों सहितः रक्षा-जगतका शासन करो। सब जगहसे शहरके लोग भी. आश्चर्यके साथ उसकी सेनाको देखने लगे ॥८०-८१॥ ध्वना ओंकी पंक्तिको कंपानेवाली, झरनाके नल-कणोंको धारण कर-:: नेवाली हस्तियों के द्वारा तोड़े गये अगुरु वृक्षोंकी सुगंधसे सुगंधिता हुई पहाड़ी वायु उसकी सेनाकी सेवा करने लगी ।।८२॥. अटवि: योंके-नियों के स्वामी भी वनमें इससे आकर मिले और मिलकरः बहुतसे हाथीदांत चामरोंसे जिनमें कि कस्तूरी कुरङ्गक भी रक्खाः गया है उसकी आदरसे सेवा करने लगे ॥ ८३ ॥ प्रत्येक पर्वतपर अंजनपुंनकी शोभाको उत्पन्न करनेवाले, सेनाको देखकर भयसे 4-: .लायन.करनेवाले हाथियोंको क्षणभरके लिये इस तरहसे देखा.मानों.
ये नंगम-चरते फिरते अन्धकार-समूह ही हैं ॥८४॥ जिनका देखना : मात्र सत्कल है, जो पीन (कठोर और उन्नत तथा स्निग्ध) पयोधरों. (स्तनों, दूसरी पक्षों मेघों ) की श्रीको धारण किये हुए हैं, जिनके पत्रोंके ही वस्त्र हैं ऐसी भीलिनियों और पहाड़ी नदियोंकों
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सातवां सर्गः।... [१०३ . देखकर वह प्रसन्न हुआ. ॥८५॥ बड़े २ पहाड़ोंको दलन करता हुआ, नदियोंके ऊंचे २ तटोंको गिराता हुआ, विपथ-खोटे मार्ग'को अच्छी तरह प्रकाशित करता हुआ-स्पष्ट करता हुआ, सरोवरोंकी जलश्रीको गदला करता हुआ, रथोंके पहियोंकी चीत्कारसे आदमियों के कानोंको व्यथित करता हुआ, दिशाओंके विवरों-छिद्रोंको वायुमार्गको ढक देनवाली धूलिसे भरता हुआ वह प्रथम नारायण त्रिपिष्ट अपनी उस बड़ी भारी सेनाको आगे बढ़ाता हुआ जो कि घोड़ोंकी विभूतिसं ऐसी मालूम पड़ती थी मानों इसमें तिरंगें उठ रही हैं, जो आयुधोंकी ज्योतिसे ऐसी मालूम पड़ती थी मानों इसमें बिजली चमक रही है, जिनसे मद झर रहा है एवं अलते हुए पर्वतोंके समान मालूम पड़नेवाले हाथियोंसे जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों जलसे मरा हुआ मेघ ही है। अनमें वह कुछ थोड़े ही मुकाम करके उस रथावर्त नामके पहाइपर पहुंचा निसके ऊपर शत्रुकी सेना पड़ी हुई थी ८६-८७-८८-८९॥ . - सेनापतिने ऐसी जगह पहले ही जाकर देख ली कि जहां सरस घास वगैरह प्रचुरतासे मिल सकती हो, और जो धने वृक्षोंकी श्रेणीसें शोमित हो । बस उसी जगह एक नदीके किनारे सेना उहरी ।। ९० ॥ मजूर लोग पहले ही पहुंच गये थे। उन्होंने जल्दीसे जगह वाह साफ करके कपड़ोंके डैर और राजाओंके रहने लायक छोटे:२:मकान बना दिये । प्रत्येकके रहनेके (राजाओं आदिक).त्यानपरं उन २ के निशान लगे हुए थे ॥९॥ जिनको सम्पूर्ण बन्दोबस्त मालूम हो चुका है ऐसे सेनाके लोगोंने बखतर झंडे . तथा पलान वगैरहको उतारकर अत्यंत गर्मीसे संतप्त. हुएं हाथियों:
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१०४ ]
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महावीर त्रि ।
ܡܐܩܨ ܐܘܘ ܚܕ
को जल में स्नान कराकर जहाँ सेना पड़ी हुई थी उसके पास ही सघन वृक्षोंमें बांध दिया ॥ ९२ ॥ पीनेकी विदुओ जिनका मारा शरीर भर रहा है, तथा जिनके करते जीन उतार लिया गया है, ऐसे श्रेष्ठ घोड़े जमीनपर लोटकर खड़े और इंट जल्ट में अवगाहन - स्नान कर तथा जल पीकर बंधे हुए विश्राम न लगे ॥ ९३ ॥ रामालोग भी हाथिओंकी सवारी छोड़ मर करनेके लिये जमीनपर बिछी हुई गाडियोंपर लेट गये । और लोग तावृक्षके पंखा हवा करके उनका पीना
॥ ९४ ॥ उटके ऊपरसे हथियारोंका बोझा उतारो। इम जोनको साफ करो | ठंडा पानी लाभो, महागजक रहने की उम जगहको डेरेको उखाड़कर इसके चारों तरफ कनात लगाकर इसे फिरसे सुधारी,. यहां से रथको हटाओ और घोडेको धो, बैंकोंको जंगल में लेमाओ तू बाम के लिये जा, इत्यादि जो कुछ भी अधिकारियोंन- हाकिमों: ने आज्ञा की उसको नौकरलोग बड़ी नल्दीसे पूरा करने लगे 1. क्योंकि सेवक स्वतन्त्र नहीं होना ॥ ९१-९६ ॥ राजाओंकी अद्वितीय शनियां भी, जबकि उनकी परिचित परिचारिकाओं - दासियोंने अपने हाथके अग्रभागों - अंगुलियोंसे दावकर उनकी सवारीकी धकावटको दूर कर दिया, तब स्वयमेव सम्पूर्ण दैनिक कर्मको अनुक्रमसे करने लगीं ॥ ९७ ॥ जिसपर अत्यंत प्रकाशमान : तोरणकी शोभा होरही है ऐसा यह महाराजका निवासस्थान है - इसकी पहचान गरुड़ के झंडेसे होती है । यह विद्याधरोंके स्वामीका हेरा है जिसने कि नानाप्रकारके विमानोंके ऊपरी भागसे - शिखरोंसे tat Ht भेद दिया है। यह क्रय विक्रयमें तल्लीन हुए बड़े २
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सातवाँ सर्ग। [१०५ जवानोंसे भरा हुआ धनार है । यह जारियोंकी जगहके पास ही अच्छी २ वेश्याओंका कम्प भी लगा है। इस तरह सारी सेनाका वर्णन करने वाले, पड़े हुए वूह वैके बोझको ढोनेवाले, बहुत देर तक काममें लगे रहनेवाले नौकरोने अपने रहने के स्थानको भी मुश्किलम देखा ॥९८-९९-१०० ॥ सेनाके लोग पीछ रहनानेवाले अपने सैनिक प्रधानों अधिकारियोंको मेरीके शब्दोंसे बुलाने लगे, भिन्न
तरहकी विचित्र वनाओंको प्रत्येक दिशाओं में उठा २ कर के ' अपने लोगोंको बार : बुलाते थे ॥ १०१ ॥ पुरुषोत्तम-त्रिपिटने मागके अत्यधिक थकावटसे लँगडानानेवाले विश्वस्त सेवकोंके साथ, संपत्ति-मोगोंपभोग सामग्रीसे पूर्ण अपने डेरे में प्रवेश किया । और
आपलोग अपनी २ जगह पधारे। यह कह रानाओंको विदा क्रिया, तथा ' तुम्हारी बनी पक्षनरानिपर-पलकोंपर धूल बहुत नम गई है। यह कह उसे अपनी प्रियाको चुम्न किया ॥१०२॥ इस प्रकार श्री अशंग कविकृत वर्द्धमान चरित्रमें सेनानिवेशन'
नामका सातवां सर्ग समाप्त हुआ।
नाहका सर्ग।
... एक दिन विद्याधरोंके चक्रवर्ती अश्वग्रीवके हुक्मसे सम्पूर्ण आतको जाननेवाला एक संदेशहर-दूत सभामें आकर महाराजको नमस्कार कर इसतरहके वचन बोला ॥२॥ आपके गुणगण परोक्षमें सुननेवाले.विद्वानोंको केवल आपकी दिव्यताको सुचित करते हैं । इतना ही नहीं, किंतु जो आपके शरीरको देखनेवाले हैं उनको यह
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महावीर चरित्र |
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मी सूचित करते हैं कि भाप में ये दोनों गुणगण और दिव्यतादुर्लभता से रह रहे हैं ||२|| सदा समुन्नत रहनेवाली यह आकृति आपके मानसिक धैर्यको प्रकट करती है । समुद्री पंक्ति क्या उसके नलकी अति गम्भीरताको नहीं बताती ॥१॥ जिनमें अन्दररसकी छटा छूट रही है ऐसे ये आपके शीतल वचन हृदयके कठोर मनुष्यको भी इसतरह पिवा देते हैं, जैसे चन्द्रमाकी किरणेन्द्र कांत मणिको || १ || अधिक गुणके चाक आप यदि अवीव से अच्छी तरह स्नेह करें तो क्या मद्गुणोंसे प्रेम करनेवाला वह मत्रवर्ती साधुताको स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि जगतमें साधुपुरुष परोक्ष- बंधु होते हैं ||१|| समुद्र और चन्द्रमाकी तरह आप दोनों को निःसंदेह ऐना सौहार्द (मित्र) कर लेना ही युक्त है कि जिसका उदय अविनश्वर हो-जो कभी टूटनेवाला न हो-तथा जो परस्पर मेंएक दूसरे के लिये क्षम-योग्य हो ||६|| कुशल-बुद्धियोंका कहना है कि जन्मका फल गुणोंका अर्जन करना - इंडा करना-संग्रह करना ही है। और गुणोंका फल महात्माओं को संतुष्ट करना है . इसी तरह महात्माओंके संतुष्ट करनेका फल समस्त सम्पत्तिका स्थान है ॥७॥ जो कार्य कुशल होते हैं वे पहले से ही केवल कल्याणक किये निर्मल बुद्धिरूपी सम्पत्ति से सब तरफसे अच्छी तरह विचार करके ही किसी भी कामको करते हैं; क्योंकि इसतरहसे जो क्रिया.. की जाती है वह कभी विघटित नहीं होती ॥८॥ जो अपने मार्गस - उल्टा ही चलता है क्या वह अभीष्ट दिशाको पहुँच सकता है ? दुर्नय - खोटे व्यवहार में फलको भागे देखकर क्या उसका मन खेद-को नहीं पाता है ? ॥९॥ जो नीतिके जाननेवाले हैं वे, स्वामी मित्र
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आठवां सर्ग। [१०७. इष्ट-सेवक स्त्री भाई पुत्र गुरु माता पिता और बांधन, इनसे विरोध । नहीं करते ॥१०॥ नीतिक समझनेवाले होकर भी आपने भो यह 'पंडाव डाला है सो आपने अपने योग्य काम नहीं किया है। क्योंकि
अभिन्नहदयी चक्रान पहले स्वयं स्वयंप्रमाको मांगा था ॥११॥ यह टोक है कि यह वात आपने अभी सुनी होगी, नहीं तो एसा कोन होगा कि जितको पहलेहीसे अपने स्वामीकी चित्तवृत्ति मालूम पड़. जाय फिर भी वह उसकी विनयका उल्लंघन करे ॥१२॥ अत्र चक्रवर्तीने यह बात कही है कि परोक्ष बंधुने मरी परीस्थितिके विना जान स्वयंप्रमाका स्वीकार कर लिया है। उन्होंने यह काम मात्सर्यको छोड़कर किया है इसी लिये इसमें कोई दोष नहीं है ॥ १३ ॥ जो अन्तरात्मासे प्रेम करनेवालोंक जीवनको यथार्थमं मनोहर मानता है क्या उसके हृदय में बाह्य वस्तुऑमें किसी भी तरह लोभकी एक मात्रा भी उत्पन्न हो सकती है ? ॥ १४ ॥ बुद्धिमान आपको यदि इस कन्यासे ही प्रयोजन था तो तुमने पहले अश्वग्रीवसे ही क्यों नहीं प्रार्थना की ? क्या वहः उत्कृष्ट और अभीष्ट भी स्वयंप्रभाको छोड़ नहीं देता ? ॥ १५ ॥ क्या उसके अप्सराओं के समान मनको हरनेवाली बहुनसी स्त्रियां नहीं है । परन्तु केवल बात इतनी ही है कि उसका मन इस अति-. क्रम-विरुद्ध प्रवृत्तिको सहने के लिये बिल्कुल समर्थ नहीं है ॥ १६ ॥ जिस अनुराम और अक्षय सुखमें आप चक्रवर्तीका अनुनय-खुशामतः . करके प्रवेश कर सकते हैं, उस सुखको आप ही बताइये कि आपः स्वयंप्रमाके चंचल नेत्रोंके विकासको देखकर किस तरह पा सकते हैं। ॥१७ || निसने अपनी इन्द्रियोंको जीतलिया है उसका दूसरेसे
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१०८] - महावीर चरित्र । पराभव कमी नहीं होता। यथार्थमें मनदियोंने उसी जीवनको प्रशंसनीय माना है जो परामवसे खाली है-जिसका कमी तिरस्कार नहीं हुआ ॥ १८ ॥ मनुष्य तभी तक सचेतन है, और तभी तक वह कर्तव्याकर्तव्यको समझना है, एवं तभी तक वह उन्नत मानको भी धारण करता है, जबतक कि वह इन्द्रियों के वश नहीं होता ॥१९॥ चाहे जितना मी कोई उन्नत क्यों न हो यदि वह स्त्री रूपी पाशसे बंधा हुआ है तो उसको दूसरे लोग पादाक्रांत कर देते हैं। निपके चारो तरफ बेलिपटी हुई है ऐसे महान् के ऊपर क्या बालक भी झटसे नहीं चढ़ नाता ॥२०॥ ऐमा कौन मारी है कि जिमको इन्द्रियोंके विपयोंमें आशक्ति आपत्तिका स्थान-कारण नहीं होती। मानों इसी बातको बताती हुई या हाथियों की डिडिम-चनि-हाथियोंके उपर वननेवाले नगाड़ोंका शब्द-विद्वानोंके कानों में आकर पड़ता है ॥२१॥ देवो जरासे सुखके लिये विद्याधरोंके अधिरति ज्वलननटीसे प्रेम मत करो। तुपको इम नाहकी स्त्री तो फिर भी मिल नायगी पर उस तरहका प्रतापी तेनबी मित्र फिर नहीं मिलेगा ॥२२॥ आपके विवाहके मालूम पड़नेपर उसी बस्न बहुतसे विद्याघर तुमको मारनेके लिये उठे थे; पर स्वर स्वामीन ही उनको -रोक दिया था। यह और कुछ नहीं, महात्माओंकी मंगतिका · फल है ॥२॥ अंत्र मेरे साथ जयप्रभाको स्वामी
की प्रसन्नताके लिये उनके पास अपने मंत्रियों के साथ २ भेन दी'निये । दुसरेकी स्त्रियोंसे सर्वथा निःस्पृह रहनेवाला वह स्वयं यात्रना करता है। इससे और अच्छी बात क्या हो सकती है ?" ॥२४॥ जब इस तरहके हृदयको फड़का देनेवाले वचनोंको कहकर
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आठवां सर्ग ।
[ १०९ दूत मौन धारणकर बैठ गया; तंत्र त्रिपिष्टने बलसे कहनेके लिये विनयपूर्वक अखिके इशारसे प्रेरणा की । और उसने भी शत्रुके विषय में अपनी भारती को इस तरह प्रकट किया ॥ २९॥ अर्थशास्त्रनीतिशास्त्रसे जो मार्गविहित - सिद्ध-युक्त है उसी मार्गसे जिसमें
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इष्टको साधा गया है ऐसे ओजस्वी वचनोंका तुम्हारे सिवाय और कौन ऐसा है जो समामें कहनेका उत्साह कर सके। ये वचन दूसरोंके लिये दुर्वच ( दुःखसे कहे जा सकने योग्य, दूसरी पक्षमें खोटे वचन ) हैं ||२६|| अश्वग्रीवको छोड़कर सत्पुरुषोंका वल्लमतथा व्यवहार कुशल और कौन कहा जा सकता है । पर ऐसा होकर भी वह नियमसे किक क्रियाओंको नहीं जानता । अथवा ठीक ही है- जगत् में ऐसा कौन है जो सब बातोंको जानता हो ॥२७॥ जगतमें जो को वर लेता है वही उसका नियमसे वर समझा जाता है। और वहीं क्यों समझा जाता है। इसका निश्चित कारण भाग्य ही माना गया है । ऐसा कोई भी शक्तिधारी नहीं है जो उम देवका उल्लंघन कर सके ||२८|| तुम्हारा मालिक नीतिरहित काम करनेपर उतारू हुआ है, मला तुम तो समझदार हो और सज्जन भी हो तुमने उसको क्यों नहीं रोका ? अथवा भाश्चर्य है कि विद्वान् लोग भी अपने मालिक के मतको - चाहे वह खोटा ही क्यों न हो - निश्चित मान लेते हैं ||२९|| पूर्व पृण्यके उदयसे अनेक प्रकारकी मनोहर वस्तुएं किसको नहीं मिल जाती ? फिर
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१. मूलमें वर्त्मना - साधितेष्टम् ' ऐसा पाठ है। इसमें 'असाधितेम' ऐसा भी पदच्छेद हो सकती है। जिससे यह अर्थ भी हो जाता है के जिसमें इष्टको नहीं साधा गया है।
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११० ]
महावीर चरित्र |
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बलवान् होकर तुम उसीकी क्या तारीफ करते हो? ये क्रिया भले आदमियोंको अच्छी नहीं लगती ||३०|| योग्य संगमचाले -पु- रुपको देखकर दुर्जन विना कारणके ही स्वयं कोप करने लगता है। आकाश में निर्मल चांदनी देखकर कुत्तेके सिवाय दूसरा कोन भोंकता है ? ||११|| जो विवेकरहिन होकर सत्पुरूषोंके अमाननीय मार्ग में स्वेच्छाचारितासे प्रवृत्ति करता है वह निर्लज्ज निश्वयसे पशु है । अन्तर इतना ही है कि उसके बड़े २ सींग और पूंछ नहीं: है । अतएव कौन ऐसा होगा जो उसको दण्डित न करेगा (- दण्ड
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देना - सजा देना; दूसरी पक्षमें डण्डा मारना ) ॥ ३२ ॥ जिसका जीवित रहना मांगनेपर ही निर्भर है. ऐसा कुत्तेका बच्चा यदि मांगता है तो ठीक ही है; पर मनुष्यों में तो अवग्रीवके : "सिवाय दूसरा और कोई ऐसा नहीं है जो इमं तरहकी याचनाको तरकीब जानता हो ॥ ३३ ॥ मेरी लक्ष्मी दूसरोंसे अत्यधिक है। मैं. दूसरोंसे दुर्जय हूं, इस तरहका गर्व करके जो राजा दूसरोंका : • निष्कारण तिरस्कार करता हैं, भला वह जगत में कितने दिन तक जीवित रह सकता है ॥ ३४ ॥ सत्पुरुष दो आदमियोंको ही अच्छा मानते हैं, और उन्ही प्रशस्त जन्मकी सभाओं में प्रशंसा होती हैं। "एक तो वह शत्रुके सामने आनेपर निर्भय रहता है, दूसरा वह जो सम्पत्ति पानेपर भी मनमें मद नहीं करता ॥ ३६ ॥ सत्पुरुष उस दर्पणके समान है नो सुवृत्तता ( सदाचार, दूसरी पक्ष में गोलाई को धारण करता हुआ, भूति ( वैभव - ऐश्वर्य, दूसरी पक्ष में महम) को पाकर निर्मल बनता है । और दुर्जन उस गधेके समान है जो 1 प्रेत भूमिमें गढ़े हुए शूलकी तरह भयंकर होता है ॥ १६॥
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. आठवा सर्गः। . [ १११ wimmimisimamia जिस तरह चाहे उसी तरहम ऐसे- सर्पके फणमेसे रत्नके निकाल लेनेकी इच्छा करे जो अपने नेत्रसे निकली हुई जहरीली आगकी प्रमांक स्पर्शमात्रसे ऐसा कौन दुर्बुद्धि होगा जो अपने आसपासके वृक्षोंकी श्रीको भस्म करडालता है. ॥ ३७॥ तुम्हारे मालिकको-निसका हृदय कुशलतासे ख़ाली और मस मत्त हो रहा है, क्या यह बात मालूम नहीं है कि हाथी, चाहे उसकी चेतना महसे नष्ट ही
यों न होगई हो तो भी क्या वह अपनी सूंडमें सांपको रखलेता है.॥ ३८ ॥ नो सिंह पदोन्मत्त हस्थियोंके कुम्भस्थलों के विद्वा. "रण करनेमें अति दक्षता रखता है यदि उसकी आँख निद्रसे मुंह
जाय तो क्या उसकी सटाको गीदड़ नष्ट कर देंगे ? ॥ ३९ ॥ जिसका हृदय नीतिमार्गको छोड़ चुका है वह विद्याधर किस तरह कहा नासक्ता है ! उन्नतिका निमित्त केवल नाति नहीं होती। भाकाशमें क्या कौआ नहीं चला करता ? ॥ ४० ॥ इस प्रकार प्रशस्त और तेजस्विताक मरे हुए तथा फिर जिसका कोई उत्तर
नहीं दे सके ऐसे वचन कहकर जब बल चुप होगया तब वह दूत 'सिंहासनकी तरफ.मुख करके इस तरह बोला ॥ ४१ ॥ यहांपर
(समा अथवा जगत में ) मूर्ख मनुष्यकी बुद्धि अपने आप अपने . हितको नहीं पहचान सकती है तो यह कोई विचित्र बात नहीं है परन्तु यह बड़ी ही अद्भुत बात है जो स्वयं भी नहीं समझता
और दूसरा जो कुछ कहता है उसको भी नहीं मानता ॥ ४२ ॥ बिल्लीका चा. नीमक शमें पड़कर दूध पीना चाहता है, पर धन समान दुःसह और अत्यंत पीडा देनेवाला दंड-गर्दनपर पड़ेगा उसको नहीं देखना ॥४२ चमचमाते हुए चंचल खड्को हायमें लिये हुएशत्रुको ।
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महावीर चरित्र । ... ... .. ....... .... ......... .......................
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११२ ] युद्धमें जिसने कभी देखा ही नहीं है वह महात्माओं के सामने अपने
अनुचित पौरुपकी प्रशंसा किस तरह करता है सो समझमें नहीं आता ।। ४४ ॥ उत्कृष्ट वीर वैरियोंके सामने युद्ध में ठहरना दूरी बात है । और अपने रनवासमें निसतरह मनमें आया उसी तरह. रणकी :: बात करना यह दूसरी बात है ।।११॥ जैसा मुंहसे कह सकते हैं.. वैसा ही महान् युद्धमें क्या पराकम भी कर सकते हैं ! मेव जैसा कानोंको अति भयंकर गर्नना है । ग वैसा ही वर्षता भी है। ॥४६॥ मदोन्मत हस्थियोंकी घटाओंसे ज्याप्त युद्धमें कौन किसका मित्र होता है । जगतमें यही बात प्रायः सबमें देखी गई हैं कि.. ".यही बड़ी बात है जो प्राण बच गये " ॥४७॥ नदी के किनारों पर उत्पन्न होनेवाले मो वृक्ष उद्धाता. धारण करते हैं-जमते नहीं. हैं-उनको क्या जलका वेग जड़मेंसे उखाड़ नहीं डालता है ? जरूर उखाड़ डालता है। किंतु नम जाता है इसीलिये वह .. बढ़ता है । सो यह ठीक ही है, क्योंकि खुशामद ही जीवनको रखती है ॥४८॥ अपने तेनसे निसने राजाओंके ऊपर शत्रुको और मित्रको भी रख दिया है तथा दोनोंको सजनताके.पदपर रखा है, उसकी बराबर और कोई भी उत्तम नहीं है ॥४९|| जब कभी .. मेघ बर्नमें निष्ठुरतासे गर्नने लगता है उस समय हिरणों के बच्चोंके : साथ साथ शत्रुओंकी बुद्धि क्या अब भी इस शंकासे त्रस्त नहीं हो जाती, और क्या वे मूच्छित नहीं हो जाते कि कहीं यह तो .. भश्वग्रीवके चापका-धनुषका शब्द है ॥५०॥ उसके शत्रुओंकी : ऐसी स्त्रियां कि जिनके पैर डामकी नोकोंके लग जानेसे अंगुलियों- . मेंसे बहते हुए खूनके महावरसे रंग गये हैं, और जिनकी आंखें बाप्प : . .(आंसू या पसीना) से भरी हुई है, जो भपसे व्याकुल होरहीं :
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आठवां सर्ग। . [११३ हैं, जिनके बांये हाथको उनके पतियोंने अपने हाथमें पकड़ रखा है, दावानलके चारों तरफ पैरोंको टेढामेड़ा डालती हुई घूमती हैं। निमसे ऐमा मालुम पड़ता है मानों इस समय वनमें इनका फिरसे. विवाहोत्सव हो रहा है ॥ ५१-५२॥ रस्तागीरोंकी टोली भयसे एक दूसरेकी प्रतीक्षा न करके प्रस्तचित्त होकर झटसे वनमें चली जाती है। क्योंकि वह अश्वग्रीवके शत्रुओंके मकानोंको ऐसा देखती है कि जहां पर इतने वांस उत्पन्न होगये हैं कि जिनसे उनके भीतर गहन अंधकार छागया है, उनके चारो तरफका पर'कोटा बिल्कुल टयूट गया है, जंगली हाथियोंने उनके बाहरके . दरवाजोंको.तोड़ डाला है, सदर दरवानेके पासका आंगन खमोंसे ऐसा मालूम पड़ता है मानों इनके दांत निकल रहे हैं, जिनमें छोटी २. पुतलियोंपर सर्पराजोंने अपनी केंचुली छोड़ दी हैं जिससे वे ऐसी मालप पड़ती हैं मानों उन्होंने यह ओढ़नी ओढ रक्खी है, नहाँपर चित्रामक हाथियोंके मस्तकोंको सिंहोंके बच्चोंने अपने नखरूप अकुशीको मार २ कर विदीर्ण कर डाला है, जमीनके फर्समें जलकी शंकासे मृगसमूह अपनी प्यासको दूर करना चाहते हैं और मर्दन करते हैं । एक तरफ जो फूटा हुआ नगाड़ा पड़ा है उसको बंदर अपने हाथोंसे निशंक होकर बना रहे हैं, एक सोनकी शयन करनेकी वैदिका वाकी रह गई है जिसको यौवनसे उद्धत दुई : भीलोंकी सुंदरियां अपने. काममें लेती हैं, जहाँपर शुक सारिकायें पीजरे से . छूटकर नरनाथका मंगलपाठ कर रहीं हैं ॥६५-६७॥ महान् . पुण्य-संपत्तिके मोक्का उस अश्वग्रीवके उन्नत. बचतुंच चंकको क्या.तुं नहीं जानता। जो. सुवर्णसमान निकलती
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११४ ] . महावीर चरित्र । ::::
mammimimirmaniramirmiri हुई अग्निकी ज्वालाओंसे आठों दिशाओंको चकित कर देता है.. निसकी रक्षा देव करते हैं, जो अक्षय है-कोई. उसका क्षय नहीं। कर सकता, जो सूर्यबिम्बके समान अति प्रकाशमान है, निसमें :एक हजार आरे हैं, जिसके द्वारा समस्त नरेन्द्र और विद्याधरोंको क्शमें कर रखा है, तथा जो अरिचक्र-शत्रुपमूहको मर्दित कर डालता है ॥१८-१९। इसी तरहसे जब वह उद्धत दूत बोल रहा था तब स्वयं पुरुषोत्तमने जिन्होंने युद्धका निश्चय कर लिया था उसको रोककर कहा कि "हमारे और उसके युद्धकै सिवाय:
और कोई भी इसकी परीक्षाकी कसौटी नहीं हो सकती ॥ ६ ॥ इसपर त्रिपिटके हुकुमसे शंख बजानेवालेने युद्धकी उद्घोषणा करने वाले शंखको बनाया । और उससे ऐसा शब्द .. हुभा जिससे कि. समस्त रानाओंकी सेनाओं के विल्कुल भीतरसें प्रतिध्वनि निकलने
गी।। ६१ ॥ रणभेरीकी अनि, जो कि जलके भारसे · मेघोंके शब्दकी मनमें शंका करनेवाले मयूरोको आनंद करनेवाली. थी, योद्धाओंको सावधान करती हुई दिशाओं में फैल गई ॥६२।। बंदीजनोंके द्वारा अपने नामकी कीर्तिकी स्तुति कराते हुए सैनिक लोग सत्र तरफसे जय जय शब्द करके रणभेरीके शव्दका अच्छी
तरह अमिनंदन. कर फुर्तीसे युद्ध करनेके लिये तैयारी करने लगे। · ॥ ६३ ॥. किती २ योद्धाका शरीर उसके हृदयके साथ २ युद्धके ।
हर्षसे फूल गया। इसीलिये अपने नौकरों के बार २. प्रयत्न ...करनेपर भी वह अपने कवचमें समा न सका ॥ १४ ॥ भ्रमर : समान काले लोहेके कवचको पहरे हुर तथा जिनमें से प्रभा निकल १ रही है ऐसी तलवारको घुमानेवाले किसी योद्धाने . जिसमें विली..
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. आठवां सर्गः। [११६ चमक रही है. ऐसे पृथ्वीर प्राप्त नवीन मेघकी सदृशताको धारण किया।। ६५ ॥ हाथी कलकल शब्दसे व्याकुल हो उठा । इसी लिये उसने दूनी उन्मत्तता धारण की । तो भी चतुर पीलवान झटसें उसको हाथीखानेमें ले गया । जो कुशल मनुष्य होता है उसको.चाहे जैसा आकुलताका कारण मिले तो भी वह घबड़ाता नहीं है ।। ६६ । उन्नत किंतु .गुणनम्र ( औदार्य साहस धैर्य पराक्रप आदि गुणोंसे नम्र; दूसरे पक्षमें डोरीसे नम्र ) मंगवर्नित (जिपका कमी अपमान नहीं हुआ; दूसरे पक्षमें जो कहीं टूटा नहीं है) जो निंद्य वंशमें (कुछमें; पक्षांतर में बांसमें ) उत्सन नहीं डुआ है. ऐसे अपने समान धनुषको पाकर कोई २ वीर बहु। सुंदर मालूम पड़ने लगा । योग्यका योग्यसे सम्बंध होनेपर क्या श्रीशोभा नहीं बढ़ती ! बहती ही है ।। ६७ ॥ जिनके हाथ मालेसे चमक रहे हैं. ऐसे कवच पहरे हुए सधारोंने अपनी अभिलाषाओंको सफल माना और.वे हरिणसमान वेगवाले दौड़ते हुए बोड़ोंपर झटस चढ़ लिये ॥ ६८ ॥ निरके जूआओंमें घोड़े जुत्र हुए हैं, तथा अनेक प्रकारके हथियार भीतर रखे हुए हैं, जिसके ऊपर घनायें लगी हुई हैं. ऐसे.रयोंको कवचसे सुसज्जित जूभार बैठनेवाले-हांकनेवाले अपने २. स्वामियोंके रहने के डेरेके दरखानेके पास ले गये ॥ १९॥ यश ही निनका धन है ऐसे युद्धके रससे - उद्धत हुए मटीने.विचित्र २. ही कवच पहरे और अपने २ अभीष्ट हथियारोंको लेकर जल्दी करनेवाले अपने २: राजाओं के सामने आकर हाजिर हुए ॥ ७० ॥ रानाओंने अपने करकपलों से अपने सेवकों का सबसे बहले भाग पुल बन्न आदिके द्वारा सत्कार किया। सेवकोंको
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११६] महावीर चरित्र। .. और कोई नहीं बस यह सत्कार ही मारता है ।। ७१ ॥ बहुतसे:: गेरूके लगनेसे लाल पड़ जानेवाले जो हाथी निकले वे ऐसे मालूम : पड़ते थे मानो ये सन्ध्यायुक्त मेव ही हैं। उनके ऊपर वध और अवधा क्रियाके धारण करनेवाले वीर योद्धा पुरुप बैठे हुए थे ।। ७२ ॥ युद्धका नगाड़ा बनाया गया, उसी समय सम्पूर्ण मंगल क्रियायें.... भी की गई, प्रजापनि महारान सुन्दर काचोंसे कसे हुए महाभटोंसे वेष्टित-घिरे हुए हाथीपर सवार हुए ॥ ७३ ॥ कवच पहरें. हुए अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जिन विद्याधरोंसे वेष्टित जलननटी महारान : जो कि पहरे हुए कवचसे अति सुन्दर मालूम पड़ते थे, निमसे मद चू रहा है ऐसे सार्वभौम-हस्तीपर चढ़कर आगे निकले ॥७४॥...,
युद्धलंपट अर्ककीर्ति कवच वगैरह पहरकर अपने ही समान : शिक्षासे दक्ष, निर्मीक, उन्नत, ऊर्मित-महान् , विपुग्नवंश (ऊंचा कुल; पक्षान्तरमें मद्र भद्र आदि ऊंची जाति अथवा चौड़ी पीठ) वाले : दानी (दान देनेवाला; दूसरे पक्षमें मदवाला) हाथीपर सवार हुआ ॥७९॥ : मेरा यह शरीर ही वजका बना हुआ है फिर बख्तर चढ़ानेसे क्या फायदा ? इसीलिये निर्भय विजयने श्रेष्ठ पुरोहितके लाये हुए भी कवचको ग्रहण नहीं किया ॥७६॥ कुंद पुष्पके समान गौरवर्ण वलं... अंजनसमान कांतिके धारक कालमेघ नामक उन्मत्त हाथीपर चढ़ा. हुआ अत्यंत शोभाको प्राप्त हुआ। वह ऐसा मालूम पड़ा मानों : काले मेघके ऊपर पूर्णमासीका चन्द्रमा बैठा है ||७७|| मैं भुवन: मंडलका रक्षण करनेवावाला हूँ। इस रक्षणके-कवचके रहनेसे मेरी क्या बहादुरी रही ! इस अमिमान गौरवसे निर्मीक आदि नारा: यण-त्रिपिष्टने कवचको धारण नहीं किया ॥७६ ॥ जिसके शरी.
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आठ मार्ग।
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की कांति शनाक मेत्र समान है एमा महान् गहन्धन हि:वक समान और हिमगिरि नामक हाथीपर प्रकार हुआ जिसमें वह एसा मान पक्ष मानो विन्ध्यात्र जार का नेत्र का है। विस तरह प्रतनाने वित्रिप्रवाशाशनादीधि-दामाकाशमें सूर्यको वा अवित होती है उमी नाह अनेक प्रकार हैविचाराने धारण कर समगे ना गइननो पार 'घाकर आताशमें लियत हुए ॥ ८ ॥ गड़म कुल निः समय बनाओस मेवात त्रुम्मन करनेवाली संतान प्राग निया,
सन्य मालूम हुआ मानो प्रनिगलिगकी सनक यंत्रीमन सो बुला लिया है ॥ ८१॥ त्रिपिटन निमसाको पहले ही त्रुऑकी सेनाको जहा करने लिये मना या वह मन बादको देखें और जानन उसी समय छोडकल आई और हाय नाडकर इस ताह बोली ॥२॥"प्रतिम्टान्न अंग बनानाले जनय क्रयवाको पहा हुए विवावर गनाओंक साय माय आनी ममन्नमवातं. मुसजित कर यह बयान अश्वग्रीन बड़े गले नि:शंक होकर उठा है।। ८३॥ आपके प्रसाइ विचाया रानामांकी समस्त विधाओंजा पहले ही छैन कर दिया गया है । निक पंख काट डाले गये है. ऐसे पतिराजोंकी तरह अत्र उनको कौनया मनुष्य युद्धमें नहीं पड़ सकता ? ॥ ८2 | इस प्रकार पोन्मत्त भ्रमर जिनार भ्रमश कर रहे हैं ऐसे पुष्पोंकी दृष्टि दोनों हायोंसे त्रिपिक शिर करती हुई वह देवता कान पासमें शत्रु सेनानी सन यानु बताकर चुप हो गई ।। ८५ ॥ किंतु स्वयं अपराजित मंत्री अजित से विजयकी जयके लिये वह देवता बड़ी भारी दिन्यत्रीक धारण
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११८] महावीर चरित्र । करनेवाले हलके साथ २ उन्नत अद्भुत और कभी व्यर्थ न होनेवाले : मूमल तथा युद्धमें शत्रुओंको भय उत्पन्न करनेवाली प्रकाशमानः गदाकी सेवा करने लगी ॥ ८६ ॥ गंभीर ध्वनि करनेवाला निर्मलं पांचजन्य शंख, कौमुदी गदा, अमोघमुखी नामकी दिव्य शक्ति, पुण्य कर्मसे प्राप्त हुआ शई नामका धनुष, नंदक नामका यज्ञ, किरणोंसे व्याप्त कौस्तुभ रत्न, जिनकी यक्षाधिर रक्षा करते हैं ऐसी : इन अत्युत्तम वस्तुओं के द्वारा त्रिपिष्ट नारायण राज्य लक्ष्मीकी जय संपदाकै स्थानको प्राप्त हुआ। ८७॥ : . .. इस प्रकार अशग कार्यकृत वर्द्धमान चरित्रमें 'दिव्यायुधागमन
नामका आठवाँ सर्ग समाप्त हुआ।
बक्का वर्ण।
नारायणने पृथ्वीसे उठी हुई गधेके बाल समान घूमर धूलिसे व्याप्त अश्वनीडकी सेनाको ऐसा देखा मानो वह अपने (त्रिपिष्टके ) तेजसे ही मलिन हो गई हो ॥ ॥ उसी दोनों तरफकी सेनाओंके युद्धके बाजे बनने लगे, गन गर्नने लगे
और घोड़े हीसने लगे। वीर पुरुष जो कायर है वह लौटकर
जाता है। यह कह कहकर मामीतोंकी तृणकी तरह अवहेलना • करने लगे ॥ २ ॥ घोड़ों के टापोंके पड़नेसे नवीन मेव समूहके . समान सांद्र-धनी धूलि जो उठी वह दोनों तरफकी सेनाओं के · आगे हुई परंतु उस तेजस्वीने अपने तेजसे-उसका निवारण किया
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..::. :.. . नववां.सग। romaninin मो. मानों युद्धका ही निवारण किया ॥३॥ आपसके मौर्वी-धनुषकी प्रत्यंचाओं के शब्दोंको करनेवाले घोड़े और हाथियोंको अस्त कर देनेवाले भयंकर या उनमें घुसे हुए बाणोंको हर्षित हाथोंसे खींचकर योद्धा लोग वीर रसमें अधिक अनुराग करने लगे॥ ४ ॥ पदाती पदातियोंको, घोड़े घोड़ोंको, या घुड़सवार घुड़सवारोंको, रथी रथोंरंथियोंको हाथी हाथियोंको बिना क्रोधके ही मारनेके लिये उद्युक्त हुए। बस इसीलिये तो जो पापभीरु हैं वे सेवाको नहीं चाहते ॥५॥ । दादी मंछ और शिरक बालोंपर नवीन-खिले हुए काशके समान सफेद धूलि छा जानसे सफेद होनाने वाले जवान योद्धाओंने यह समझकर म.नों वृद्धाको धारण किया कि यह मृत्युके योग्य है ॥ ॥ धनुपपरसें छूटे हुए तीक्ष्ण बाण दूर स्थित योद्धाओं के कवचवेष्टित अंगोंपर ठहरे नहीं। ठीक ही है-जो गुण (ज्ञानादिक, पक्षातरमें धनुपकी डोरी) को छोड़देता है ऐसा कोई भी क्या 'वीमें प्रतिष्ठा सम्मान, पक्षांतरमें ठहरना) को पा सकता है।॥७॥ विना वैरके ही उदार पराक्रमके धारक भट आपसमें बुला बुलाकर दूसरे मटोका कत्ल करने लगे। अपने मालिककी प्रसन्नताका बदला देनेके लिये कौन धीर पुरुष प्राण नहीं देना चाहता || ८ || शत्रुओंके शस्त्रोंसे घायल होनेपर भी दौड़ते हुए अपने बलभों-पक्षके लोगोंसे आगे निकलकर किसी २ ने जिसको कि अपने और परायेका भेद ही मालूम नहीं है, खुद अपने ही राजाके हृदयको जलाचीर डाला ॥ ९ ॥ किसी २ की दोनों जंघायें कट गई उसपर शत्रुओंके खगों के प्रहार होने लगे फिर भी वह शरवीर नीचे नहीं. . गिरा। किंतु उत्तम वंश (कुछ पक्षांतरमें बांस) में उत्पन्न होनेवाले..
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१२० ]
महावीर चरित्र |
जान मार . २
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॥
१२ ॥ प्रच
अपने मानसिक पराक्रम और अखंडित चापका अवलंबन लेकर वहींडटा रहा | १० || धनुपको कानतक खींचकर किमी २ योद्धाकेद्वारा कठोर मुष्टिसे छोड़े हुए तीक्ष्ण बाणने को भी भेदकर दूसरे भटको छेड़ डाला । यह निश्चय है कि जिन अच्छी तरह प्रयोग किया जाय वह क्या सिद्ध नहीं कर भक्ता ॥ ११ ॥ हाथीवान् तो जबतक मदोन्मत्त हाथीके मुखपर वस्त्र ने भी नहीं पाता है तक- एक क्षणभर में ही योद्धालोग उसे कर भेड़ देते हैं जिससे वह बिल्कुल सिमजाता है ड हाथी मन्द २ हवा के लिये प्रतिपक्षी - हाथी कुछकर - मुंडसे स्वयमेव मुखवस्त्रको हटाकर पीलवान् की मी पलून कर चन्द्रा गया ॥ १३ ॥ जिनके कुंपस्थल में बछियां बसी हुई हैं ऐसे, गजेंन्द्रोंके गंडस्थल ऐसे मालूम पड़ते थे मानों अपने पंखोंसे सुंदर मालूम पड़नेवाले शब्द रहित मयूरोंके समूह जिनपर बैठे हों। ऐसे. ये पर्वतों के शिखर ही हैं ॥ १४ ॥ किन्ही २ प्रचान योद्धाओंने युद्ध में अपनी विशेष शिक्षाको दिखलाते हुए जिनपर अपने नामके अक्षर खुदे हुए हैं ऐसे अनेक वाण मारकर राजाओंके श्वेत छत्रों को जमीनपर लुढ़का दिया ॥ १५ ॥ चिरकाल तक युद्धकी धुराको धारणकर मरजाने वाले तेजस्वी क्षत्रियश्रेप्टोको जब लौटकर -. शूरवीरोंने देखा तब उनके नाम और कुलको माोंने सुनाया. ॥ १६ ॥ हाथियोंके कुम्मस्थल खड्गोंके प्रहारसे फट गये। उनमेंसे चारों तरफको उछलते हुए बहुतसे मोतियोंसे आकाशश्री दिनमें भी तारागणोंसे व्याप्त मालूम पड़ने लगी ॥ १७ ॥ कोई २. मुख्य योद्धा चित्र लिखित योद्धाके समान मालूम पड़ते थे !
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सर्ग. 1.. [ १२१ उनका सुंदर चार हमेशा खिया हुआ और चढ़ा हुआ ही रहता पासमें खड़ा हुआ आदमी भी उनके बाण चढाने और छोड़नेके अतिशय को पहचान नहीं सकता था । अर्थात् वे इतनी शीघ्रता से चाणको धनुपपर चढ़ाते और छोड़ते थे कि जिससे पामका मी आदमी उनकी इम क्रियाको नहीं जान सकता था। इमीलिये वे चित्रलिखित सरीखे मालूम पड़ते थे ॥ १८ ॥ शत्रुगनको माग्नेकी इच्छा .जिसको बगी हुई है ऐसा नंती सुमके असिवानसे मुंड़के कट जानेपर भी उतना व्याकुल नहीं हुआ जितना कि दोनों दांतोंक टूट जानेसे दंत चेष्टासे रहित होजाने पर हुआ ॥ १९ ॥ भालके 'प्रहारसे अपना सवार गिर गया तो भी कुंद समान धवल बोड़ा उनके पास ही खड़ा रहा जिससे वह ऐमा मालूम पड़ा मानों उस वीरका पराक्रपसे इकट्ठा किया हुआ यश ही हो ॥ २० ॥ अनल्प पराक्रमके धारक किसीने मर्मस्थानों में लगे हुए महास व्याकुल रहते हुए भी तब तक प्राणोंको धारण किया कि
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नेत्र तक उसके स्वामीने कोमल परिणामोंसे इस तरहके वचन नहीं कहे नहीं पूछा कि क्या श्वास ले सकते हो ! ' ॥ २१ ॥ शत्रुताका उत्कृष्ट सहायक क्रोध है । इसी लिये चक्र से शिर कट गया था तो भी उसको बांये हाथसे थाम कर क्रोधसे व्याप्त हुए किसीने सामने आये हुए शत्रुको साफ - मार डाला || २२ || जो गुणरहित है वह त्याज्य है; इसी लिये किसी २ योद्धाने अपन सामने की उम्र चनुलताको कि जिसके गन्थको दूसरे योद्धान भालेसे छेद डाला था इसतरह छोड़ दिया जिस तरह दूषण लगानेबाली भ्रष्ट हुई अच्छे वंश (कुल; पक्षांतर में बांस) वाली मी. स्त्रीको
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१२२ ] महावीर चरित्र । . . लोग छोड़ देते हैं ॥ २३ ॥ जिनका शरीर बाणोंसे घायल हो गया है, पैर वेकाम हो गये हैं, गला कांप रहा है, नाकमेंसे : घुर घुरः शब्द निकल रहा है ऐसे घोड़ोंने, खूनकी धनी कीचमें जिनके पहिये फस गये हैं ऐसे रथोंको बड़ी मुश्किलसे खींचा ॥ २४॥ युद्धकी रंगभूमिसे किसीकी मूलमें से कटी हुई मुनाको लेकर गृधः आकाशमें घूमने लगा। मालूम हुआ मानों प्रशस्तं कर्म करनेवाले ... उस वीरकी जयपताका ही चारोतरफ घूम रही है ॥ १५ ॥ क्रुद्ध
और मदोन त हस्तीने अपने सामने खड़े हुर योद्धाको झसे नीचे डालकर उसके बांये पैरको खूब जोरसे झूहमें दवा कर और दाये.. पैरको पैरसे दबा कर चीर डाला ॥ २६ ॥ किसी २ योद्धाको किसी २ हाथीने सूंडमें पकड़कर आकाशमें फेंक दिया। परंतु वह खिलाड़ी था इसी लिये वह वहांसे गिरते गिरते ही उसके कुम्मस्थलकेपृष्ठ भाग पर तलवारका प्रहार करता हुआ ऐमा मालुम पड़ा', मानों उसके हृदय में किसी तरहका संभ्रम ही नहीं हुआं ॥२७॥ - जन आश्रय देनेवाले पर विपत्ति आवे उस समय कौन ऐसा होगा: “जो निर्दय हो जाय । इसीलिये तो बाणोंसे घायल . हुए हाथीबांनोंको जो घावोंसे मूर्ख या खेद हो रहा था उसको
हाथियोंने अपनी सूडको ऊपर उठाकर और उसका जल छोड़कर दूर कर दिया ॥ २४॥ जिनका शरीर शरोंसे पूर्ण है ऐसे योद्धा 'निश्चल हाथियोंके ऊपर बैठे हुए ऐसे मालूम पड़े, भानों पर्वतके . ऊपर ये ऐसे. वृक्ष हैं कि जिनकी तापसे (धूपसे; पक्षांतर में दुःखसे) :
पत्र (पत्ते, पक्षांतर में सवारी) शोमा तो निःशेष-नष्ट हो गई है और - केवल उनमें त्वचाका ?-वकला प्रक्षातरमें चर्म ) सार रह गया है।
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नववा मर्ग : [१२३ -२९॥ एक अत्युन्नत गजरानकी लम्बी मुंड मूलभैसे ही कट गई। इसीलिये उसके कुनकुन खुनका महा प्रवाह वहने लगा। मालम पड़ा मानों, अंजनंगिरिकी शिखरपरसे गेल्में मिला हुआ झरनाका जल गिर रहा है ॥१०॥ यात्रोंक दुःखके मारे जो मुच्छ आगई यी. उसको दूरकर फिरसे शत्रुओंको मारने के लिये जो प्रवृत्त हुए उनको महाभोंने बड़ी मुश्किलसे रोका । कौन ऐसा धीर पुरुष है जो सत्संग्रह नहीं करता है ? ॥३१॥ चमकती हुई तलबारसे शत्रुके मारनकी यह चेष्टा तो का रहा है पर इस शुरवीरका शरीर बायोकें मारे बिल्कुल विह्वल हो रहा है। यह देखकर किसी. संजन योद्धाने उसको कंगा करके नहीं मारा। क्योंकि जो महानुभाव होते हैं व दुखियोंको कमी मारते नहीं ॥३२॥ किसीर के इतनी भीतरी मार लगी कि उसने मुखके द्वारा एकदम खूनकी घार छोड़ दी 1. मालूम पड़ा कि पहलेसे सीखी हुई इन्द्रनाल वियाको रणमें राजाओंके सामने प्रकट की है ॥३३॥ किसीके वक्षः: स्थलपर असह्य शक्ति पड़ी तो भी उसने उसकी-योद्धाकी शक्तिसामथ्र्यका हरण नहीं किया। ऐसी कोई चीज नहीं है जो युद्धमें लालसा
खनवाले मनस्त्रियोंके दपको नष्ट कर सके ॥३४॥ नीलकमलके समान याम दीप्तिकाली, दंतोग्नला (निमकी नोंक चमक रही है। पक्षांतर में उज्ज्वल दांतोंवाली ) चारूपयोधरोरु (अच्छे पानीवाली और महान पक्षातरमें सुंदर स्तन और अंबाबाली ) प्रियाक समानः खगलताने शत्रुके वक्षःस्थलपर पड़ते हुए उस वीरको ऐसा. कर, दिया जिससे कि उसने-सुखपूर्वक नेत्र मींच लिये ॥ ३५ ॥ शत्रुके द्वारा हृदय में मेरे गये भी किसी क्रुद्ध हुए योद्धानेः अपने वंशकाः -
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१२४ ] महावीर चरित्र । अनुगमन कर उमक-भेदनेवाले के पीछे दौड़ते हुए. उसके कंटमें अगेकी तरफ सर्पके समान छौंले ऐसा काटा जो उम लिय.. दुःसह हो गया ॥ ३६ ॥ दुसरेके द्वारा अपने कौशनसे युद्धमः शीघ्रताके साथ हस्तगत की हुई दुष्ट कटार अपने ही स्वामीकी इस तरह मृत्युका कारण ३१ गई कि निमताह निर्धन मनुष्यको मुहिके बाहर निकल जानेव लो दुष्ट वेश्या दृसरेके हाथने पहुंचकर अपने पहले पोषाकी मृत्युन कारण हो जाती है ।। ३७ लोहकें .. त्राणोंसे निमक रागका बंधन कीलिा हो गया है-अर्थात् निकी रागोंमें लोहे वाण कीलोंकी तरह हुक गये हैं-घुस गये हैं एमा , कोई विवश हुआ बुड़सवार योद्धा उछलने हुए घोड़ेसे मी नहीं गिरा। जो परिष्कृत हैं उनकी स्थिरता चलायमान नहीं हो सकती ॥३८ : किसी २ ने दक्षिण बाहुदंडक कट जानेरर भी बांये हायसे ही तलवार लेकर सामने प्रहार करते हुए शत्रुको मार डाला।वित्तियोंके : 'पड़नेपर वाम (बांया भाग इलेपसे दूसरा अर्थ प्रतिकूल) भी उपयोग,
आ जाता है ॥ ३९ ॥ श्रेष्ठ तुरंगका अंग बाणोंसे घायल हो गया था तो भी उसने पहलेके न तो वेगको छोड़ा और न. शिक्षाको : छोड़ा तथा न अपने सवारकी विधेयता-कर्तव्यता ( जिस तरह .. -सबार चलाना चाहे उसी तरह वलना) को ही छोड़ा। ठीक ही हैं.' ज्जो उत्तम जातिमें उत्पन्न हुए हैं वे सुख और दुःख दोनों अवस्था में : समान रहते हैं.॥ ४० ॥ जिसके कंठमें बहुतसे लाल चमर.. हुए हैं ऐसे खाली पीउवाले घोड़ेने सामनेकी तरफ तेजीसे दौड़ते हुए हाथियोंकी घटाको तितर बितर कर दिया। अतएव वह केवल : नामसे ही नहीं; किंतु क्रियासे भी हरि-सिंह हो गया.॥ ११ ॥
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नववा सर्ग। [१२५ लोहमयी बाणोंसे शरीरके विदीर्ण हो. नानेपर भी कोई २ घोड़ा वेगसे इधर-उधर दौड़ने लगा.। मालूम हुआ मानों वह अभी २ मरे हुए अपने स्वामीकी शूरताको युद्धकी रंगभूमिमें प्रकाशित कर रहा है ॥४२॥ किसीके मस्तकमें शत्रुने लोहमय मुद्गर ऐसा मारा कि जिससे वह विवश: होकर जमीनपर लोट गया । परंतु तो भी उसने शरीरको छोड़ा 'नहीं । धीर पुरुषोंके धैर्यका प्रसर निष्कंप. होता है, उसका. कोई हरण नहीं कर सकता ॥ १३ ॥ पॅने अग्रभागसे रहित भी वाणने सुभटके अभेद्य कवचको मी भेद कर उसके प्रणोंको बड़ी जल्दी हर लिया। दिनोंके आयुके पूर्ण हो जानेपर प्राणियोंको कौन नहीं . मार देता है ।। ४४ ॥ अतुल्य पराक्रपके धारक किसी ने अपने शरीरके द्वारा चारो तरफसे स्वामीकी वाणोंसे रक्षा करते हुए अपने शरीरको एक क्षणभरमें ना कर दिया । दृढ़ निश्चय रखनेवाला वीर पुरुष क्या नहीं कर डालता ||३५|| शूरवीर लोग आपसमें एक दूसरेकी तरफ देखकर और कुछ-क्षत्रिय वंशके अभिमान, विपुल लज्जा, स्वामीका प्रसाद तथा निज पौरुष इन बातोंका ख्याल करके शरीरके घावोसे भरे रहने पर भी गिरे नहीं ॥१६॥ वह दुर्गम युद्धांगण हाथियोंके टूटे हुए दांतोंसे तथा छिन्न हुए शरीर और सूड़ोंसे, टूट फट कर गिर पड़ने वाली अनेक वनाओंसे, जिनके पहिये और धुरा नष्ट हो चुके हैं ऐसे रयोंसे भरगया ॥४७॥ मनुष्योंकी आंतोंकी मालासे . जिनका गला बिल्कुल मरा हुआ है, जो खूनकी मघको पीकर . बिल्कुल मत्त हो गये हैं ऐसे राक्षस मुर्दीओंको पाकर या लेकर कबंधों इंडोंके साथ २ यथेष्ट नृत्य करने लगे ॥१८॥ जहां तृणके
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१२६.1 महावीर चरित्रं । . . . . . .
ima......... भीतर अग्नि छिपी रहती है ऐसी अरणीमें बनीमें जन्म लेनेवाली: • बहिने शर पंरपर पड़े हुए उन समस्त मा वीरोंको जला दिया प्रशस्त कर्म करनेवालोंको कौन नहीं अपनाता है ॥४९॥ उन दोनों ही सेनाओंके गर्विष्ठ हाथी घोड़े पदाति और रयोंके समूहोंका आपसमें भिड़कर यमरानकी उदरपूर्तिके लिये चारों तरफसे युद्ध हुआ ॥५०॥ हरिस्मश्रु नामका अश्वग्रीवका मंत्री जो कि रथके विषयमें आद्वितीय वीर था स्थमें बैठा हुआ ही सेनाका संचालन करता और वहींसे उस धनुर्वरने प्रति पक्षियोंकी सेना
और आकाशदोनोंको एक साथ वाणों के मारे आच्छादित कर दिया ॥५१॥ मालोंके मारे प्रत्येचाओंके साथ
सुभटोंके शिरोंको भी उड़ा दिया। हाथियोंकी घटाओंके साथ .. महारथोंकी विशेष व्यूह रचनाको इसतरह-तोड़ दिया. जिस तरह .. कच्चे घड़ेको जल फोड़ देता है ।।१२।। मंत्रीको महान् वाणवृष्टि
के छोड़ते ही छत्रोंके साथ २ झंडे गिर गये, हाथियों के साथ साथ :: · खाली (जिनके ऊपर सवार नहीं थे ऐसे) घोड़े त्रस्त हो गये, सूर्यके;
प्रकाशसे युक्त दिशायें नष्ट हुई दिशाओं में अंधकार छा गया ...॥.५३ ।। अति शुद्ध आचरणवाले ( श्लेवसे शुद्ध आचरणका ': अतिक्रम त्याग करनेवालाः) अथवा ठीक.गोलाईको लेकर : मंत्रीने
अतिशुद्ध अनेक बाणोंसे विष्णुके त्रिपिष्टके चल सेनाको इधरउधरसे इस तरह: संकोच लिया-घेर लिया जिस तरह रात्रिमें चंद्रमा अपने करकिरणों से: कमलोंको संकोचलेता है.॥ ५४.॥ इस तरह उस भीमको अपने बाहुवीर्यका विस्तार करते हुए देखकर उसका वध.
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नववा सर्गः [१२७ immmmm करने के लिये त्रिपिष्टके भयंकर निर्वयं सेनापतिने बाण उठाकर उससे युद्ध करना शुरू किया ॥ ५५ ॥ वेगकी वायुसे जिसकी ध्वना सतर लंबी होगई, जिसमें मनके समान वेगवाले घोड़े जुते हुए
हुए सेनापतिने उसके सन्मुख ना कर प्रत्यंचाके शब्दसे दिशाओंको शन्दायमान करते हुए वाणोंसे उसको तुरत वेध दिया ॥ ५६ । जिसके संधान और मोक्षवाण चढ़ाने और छोड़नेके कालको कोई लक्ष्यमें ही नहीं ले सकता था, जिसकी सुंदर प्रत्यंचा सदा खिची ही रहती ऐसे उस भीम धनुर्विद्या में अतिदक्षं सेनापतिने अपने वार्णोसे मंत्री बाणोंको बीचमें ही काटडाला ।। ६७. जिनके आगे अर्धचन्द्राकार पेंना भाग लगा हुआ
ऐसे वाणोंसे उसने घनांके डंडेके सथ २ मंत्रीके धनुपको भी 'बड़ी जल्दी छेद डाला इसार मंत्रीने कोरसे निर्दय होकर सेनापतिके वक्षःस्थलपर शक्ति का प्रहार किया ॥ ५८ ॥ उदार पराक्रमके धारक उस भीमसेन पतिने धनुषको छोड़कर तलवारको लेकर अपने यसें मंत्री के रथमें कू शिरके अर श्रेष्ठ खगका प्रहार कर उसको कैद करलिया ॥ ५९॥ शत्रुओंके सैकड़ों आयुधोंके पड़नेसे जिनका शरीर क्षत होगया है और क्षा:थल फट गया है ऐसा वह शतायुध युद्ध में धूमध्यनको जीा कर बहुत ही सुंदर मालुम पड़ने लगा क्योंकि राजाओं का भूपण शुरता ही तो है ॥६०॥ अपने शत्रुजित् शत्रुनयः इस नामको मानों सार्थक करनेके लिये ही उस . प्रतापीने युद्ध में उग्र अशनिवोषको जितकी : कि भुनाओंका.. अराक्रम दूसरों के लिये असाधारण था एक क्षणमें जीत लिया ॥६॥ उस जयचे (बलदेवने) युद्धमें समस्त सेनाको कंपा देनेवाले अकए
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१२८ ] महावीर चरित्र । : नको और विद्याधरोंको अश्वग्रीवके नयध्वनको बाणों के मारे गिरा दिया ॥६२॥ इधर अश्वग्रीव अकीर्तिकी सारी सेनाको जीतकर आगे हुआ। उसने धनुपको खींचकर उससे आकाशको आच्छादितः करनेवाली वाणोंकी वृष्टि की ॥६॥ उसको अपना सहित । निर्मय अकीर्तिने हद धनुषको विना प्रयत्नके चढ़ाया । जो शुर। होता है उसको युद्धमें किसी तरहका संभ्रम नहीं होता. ॥६॥ अपने प्रभाव-देवी शक्तिसे धनुषको खींचकर वेगसे उसपर बाणको चढ़ाकर इस तरह फुर्तीसे उसको छोड़ा जिससे कि एक ही बाण:: पंक्ति-गुण-कमसे असंख्याताको प्राप्त करने लगा-एक ही बाणके : असंख्यात बाण होने लगे ॥ १५ ॥ निनके आगे-सिरपर अपने नामके अक्षर खुदे हुए हैं और जिनके चारो तरफ पंख लगे हुए हैं. ऐसे बाणोंसे उसने सद्वंशवाली लक्ष्मीलनाके साथ साथ उसकी जंजाकी वंशयष्टिको मी मूलमें से छेद दिया॥६६॥ अश्वग्रीनने क्रोधसे उसकी विजयरूप अद्वितीय लक्ष्मीकी लीलाके उपधान (तकियां ) के समान दक्षिण मुनामें जिसमें चञ्चल कंकपक्ष लगा हुभा है ऐसे . तीक्ष्ण-बाणको छेद दिया ॥६७॥ लम्बे या मुड़े हुए एक ही बाण
से अर्ककीर्तिके छत्र और हाथीपर लगे हुए झण्डको छेदकर दूसरे, .' बाणसे मुकुटके ऊपर लगे हुए प्रकाशमान-चारोतरफ.. जिसकी ::
किरणे निकल रही हैं ऐसे चूड़ामणि रत्नको उपाट डाला ॥६॥ अर्ककीर्तिने बलसे उद्धत हुए अश्वग्रीवके धनुपके अग्रभागको माले से छेद दिया। उस निर्भय युद्ध धुरन्धरने भी उसको-टूटे हुए धनुषको छोड़कर उसपर भालेका प्रहार किया ॥ १९ ॥ वेगसे छोड़े हुए बाणोंकी परम्परासे कवच या पराक्रमके :
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नववा सर्ग। [१२९ साथ अश्वग्रीवको विदीर्ण कर अर्ककीर्ति . बहुत ही शोमने लगा । युद्धमें शत्रुको मार कर-जीतकर कौन नहीं. शोमता है !
७०॥ इसी पृथ्वीपर जिस तरह पूर्वकालमें समस्त प्रमाके पति निभय आदि नीर्थकरने तप करते हुए दूसरों के लिये अनथ्य कामदेवको जीता था उसी तरह युद्ध में निर्मय प्रनापति रानाने दूसरोंसे अनन्य नहीं नीत सकने योग्य कामदेवको जीता ॥७॥ अक्रीनिके पिता-ज्वलननटीने विना ही प्रयासके अपने बाहुओं के पराक्रमके अतिशयसे युद्धमें अश्वग्रीवकी विजयामिछापाके साय चन्द्रशेखरके देषको नष्ट कर दिया ।। ७२ ॥ चित्रांगदादिक सातसौ विद्याधरोंको जीतकर शोभते हुए उस विजयने विरोधमें खड़े हुए मदांध नील रयकों इसतरह देखा जिस तरह सिंह हाथीको देखता है ॥७३कल्पनाय और देवनाथ-इन्द्र के समान अथवा कल्लकालके अंतमें पूर्व और पश्चिमके समुद्र के समान बढ़े हुए पराक्रमके धारक वे दोनों वीर परस्परमें युद्धके लिये तैयार हुए ॥ ७४ ॥ अपनेको अनेकरूप करनेकी क्रियाओंसे विशेष शिक्षाको दिखलाते हुए विद्याधरने पहले अधिक बलवाले भी बलभद्रके विशाल वक्षःस्थलमें गदाका प्रहार किया ॥ ७९ ॥ उसकी गदाके प्रहारसे घाव पाकर क्रोधसे गर्नते हुए वलभद्रने भी उसके शिरपर रखे हुए मुकुटको इस तरह गिराया जैसे मेव विजळीकी तड़तड़ाहटसे पर्वतोंके शिखरोंको गिरा. देता है ।। ७६ ॥ उसके मुकुटसे पड़े हुए मोतियोंसे युद्धभूमि व्याप्त होगई निनसे कुछ क्षणके लिये ऐसा मालूम पड़ा मानों अश्वग्रीवकी लक्ष्मीकी निन्ध नलविन्दुओंसे ही यह भूमि व्याप्त होगई है ॥.७७ ॥ दोनोंका नोर देखकर तथा दोनोंसे .
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१३० ]
महावीर चरित्र ।
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अचित्य बलवीर्य और युद्ध कौशलको देख कर खिन्न होता हुआ .. कोई मनसे ही इस तरहके संदेहके झूला में झूलने लगा कि इन दोनों .. में से कोई जीतेगा भी या नहीं ! ॥ ७८ ॥ जिप तरह हाथीवान के चल वीर्यकी पहचान अधीर-मत्त हाथी पर ही होती है उसी तरह विद्याधरों - सात सौ विद्याधरों को जीतनेवाले बलदेव - विजयका बल और वीर्य भी समान पराक्रमके धारक उप नील रथ पर ही प्रकट .: हुआ || ७२ || जैसे क्रुद्ध सिंह मत्त हस्तीको मृत्युगोचर बनाता है उसी तरह बलभद्र भी अपने सिवाय दुसरेसे असाध्य - अजय नील रथको युद्ध में अपने हलसे शीघ्र ही मृत्युगोचर बनाया ॥ ८० ॥ प्रतिपक्षियोंके द्वारा प्रधान प्रधान विद्याधर मारे गये। यह देखकर धीर चीर अग्रवने बांये हाथमें धनुषको और हृदय में शुग्ताको धारण किया ॥ ८१ ॥ और बलभद्रादिक जितने दूमरे थे उन सबको "छोड़ कर " प्रभून बलका धारक वह त्रिपिष्ट कहां है ? कहाँ है ? : यह है कहाँ ? " इस तरह पूछता हुआ पूर्व जन्मके कोपसे हाथीपर चढ़ा हुआ उसके सामने जा खड़ा हुआ || ८२ ॥ अमानुष -देवतुल्य आकारके - शरीरके धारक त्रिपिष्टको देखकर उसने समझ लिया कि यही लक्ष्मीके योग्य मेरा शत्रु है और कोई नहीं । जो अधिक गुणोंका धारक होता है उसपर किसको पक्षपात नहीं हो जाता ! ॥ ८३ ॥ वाण छोड़ने की विधि जाननेवाले चक्री अन ग्रीवने वक्र -टेढ़ी पड़ नानेवाली उतङ्ग कमानकी डोरीपरसे जिनका अग्रभाग वज्रका है ऐसे अनेक प्रकारके विद्यामयी अनेक अत्यंत दुर्निवार बाणोंको चारोतरफ छोड़ा ॥ ८४ ॥ पुरुषोत्तमने अपने शार्ङ्ग' धनुष परसे छोड़े हुए वाणसे उसके बाणोंको बीचमें ही
१ नारायणके धनुषका नाम शार्ङ्ग है।
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नवा सर्गः। . [१३१ काट दिया । वे काटे हुए वाण पुषमय हो गये। दूसरों का मंग भी सजनोंको गुणके लिये-हितका कारण हो जाता है। अर्थात् कोई यदि सज्जनोंका किसी तरह अपमानादिक करता है तो उससे उनकासंजनों का अपमानादिन होकर कुछ हित ही होनाता है ।। ८५ ॥ चक्री-अशग्रीवने पृथ्वीतल और आकाशमार्गको एक कर देनेवाली अंधकारपूर्ण रात्रि करदी परन्तु त्रिपिष्टके कौस्तुभ रत्नकी सूर्यकी प्रखर किरणोंको भी जीतनेवाली दीप्तिने उसको छेड़ दिया-उस अंधकारको नष्ट कर दिया ।। ८६ ॥ अश्वग्रीवने दृष्टि-नेत्रके विषकी
अग्निकी रेख से दिशाओंको चितकबरा बनानेवाले सपो-नागनाणोंको : चारो तरफ छोड़ा कृष्णने (त्रिपिष्टन) पंखोंकी वायुसे वृक्षों को उखाड़
देनेवाले गरुड़-गरुड़नाणों से उनका निराकरण किया ।१७। शग्रीवन स्थिर और उन्नत शिखरोंवाले पर्वतोंसे जिनपर सिंह गर्जना कर रहे हैं समस्त आकाशको द दिया। वनो आयुधवाले इंद्रक समान श्रीके धारक त्रिपिटने क्रोबसे बनके द्वारा उनको शीघ्र ही मेह डाला ||८|| उस धीर (अग्रीव) ने आकाश और पृथ्वी '' तलको विना ईंधनके जलनेवाले ज्वलन-अग्निवाणोंसे व्याप्त कर दिया। परंतु विष्णुने विद्यामय मेघोंसे नल वर्षाकर शीघ्र ही .. उनको शांत कर दिया ॥८९॥ अश्वग्रीवने हनारों उरकाओं-जा
लाओंसे आकाशके जलाने-प्रकाशित करनेवाली अत्यंत दुर्निवार · शक्तिको छोड़ा। परंतु वह पुरुषोत्तमके गलेमें जिसमें से किरणे
निकल रही हैं ऐसी प्रकाशमान हारकी लड़ी बन गई ॥ ९० ॥ .इस तरह निष्फल हो गये हैं समस्त दिव्य-देवोपनीत शस्त्र जिसके ऐसा वह दुर्वार अश्वग्रीव मिसकी धार अग्निकी ज्वालाओंसे घिरी हुई है ऐसे चकको हायमें लेकर स्मेरास्य होकर-मुखपर कुछ
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१३२] महावीर चरित्र ।
mmomainini हसी लाकर निर्भय हो त्रिपिष्टसे अथवा निर्भय त्रिपिष्टसे ऐसा बोला ॥९१॥ "अब यह चक्र तेरे मनोरथोंको विफल करता है। इससे इन्द्र भी तेरी रक्षा नहीं कर सकता। अतएव या तो मुझको. प्रणाम करनेमें अपनी बुद्धिको लगा । मुझको प्रणाम करनेका विचार कर, नहीं तो परमात्माका ध्यान घर जो परलोकमें काम आवे' ||९२॥ इसका उत्तर केशवने अश्वग्रीवको इस तरह दियाः
"जो डरपोक हैं उनको यह तेरा वचन अवश्य ही. भय . उत्पन्न कर सकता है। परंतु जो उन्नत हैं-निर्मीक हैं उनके लिये यह कुछ भी नहीं है । जंगली हाथियोंकी चिंघाड़ हिरणों के बच्चोंको. अवश्य घबड़ा दे सकती है। पर क्या सिंहको भी त्रास दे सक्ती है ? ऐसा कौन पराक्रमी होगा जो तेरे इस चक्रको कुंभारके चोक समान न माने शुख्खा वचनमें नहीं रहती क्रियामें रहती है" ॥९॥ इस तरहके वचन सुनार अश्वग्रीव शीघ्र ही चक्रको छोड़ा। जिसको कि राजा लोग ऐमा देख रहे थे या समझ रहे थे कि यह: अवश्य ही भय देनेवाला है। जिसमेंसे वारवार किरणें निकल रही: हैं ऐसा वह चक्र मानो . यह कहता हुमा-पूछता हुआ ही 'कि: क्या आज्ञा है ? अश्वग्रीवके पाससे त्रिपिष्टकी दक्षिण मुना पर आकर प्राप्त हुआ ॥९॥ प्रसिद्ध बड़े बड़े शत्रुओंका शिरच्छेद कर उनके खूनसे जिसका शरीर लाल पड . गया है, हे विद्वन निसके प्रतापसे तु समग्र पृथ्वीके ऊपर पूर्ण काम-सफल मनोरथ हो रहा था-जो तेरी इच्छा होती थी वह सफल होती थी वहीं
यह तेरा चक्र पूर्वजन्मके पुण्यसे मेरे हस्तगत हुआ है । इसका फल । क्या हैं सो जानकर-ध्यान में लेकर या तो सामंतोंके साथ-साथ मेरे
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... नववा सर्ग। [१३३ चरणयुगलकी. पूजा करो नहीं तो धैर्यसे इसके चक्रके आगे हाजिर होय ॥९५|| अपने हाथपर रक्खे. हुए, बड़ी बड़ी ज्वालाओंसे जिसके .आरे चमक रहे. हैं ऐसे निर्धूम अग्निके समान मालूम पड़नेवाले चक्रको देखकर त्रिपिष्ट अश्वग्रीवसे फिर बोला-'हे अश्वग्रीव ! मेरे पैरोंपर शीघ्र ही पड़कर मुनिपुंगवकी शिष्यता स्वीकार करोमुनिके पास दीक्षा लेलो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा। नहींतो मुझे तुम्हारा जीवन दीखता नहीं हैं-इसके विनातुम जीवित नहीं रह सकते हो
१६ समुन्द्रसमान-गम्भीर अश्वग्रीव विष्णुकी तरफ हँसकर बोलामेरा बड़ा भारी आलय (आयुधशाला) आयुधोंसे भरा हुआ है। उसमें इतने हथियार भरे हुए हैं कि जिनके वीचमें एक संधिमागकी भी जगह नहीं है। पर इस अलातचक्र-चिनगारियों के समूह समान चक्रसे तेरी मति गर्विष्ट होगई है। अथवा ठीक ही है-जो नीच 'मनुष्य होते हैं. वे क्या नीचको पाकर हर्पित नहीं होते हैं।' जरूर होते हैं ।।९७॥ आगे खड़ा हो, बहुत वकनेसे क्या और हे मूढ़! . आन इस युद्ध में तू परस्त्रीसे सुरत करनेकी अमित्रपाका जो कुछ फल होता है उसको भोगकर नियमसे मृत्युके मुखमें प्राप्त हो। ऐसे कोई-भी मनुष्य कि जिनका चित्त परस्त्रीके संगमसे होने वाले सुखमें अत्यंत आशक्त रहता है समस्त शत्रुओंको वशमें करनेवाले पृथ्वीपालके जीवित :. रहते हुएं चिरकालतक जीवित रह सकते हैं ॥९८ ॥ एक जरासे लेके समान अथवा खलके टुकड़ेके समान इस चक्रको जिसको कि मैंने भोग कर छोड़ दिया है जो मेरी झूठनके . ..अथवा दूसरा अर्थ यह भी है कि जो नीच नहीं हैं वे . मनुष्य क्या नीचको-पाकर हर्षित होते हैं। कमी नहीं होते।
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१३४ ] महावीर चरित्र। समान है अथवा जो मेरी दोनों पैरोंकी धूलके बराबर है अत्यंत प्रेमसे पाकर अतिशय मूढ़ तू गर्विष्ठ हो गभा है ! अथवा ठीक ही , है-जगत्में क्षुद्र प्राणियोंको केवल मुसीके पा जानेसे ही अत्यंत संतोष होनाता है। यदि हृदयमें कुछ नियमसे शक्ति है तो तू इसको अभी छोड़ ॥१९॥ चक्रको पाकर वह विष्णु इस तरह बोला"यदि तू अपने हृदयम * हुए खाटे हर्पको या वृथाके अमिमा नको छोड़ दे, और मेरे पैरों में आकर नमस्कार करे तो मैं तेरा:: पहलेकासा ही वैभव कर देता हूं!" त्रिपिटके इतना कहते ही अच-: श्रीवने उसकी-त्रिपिष्टकी बहुत कुछ निर्भत्सना की-उसको विकास इस पर क्रोधसे उस त्रिपिष्ठने इसका शिर ग्रहण करो इसलिये तत्क्षण फेंक कर चक्र चलाया ॥ १०॥ उसी समय विष्णुकी इस आज्ञाको पाकर चक्रने उसको पूरा कर अश्वग्रीवकी गर्दन परसे.. जिसमेंसे किरणे निकल रही हैं ऐसे मुकुटसे युक्त शिरको युद्धकी : रंगभूमिमें शीघ्र ही डाल दिया ॥ १०१ ।। इस प्रकार अपने शत्रुकों : : मारकर त्रिपिष्ट धारसे निकलती हुई अग्निकी ज्वालासे पल्लवित.' भूषित आगे रहनेवाले चक्रमे वैसा शोमाको प्राप्त नहीं हुभा जैसा कि वैरको सूचित करनेवाली या कहनेवाली-बतानेवाली संपत्तिको राजाओंके साथ साथ देखते हुए अभयकी वाचनाके लिये अंजलि.. जोड़कर-खड़े हुए विद्याधरोंके चक्रसमूहसे शोभाको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अशग कविकृत वर्द्धमान चरित्रमें 'त्रिपिष्ट विजय,...
नामक नवां सर्ग समाप्त हुआ।
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दशवा सर्ग
[१३५ दशका सर्ग। ...समस्त राजाओं और विद्याधरोंके साथ साथ विनय-बलभद्रन
:: केशव-त्रिपिष्टका अभिषेक किया। अभिषिक्त होकर त्रिपिष्टने पहले जिनेन्द्रदेवका पूजन कर यथोक्त-आगममें कहे अनु"सार चक्रकी मी पूजन की । अथवा पहले जिनन्दकी पूजन की। उसके बाद विनयके द्वारा अभिषिक्त हुभा और बाद में उसने चक्रकी पूजन की. ॥१॥ प्रणामसे संतुष्ट हुए गुरुओंने प्रसन्नतासे निसको आशीर्वाद दिया है, जिसके आगे आगे चक्रका मंगल उपस्थित है या जिसके आगे चक्रवाक पक्षीका शकुन हुआ है ऐसे नारायणने राजाओंका योग्य सत्कार कर दशों दिशाओंके जीतनकी इच्छासे "प्रयाण किया ॥२॥ महेन्द्र तुल्य त्रिपिष्ट पहले अपने तेनस महेन्द्र• की दिशाको वश कर उसके बाद मागध देवको नम्रकर उसके
दिये हुए बहुमूल्य विचित्र भूषणोंसे शोमाको प्राप्त हुभा ॥३॥ - इसके बाद वरतनुको और उसके बाद क्रमसे प्रभासदेवको नम्रकर
अच्युतने दूसरे द्वीपोंके स्वामियोंको नो भेटको ले लेकर आये थे • उनको अपने तेजमें ही ठहराया । अर्थात्. अपने तेजसे ही उन सवको वशमें कर लिया । इसतरह कुछ परिमित दिनों में ही
भरतक्षेत्रके पूरे आधे : मागको. उसने कर देनेवाला कर लिया-बना .. लिया वंह आधे मरतक्षेत्रका राज्यशासन करने लगा। इसके बाद नगर निवासियोंने मिलकर निप्सकी पूना-सत्कार किया है ऐसे त्रिपिष्टने जिसके उपर ध्वजायें उड़ रही हैं. ऐसे पोदनपुरमें इच्छानुसार प्रवेश किया.॥११॥ जिसके नायकका अंत हो चुका है ऐसी विन
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१३६ ]
महावीर चरित्र ।
यार्द्धकी अभीष्ट उत्तर श्रेणीको नारायणके प्रसादसे पाकर रंगनूपुरका स्वामी ज्वलननटी कृतार्थ - कृतकृत्य हो गया । पुरुषोत्तमके आश्रित रहनेवाला कौन वृद्धिको नहीं प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ "तुम विजयाचे वासियोंके ये स्वामी हैं | आदरसे इनका ही हुकुम उठाओ - भक्तिसे इनकी आज्ञानुसार लो।" यह कहकर स्वामीने उचलनमटीके साथ साथ विद्याधरोंको क्रमले सम्मानित कर विदा किया ॥ ७ ॥ बलभद्र के साथ साथ सम्राट् त्रिपिष्ट प्रजापतिले यथायोग्य अभिवादन आदि करते हुए विदा लेनेशले ज्वलनजटी के चरणोंपर पड़े। ठीक ही है-क्ष्मी सत्रुपको विनय दिया करती है || ८ | प्रणाम कर नेके कारण नमे हुए मुकुटके अग्र मागसे दोनों चरण कमलोंको पीडित करनेवाले उस अर्क कीर्तिको हर्पसे दोनों पान - विनय और त्रिपिष्टने एक साथ आलिंगन कर अपने तेजसे विदा किया ॥९॥ विद्याधरोंके स्वामी उम ज्वलनजटीने वायुवेगा रानीके साथ २ पुत्रीको सतियोंके उत्कृष्ट मार्गकी शिक्षा देकर वारवार उसके नेत्रोंको जिनसे आंसू वह रहे थे अपने हाथसे पौंछकर प्रयाण. किया ॥ १० ॥
सोलह हजार नरेशों और किंकर की तरह रहनेवाले देवताओंसे युंक्त त्रिपिष्ठ नारायण कमनीय मूर्तिके धारण करनेवाली आठ हजार रानियोंके साथ साथ हमेशह रहने लगा ॥ ११ ॥ अभिलापाओके भी बाहर विभूतिके धारण करनेवाले अपने बन्धुवर्गके पति अपने मनके अनुकूल वर्ताव करनेवाले उस पुत्र के इस तरहके साम्राज्यको देखकर अत्यंत प्रसन्न हुआ ॥ १२ ॥ वह नारायण राजाओंके और विधाघरोंके मुकुटोंपर अपने दोनों पैरोंके नखोंकी
साथ. प्रमा
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दसवाँ सर्ग। प्रभाकी पंक्तिको तथा दिशाओं में चन्द्र किरण समान निर्मल अपनी कीर्तिको रेखकर: पृथ्वीका शासन करने लगा ॥ १३ ॥ करुणा बुद्धिके धारक केशवने मंत्रीकी शिक्षासें शत्रुओं के बालकोंको नो कि अपने पैरोंमें आकर पड़गये थे देखकर उनपर विशेष कृपा की। जो सजन होते हैं वे नम्र पुरुषोंपर दयालु होते ही हैं ॥ १४ ॥ उसके पुण्यसे वह पृथ्वी मी विना जोते ही पक जानवाले धान्योंसे सदा भरी रहती थी। प्राणियों की अकाल मृत्यु नहीं होती थी। मनोरथोंकी कोई असिद्धि नहीं हुई-सबके मनोरथ सिद्ध होते थे ॥ १५ ॥ उसकी इच्छाका अनुवर्तन करती हुई वायु हमेशहं सत्र जगह प्राणियोंको सुख देनेके लिये बहती थी। दिन दिन-समय समयपर मेवं पृथ्वीको धूलिको साफ करते हुए-धोते हुए मुगंधित जल वरसाते थे ॥ १६ ॥ अपने अपने वृक्षों और बल्लियोंको उत्पत्ति के साथ २ परस्परमें विरुद्ध रहते हुए भी समस्त ऋतुगण उसको निरंतर प्राप्त होने लगे। चक्रवर्तीकी प्रमुना आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है ॥ १७॥
जिस समय यह समीचीन राजा पृथ्वीका रक्षण करता था उस समय कठिनता केवल यौवनकी बढ़ी हुई श्रीको धारण करनेचाली मृगनयनियोंके एकदम गोल और अत्युन्नत कुत्रोंमें ही निवास करती; ॥ १८ ॥ जिसके भीतरकी मलिनता विल्कुल भी नहीं देखनेमें भाती ऐसी अस्थिरता-चंचलता केवल स्त्रियोंके बिल्कुल कानंतक पहुँचे हुए विस्तीर्णता युक्त कांतिके धारण करनेवाले धवल नेत्रों में ही रहती थी॥ १९ ॥ विचित्र रूपता और निष्कारण निरर्थक गर्जना निरंतर भीतर भीगे हुए और वर्षनेवाले तथा रनो
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१३८ ]
महावीर चरित्र |
विकार - धूलिके, विकार उड़ने आदिके प्रसारको दूर करनेवाले उत्तम मेघों में ही पाई जाती थी या उत्पन्न होती थी ॥ २० ॥ पृथ्वीपर जिनकी स्थिति अलंघनीय है जो प्रशस्त वंशवाले हैं तथा उन्नतता धारण करनेवाले हैं ऐसे भूधरोंमें ही सदा विपक्षता रहती थी और उन्ही में दुर्भागंगति निश्चित थी ॥ २१ ॥ वहाँपर धनिक और जलाशय या समुद्र समान थे। दोनोंही-अनूनसत्व ( बहुतसे जंतुओंको धारण करनेवाले; दूसरे पक्षमें बड़े भारी तत्त्व गुणको धारण करने वाले ), बहुरत्नशाली - बहुतसे रत्नोंको धारण करनेवाले, महाशय ( खूत्र गहरे; दूसरे पक्षमें उत्कृष्ट विचार वाले ), धीरता ( स्थिरता दूसरे पक्ष में आपत्तियोंसे चलायमान न होना से परिष्कृत, जिनमें बड़ी मुशिसे प्रवेश किया जा सके ऐसे थे । परन्तु जलाशयों या समुद्रोंने प्रसिद्ध दुर्गाहतासे धनिकों की स्थिति धारण कर रक्खी थी || २२ || कलाघरों में से एक चंद्रमा ही ऐसा था जिसमें प्रदोष ( रात्रिका पहला पहर; दूसरे पक्षमें प्रकृट दोप ) कर सम्बंध पाया जाता था । पृथ्वीपर जितने लक्ष्मी निवासस्थान थे उनमेंसे एक महोत्पल ( महान् कमल) ही ऐसा था जिसमें जल स्थिति (जलमें रहना; दूसरे पक्षमें जड़ता - मूर्खता की स्थिति-सम्बंधक्योंकि श्लेशमें ल और ड में भेद नहीं माना जाता ) तथा मित्रत्रल ( सूर्यके निमित्तसे दूसरे पक्षमें सहायकों का बल) से विजृंभण (खिलना दूसरे पक्षमें बढ़ना) पाया जाता था ॥ २३ ॥ चारु- सुंदर फलोंमें सुविप्रिय (उत्पत्ति में प्रिय; दूसरे पक्षमें अच्छी तरह प्रतिकूल)
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१.. पक्षरहितपना | कवि समय के अनुसार पर्वतोंका इंद्रके द्वारा : . पक्ष कांटे जानेका वर्णन किया जाता है ।
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दसवां सर्ग | [ १३९ कोई था तो पादप-वृक्ष ही था । सुमनोनुवर्तियोंमें (पुष्पोंका अनुवर्तन करनेवालों में दूसरे पक्षमें विद्वानोंके अनुवर्तन करनेवालोंमें ) कोई मैधुप्रिय ( जिसको पुष्परस पराग-प्रिय हो ऐसा; दूसरे पक्ष में मद्य जिसको प्रिय हो ऐसा ) था तो एक भ्रमर ही था । भोगियों में ( भोगेवालों में ) स्फुरायमान द्विह्निना ( दो जीमों) को धारण करनेवाला कोई विद्वानोंको प्राप्त हुआ तो अहि-सर्प ही प्राप्त हुआ ॥ २४ ॥ गुणैवानों में केवल हार ही ऐसा था जो सुवृत्तमुक्तात्मकता ( बिलकुल गोल मोतियोंको; दूसरे पक्षमें सदाचारसे शून्यता ) को निरन्तर धारण करता था । सुजातरूपों ( मुनियों; दूसरे पक्षमें सोनेकी चीजों ) में मणिमय मेखला गुण ही ऐसा था जो सदा दूसरोंकी स्त्रियोंको ग्रहण करता था || २५ || कामुक - कामियोंमें एक: कोक पक्षी ही ऐसा था जो रात्रिके समय प्रियाके वियोगकी यथासे कृश हो जाता था । वहां पर और कोई दुर्बल न था यदि कोई था तो नितंविनियका कुच भारसे पीडित मध्यभाग था जो कि दुर्बलता के मारे नम गया था ॥ २६ ॥ इस प्रकार प्रजामें प्रतिदिन उत्कृष्ट स्थितिको विस्तृत करता हुआ फैलाता हुआ बड़े संभ्रमसे या शत्रुओंके संभ्रम से रहित अच्युत रत्नाकरके जलकी जिसके मेखला है. ऐसी पृथ्वी की एक नगरीकी तरह रक्षा करता हुआ ||२७||
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'इस तरह कुछ दिन बीत जाने पर स्वयंप्रमाने क्रम क्रमसे, दो पुत्र और एक कन्याका प्रसव किया। मानों त्रिपिटको प्रसन्न
१- भोग शब्द के दो अर्थ हैं - एक विलास दूसरा सांपका फण । २ - गुण शब्दकें भी दो अर्थ है-एक औदार्य प्रताप आदि गुण; 'दूसरा सुत-डोरा ।
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१४० ]
महावीर चरित्र |
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करनेके लिये उसकी वलमा चरित्रीने भविष्यत लक्ष्मी या भाग्यलक्ष्मी अथवा प्रतापलक्ष्मी के साथ साथ उत्तम कोष और 'दंडको उत्पन्न किया ||२८|| लक्ष्मीपर विनय करनेवाले बड़े पुत्रका - नाम परंतप था और यश ही है धन जिसका ऐसे छोटे भाईका नाम विजय था | सुंदर मृगनयनी लड़कीका नाम ज्योतिप्रमाथा ॥ २९॥ दोनों पुत्र हर तरफसे शरीरकी विशेषता के साथ साथ पिनाके गुणोंका अतिक्रम करने लगे । और वह कन्या कांतिसे अपनी माको जीतकर केवल शीलकी अपेक्षा समान रही ||३०|| वे दोनों ही पुत्र राजविद्याओं में- नीति शाखादिकमें, हाथीके बढ़ने चलाने - दिकमें, घोड़े की सवारीमें, हरएक तरहके अनशनके पलने आदि-: - कमें निरन्तर कुशलताको धारण करने लगे । कन्याने भी समस्तं -कलाओं में कुशता प्राप्त की ॥ ३१ ॥
एक दिन प्रजापतिने दूतके मुखसे सुना कि विद्याधरीकास्वामी ज्वलनटी तपपर प्रतिष्ठित हो गया- उसने सुनिदीक्षाली । वह उसी समय अपनी बुद्धिमें विषयोंके प्रति निःस्पृहा घा रण कर यह विचार करने लगा ||३२|| "वह रथनूपुरका स्वामी - ही धन्य हैं, और उसकी ही बुद्धि - हितानुबंधिनी - हित में लगानेवाली है। जो कि इस तृष्णामय वज्र के पिंजरे मेंसे, जिसमें कि
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- दुःखपूर्वक मी नहीं निकला जा सकता, सुखपूर्वक निकल गया ॥३३॥ समस्त पदार्थ क्या क्षणभंगुर नहीं हैं ? जगत् में क्या सुखका एक लेशमात्र भी है ? बड़े खेदकी बात है कि विवेकरहित यह नीव फिर भी अपने हितमें प्रवृत्त नहीं होता, किन्तु नहीं करने - योग्य कामों में ही प्रवृत्ति करता है ||३४|| प्रतिक्षण जैसे जैसे
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AAVALUR
.. .. . दसवा सग! । १४१ आयु गलती-वीतती है वैसे तैसे और मो श्वास लेना-जीना ही चाहता है। आत्माको विषयोंने अपने वशमें करके अशक कर डाला है तो भी इसकी उनसे तृप्ति नहीं होती ॥३५॥ निस तरह समंद्र हजारों नदियोंसे, अग्नि ढेरों ईधनसे चिरकाल तक मी संतुष्ट नहीं होती। उसी तरह कामसे विह्वल हुआ यह पुरुष कमी भीः विषयमोगोंसे संतुष्ट-तृप्त नहीं होता ॥३६॥ ये मेरे प्राण समान सहोदर माई है, यह इष्ट पुत्र है, यह प्रिय मित्र है, यह भार्या है, यह धन है, इस तरहकी व्यर्थकी चिंता करता हुआ यह विचार रहित जीव अहो निरर्थक दुःखी होता है ॥३७॥ यह . जीव अपने पूर्व जन्मके किये हुए कमोके एक शुभाशुभ फलको ही नियमसे.भोगना है.। अतएव देहधारियों-संसारियोंका अपनेस मिन्न न तो कोई स्वजन है और न कोई परजन है ॥३८॥ इन्द्रियोंके विषय इस प्राप्त हुए पुरुषको कालके वशसे क्या स्वभावसे ही नहीं छोड़ देते हैं. । अर्थात् य विषय तो ३ काल पाकर पुरुषको स्वमा
से ही छोड़ देते हैं परन्तु यह आश्चर्य है कि वृद्धावस्थासे बिल्कुल दुःखी हुआ-मी तथा व विषय इसको छोड़ दें तो भी यह 'प्राणी स्वयं उनको नहीं छोड़ता है ॥ ३९ ॥. सत्पुरुष विपयोंसे उत्पन्न हुए : सुखकों प्रारम्भमें अशक्त-अपरिपूर्ण तथा मधुर और. मनोहर बताते हैं । किंतु परिपाक समयमें अत्यंत दुःखका कारण बताते हैं । इसका सेवन ठीक ऐसा है जैसा :कि अच्छी तरह पके हुए. इन्द्रायणके फलका खाना क्योंकि .. वह खानेमें तो अच्छा लगता है पर काम नहरका करता है ॥४॥ यद्यपि संसार-समुद्र अत्यंत दुस्तर है-सहन ही उसको कोई तर
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१४२. ]
महावीर चरित्र |
शांति की शाख
नहीं सकता; तो भी जवकि उससे पार करदेने |ल| जिनशासनं । जहाज मौजूद है तब संसार में ऐसा कौन सचेतन - समझदार होगा जो कि विषयोंकी इच्छासे वृथा ही दुःखी होता हुआ घरमें ही रहनेके लिये उत्साह करे ॥ ४१ ॥ जिसके रागका प्रसार नष्ट हो गया है ऐसे जीवको जो आत्मामें ही स्थित सुख मिलता है क्या उसका एक अंश भी जिसका परिपाक दुःख रूप है ऐसी मोहरूप अग्निके निमित्तसे जिनका हृदय संप्त हो रहा है उनको मिल सकता है ? ॥ ४२ ॥ तात्विक यथार्थ निनोक धर्मकी अवहेलना करके जो विषयोंका सेवन करना चाहता है वह मूर्ख अपने जीवनकी तृष्णासे हाथमें क्खे हुए अमृतको छोड़ कर विष पीता है ॥ ४३ ॥ जिस तरह वृद्धावस्थाके पंजे में पड़ा हुआ -नवीन यौवन फिर कभी भी लौट कर नहीं आता है, उसी तरह निश्चित-नियमसे आनेवाली मृत्युके निमित्तसे यह आयु और आरोग्य प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं ॥ ४४ ॥ संशर में फिर-बार चार जन्म लेनेके फ्रेशको दूर करनेमें समर्थ अत्यंत दुर्लभ सम्पत्वको पाकर मेरे समान और कौन दूसरा ऐसा प्रमत्तबुद्धि होगा जो कि. - तपस्या के विना अपने जन्मको निरर्थक गरमावे ||४५ || जब तक यह बलवती जरा- वृद्धावस्था इन्द्रियोंके बलको नष्ट नहीं करती है तब तक हंसके नीरक्षीर न्यायकी तरह मैं यथोक्त शास्त्रमें कही हुई विधिके अनुसार ली हुई तपस्या के द्वारा शरीरसे और आयुसे सब निष्कर्ष निकाल लेता हूं" ॥ ४६ ॥ उस उदार - बुद्धि प्रजापतिने 'चिरकाल तक ऐसा विचार करके उसी समय हर्पसे इस समाचारको सुनानेकी इच्छासे दोनों पुत्रोंको बुलाया । बलभद्र और केशवने
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दसवां सर्ग ।
[ १४३ ..आकर प्रजापतिके चरणों को नमस्कार किया । इस पर प्रजापति दोनों से बोला ॥ ४७ ॥ कि- " आप विद्वानोंके अग्रेसर हो । क्या आपको यह संसारकी परिस्थिति मालूम नहीं है कि यह प्रातःकालके इन्द्र धनुष या मेत्र अथवा विमलीकी श्री शोभाकी तरह उसी क्षण में विलीन हो जानेवाली है ॥ ४८ ॥ जितने समागाम हैं, वे सब छूट"नेही वाले हैं, जितनी विभूतियां हैं वे सत्र विपत्तिका निमित्त हैं, शरीर बिल्कुल रोग रूप है, संसारका सुख बिल्कुल दुःख मूलक है, यौवन जन्म शीघ्र ही मृत्युके निमित्त नष्ट हो जाते हैं ॥ ४९ ॥ यह पुरुष आत्म के अहिरकर काम करने में स्वभाव से ही कुशल होता है, और अपने हिनमें स्वभावसे ही जड़ होता है। यदि आत्माकी ये दोनों बातें उल्टी हो जाय अर्थात् जीव स्वभावसे ही अपने निमें तो कुशल हो और अनिमें जड़ हो तो कौन ऐसे होंगे जो उसी समय मुक्तिको प्राप्त न करलें ॥ १० ॥ अनादिकालसे अनेक संख्यावालों अथवा जिनकी संख्या नहीं बताई जा सकती ऐसी कुगतियों में भ्रमण करते करते चिरकालसे बहुत दिनमें आकर इस जीवने किसी तरह इस दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकर प्रधान इक्ष्वाकुवंशको भी पालिया है ॥। ११ ॥ 我 समस्त पंचेन्द्रियोंकी शक्तिंसे युक्त हूं, कुलमें अग्रणी हूं, उसमें कुशाग्र बुद्धि हूँ, हित और भहितका जाननेवाला हूं, समुद्रवसना वसुंधराका स्वामी मी हो गया हूं ।। ५२ ।। तुम दो मेरे पुत्र हो गये । जोकि किसीके मी वश न होनेवाले हो । और सभी महात्मा हलधरों - बलमद्रों तथा चक्रधरों - नारायणोंमें सबसे पहले हो । संसार में पुण्यशालियोंके जन्मका फल इसके सिवाय और क्या हो सकता है ॥ ५३ ॥
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Nonnunuwwwwnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn
१४४ ] .... महावीर चरित्र। ........ आदीश्वर भगवान्की संतानके संतान में होनेवाले पुत्रके मुखकमलके देखनेतक गृहस्थाश्रममें निवास करनेवाले. प्राचीनों-वनोंकी नो कुलकी मर्यादा प्रसिद्ध है उसको अर्थात् पुत्र होनेतक घरमें रहनेकी. जो हमारे कुलमें रीति चली आती है उसको मैंने विफल कर दिया-तोड़ दिया ।। ५४ ॥ अतएव क्रमानुसार अनं भी मैं दिग-- म्बरोंकी पवित्र दीक्षाका अनुगमन करता हूं। तुम्हारा स्नेह दुस्त्यन, है-कठिनतासे भी नहीं छूट सकता है तो भी मोक्षमुखकी स्पृहावांछासे मैं उसको छोड़ता हूं॥६५॥ वह पुत्रवत्सल प्रजापति इस तरह कहकर दोनों पुत्रोंके मुकुटोंकी किरणरूप रस्सीसे उसके पैर बंधे हुए थे तो भी तपोवनको चल गया । जो मध्य प्राणी हैं, जिनकी मोक्ष होनेवाली है उनको कोई भी निबंधन-रोकनेवाला : • नहीं होता ॥ १६ ॥ नितेन्द्रियोंके अधीश्वर यथार्थनामा पिहिताः
श्रव (कर्मोके आश्रवको रोकनेवाले ) मुनिके चरणोंको नमस्कार करके उसने-प्रजापतिने शांत मनवाले सातसौ राजाओं के साथ मुनियोंकी उन्कृष्ट धुरा-अग्रपदको धारण किया ॥ १७ ॥ जैसा. आगंममें कहा है उसी मार्गके अनुसार अत्यंत कठिन उत्कृष्ट
और अनुपम तपको करके प्रजापतिने आगे कौके पाशके बंध. नको दूर कर उपद्रव रहित श्री-केवलज्ञानादि विभूतिसे युक्त : सिद्धि-मुक्तिपदको प्राप्त किया ॥१८॥
कुछ समय बीत जानेपर एक दिन माधवने देखा कि पुत्रीको यौवनकी सम्पत्तिने अभिषिक्त कर स्क्खा है । इससे. वह बार बार इस तरहकी चिंता करता हुआ खिन्न हुआ कि इसकी दीप्तिके सदृश-थोग्य अतिश्रेष्ठ वर कौन हो सकता है।
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दुसयाँ सर्ग ।
[ १४५ ॥ ५९ ॥ मंत्र स्वयं अपनी बुद्धिसे कुछ निश्चय न कर सका तब नीति में प्रवीण मंत्रियोंके साथ २ एकान्त में बलभद्रसे प्रणाम 'करके इस तरह बोला ॥ ६० ॥ " आप पिताके सामने भी हमारे कुलके धुरंधर भग्रनेता थे पर अब उनके पीछे तो विशेषतासे हैं । जिस वनमें सूर्य प्रकाश करता है उसीमें चंद्रमा मी लोगों को समस्त पदार्थों का प्रकाश करता है ।। ६१ । इमलिये हे आर्य ! 'तत्वतः अच्छी तरह विचार करके कि राजाओं में या विद्याधरोंमें "कुढ़की अपेक्षा और रूपकी अपेक्षा तथा कला गुण आदिकी अपेक्षा आपकी पुत्रीके योग्य पति कौन है उसको मुझे बताइये । " ॥ ६२ ॥ नारायणके इस तरहके वचन कहने पर दांतोंकी कुंद समान सफेद किरणोंसे प्रसिद्ध बने हुए हारकी किरणोंसे ग्रीवाको ढकनेवाला बलभद्र इसतरह वचन बोला ॥ ६३ ॥ " जो छोटा - हैं वह भी यदि लक्ष्मीसे अधिक है तो वह बड़ा ही है। आप सरीखे महात्मा इम विषयमें वय- उम्रकी समीक्षा नहीं करते । अतएव तुम हमारे गति-निधि हो, नेत्र हो, कुलके दीपक हो ॥६४॥ जिस तरह आकाश में चंद्रकला के समान भाकार रखनेवाला कोई भी नक्षत्र बिल्कुल देखने में नहीं आता उसी तरह इस भारत में भी रूपकी अपेक्षा तुमारी पुत्रीके समान कोई क्षत्रिय भी देखने में नहीं आता ॥ ६५ ॥ अपनी बुद्धिसे कुछ काल तक अच्छी तरह विचार करके यत्नसे राजाओं में से किसीको यदि उस निर्दोष कन्याको हम दे. मी दें तो मी उससे इसका निश्चय नहीं होता कि क्या उन दोनोंमें समान अनुराग होगा ! ॥ ६६ ॥ सौभाग्यका निमित्त न केवल रूप है, न कला है, न यौवन है और न आकार है। स्त्रियोंको
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१४६. J. . . महावीर चरित्र । - पतियों में प्रेमके कारण नो उचित दुमरें दूसरे गुण बताये हैं अर्थात् जिनसे स्त्रियों को पतियों में प्रेम होता वे गुण इन सबसे मिन्न ही . हैं ।। ६७ । इसलिये स्वयं कन्या ही. स्वयंवर में अपने अनुरूप .. वरको अपनी बुद्धिसे वर ले। यह विधि चिरकालसे बहुत कुछ. . प्रवृत्त हो रही है। उनकी की हुई यह विधि सफल नाको प्राश, होओ" ॥ ६८ ॥ इस प्रकार कहकर और उदार बुद्धियों-मंत्रि-. योंसे दुसरे कामके विषयमें विचार करके बलभद्र चुर हो गये। तब नारायणने मंत्रियों के साथ साथ "ऐसा ही ठीक है । इस तरह. बलभद्रके कथनको स्वीकार कर अपने दूतों द्वारा दिशाओं में स्वयंबरकी घोषणा करा दी ।। ६९ ॥
अर्ककार्ति स्वयंवरकी बात सुनकर सहसा-शीघ्र ही पुत्र । अमिततेनको और मनोराङ्गी पुत्री ती सुताराको लेकर विद्याधरोंके . साथ साथ पोदनपुरको आया !!७०il चारो तरफके प्रवेश देशोंमें . अर्थात् नगरके बाहर किंतु पाम ही च.रोतरफ रानाओंके सिविरोंसे. . तथा स्वयंवरोत्सदकी उड़नेवाली ध्वनाओंसे परिष्कृत नगरको पाकर नगरमें पहुंचकर जहां भीड़ लगी हुई है ऐसे राजदरबार में पहुंचा... ॥७१॥ लताओंका जो तोरण बना हुआ था उसके बाहरसे उत्सुकताके । साथ उन्नत या उदयको प्राप्त बलभद्र और नारायणको देखकर उन : दोनों ही साम्राज्य कर्त्ताओंके चरणयुगलको पहले नमस्कार किया। उन दोनोंने भी उसका आलिंगन कर सत्कार किया ।। ७२ ।। अपने . पैरों में नमस्कार करते हुई अर्ककीर्तिके उस पुत्र अमिततेनको देखकर तथा मनोहरताकी सीमा अपनी कांतिसे नाग कन्याको जीतने.' वाली पुत्रीको देखकर उन दोनोंके नेत्र . आश्चर्यसे निश्चंत होगये,
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दशवा सर्ग। [१४७ ॥७३॥. कुलकी बना श्री विनयने विनयके साथ अपने मामाकी वंदना की। वह भी तत्क्षण उनको देखकर हपसे व्याकुल हो उठा। अपने बंधुओं का दर्शन होना इससे अधिक और क्या सुख हो सकता है ।। ७४ । इसके बाद बलभद्र और नारायण जिसके आगे
आगे हो लिये हैं ऐसे अक्रकीर्तिने उत्सबसे 6 रानमहलमें प्रवेश किया। वहां पर पुत्रवधू के साथ साथ स्वयंप्रभा उके पैरों में पड़ी। अकीर्तिने उनका यथोचित आशीर्वाद वचनोंसे स्कार किया ॥ ७॥ साथ ही सुतारा और अमिततेन स्वयंप्रभाके पैरों पड़े। -उसने (स्वयंप्रमाने) उनको देख कर उसी मा विना सायंवरके मनसें ही अपने पुत्र और पुत्रीके लिये नियुक्त किया ॥ ७६ ॥ चक्रवतीकी पुत्री अमिततेनपर आशक्त होगई। यकी अपेक्षा वह नियमसे उसकी स्त्री होगई। यह काम उसने मानों अपनो माताके संकल्पके वश होकर ही किया। मन नियमस आने पहले बल्लभको नान लेता है ।। ७७|| सुताराने श्री विन के मन को हर लिय । श्री विनयने कुटिल कटाक्षपातोंको बार बार देखकर उसके मनको हरलिया। मांतरका स्नेहरस ऐमा ही होता है ।। ७८ ॥
शुद्ध दिनमें अति विशुद्ध लक्षणोंवाली सखीनों के द्वारा जिसका सम्पूर्ण मङ्गलाचार किया गया है ऐसी ज्योतप्रभा राजाओंके मनोरथोंको व्यर्थ. करने के लिये स्वयम्बरके स्थान-बंडपमें आकर प्राप्त हुई ।। ७९ ॥ विधिपूर्वक सखीके द्वारा क्रपसे बताये गये "समस्त राजपुत्रोंको छोड़ कर ज्योतिप्रमाने लजासे मुग्व फेर कर चिरकाल के लिये अमिनतनके गलेमें माला पहरा दी ।। ८० ॥ इपके नादःसुंतारांने स्वयंवर में दूसरे सब राजाओंको छोड़ कर श्री विग
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१४८ ] महावीर चरित्र। यके मनोहर या उसकी तरफ झुके हुए कंठको पुप्य. मालासे गाढ़तासे बांध लिया। मानों अलक्षित-भदृष्ट मनको कामदेवके पाशसे.: बांध लिया ।। ८१ ॥ इसके बाद पुत्र और पुत्रियोंकी यथोचित विवाह': करके विद्याधरों का स्वामी परस्परकी बंधुताकी श्रृंखलाके बंध जानेसे संतुष्ट हुआ। बहुत दिन के बाद बहिन-स्वयंप्रभा बलभद्र और नारायणने उसको. किसी तरह विदा किया। तब वह अपने नगरको गया ।। ८२ ॥ अपनेको इट और मनोज्ञ विषयों के द्वारा जिपकी बुद्धि आकृष्ट हो रही है। अर्थात निसका मन विषयों में तल्लीन हो रहा है ऐमा तृपिष्ठ. पूर्वोक्त प्रकारसे साम्राज्यको चिरकालतक भोगकर सोता हुआ ही अपने निदानके वंशसे रौद्रध्यानके द्वाग जीवनके विपर्यय-मरणको. प्राप्त हुआ ॥ ८३ ॥ जहां पर चिंतवनमें आ सके ऐमा दुरंत: (जिसका अंत भी दुःखरूप हो) घोर दुःख मौजूद है. जहाँकी । आयु तेतीस सागरकी है ऐसे सातवें नरकमें नारायणने पापके : निमित्तसे उसी समय जाकर निवात किया ॥ ८४ || बलदेवने : यश ही निसका अवशेष बाकी रह गया है ऐसे त्रिपिष्ठको देखकर उसके कंठको अतिचिरकालमें छोड़ा । और ऐमा विलाप किया कि निसको सुनकर शांतस्वरूपवाले मुनियों को भी अति ताप हो उठा। ॥८॥ जिनकी आंखोंमें जल भरा हुआ ऐसे संसारकी परिपाटीको वतानेवाले वृद्ध पुरुषों के द्वारा तथा वृद्ध मंत्रियों के द्वारासमझाये जानेपर और स्वयं भी संसारकी मशरण और प्रतिक्षणमें नष्ट होनेवाली स्थिति को समझकर बलभद्रने बड़ी मुश्किलसे चिरकाल में जाकर किसी तरह -शोकको छोड़ा ॥८६॥ स्वयंप्रभा जो कि निपिष्ठके पीछे आप भी . मरनेके.लिये उद्यत हुई थी उसको बलदेवने शांति देनेवाले.
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दसवां सर्ग [ १४९ . inimum वचनोंसे यह कह कर कि यह निरर्थक व्यवसाय-उद्योग आत्माको सैकड़ों भवोंको कारण होना है, उस समय स्वयं रोका ॥ ८७ ॥ जिनसे वार वार आंसुओंकी विंदुएं टक रही हैं ऐसे दोनों नेत्रोंको "पोंछ कर कुशल शिलियोंके द्वारा बनाये गये लोकोत्तर वेशको धारण कर नारायण बाह्य पदार्थोका ज्ञान न होने देनेवाली निद्राके वशसे वश होकर अग्निकी शिखाओंके समूहके नवीन पत्तों के बिछोनेपर सो गया-1 -८८ ॥ संसारके दुःखसे भयभीत हुए बलभद्रने श्री विजयको राज्यलक्ष्मी देकर सुवर्णकुम्म मुनिको नमस्कार करके हजार राजाओंके . साथ दीक्षा धारण की ॥ ८९ ॥ रत्नत्रयरूप हथियारकी श्रीसे चारो घतिया कर्माको नष्ट करके केवलज्ञानरूप नेत्रके द्वारा तीनों लोकोंकी वस्तु स्थितिको युगपत् एक ही कालमें
देखते हुए बलमदने भव्य प्राणियोंको अभयदान देने में रसिक होकर : और फिर स्थित होकर अर्थात योगनिरोध करके सुख संपदाके उत्कृष्ट और नित्य सिद्धोंके स्थानको प्राप्त किया ॥९० ॥ इस प्रकार अशग कवि कृत वर्धमान चरित्रमें 'बलदेव सिद्धि
- गमन' नामक दशवां सर्ग समाप्त हुआ।
ग्यारहवां सर्ग। चिरकाल: तक ( तेतीस सागर तक ) नरक गतिमें अनेक तरहके दुःखोंको भोगकर वह चक्रवर्तीका जीव फिर वहाँसे किसी तरह निकला और इसी भरतक्षेत्रके भीतर प्रविपुलसिंह नामके . पर्वतपर सिंह हुआ ॥ १ ॥ प्रथम- अनंतानुबंधी. कषायके कपाय:
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१५० ] महावीर चरित्र । . . रंगमें रंगे रहने के कारण उसका मन स्वभावसे ही शांतिरहित था।' विना निमित्तके ही यमकी तरह कुपित होनेवाला मृखा न होनेपर: भी वह मदोन्मत्त हस्तियोंका वध कर डालता था ॥ २ ॥ रंधों-गुफाओंको प्रतिध्वनिसे पूर्ण कर देनेवाली उसकी गर्जनाको सुनकर हाथियों के बच्चोंका हृदय दहल जाता था या फट जाता, था। वे अवसर न होनेके कारण प्रियप्राणों के साथ साथ अपन: यूथों-समूहों-झुडोंसे भी निराश होनात थे ॥ ३ ॥ जो मृगमूह .. उस सिंहके नखोंके अग्र भागसे लम-नट होते होते न गये थे। सब किसी बाधा रहित दूसरे वनमें चले गये । यह सदाकी रीति . है कि सभी जीव उपद्रव रहित स्थानकी तरफ जाया . कोते हैं. : ॥ ४ ॥ खोटे भावोंको सम्बन्ध जिसका नहीं झूटा है ऐसा यह निर्दय सिंह अपनी आयुके पूर्ण होनेपर फिर भी नाकमें गया : जंतुको पहला असत-असमीचीन-दुःसमय फल रही है ।। हे मृगरान ! यह विश्वास कर-निश्चय सम्झ कि जो सिंह। नरकगतिको प्राप्त हुआ था वह तू ही है । अब, जिन दुःखोंको नरकोंमें प्राणी भोगता है उनको मैं सुनाता हूं तो तू सुन
कीड़ोंके समूहसे व्याप्त दुर्गधियुक्त हुंडक संस्थानवाले विद्रूप : शरीरको शीघ्र ही पाकर जहां उत्पन्न होते हैं उस जगहसे वाणी तरह नीचेको मुख करके वह प्राणी प्रजाग्निमें पड़ जाता है | जिनके हाथमें अति तीक्ष्ण और नाना प्रकारक हथियार लगे हुर हैं. ऐसे नारकी लोग दूसरेको भासे कांपता हुआ देखकर " जला: डोलो " "पका डालो या भून डालो ! " चीर डालो" " मार..
१ एक अंतर्मुहूर्तमें पर्यातिको पूर्ण करके।
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....... .....: ग्यारहवा सग। - [१५१ . डालो " इत्यादि अनेक प्रकारके दुर्वचन कहते हैं और बिल्कुल उसी तरह करते हैं.॥ ८॥" यह दुःख, देनेवाली गति कौनसी है?".". मैंने पहले-पूर्वजन्ममें कौनसा उप्रपाप किया है ?" " मैं भी कौन हूं." इसतरह कुछ क्षण तक विचार करके उसके बाद वहां उत्पन्न होनेवाला जीव विमंगावधिको पाकर सत्र वातः जान लेता है ॥९॥ वहाँक नारकी दूसरे नारकियोंको, अग्निमें पटक देते हैं, मुख फाड़कर चूंमा पिला देते है, टूटती हुई तथा उलटती हुई हड्डियोंका निममें घोर शब्द हो रहा है. इसतरहसे यंत्रों के द्वारा अनेक तरहसे पल डालते हैं, -11:१०॥ निरके नोंमें तीक्ष्ण वनमय सुइयां चुमोदी गई हैं ऐमा नरकमें उत्पन्न हुआ जीव आर्तनाद कर दीन विलाप करने छगता है। नारकियों का समूह उसके शरीरको नष्ट कर देता है। इसीलिये वह अनेकवार विचतनताको प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ किनारके वज.समान नुकीले कंकड़ोंसे मिलक पैर फट गये हैं, स्वामाविक प्यासके मारें जिपके कंठ और तालु सुख गया है, हाथी
और मकर तथा तलवारके द्वारा खंडित होनेपर भी विषमय जल, पीनके लिये वैतरणी नदीमें प्रवेश करता है ॥ १२ ॥ दोनों किनारों पर खड़े हुए नारक्रियों के समूहोंने रोकार जिसको उस वैत• रणी नदीमें बारबार.अवगाहन कराया है ऐमा वह जीव दुःखी होकर किसी तरह छेद--जगह पाकर · वज्रपमान ‘अग्निसे दहकते हुए पर्वतपर बढ़ जाता है ।।.१३ .. सिंह, हाथी, अजगर, व्याघ्र तथा ककपक्षी आदिकोंने, आकर जिसके: शरीरको नष्ट कर दिया हैं ऐसा वह नारको जीव कहाँपर. अत्यंत असह्य दुःखको पाका वि
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१५२ ]
महावीर चरित्र |
श्राम लेनेके लिये सघन वृक्षोंकी तरफ जाता है ॥ १४ ॥ पर- अनेक प्रकारके तीक्ष्ण हथियारोंके समान पत्तोंको छोड़कर वे वृक्ष समुंह उसके शरीर को विदीर्ण कर डालते हैं तब सैकडों घावोंसे व्याप्त उस शरीरको भ्रमरसमूहों के साथ साथ दुष्ट प्रचंड कीड़े. काटने लगते हैं ॥ १५ ॥ अत्यंत कठोर शब्दोंके द्वारा कानोंको ति करनेवाले काले कौए उसके दोनों नेत्रोंको अपनी वज्रमय: चोंचोंसे चोथते हैं पर अग्निकी शिखाओंस उनके भी पंत्र जल जाते हैं ॥ १६ ॥ कोई २ नारकी जिसका मुख फट गया है ऐसे किसी नारीको विषमय जलसमूहसे भरी हुई वैतरणी नदीमें डाल कर कठोर या भरी और तीक्ष्ण मुखवाले मुद्ररोके प्रहारों से चूर्ण करते - कूटते हुए प्रचंड अग्-िके द्वारा पकाते हैं | १७ ॥ नाना फिराना उछालना भादि अनेक प्रकारकी क्रियाओंके द्वारा ओधानीची (ऊंची नीची ) शिक्षाओंपर पटककर पीस डालते 1. कोई २ बड़े भारी यंत्र में ( कोलू आदिक में ) डालकर शरीरको आरेसे चीर डालते हैं ॥ १८ ॥ प्रचंड अग्निसे व्याप्त वज्राय सूप' ( घरिया - धातुओंके गटानेका पात्र ) में पड़े हुए लोहेके संतप्त रसको पीकर - पीने से जिसकी जीभ गिर गई है और तालु नष्ट हो गया है ऐसा वह जीव वहाँपर मांसप्रेमके- मांसभक्षके फो याद करता है । अर्थात जब नरकोंमें लोहेके गरम २ रसको पीता है तत्र जीवको याद आती है कि पूर्वभवमें मैंने जो मांस खाने से प्रेम किया था उसका यह फल है ॥ १९॥ जलती हुई अंगनाओंपुतलियोंके साथ शीघ्रता से आलिंगन करनेसे और वक्षःस्थल में स्तनोंकी जगह वज्रमय मुद्गरोंके प्रहारसे भग्न हुआ जीव नरक में नि
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ग्यारहवां सर्ग। [१५३ · यमसे:कामके दोषोंको समझ लेता है। अर्थात् उसको यह मालुम
हो जाता है कि मैंने नो पूर्वमवमें पर स्त्री या वेश्या आदिकसे 'गमना किया था उसका यह फल है ॥ २० ॥ मेष महिप (मेंसा) मत्तहस्ती तथा कुकट (मुगा) असुरों के शरीरको उनके आगे जल्दीर होता हुआ श्रमसे विवश हो जानेपर भी क्रोधसे लाल नेत्र करके दूसरोंके साथ खूब युद्ध करने लगता है ॥ २१ ॥ अम्बरीप जा'तिके असुरोंके मायामय हायोंकी तर्ननियोंके अप्रमागके तनमय दिखानसे जिनका हृदय फट गया है ऐसे वे नारकी डरके मारे दोनों हाथों और दोनों पैरोंसे रहित होनेपर भी शीघ्र ही शाल्मली वृक्ष ‘पर चढ़ जाते हैं ।। २२ ।। अपनी बुद्धिस ' यह सुख है। वा
.इससे सुख होगा। ऐसा निश्चित समझकर जिस जित कामको करते हैं व सत्र काम नियमसे उनको शीघ्र अत्यंत दुःख ही देते हैं। 'नारकियोंको सुखकी तो एक कणिका भी नहीं मिलती ।। २३॥ इसप्रकारके विचित्र दुःखोंसे युक्त नारक पर्यायसे निकलकर तू यहां पर फिर सिंह हुआ। पूर्वद्ध तीत्र दर्शनमोहनीय कर्मके निमित्त से यह प्राणी चिरकालसे कुगतियों में निवास कर रहा है ॥ २४ ॥ जो तुझे मालूम हो गया है-अर्थात जिसको सुनकर तुझें नातिस्मरण हो गया है। इस प्रकारके तेरे भवोंका हे मृगेन्द्र ! खूब अच्छी तरहं वर्णन किया । अब आत्माका हित क्या है उसका मैं वर्णन करता हूं सो तू निर्मल बुद्धि-चित्तसे. सुन ॥ २५ ॥ ... मिथ्यादर्शन अविरति प्रमादजनित दोप कषाय और योगोंकि
साथ २ इनरूप आत्मा निरन्तरं परिणत होता है । इन परिणामोंसे ही इसके बन्ध-कर्मबन्ध होता है.॥ २६ ॥ इस कर्मवन्धके दोषसे
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१९४ ] महावीर चरित्र ।... .. गतियोंमें जन्म धारण करता है । उस जन्मसे शरीर और इन्द्रियों : को पाता है । इनसे-शरीर और इन्द्रियोंसे सदा ही विषयों में रतिः होती है। विषयोंमें रति करनेसे फिर वे ही सब दोष (मिथ्या दर्शन आदिक ) प्राप्त होते हैं ॥ २७ ॥ जीवकी संसार-समुद्र में , बारबार भ्रमण करनेकी यह परिपाटी होती है। इसको जिनेन्द्र देवने अनादि और अनन्त बताया है। जीवका बन्ध-क्रमरन्धःसादि और सांत मी है ॥ २८ ॥ हे मृगरान! तू हृदयमें से कि पायके दोपोंको निकाल-दूरकर, सर्वथा शांतिमें तत्पर हो, जिनेन्द्र... देवके बताये हुए मतमें प्रणय-प्रेम-रुचि-श्रद्धा कर और कुमार्गक प्रेमको दूर कर ॥ २९ ।। सम्पूर्ण प्राणियोंको अंग्ने समान : समझकर तीनों गुप्तियों-मन वचन कायक निरोधोंसे युक्त होता हुआ उनके वध करनेके भानको . छोड़ । जो निपमसे आत्माके क.. त्यागको समझता है वह दूसरोंको दुःख किस तरह दे सकता है. • ॥३०॥ हे सिंहरान ! जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह सदा .. . बाधामहित विषम अपनी और परकी अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाला .. अर्थात कर्मोके परवशं अनिश्चित और बंधका कारण है। इसको । • उग्र दुःखरूप समझ ॥ ३१ ॥ यह शरीर, नव द्वारोंसे युक्त, रजः
वीर्यके उत्पन्न होनेसें स्वमावसे सदा अशुचि, अनेक प्रकारके मलोंसे : पूर्ण, विनश्वर, दोषरूप, विविध प्रकारकी शिराभोंके. जालसे बंधा • हुआ, बहुतसी तरहके हजारों रोगोंके रहनेका घर अपने शरीरके : . चामके कवचसे ढका हुआ, कृमिनालसे भरा हुआ, दुर्गंधियुक्त :
' और स्थिर तथा विक्ट हड्डियोंके बने हुए एक यंत्रके समान है। : इस शरीरको ऐसा समझकर कि यही. अनेक तरहके दुःखों का कारण
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ग्यारहवां सर्ग |
है. तू उससे ममत्वबुद्धिको बिल्कुल हटा ले। जो - अपने से मिन्न चीनमें जो चीज अपनी नहीं है
[ १५५ समझदार है वह उसमें मति- ममत्व
बुद्धिको किस तरह धारण कर
सकता है ? ॥
३२-३४ ॥ हे
मृगराज ! जहां पहुंचकर फिर भ धारण नहीं करना पड़ता ऐसे ! तथा जिसमें इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं ऐसे और बाधा रहित निरुपम • आत्ममात्रसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षके सुखको प्राप्त करनेकी इच्छा तो निश्चय बाह्य और अंतरंग परिग्रहका त्याग कर ॥३५॥ घर घन शरीर आदिक सब बाह्य परिग्रह हैं । अनेक प्रकारके जो रांग, लोम, कोप- आदिक भाव होते हैं. उनको अंतरंग परिग्रह समझ यहः परिग्रह दुरंत है - इसका परिपाक खोटा है || ३६ || तु अपने मनमें ऐसा समझ कि मेरा जो आत्मा है वही मैं हूं । वह अक्षन श्रीमाला और ज्ञान दर्शन लक्षणवाला है । दूसरे समस्य भावः मुझसे
भिन्न हैं अज्ञानरूप हैं और समागम रक्षगवाले हैं - उनसे मेरा केवल संयोग मात्र है ॥ ३७ ॥ निर्मल सम्यग्दर्शनरूप गुहाके भीतर उपशमरूप नखके द्वारा कपायरूर हाथियोंका वध करता हुआ तू यदि संयमरूप उन्नत पर्वतपर निवास करे तो हे सिंह ! तू नियमसे सिंह - मयों में उत्तम है ॥ ३८ ॥ तू यह निश्चय समझ कि जिनंवचनसे अधिक संसारमें दूसरा कुछ भी हितकर नहीं है 1. क्योंकि इसके द्वारा अनेक प्रकारके प्रचल कर्मों के पाशसे जीवकी सर्वथा मोक्ष होती हैं || ३९ ॥ दोनों कर्णरूप अंजलीके द्वारा पीया गया यह दुष्प्राप्य जिन वचनरूप रसायन विषयरूप विषकी तृपापीनेकी इच्छाको दूर कर किम मंगको अजर और अमर नहीं बना देता है ॥ ४० ॥ हे सिंहोंमें श्रेष्ठ ! तु निश्चयसे मार्दवके द्वारा
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महावीर चरित्र |
१५६ ] मायाका मन कर शौच ॥११॥ हृदयको शम-शांति (या न होना
से
अनको शांत
॥ ४४ ॥ ज्ञान-रक्षन
पूर्व
को
करने
वाला तू यदि दूसरोंके
से
होगा तो ते शौर्य यशोमहिमा हग तीनों लोकोंको त्रिन कागा ॥ १२ ॥ का पांच गुरुओंको ( त सिद्ध उवाध्याय सर्व ऋतुओंको) प्रम किया करो वह अनुपम की सिद्धिका हेतु है | किंकी इन पंच नमकारको एल
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दूर करता है, प
क्लोका का निर्ज करना है और रोकता है-वीन रोकता है-मंत्र करता है। दर्शन
नहीं
घर
कि यह अत्यंत वृल्तर संकर से तारनेवाला है ॥ ४९ ॥ तीन राषों (माण किया, किनको विक्कू दूर का ब्रोंकी नियमसे मा रक्षा कर शरीर जो हमारी बुद्धि यी हुई है उन्को छोड़ अनि
के मित्रनेले ये तीन (सम्बन्दुद्दीन, सुम्पन सम्वारित्र) हो नांदे निश्चय समझ कि इन दोनों ममूह ही मोक्षक हेतु-कारमार्ग है १॥ तू निंन ऐसा प्रयत्न का कि सिल तो हृदय कष्ट विशुद्धि हो । अपने हितके जान लेनेवाले यह निश्चय सन्झ कि अब तेरी क्युकी स्थिति सिर्फ एक नहीनाकी चाकी रही है ||१६|| तीनों काण (मन, वचन, काय) की विविध अपने पापयोगको दूर कोषिकाको प्रस कनेका तू निर्मक सनाधिको उल्लेखनावरणको पूर्ण करनेके लिये जब तक आयु है त तरके लिये अन्न धारण क ॥ १७॥ है.
सम्
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___ ग्यारहवां सर्ग। [१५७ निर्भय ! इस मवसे दशमें मवमें तू. भारतवर्षमें मिनेन्द्र होगा। यह सब बात हमसे कमलाधर (लक्ष्मीघर) नामके जिनेश-मुनिराजने कही. है॥४८॥ हे शमरत ! उनके ही उपदेशसे हम तुमको प्रतिबोधः देनेके लिये आये हैं। मुनियोंका हृदय अत्यंत निस्पृह होता है तो मी भव्य जीवोंको बोध देनेकी उसको स्पृहा रहती ही है ॥४९॥ जिसने तत्वार्थका निश्चय कर लिया है और जिसने अपने चरणोंको प्रणाम किया है ऐसे सिंहको पूर्वोक्त प्रकारसे चिरकार-बहुत देर तक तत्त्वमार्ग-मोक्ष मागकी शिक्षा देकर वे मुनि आदरसे उस'सिंहके शिरका हार्थोके अग्रमागस बार बार स्पर्श करते हुए जानेके . लिये उठे..५० ॥ चारणऋद्धिके धारक दोनों मुनियों ने अपने
मार्गपर जाने के लिये मेघमार्गका आश्रय लिया । अर्थात् दोनों मुनि • आकाशमार्गसे चले गये। और इधर प्रेमसे उत्पन्न होनेवाले आंसु
ओंके कोंसे जिसके नेत्र भींज रहे हैं ऐसा वह सिंह उनको बहुत देर तक देखता रहा ।।५१|| नव वह मुनियुगल वायुवेगसे अपने (सिंहके) दृष्टिमार्गको छोड़कर चला गया-दृष्टि के बाहर हो गया तब वह सिंहराज अत्यंत-खेदको प्राप्त हुआ।सत्पुरुषों का विरह किसके हृदयमें व्यथा नहीं रमन्न करदेता है । ।५रा मृगराजने अपने हृदयसे मुनिवियोगसे उत्पन्न हुए शोंकके साथ साथ समस्त परिग्रहका दूर कर उनके निर्मल चरणोंके चिन्हसे पवित्र हुई शिलापर अनशन-भोजनादि त्याग सल्लेखनामरण धारण किया ॥ ५३॥ एक पसवाड़ेसे पड़कर निसने 'पत्थर शिलाके ऊपर अपने शरीरको रख रक्खा है ऐसा वह मृगेन्द्र दंडकी तरह विल्कुल. चलायमान न हुआ। मुनियों के गुणगणोंकी भावनाओंमें आशक्त हुआ। उसकी लेश्यायें प्रतिसमय-उत्तरोत्तर
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१५८] महावीर चरित्र । अधिक अधिक शुद्ध होने लगीं ॥ १४ ॥ अत्यंत गरम हवाक लगनेसे जो सुख गया था तथा सुर्यकी किरणों की ज्वालाओंके संतापसे जो सब तरफसे जलने लगा था उस शरीरने भी सिंहके मनमें कोई व्यथा उत्पन्न न की। ठीक ही है-जो धीर होते हैं व एसे ही होते हैं।॥ ५५ ॥ अग्नि समान मुखवाले डांप और मक्यिोंके सुडोंक। द्वारा तथा मच्छरों के द्वारा मर्म स्थानों में काट नानपर मी कंप-इलना चलना आदि क्रियाओंसे रहित मिहने मनसे प्रशम और संघरमें दुना दूना अनुराग धारण किया ॥ १६ ॥ यह मरा हुआ सिंह है इस शंकासे मदसे अंधे हुए गनराोंने जिसकी सटाओं को नष्ट कर दि या है ऐसे उम मगेन्द्रने हृदय में अत्यंत तितिक्षा-सहनशीलता धारण करली । मुमुक्षु-मोक्ष होनेकी इच्छा रखनेवाले प्राणियोंने ज्ञान प्राप्त करनेश श्रेष्ठ फल यही है ।। ५७ ॥ छोड़ा है शरीरको निसने ऐसा वह हस्तियोंका शत्रु क्षणके लिये भी भूख या ८.ामसे विवश न हुआ। धैयके कव से युक्त धीर मनुष्यकी एक प्रशरत ही क्या सुखरूप नहीं होती है। ॥ ५८ ॥ अंतरंगमें रहनेवाले . कपार्योंके साथ साथ बाहरके शरीरके अंगोंसे भी वह प्रतिदिन कृष होने लगा। मानों हृदयमें विराजमान मिनेन्द्र देवकी भक्तिक भारसे .. ही उसने प्रमादको बिल्कुल शिथिल कर दिया ॥ ५९॥ प्रश शांतिकी गुहाके भीतर रहनेवाले उस सिंहको रात्रियों में प्रचण्ड शीतल पवन बाधा न देसका । सो ठीक ही है-निलम और अनि.. कठोर संचारवाले जीवको शीत थोडीसी भी पाषा नहीं देमकता ॥ ६.० ॥ मरा हुआ समझकर रात्रिके समय उसको लोमड़ी और शृगाल तीक्ष्ण नखोंके द्वारा नाँच नोंच कर खाने लगे तो वो उसने
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ग्यारहवां सर्ग। [१५९ अपनी उस परम समाधिको, नहीं छोड़ा। जो क्षमावान् है वह विपत्तिपस्त होने पर भी मोहित नहीं हुआ करता ॥ ६१ ॥ चंद्रमाकी किरण समान धवल वह पूज्य या प्रशस्त मारान प्रशममें हृदयको लगाकर सूर्यके. किरणनालके तापके योगसे प्रतिदिन दिन पर दिन बर्फके गोलेकी तरह विलीन हो गया ॥ १२ ॥ जिन शासनमें लगी हुई है बुद्धि जिसकी तथा संमारके भयोंसे व्याकुल हुए उस सिंहने पूर्वोक्त रीतिसे एक महिना तक अचल ‘क्रियाके द्वारा-निश्चल रहकर अनशन धारण कर पापों
और प्रणोंसे शरीरको छोड़ा ॥ ६३ ॥ उसी समय धर्मके फलसे सौधर्मस्वर्गमें जाकर व मनोहर विमानमें मनोहर शरीरको धारण करनेवाला हरिवन नामका प्रसिद्ध देव हुआ । सो ठीक ही हैसम्बत की शुद्धि किनको सुख देनेवाली नहीं होती ॥ १४ ॥ खूब जोरसे :: जय जय । ऐसा शब्द करनेवाले और आनंदसूचक बानों में कुशल-आनंदवाद्योंक बनानेवाले परिवारों के देवोंक द्वारा तथा मंगलवस्तुओंको निनने धारण कर रक्खा है ऐसी देवाङ्गनाओं के द्वारा उआया हुआ वह धीर इस तरह विचार करने लगा कि मैं कौन हूं और यह क्या है ॥६५॥ उसी समय अवधिज्ञानके द्वारा अपने समस्त वृत्तांतको जानकर हर्षसे पूर्ण है चित्तवृत्ति निसकी ऐसा वह देवं स्वर्गसें. परिवारके देव और देवियों के साथ साथ उस मुनियुगके निकट आकर और उनकी सुवर्ण कमलोंसे पूना करके वार बार प्रणाम कर इस तरह बोला ॥६६॥ .:: हितोपदेशरूपी बड़ी भारी.वर्त (मोटी रस्सी) के द्वारा अच्छी तरह बांध कर पापका कूामेंसे आपने जिसका उद्धार किया था
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महावीर चरित्र ।
वह सिंह मैं ही हूं। मैं इन्द्रमान सुखकर हूं। संसार में साधुओंके वाक्प किसकी उन्नति नहीं करते हैं ॥ ६७ ॥ जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था उसी इस सम्यक्त्वको आपके प्राइसे यथावत पाकर मैं तीन लोकके चूड़ामणिके मुकुटपनेको प्राप्त होगया हूँ। अतएब मैं निवृत्त - मुक्त - कृतकृत्य होचुका हूं ॥ ६८ ॥ वृद्धावस्यां ही जिसकी लहरें हैं, जन्म ही जिसका जल है, मृत्यु ही जिसमें मकर है, महामोह ही जिसमें आवर्त-भ्रमर है, रोग समूहके फनॉर्स जो चितकबरा बन गया है । उस संसारसमुद्रको आपके निर्म वाक्यरूप जहाजको प्राप्त करनेवाला मैं शीघ्र ही तर गया हूँ । अब इसमें कुछ भवोंका तर - किनाग़ बाकी रह गया है ॥ ६९ ॥ वह देव इस तरह कह कर, और बार बार उन दोनों मुनियोंकी पूजा कर, संसृति - संसार- दुनियरूपी पिशाची - चुड़ेलसे रक्षा करनेवाली मानो भस्म ही हो ऐसी उन मुनियोंके चरणोंकी धूलिको महानपरं अच्छी तरहं लगाकर अपने स्थानको गया ॥ ७० ॥ हारयष्टिके द्वारा शरद ऋतु के नक्षत्रपति - न्द्रमाकी किरणोंकी श्री - शोभा जिसके मुख पर पाई जाती हैं, जिसके हृदयके भीतर सम्यत्तवरूप संपत्ति रखी हुई है. ऐसा वह देव देवोंके अभीष्ट सुखको भोगता हुआ, प्रमादरहित होकर जिनपतिके चरणोंकी पूजा करता हुआ वहीं रहता हुआ ॥ ७१ ॥
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इस प्रकार : अशग कविकृत वर्धमान चरित्रमें 'सिंह प्रायोपगमनं नामक ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ ।
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बारहवाँ सग |
बारहवां सर्ग ।
दूसरे द्वी घातकी खंड में पूर्व मेरुकी पूर्व दिशा में सीता नदी के उत्तर तड़के एक भाग में बसा हुआ कुरुभूमिं कुरुक्षेत्र के समान प्रसिद्ध कच्छ नामका एक देश है || १ || इस देश में विद्याधरोंका निवासस्थान और अपने तेजसे दूसरे पर्वतों को जीतनेवाला रौप्य - विजयाचे पर्वत है। यह बड़े योजनों से पच्चीस योजन ऊंचा और सौ योजन - तिरछा चौड़ा है ॥ २ ॥ कहने में नहीं आसके ऐसी सुंदर रूप- संपत्तिको धारण करनेवाले विद्याधरोंका में निवासस्थान हूं इम मदसे अवलित जो पर्वत अपने अग्रभागों से मेवों का सर्श करनेवाले काश 'समान- शुभ्रं महान् शिवरोंके द्वारा मानों स्वर्गकी हसी कर रहा है ॥ ३ ॥ धुली हुई - जिनका पानी उतर गया है ऐमी तलवारकी "किरणोंकी रेखाओंके समान जिनका समस्त शरीर काला पड़ गया है ऐसी अभिसारिकायें जहां पर दिनमें इधर उधर आकाशमें घूमती
- उस समय वे ऐसी मालूम पड़ती हैं मानों मूर्तिमती रात्रि ही हो ॥ ४ ॥ उसके शिखरका भाग बहुत रमणीय है तो भी देवाननाय वहां विल्कुल विहार नहीं करती। क्योंकि विद्यधरियोंकी - अनन्यसाम्य - कोई भी जिसकी समानताको धारण नहीं कर सकता ऐसी कांतिको देखकर वे वहां अत्यंत लज्जित हो जाती हैं ||५|| नहीं रमणियां विद्याओंके मह.नं प्रतापसे अपने अपने शरीरों को 'छिना देती है- अदृश्य हो जाती हैं। परंतु उनके श्वासकी वायुकी गंधसे आई हुई वहां उड़ती हुई भ्रमरपंक्ति अतिनूढ़ - धोखे में पड़े हुए उनके पतियोंको जाहिर कर देती है - यह सूचित कर देती है.
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१६२ ] महावीर चरित्र। ...
.." कि यहां पर तुम्हारी स्त्रियां हैं। ६ ॥ किनारोंपर लगे हुए मुक्ता पाषाणोंकी ग्धि दीप्तिरूप ज्योत्स्नासे कपल समूह ति रहता :है । अतएव दिनमें भी सदा ही कपलोंको विकाशसंपत्ति कभी कम : नहीं होती । भावार्थ-वे कमळ यद्यपि चंद्रविकांशी हैं तो भी उनकी शोभा दिनमें भी नष्ट नहीं होतो । क्योंकि सरोवरों के किनारोंपर : जो पाषाण लगे हैं उनकी कांति उनपर पड़ा करती है जिससे वे दिन में मी खिले हुए ही मालूम पड़ते हैं। अतएव उनकी शोमा... कमी न्ष्ट नहीं होती ।। ७॥ कुंइपृप्पके समान धरल अपनी .. किरणों से अधिशरी रात्रिको चारो तरफसे हठाता हुआ ऐमा :: मालूम पड़ता है मानों कृष्णपक्षकी रात्रियों के ऊपर अपूर्व ज्योत्स्नाचांदनीको ही फैला रहा है अर्थात् मानों कृष्णासकी गत्रियोंको शुक्ल की रात्रि बना रहा है । ८। उस पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में.. हेमपुर नामका . एक नगर है । वह दूसरे सब नगरों में प्रधान
और · मन्दिरोंसे भूषित है । नगरवा " हेमपुर : यह नाम अन्वय है-जैसा नाम है वैसा ही उसमें गुण पाया जाता है। क्योंकि :: नगरके कोट महल और अट्टालिकायें आदि सत्र सुवर्णक बने हुए थे। गाएं। इन नगर में स्वाभाविक निमलता गुणके धारणकरनेवालों में...: 'रल पाषाण ही ऐसे थे कि नितमें अत्यंत खरत्व (कठोरता) पाया ‘जाता था। कलावानों (गाने बजाने आदिकी कला, दूसरे पक्षम
चंद्रमाक्री कल-अंशं) में या पक्षेत्र लों (जाति, कुल, समाज, देश: आदिका पक्ष; दूपरे पक्षमें शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष) में केवलं चंद्रमा हो . ऐसा था जोकि अंतरङ्ग में मलीनता धारण करता था। वहीं
पर त्याग (दान) करनेवाले सदा विरूप (दुरूर श्लेषसे दूंमरा अर्थ
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. . बारहवा:सर्ग
[ १६३. प्रसन्नचित्त) रहते थे। वुधों-विद्वानों का कुल अत्यंत अप्रमाण (अविश्वस्त, इलेक से दूसरा अर्थ आणि1) था । अनिष्ट (दूमरा अर्थइच्छा-लोमागद्वेपसे रहित.) कोई थे तो यति हो थे। परलोकमीरु (दूसरे लोकोंते याःपरराष्ट्रसे डरनेवाला; दूमा अर्थ परमोंनरकादि पर्यायोंसे डरनेवाला) कोई था तो वह योगक्रियाओंमें दक्ष . कुशल था..११ ।। इस नगरकी रमणियोंकि मुखकमलोंपर भ्रारोंकी “पंक्ति उनके शासके-श्वासमें जो सुगंधि है उमके लोमस पड़न लगती है । जव स्त्रियां उनको भ्रमरों को अपने हाथोंसे उड़ाने लगती हैं तब वे अपने मनमें "ये तो ल ल कमल हैं" ऐसी शशा करके हर्षित होकर उनके हाथोंकी ताफ भी झपटने लगते है।॥ १२ ॥ . . . , इन. नगरका रक्षक निसने प्रनाका पालन करनेमें कीर्ति प्राप्त की है ऐमा धीर विनीत (विनयस्वभाववाला) और नीतिोताओं तथा सत्पुरुषोंका अग्रणीय कनकाम नापका राना था ॥ १३ ॥ ."अत्या चंचला मुझको भी इसकी तीक्ष्णधार वहीं काट न डाले।" इसी. भगसे मानों विनय-लक्ष्मी उस राजके शरदऋतुके आकाशके समान-श्यामं रुचि-कान्तिवाले खड्ग.निश्वल हो कर रहने लगी
.१४ ॥ शूरताकी निधि यह राजा. युद्धमें मयसे म्लान हुए 'पुरुषोंके मुखोंको नहीं देखता है यह समझकर ही मानों उसके
प्रतापने शत्रुओंको सामनेसे हट दिया था ॥ १६ ॥ नित्य उदय• वाला भूमिभूतों ( रानाओं; दूसरे पक्षमें पर्दतों) शिरपर निसने
अपने पाद (चरण; दूसरे पक्षमें किण ) रख रखे हैं, कमला. लक्ष्मीका अद्वितीय स्वामी, इस प्रकार यह राना विग्मरशि
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१६४ ]
महावीर चरित्र |
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सूर्यके समान था तो मी पृथ्वीको अतिग्मं जो प्रखर - कठोर नं. हों ऐसे करोंसे आल्हादित करता था ॥ १६ ॥ अनल्प- महान् शीलके आमरण ही जिसके अद्वितीय भूषण हैं, जो रमणीयता के विश्राम करनेकी भूमि है, जिसने प्रसिद्ध वंशमें जन्म लिया हैं ऐसी कनकमाला नामकी उस राजाकी रानी थी ॥१७॥
अनला - महान् कांति-द्युति तथा सत्व गुणसे युक्त वह हरिध्वज देव सौधर्म स्वर्गसे उतर कर उन दोनों पिता माताको उत्पन्न करता हुआ कनकध्वज नामका पुत्र हुआ ॥ १.८ ॥ : जिल समय वह गर्भ में था उसी समय उसने माताके दौहृद - दोहलाके भायास - पूर्ण करने के व्याज जिनेन्द्र देवकी पूजाओंको निरंतर कराया । इससे ऐना मालुन पड़ता था मानों वह बालक अपनी सम्यंत शुद्धिको ही प्रकट कर रहा है ॥ १९ ॥ जिसके उत्पन्न होते ही प्रतिदिन - दिनपर दिन कुश्री इस तरह बढ़ने लगी जि.प. तरह चंद्रमांका उड़ग होते ही समुद्रकी वेला या वसंतऋतुके निकटवर्ती होनेपर आम्रवृक्षों की पुष्पसंपत्ति ॥ २० ॥ मनोहरु मूर्तिके धारक कनकनकी स्वाभाविक विशुद्ध बुद्धिके द्वारा एक साथ जितका अवगाहन अभ्यास किया गया है ऐसी चारो राज:विद्यायें और कीर्तिके द्वारा दिश. ये सहसा विशिष्ट शोभाको प्राप्त
॥ २१ ॥ कनकध्वन यौवन-लक्ष्मी के निवास करनेका अद्वितीय कमल और महान धैर्यका धारक था । इसका प्रभाव प्रसिद्ध था ! अतएव इसने दूसरा कोई जिनको सिद्ध नहीं कर सके ऐसे शत्रुओंके षड्वर्गकी और विश्वाओंके गण - समूहको अपने वशमें कर लिया" था ॥ २२ ॥ इच्छानुसार - बिना किसी तरह की बनावटके - स्वाभाविक
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बारहवां सगँ ।
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[ १६५ - रीति से गमन करते हुए इस राजकुंपारको देखकर नगरनिवासियोंके नेत्र अत्यंत निश्चल होजाते थे । वे उसके विषय में ऐसी तर्कणाकरने लगते थे कि 'क्या यह मूर्तिमान् कामदेव है ? या तीन लोकके रूप सौंदर्यकी अवधि है ? ॥ २३ ॥ जिस तरह खंजन में (?) फसर अत्यंत दुर्बल गौ वहांसे चल नहीं सकती उसी तरह नगर निवासिनी सुंदरियोंकी नीलकमलकी श्री - शोभाके समान रुचिर - मनोज्ञ और सतृष्ण कटाक्ष संपत्ति उस कुमारके ऊपर पड़कर फिर हट नहीं सकती थी ॥ २४ ॥ जिस तरह चुम्बक लोहेकी चीजोंको खींच लेता है, ठीक ऐसा ही इस कुमारके विषयमें भी हुआ । 'विद्याधरोंकी कन्याओंके विषयमें यह निरादर था - यह उनको नहीं
चाहता था। तो भी अपने विशिष्ट शरीरके द्वारा दीतियुक्त इसने ..उनके हृदयोंको अपनी तरफ खींच लि॥ ॥ २९ ॥ जिस तरह एक चोर छिद्रको पाकर भी जागते हुए धनिकसे दूर ही रहता है उसी तरह चढ़ा हुआ है धनुप जिसका ऐसा कामदेव अप्रमाण गंभीरता गुणके धारक इस कुमारके रन्ध्र का प्रतिपालन कर दूर ही रहता था । २६ ॥ • पिता की आज्ञानुसार स्फुरायमान है प्रमा निमकी ऐसी कनकप्रमाके योग सम्बन्धको पाकर उससे विवाह करके प्रजाके संतापको दूर करनेवाला यह राजकुमार ऐसा मालूम पड़ता था मानों बिजली सहित नवीन मेघ हो ॥ २७ ॥ दोनों वर वधुओंने अपनी मनोज्ञताके द्वारा परस्परको बिल्कुल अपने अपने वशमें कर लिया था । प्रि-वस्तुओं में जो प्रेमरस उत्पन्न हो । है वह चारुता - रमणीयताका प्रधान- फल है । २८ ॥ अनल्प - महान खारीपनकी विशेष लक्ष्मीशोभा या खारीपन और विशेष लक्ष्मीको धारण करनेवाली समु
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महावीर चरित्र 1
१६६ ] द्रकी
की दोनों वेलायें (तट) एक दूसरेको छोड़कर क्षण भर भी नहीं रह सकतीं। इसी तरह अरला लावण्य विशेष लक्ष्मी (सौंदर्यकी .. विशेष लक्ष्मी या सौंदर्य और विशेष लक्ष्मी) को धारण करनेवाले में प्रसिद्ध वर वधू एक दूरको छोड़कर आधे निमेष तक भी नहीं ठहर सकते थे || २९ || वह कुमार नन्दन बनके भीतर ताण्डव नवीन पल्लवोंकी शय्या पर सुला कर कुपि । हुई कान्ताको प्रसन्न करता था। जब उसके नीचेका ओष्ठ कुछ कंपने लगना- अर्थात् 'जब उसके मुखपर प्रश्नवाकी झलक आजाती या दीखनाती तत्र उसको रमाता था ॥ ३० ॥ अ ह - भक्ति युक्त है आत्मा जिनकी ऐसा कनकध्वन प्रि के साथ वेगसे उत्पन्न हुई वायुके द्वारा अपनी. तरफ खींच लिया है मेनको जिसने ऐसे विमानके द्वारा जाकर मंदर - मेरुकी शिखरों पर जो जिनमंदिर हैं उनकी माला आदिन के द्वारा पूजा करता था ॥ ३१ ॥
इस तरह कुछ दिन बीत जानेपर एक दिन संसारके निवासस भयभीत और जीता है इन्द्रियों का व्यापार जिसने ऐमे राजा कनंकामने उस कनकध्वन कुमारको राज्य देकर सुमति मुनिके निकट दीक्षा ग्रहण करली || ३२ || दूसरोंके लिये अप्राप्य राज्य लक्ष्मीको पाकर भी उस धीर वनकध्वनने उद्धनता धारण न की । ऐमा ही
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लोक में देखने में आता है कि जो महापुरूप हैं उनको बड़ी मारी.. भी विभूति विकृत नहीं कर सकती ॥ ३३ ॥ बड़ी हुई है श्री जिसकी ऐश यह राजा चंद्रमाकी किरण समान निर्मत्र अपने गुणोंके, द्वारा प्रजाओं - प्रजाजनों में सदा अविनश्वर या निर्दोष अनुरागं-प्रेमको उत्पन्न करता था । महापुरुषोंकी वृत्तिका रूप - स्वरूप अर्चित्य हुआ
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. बारहवां सर्ग। [१६७ करता है ॥३४॥ जो इसके अनुकूल थे उनके लिये तो प्रीतिसे वह चंदन के लेप समान सुखका कारण हुआ। और जो शत्रु थे उनको 'प्रोपर्युक्त इपने दूर रहकर ही जिस तरह सूर्य अत्रकारको नष्ट
कर देना है उसी तरह जल दिशा-ट कर दि॥ ३५॥ . . . . जिस तरह निर्मल कीर्ति प्रजामें अनुराग उत्तन्न करती है, . अच्छी तरह प्रयुक्त निति अभीष्ट अर्थको उत्पन्न करती है, अथवा
बुद्धि पदार्थ-ज्ञ नको उत्पन्न करती है, इसी तरह उसकी इस
प्रियाने हेमरथ नामके पुत्रको उत्पन्न किया ।। ३६ ॥ प्रिय अंगना• ओंके अत्युनत कुचोंके अग्रभागों-चुचुकों के द्वारा छुट गई है वक्ष:.. स्थळपर लगी. हुई चंदन-श्री जिसकी ऐमा यह राजा पृथ्वीपर
पांचो इन्द्रियोंके लिये इष्ट संसारके सारभूनसुखों को पूर्वोक्त रीतिसे .' भोगता रहा ॥ ३७॥ • " . इसी तरह कुछ दिनों के बाद एक दिन विद्याधर राजाओंमें
सिंहसमान यह राजा अपने हाथ से दिये हैं सुंदर भूपण जिप्तको ।' ऐसा, मत्त चकोरके समान नेत्रवाली अथवा मत्त और चकोरके
समान नेत्रवाली कांताको लेकर सुदर्शन नामक बनमें रमण करने के . लिये गया ॥ ३८ ॥ इसी वनके एक मागमें बाल अशोक वृक्षक
नीचे. खूत्र बड़ी पत्थरकी शिलापर मानों वालसूर्यकी शोभाको चुराने -- वाले रागरूपी मल्लको पटककर उसके डार बैठे हों, इस तरहसे बैठे
“हुए अपने अंगोंसे कृश किंतु तोसे अकृश, प्रशमके स्थान, क्षमाके ' अद्वितीय पति, परिषहोंके वशमें न होनेवाले, इन्द्रियोंको वशमें
करनेवाले, उत्कृष्ट चारित्ररूप लक्ष्मीके निवास करनेके कमल, मानों आगमका सारभूत. मूर्तिमान अर्थ ही है, स्वयं दयाका साधुवाद
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१६८ ]
महावीर चरित्र ।
ही हो ऐसे शोभन व्रतोंके धारक सुव्रत नामक मुनिको मतियुक्त, है आत्मा जिसकी ऐसे कनकध्वनने दूरसे देखा ॥ ३९-४१ ॥ खनानेको पाकर दरिद्वकी तरह अथवा दोनों नेत्रोंको पाकर जन्मान्धकी तरह मुनिको देखकर राजा भी शरीर में नहीं समा सकनेवाले हर्षसे विवश हो गया ।। ४२ ।। सब तरफसे संम्पूर्ण शरीर के हर्षित हुए रोमों-रोमांचोंके द्वारा जिवने अपने अंतःकरण के अनुरागको सूचित कर दिया है ऐसे राजाने अपने हाथोंको मुकुलित कमलके समान बनाकर धरतीपर लग गया है चूड़ामणि रत्न जिसका ऐसे शिरके द्वारा - शिरको नवाकर मुनिकी वंदना की ॥ ४३ ॥ मुनिनें उस राजाभ पापों का छेदन करनेवाली शांत दृष्टिके द्वारा तथा कर्मेका क्षय करनेवाले आशीर्वचन के द्वारा अत्यंत : नुग्रह किया । जो मुमुक्षु हैं - जिनकी मोक्ष होनेकी इच्छा रहती है उनकी भी बुद्धि: भव्य के विषय में निःस्पृह नहीं रहती ॥ ४४ ॥
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उन मुनिके निकटमें सम्मुख खड़े होकर निर्दोष है स्वभाव जिसका ऐसे विद्याधरोंके स्वामी - कनकध्वजने भक्तिले विनयपूर्वकं उदार धर्मके धारक मुनिसे धर्मका स्वरूप पूछा ॥ ४५ ॥ राजाके पूछने पर वे मुनि दर्शनमोहनीय कर्मके वश हुए मिया दृष्टियों को भी हठात् आल्हादित करते हुए इस. तरहके विकार रहिन कल्याणकारी वचन बोले ॥ ४६ ॥ सम्पूर्ण ज्ञान- केवलज्ञानके धारक जिनेन्द्र देवने जो उत्कृष्ट धर्म बनाया है उसका मूल एक जीवदया है । यह प्रसिद्ध धर्म स्वर्ग और मक्षक महान् सुखका कारण है । इसके दो भेद हैं- सागारिक और अनागारिक | सागारिकको अणुव्रत कहते हैं और अनागारिक
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... ...... .. .बारहवां सगै । . [१६९ :. महावत नामसे प्रसिद्ध है । पहला भेदं गृहस्थोंके लिये पालनीय है
और दूसरा भेद . सर्वथा त्यागी मुनियों के द्वारा पालनीय है ..४७-४८॥ हे मद्र !: समस्त वस्तुओं के नाननेवाले जिनेन्द्र देव सदग्दर्शनको इन दोनों भेदोंका मूल बताते हैं । अर्थात् सम्यग्दर्शनके विनां वास्तव में धर्म नहीं हो सकता | सातो तत्वों में निश्चय करके जो एक अद्वितीय दृढ़ श्रद्धान करना इसको सम्पग्दर्शन समझ ॥ ४९ ॥ हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच 'पापोंके सर्वात्मना त्यागको यतियोंका व्रत-महाव्रत कहते हैं, और इन्ही पापोंकी स्थल निवृत्तिवो गृहाथोंका व्रत कहा है ॥ ५० ॥ अनादि सांसारिक विचित्र दुःखोके महान् दावानलको नष्ट करने लिये इसके सिवाय दूसरा कोई भी उपाय नहीं है । अत एव पुरुषको इस विषय में प्रयत्न करना चाहिये ॥ ६१ ॥ मिथ्यात्व (अतत्त्वश्रद्धान), योग (सन, चिन, कायवे द्वरा आत्माका सकंप होना), अविरति (संयम), प्रमाद (असावधानता) तथा अनेक प्रकारके कपाय-दीपसि यह आत्मा सदा आठ प्रकारके कर्माका बंध करता है। रहं, कम ही-संसारमें निवास करनेका हेतु है ।। ५२ ॥ यह कर्मवन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञाने, सम्र कनारित्र और तप इनके द्वारा मुलमेसे उखाड़ दिया जाता हैं । जो पुरुप इन पर स्थित रहता है उनको धारण करता है स्यंत उत्सुक हुई स्त्रीके समान मुक्ति उसके पास आकर प्राप्त होती है ॥ ५३ ॥ अपनेको और परको उपताप देनेवाले इन्द्रियों के विषयोंका सुख समझ कर ज्ञानमिथ्या ज्ञानसे मूह हुआजीव सेवन करता है। किंतु नो अपनी आत्माके स्वरूपको जाननेवाला है। वह अत्यंत पाप और दृष्टिविप
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१७. ] महावीर चरित्र । ... (निसके देखनेसे जहर चढ़ जाय) सकेि समान इनसे संबंध करनेसे डरता है ॥ १४ ॥ शरीरधारियोंको जन्मके सिवाय दुसरा कोई... बड़ा दुःख नहीं, मृत्युके समान केई मय नहीं, वृद्धावस्याके समान कोई बड़ा भारी कष्ट नहीं, यह समझ कर नो. सत्पुरुष है. वे आत्माके हितमें ही लगते हैं ॥ ५५ ॥ अनादि कालसे संसार समुद्रमें भ्रषण करते हुए जीवको समस्त जीव और पुद्र प्रिय
और अप्रिय भावको प्राप्त हो चुके हैं। क्योंकि कर्म और नोकमा ग्रहणकरनेके उपयोगमें वे आचुके हैं ॥५६॥ इन समस्त तीन लोकमें कोई ऐसा प्रदेश नहीं है जहां पर यह जीव अनेकवार न मरा है हो.। इस जीवने सभी भावों का बहुतसी वार अनुभव किया है और समस्त कर्म-प्रकृतियोंका भी अनुपत्र किया है ॥५७ ॥ ज्ञानके द्वारा विशुद्ध है दृष्टि-दर्शन जिनका ऐसा जीव इस बातको अच्छी तरह जानता हुआ किसी भी प्रकारके परिग्रहमें आशक नहीं और उन सम्पूर्ण परिग्रहोंको छोड़ कर तपके द्वारा कोको मूलमेसे उन्मूलित कर सिद्धि-मुक्तिको प्राप्त होता है ।। ५८॥ कनबनके हितके लिये ऐसे वचन कह कर वे ववस्वी-वचन बोलने में कुशल साधु चुप होगये । रानाने भी उनके बत्रनोंको वैसा ही माना-.. वचनोंपर यथार्थ श्रद्धा की । जो भव्य होता है वह मुमुक्षुओंके, वायोर श्रद्धान कर लेता है ॥ ५९॥ ___.. संसारकी वृत्तिको वष्ट-दुःवरूप- समझकर और विषयोंकी'; अभिलाषाओंसे चित्तको हटाकर राजाने विधिपूर्वक तप करनेकी इच्छा: की । पुरुषके शास्त्राभ्यास करनेका सार यही है ॥ ६॥ राजलक्ष्मी के साथ नेत्रनल-आंसुओंसे भीग कर निमका दुपट्टा गीला हो .
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- बारहवां सर्ग। [१७१ गया है ऐसी अपनी कांताको छोड़कर उसी समय उन मुनिके 'निकट तपोधन-साधु होगया । जो महापुरुष हैं वै हितकर कामके सिद्ध करने में समय नहीं गमाते हैं ॥ ११ ॥ प्रमादको दुर छोड़कर
आवश्यक क्रियाओं में प्रकट रूपसे प्रवृत्त हुआ। और गुरुकी आज्ञाको पाकर साधुओंके समस्त उत्तर गुणों को सदा पालने लगा ॥ १२ ॥ I.प्मऋतु में जहां पर तीन गरमीसे समस्त प्राणी व्याकुल हो उठते हैं पर्वतकै उस शिखरके ऊपर प्रखर किरणवाले सूर्यके सम्मुख मुख करके प्रशमला छत्रके द्वारा दूर की गई है उष्णता जिसकी ऐसा "वह साधु महान् प्रतिमायोगको धारण कर सदा खड़ा रहता था । ६३॥ ऋतुमें वे मुनि जो कि दोश द्विरण करनेवाले तथा उग्रनाद करनेवाले और जलधाराको छोड़कर उसके द्वारा आठो दिशाओंको स्थगित करनेवाले सघन मेघोंके कारण विजली के चमक जानसे.देखने में आते थे, वृक्षोंके मूलमें निवास करते थे ॥ ६४ ॥ मायके महीनेमें-शीतऋतुमें जब कि धर्फके पड़नसे पद्मावंड क्षत हो जाते हैं बाहर-जंगल में रात्रियोंको जब कि हवा चल रही है वे धीर मुनि धेर्या कंबल के बलसे एक करवटसे पड़कर श्रमको दूर करते थे ॥ ६॥. आगमोक्त विधिके अनुसार विचित्र विचित्र प्रकारके समस्त महा उपवासोंको करनेवाले उस मुनिका शरीर ही कृष हुआ किंतु उदारताके धारक उसका धैर्य बिल्कुल मी कृष नहीं हुआ॥६६॥ इस संसाररूप दलदलमें फसे हुएआत्माका उद्धार किस तरह
करूंगा यह.विचार करता हुआ यह इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला योगी दुष्टः .योगों-मन, वचन, कायकी प्रवृत्तियों के द्वारा प्रमादको प्राप्त न हुआ । ६७ ॥ दूर होगई है शंका जिसकी-निःशंकित अंगका पालक,
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१७२.]
महावीर चरित्र |
तथा जिसने कांक्षाओं को दूर कर दिया है-निकांक्षित अंगका पालक जिसने अपनी आत्माको विचिकित्साओंसे हटा दिया है - निर्विचिकित्सा अंगका पालक, तथा निर्दोष हैं परिणाम जिसके ऐसा यह मुनि आगमोक्त मार्गोंके द्वारा सम्यक्त्वशुद्धिकी भावना करता था || भक्तियुक्त है आत्मा जिसकी ऐसा वह योगी प्रतिदिन यथोक्त' क्रियाओंके द्वारा उत्कृष्ट ज्ञानका और अपने - शक्तिके अनुरूप:
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चारित्रका तथा बारह प्रकारके ताका पालन करता था ॥ ६९ ॥ इस प्रकार चिरकाल तक विधुररहित चित्तवृत्तिके द्वारा प्रशमयुक्त मुनियोंके अग्रदको धारण कर अपनी आयुके अंत में विधिपूर्वक सल्लेखना त्रनको धारण कर मरण किया। यहां से कापिष्ठ-आठवें स्वर्ग में जाकर शुपविमान में वह विभूतिके द्वारा हुआ || ७० || अपने शरीरकी कांतिकी संपत्ति -बढ़ाता हुआ तथा इसी प्रकार 'देवानंद' इस अनुपम नामको अन्न - सार्थक वनाता हुआ बारह सागरकी है आयु जिसकी ऐसा वह -सुभग वहीं पर दिय अंगनाओंको राम-प्रेम उत्पन्न करता था
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और स्वयं हृदयमें वीतराग जिन भावानको धारण करता था. ॥ ७१ ॥ "इस प्रकार अशग कविकृत वर्धमान चरित्रमे 'कनकध्वज काठि ग़मन' नामक बारहवां सर्ग समाप्त हुआ
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तेरहवां सर्ग |
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शोमाको प्राप्त देवोंको आनंद:
श्रीमान और सत्यष जहां निवास करते हैं ऐसा इसी मात
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क्षेत्रमें अवंती नामका विस्तृत देश है । जो ऐसा मालूम पड़ता मानों मनुष्योंके पुण्यसे स्वयं स्वर्गलोग पृथ्वीपर उतर आया है
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हवा सर्ग। [१७३ ॥ ॥ इस देशमें ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ धान्य न हो, ऐसा कोई धान्य न.या जो पार्ककी कांति-शोमासे रहित हो, ऐसी कोई पाकसंपत्ति न थी निमपर पुलाक न हो-जिसके ऊपरकी मुसी तुच्छ-पतली न हो.। क्योंकि यह देश सदा ही रमणीयतासे युक्त रहता था ।... ॥ यहां पर ऐसा कोई मनुष्य न था जो विपूल और सारभूत धनधान्यस रहित हो । ऐसा कोई द्रव्य भी नहीं था कि जो प्रणयी पुरुषों के द्वारा अपनी इच्छानुसार अच्छी तरह अनुपमुक्त न होता हो भावार्य, उपभोग करके भी जो बाकी न बचता हो ऐसा कोई द्वय न था ॥३॥ ऐसी कोई पुरन्ध्री-रमणी नथी नो रमणीयतासे रहित हो। ऐसी कोई रमणीयता मुंदरता न थी कि जिसमें एमगता ने पाई जाया ऐसी कोई सुमगता न यी जो शीलरहित हो, ऐसा कोई शील भी नहीं था कि जो पृथ्वीपर प्रसिद्ध न हो | ऐसी कोई नदी नहीं थी जो जलरहित हो । ऐमा कोई जल न था जो स्वादरहित और शीतल न हो, तथा जहाँक पिये हुए जलकी प्रशंसाः पथिकोंके समूहसे नियमस न सुनी हो ॥ ५ ॥ ऐंमा कोई वृक्ष न था कि जो पुष्पोंकी शोमासे रहित हों। ऐसा. कोई पुष्प न था जो अतुल सुगंधिसे खाली हो। ऐसी कोई सुगंधि न यी जो भ्रमरोंकी पंक्तिको ठहरानेमें विकुछ अक्षमअसमर्थ न हो ॥ ६ ॥
इसी देशमें अपनी कातिके द्वारा जिसने दूसरे नगरोंकी आ.. शरीरको बास्तवमें सुडौलता.. २ ऐसा शरीर कि जो दूस:रेको देखने में अच्छा लगे। क्योंकि कोई.२ शरीर वास्तवमै सुडौल. सुंदर होनेपर भी देखनेवालेको प्रिय नहीं मालूम होता।
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१७४ ] महावीर चरित्र ।
.......... श्चर्य उत्पन्न करनेवाली संपत्तिको जीत लिया है ऐसी प्रसिद्ध उ.. जयनी नामकी नगरी है । जो ऐसी मालूम पड़ती है मानों समस्त उज्ज्वल वोकी श्रीसे युक्त आकृति ही है ॥ ७ ॥ उज्ज्वल भूः . पणोंको धारण करनेवाली रमणियां जिनके ऊपर खड़ी हुई हैं ऐसे .. सुधा-चूना-कलईसे धवल हुए. उत्कृष्ट महलोंसे यह .नगरी ऐमी : : मालूम पड़ती मानों जिसमें विनली चमक रही हो ऐसे शरद बस्तु के धाल मेघोंसे व्याप्त मेर-पदवी ही हो ॥ ध्वनाओंके वस्त्रों.. से अत्यंत विरल हो गई है आपलक्ष्मी निरुकी ऐमा स्थगित : हुआ सूर्य वहांपर ऐना दीखता है मानों सुवर्णपय कोटमें लगे हुए 'निर्मल रत्नोंकी प्रभाओं-किरणों के पटलसे जीत लिया गा हो ..
॥ ९ ॥ नहायर क्रिया है अपराध जिसने ऐसा प्रियतम और शा:: • सकी सुगंधके वश हुआ भ्रार बार बार हाथों के अप्रमागासे ताड़ित होनेपर.प्रमदाओं के सामनेसे हटा नहीं है ॥ १०॥ इप'. नगरीमें रहनेवाले पनि पुरुष चारो तरफ आकर उस्कृष्ट रनों • समूहको स्वयं प्राप्त करते हुए अर्थियों-यात्रों के द्वग कुबेरक भा.. • पदों-नागोंको संरत्तिको भी लजित कर देते हैं ॥ ११ ॥ इम..
नगरीकी श्री या नगरी मुनंगोंसे वेष्टित थी इसलिये ऐसी मालूम • पड़ती थी मानों वाल चंदनवृक्षकी लता हो । इसपर भी वह अ- त्यन्त रमणीय और.सदा विबुधों ( पंडितों, दूसरे पक्षमें देवों) के . --समूहसे भरी रहती थी इसलिये ऐसी मालूम पड़ती थी मानों स्व:
गपुरी ही है ।। १२ ।। .. .. . .: . . . मत्र नगरोंमें सिद्ध-प्रसिद्ध इस नगरीमें 'वज्रसेन यह
प्रसिद्ध है नाम जिसका ऐसा राजा निवास करता था । इसका 0
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तरहवा सर्ग।
[ १७१ रीर वजका-साररूर-उत्कृष्ट संहननका धारक था । बजायुध-इन्द्रके समान इसका हाय मी वज्रने भूपित रहता था ॥ १३ ॥ जिसके हृदयमें निरंतर निवास करनेवाली लक्ष्मीको देखकर और निरंतर ही 'जिनके मुख में रही हुई श्रादेवीको देखकर मानों कोप करके हो उस रानाकी कुंद पुष्पके समान धाल कीर्ति दिशाओंमें ऐसी गई जो फिर लौटी ही नहीं ॥ १४ ॥ निपका हृदय युद्धकी अभिलापाओंके वश हो रहा था ऐना यह राजा कभी भी युद्धको न देखकरें अपने उन.प्रतापके प्रारकी बड़ी निंदा करता था जिसने कि दूरसे ही समस्त शत्रुओंको नम्र बना दिया ॥ १५ ॥
निर्म-निर्दीर है कर (टेक्स; दूसरे पक्ष किरण समूह) जिका ऐसें इस रान.की कमनीय और अमिन्न पुशीला नामकी महिपी. थी। जो ऐसी मलू। पड़ी थी मानों कमलवनके बंधुचंद्रमाकी चांदनी हो ॥ १६ ॥ पृथ्वी में दूसरा कोई भी जिनके समान नहीं ऐसे वे दम्पति-त्री पुरुष परस्सरको एक दूसरेको पाकर "रहने लगे। वे दोनों ही ऐसे मला पड़ते थे मानों सर्व लोक के “नेत्रको आनंदित करनेवाले मूर्तिमान् कांति और यौवन 'ये दो. गुण हैं ॥ १७॥ वह पूर्वोक्त देव स्वर्गके सुख मोंग कर अंतमें पृथ्वीरर इन दोनों श्रीमानोंके यहां सत्पुरुषोंका अधिति अग्रगीय धीवुद्धि और अत्यंत मनोज्ञ हरिषेण नामका पुत्र हुभा ॥ १८ ॥ अपनी देवी-रानी के साथ साथ अत्यंत स्पृहा करता हुआ राना नवीन उठे हुए-(उत्पन्न हुए; दूसरे पक्षमें उदय ईए) कलाधर-चंद्रमाकी तरह किसको. प्रीतिका कारण नहीं होता है। ॥ १.९ ॥ लोक-जीवन-कर स्थितिसे युक्त तथा अनंदिनसत्व
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१७६ ] महावीर चरित्र । ....... . (जिसका सद-राक्रम अनंदित है; दूमरे पक्षमें अनंदित है सन-प्राणी जिसमें अथवा सारभूत रत्नादिकं जिसमें) बहुतसे सारा गुणोंके. एक-अद्विनीय समुद्रके समान इस पुत्रको रानविद्याएं . नदियोंकी . तरह स्वयं आ आकर प्रप्त हुई ॥ २०॥ . . .....
इसी तरह कुछ दिन बीत जानेपर एक दिन पुत्र सहित राना वज्रसेनने श्रुतसागर नामके मुख्य मुनि-आचार्यसे: धर्मका स्वरूप सुना । जिससे वह विषयोंमें बिलकुछ निःस्पृह हो गया ॥२१॥ . पृथ्वीतलका नो भार था उसके- आर. आंसुओंकी कणिकाओं व्याप्त हो गये हैं नेत्र जिसके ऐसे पुत्रको नियुक्त कर राना उन मुनि महारानके निकट में मुनि हो गया। जगतमें जो मय होता है वह संपारसे डरा करता है ।। २२ ।। पूनिन्ममें निसका अभ्यास किया था उस सम्पग्दर्शनके द्वारा निम हो गया है. चित्तनिसका ऐसे हरिषेणने श्रावकों के सम्पूर्ण वनों-बारह व्रतोंको धारण किया। श्रीमानोंका अविनय बहुत दूर रहता है ॥ २३ ॥ .जिस प्रकार : सरोवरमें रहते हुए भी कमल कीचके लेशसे भी लिप्त नहीं होता है उसी.तरह पापके निमित्तभून राज्यपर स्थित रहते हुए भी उससे : पापने स्पर्श न किया । क्योंकि उसकी प्रकृति शुचि-वित्र और संग (मूळ-ममत्वपरिणाम; दूसरे पक्षमें जलका संसर्ग) से रहित थी । ॥२४॥ चारों समुद्रोंका तट जिसकी मेखला है ऐसी बहुमती-- . थ्वीका शासन करते हुए भी इस रानाकी बुद्धि यह आश्चय,
है कि प्रतिदिन समस्त विषयोंमें निस्गृह रहती थी ॥२५॥ : यौवन-लक्ष्मीके धारण करते हुए भी. उसने नियमसे : : : शांत वृत्तिको नहीं छोड़ा जगत्में जिसकी बुद्धि कल्पाणकी तरफ :
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. तेरहवा सर्ग। . [१७७ लगी हुई हैं. वह तरुण भी क्या प्रशांत नहीं हो जाता है ! ॥२६॥ योगस्थान: साम दान आदिके : जाननेवाले मंत्रियोंसे केप्टिन रहते हुए भी वह उग्र नहीं हुआ । सर्पके मुखमें नो विप रहता है उसकी अग्निसे युक्त रहते हुए भी चन्दन या अपनी शीतलताको छोड़ देता है. ॥ २७ ॥ उसने कुलस्त्रीका ग्रहण कर रखा था तो मी नीतिमार्गका समुद्रं वह राना कामदेवके क्श नहीं हुआ था। कामदेवस्वरूरखीके रहते हुए भी निसके मनमें राग नहीं आता है वही धीर है ॥ २८ ॥ यह राना तीनों गाल (प्रातःकाल, मध्यान्हकाल, सायंकाल)गंध, माला, बलि-नैवेद्य, धूर, वितान-चंदोवा यां समस्त वस्तुओं के विस्तारमें भक्तिसे शुद्ध हुए हृदयसे जिनेन्द्रदेवकी पुजन करके बंदना करता था। गृहवा में रत रहनेवालोंका फल यही है ॥ २९ ॥ आकाशमें लगी हुई हैं पताका जिसकी और सुंदर वर्णवाली सुधः-कलईसे अच्छी तरह पुती हुई ऐमी इसकी बनवाई हुई मिनमंदिरोंकी पंक्ति ऐसी मालूम पड़ती थीं मानों उसकी मूर्षिती पुण्य-संपत्ति हो ॥ ३० ॥ निसका हृदय प्रशंसके द्वारा सदा भुषित रहता था ऐसे इस नीतिके जानने वाले राजा हरिषेणने मित्रों के साथ साथ अपने गुणों के समूहोंसे शत्रुओंका अच्छी तरह नियमन करके पूर्वोक्त रीतिसे चिरकाल तक राज्य किया.॥ ३१ ॥..... .....
एक दिन. इस हरिषेणके शांत कर दिया है 'भूरलका ताप.. जिसने ऐसे अत्यंत तीक्ष्ण प्रतापको देखकर मानों सजासे ही सूर्यने । अपने दुर्नयवृत्तोंसे आतथ लक्ष्मीको, संकोच लिया ॥ ३२ ॥ विस्तृत दावानलके समान किरणोंसे इस जगत्को मैंने तपायो यह. ...', '१२.:
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१७८ ] महावीर चरित्र । क्र-खेदकी वास है । मानों इस पश्चातापके कारणसे ही सूर्य उसी : समय नीचेको मुख कर गया ॥ ३३ ॥ बिल्कुल कुंकुमकी युतिको: धारण करनेवाला सुर्यका मंडल - दिनके अंतमें-सायंकालमें एमा, मालन पड़ता था मानों मुयने जो अपनी किरण संकोची, उन द्वारा जो कमलिनियोका राग जाकर प्राप्त हुआ वही सब इक्छा होगंगा है या उसीका एसा आवार बन गया है ॥ ३४ ॥ सूर्यको वारुणी (पश्चिम दिशा; दुसरे पक्षमें मदिरा). में रस-आशक्त देख । वर मानों निषेध करता हुआ-उसको ऐसा करनेसे रोवता हुआ दिन भी उसीके पास चला गया। ठीक ही है-जगतमें किसको उन्मार्गमें जाते हुए मित्रको नहीं रोकना चाहिये। ॥ ३५ ॥ कहीं जानकी इच्छा रखनेवाला कोई पुरुष जिस तरह अपने महान् : धनको फिर ग्रहण करने के लिये अपने प्रिय पुरुपोंके मां रख देता है, उसी तरह सूर्यन भी चक्रवाक युगलके निवट परितापको. रक्खा। भावार्थ-पश्चिम दिशाको जानेवाला सर्य अपने प्रिय चक्रवांकयुगलके पास अपना महान् धन-पासिलारकी धरोहर इस अभिप्रायसे रख गया कि सबेरे आकर मैं तुमसे अपना. यह धन लौटा. लंगा" ॥ ३६ ॥ अस्त हुए सुयको छोड़कर झरोंखोंके मार्गसे पड़ी हुई. दीप्तियोंने मानों जिसका कभी नाश नहीं हो सकता ऐसे सदा: प्रकाशमान रत्नदीपको पानके लिये ही क्या परके . भीतर स्थिति, की-॥ ३७ नम्र, जिसके कर (किरण, तथा हाथ )के आगेकी , श्री. मुकुलित हो गई है, अत्यंत राग (लाल, तथा प्रेम ):मय है : .आत्मा निस्की ऐसे विदा होते हुए सुर्यको रमणियोंने ठीक प्रियकी तरह आदर सहित देखा ॥३८. इस जगतमें पूर्वकी (पूर्व दिशाकी
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तेरहवां सर्ग ।
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[ १७९ या पूर्व कालकी ) विभूतिसे रहितका सम्मान कैन होता है यां हो सकता है, इस बात को जान करके ही मानों सूर्यने अपने शरीरको अस्ताचल के भीतर छिपा लिया ॥ ३२ ॥ नम्र हो गई हैं शाखायें जिनकी ऐसे वृक्ष शीघ्र ही आकर प्राप्त हुए- अ. कर बैठे हुए पक्षियोंके कलकल शब्दों के द्वारा यह सूर्य या स्वामी हमको छोड़कर जा रहा है ऐसा समझकर मानों स्वयं अनुताप करने लगे। ठीक ही है - मित्र (स्नेही; दूसरे पक्ष में सूर्य ) का वियोग किनको संतापित नहीं करता है ॥ ४० ॥ चक्रवाक युगलको नियमसे परस्परमे दुरंत पीड़ा संहते हुए देखनेके लिये अरमर्थ ॥ के विचारसे ही
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कमलिनीने कमलरूप चक्षुको बिल्कुल मींच लिया ॥ ४१ ॥ चये हुए : समस्त विश- कमलतंतुके खंडंको छोड़कर मायंकाल के समय आक्रं 'दन करता हुआ मुखको मोड़ हर अत्यंत मूलि होग हुआ चक्रवाकका जोड़ा वियुक्त हो गया ||४२ ॥ वरुण दिशा - पश्चिम दिशामें जो कुसुमके समान अरुग है कांति जिसकी ऐसी होती . हुई . संध्या ऐसी मालूम पड़ी मानों सूर्यके पीछे गमन करती हुईं "दीप्तिरून वधुओंके चरणोंपर लगे हुए महावरसे रंगा महावरसे रंगा हुआ मार्ग ही
| ४ ३ || मधु - पुष्परस से चंचल हुए अपर मुकुलिन हुए कपलोंको बिल्कुल छोड़ना नहीं चाहते थे। जो कृतज्ञ है-किये हुए उपका
को भूलनेवाला नहीं है. वह ऐमा कौन होगा जो अपने 'उपकारीको आपत्तिमे फँसा हुआ देखकर छोड़ दे ॥ ४४ ॥ अपूर्व - पश्विन "दिशाके मध्यको उसी समय छोड़कर संध्या भी सूर्यके पीछेर चली गई। 'जो अत्यंत रक्त ( अशक्त, दूसरे पक्षमें लाल ) होती है वह अपने शक्ति नहीं रखती ॥४५॥
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'बलम को छोड़कर दमरेमें बिल्कुल
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१८. ] महावीर चरित्र : : गौओंके खुरोंसे उठी हुई गधेके वालोंके समान धूम्रवर्णवाली धूलिसे आकाश रुंध गया-व्याप्त हो गया। मानों वह सत्रका सब आकाश चक्रवाक युगलको दाह उत्पन्न करनेवाली कामदेवरूप अग्निसे : उठते हुए सांद्र निविड़-घने धूमके पटोसे ही आछन्न हो गया हो ॥ ४६ ॥ इसी समय सांद्र विनिन्द्र चेलाकी अधखिली कलियों की शीतल गन्धसे युक्त सायंकालकी वायु भ्रमरोंके साथ साथ :: मानिनियों को भी अंधा बनाती हुई मंदमंद वहने लगी.॥४७॥ क्रीड़ाके द्वारा शीघ्र ही कोकिनके सराग वचन कानके निकट मा कर प्राप्त हुए। आम्रगलाकी तरह उसने भी मानिनियों के मुखको शोभा विचित्र ही बढ़ाई ।। ४८ ॥ जो अवकार दिमें दिननाथसूर्यके भयसे पर्वतोंकी बड़ी बड़ी गुफाओं छिी गुण था वहीं अन्धकार सर्यके जाते ही बहने लगा । जो मलिन होता है. वह : रन्ध्रको पाकर बलवान हो ही जाता है ॥ ४९॥ अधकारके सपन । 'पटलोंसे प्राप्त हुआ नात भी चिरकुल काला पड़ ग. । विदलित' : की है अननंकी प्रभाको जिपने ऐसे अंधकारके.साथं हुआ. योगसम्बन्ध-श्री-शोमाके लिये थोड़े ही हो सकता है ।। ५० नो.
प्रकाशयुक्त हैं उनका अविषण, निऽकी गति कष्टसे भी नहीं मा.. लूम हो सकती है, जिसने सीमा-पर्यादाको छोड़ दिया. है: ऐसे...
तथा. सड़को अपने समान बनानेवाले मलिनात्मा अंधकार-समूहने । दर्जनकी वृत्तिको धारण किया ।। ५१ ॥ रत्न दीपकों के समूहन गाढ़ अन्धकारको महलोंसे दूर भगा दिया। मालूम हुभाः मानो मर्यके अंकारको नष्ट करनेके लिये अपने करांकुरका दंड ही भेजा है ॥:५२ ॥ छिगलिगा है रूपको जिन्होंने तथा रक्त (आशक्तः ।
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तेरहवां सर्ग। [१८१ पुरुष दुसरे; पक्षमें खून.) के रागसें विवश हो गया है चित्त जिनका ऐसी कुलटायें चारों तरफ हर्षसे अभिप्रेत स्थानोंको गई जो ऐसी मालूम पड़ती थीं मानों पिशचिनी हो ।।.५३ ॥ पूर्व दिशा ऐसी. मालूम पड़ने लगी मानों दीनभावोंको धारण करनेवाली विध. वाली हो क्योंकि निकलते हुए चंद्रमाके किरणांकुरोंके अंशोंसे उसका मुख पोला पड़ गया था; और फैले हुए अंधकारने केशोंका रूप धारण कर लिया था ॥ १४ ॥ चंद्रमाके कोमल पादों (किरणों; दूसरे पक्षमें चरणों ) को धरण करता हुआ उद्या उदयगिरिः मी. शोभाकों प्राप्त हुआ । अत्यंत निर्मल व्यक्तिमें किया हुआ प्रेम उन्न व्यक्तिकी शोमा ही बढ़ाता है ॥२५॥ : उदयाचलके भीतर छिपे हुए चंद्रमाके किरणजालने अंधकारको पहलेसे शीघ्र ही नष्ट कर दिया। अपने समयमें उद्या हुभा व्यक्ति जो प्रतिपक्षको जीतने की इच्छा रखता है उमसे आगे जानेवाला - लवान होता है ।।.५६ ।। पहले तो उदयाचलसे चंद्रमाकी एक विद्वम-मूंगाके समान कांतिकी धारक कलाका उदय हुमा। इसक बाद आंधे चंद्रमांका और उसके बाद पूर्ण त्रिम्बका उदय हुआ। ठीक ही है-जगत्में वृद्धि करसे. नहीं होती है ? ।। ५७ ॥ नवीन उठा हुआ. हिमंकर-चंद्र अपनी प्रिया. यामिनी-रात्रिको अंधकार रूप मीलने पड़ी हुई देखकर मानों :कोपपूर्ण बुद्धि से ही एकदम • लाल पड़ गया ॥ १८ ॥ जो रागी पुरुप होता है उससे यह नियम
है कि कोई मी अपिमत कार्य सिद्ध नहीं होता है। मालूम पड़ता हैं मानों यह समझ करके ही चन्द्रमाने निविड़ अंधकारको नष्ट करनेके लिये रागको छोड़ दिया.॥ ५९ ।। अत्यंत सांद्र चंदन के समान
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१८२ ] महावीर चरित्र । ... द्युतिको धारण करनेवाला है वित्र जिसका ऐसे श्वेत. किरणोंके . धारक चंद्रने इन्ढे हुए अंधकारको भी शीघ्र ही नष्ट कर दिया। निसका मंडल शुद्ध है वह किस कामको सिद्ध नहीं कर सकता है ? ॥६०॥ कमलिनी, प्रखर नहीं हैं किरण जिसकी ऐसे चंद्रमाकी पादों (किरणों; दूसरे पक्षमें चरणों) की ताड़नाको पाकर भी हमने । रगी। सम्मुख रहे हुए प्रिगतमकी चेष्टा क्या बंधुओंको सुखके लिये नहीं होती है । ६१ ॥ सरस चंदनकी पंकके समान है छाया जिसकी ऐसी ज्योत्स्ना-चांदनीक द्वारा भरा हा समस्त जगत । ऐसा मालूम पड़ा मानों चलायमान होते हुए क्षीर समुद्रकी नष्ट नहीं हुई है जलस्थितिकी शोभा निसकी ऐसी वेलाके द्वारा ही व्याप्तः, होगया है ।। ६२ ॥ तुहिनांशु-चंद्रमाकी शीतल किरणों के द्वारा भी कमलिनी तो हिलन चलने लगी या प्रसन्न हो उठी, पर क चक्रवाक ज्योंका त्यों ही बना रहा। अभीष्ट वस्तुका वियोग होना-:: नेपर और कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो प्राणियोंको हर्प उत्पन्न कर सके ॥ १३॥ अगाध त्रासे भीतर बहती हुई। वासनायें जहां पर ऐसे मानिनी जनोंके मनको चंद्रमाकी किरणोन है समुद्रके नलकी तरह दूरसे ही यथेष्ट उल्वण-बड़े भारी क्षोभको प्राप्त कर दिया ।। ६४ ॥ अपने मित्र पूर्ण चंद्रको पाकर अनंगने भी। झटसे सब लोगोंपर विनय प्राप्त करली । ठीक ही है मौके पर अच्छी संहायताको पाकर तुच्छ व्यक्ति भी विजय-लक्ष्मी प्राप्तः कर लेता : है॥६५॥ कुमुद कमलके केसरकी रेणुओंको बखेरता हुआ वायु...। सांद्रचंदनके समान शीतल था तो मी प्रियोसे वियुक्त हुई वधुओंको.. वह दुःसह होगया । उनको मालुम पड़ामानों यह कामदेवरूप अग्निके
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तेरहवां सर्ग। [ १८३ स्फुलिंगोको बखेर रहा है ॥६५॥ अभिमत-प्रियका स्थान
दूर था तो मी वहांवर मदिराक्षीको मार्ग बतानेमें अत्यंत दक्ष और • मनोज्ञ चंद्रिकाने प्रिय रसकी तरहसे विना किसी तरह खेदके पहुंचा दिया ॥.६७॥ युराको दृष्टिमार्गमें आकर नम्र होते ही न कुछ देर में प्रयत्न पूर्वक सम्हाली हुई भी रमणियोंकी मानसंपत्ति भृकुटीकी तरह वस्त्र के साथ साथ ढीली पड़ गई ॥६८॥ सखियोंमें 'बिना कुछ कहे ही या इस हेतुसे कि कहीं सखियोंमें निंदा न हो जिसने दोष-अपराध किंा था ऐसे प्रियके प्रास भी मदिरा-नदसे उत्पन्न हुए मोह-नशेके छलसे शीघ्र ही चली गई। प्रेस किसके. मायाको. उत्पन्न नहीं कर देता है ! ॥ ६९ ॥ बल्लमको सदोषसापराध देखकर पहलेसे ही कुपित हुई भी किसी कामिनीने संभ्रम नहीं छोड़ा। स्त्रियों का हृदय नियमसे अत्यंत गूढ़ होता है ।।७०|| . वेश्या हायमें बिल्कुल दूसरे पर आशक्त थी तो भी धनिक कामुके इस तरह वशमें होगई मानों इसीर आशक्त है। धन किसको वशमें नहीं कर लेता है ? ॥ ७१ : ... इस प्रकार कामदेवके वश हुए कामयुगों-धर्म, अर्थ, पुरुषार्थों
के साथ साथ खिले हुए कमल समूहके समान है श्री-शोमा जिसकी ऐसे राजाने प्रियाके साथ चंद्रमाकी किरणोंसे निर्मल और रम्य 'महलमें रात्रिको एक क्षगकी तरह विजा दिया।। ७२ ॥ धीरे धीरे 'नाकर विस्तीर्ण करोंसे ( फैली हुई किरणोंसे दूसरा अर्थ हाथोंको ..फैलाकर) लोल-चंचल हैं । तारा ( नक्षत्र, दूसरा अर्थ आंखकी पुतली) जिसके ऐसी प्रतीची-पश्चिम दिशाका चंद्रपाके आलिंगन करते ही.यामिनी-रात्रिने मानों कुपित हो करके ही झटसे कुमुद
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१८४ ] महावीर चरित्र : -.:. नत्रोंको कुछ मींचकर दूरसे ही विपरीतता ( विनाश, दुसरा भय विरुद्धता) धारण करली ॥ ७३॥ ___ रात्रिके अंत समयमें महलके कुंनोंको जिन्होंने प्रतिध्वनित करदिया है ऐसे पूर्ण अंगवाले अत्युज्मल वैबोधिर-चंदीगण नमादिया। है शत्रुओंको जिपने ऐमें उस रानाको जगाने के लिये उसके निवार महलके आंगन में आकर ऐसे स्वरसे पाठ करने लगे निसको सुनेत
ही आनन्द आनाय || ७४ ॥ .... ___कामदेवसे संतप्त हुए मनवालोंकी तरह दंपतियों की धैर्य और लजासे चेष्टाओंको देखकर मानों लजित हो करके ही रननीरात्रि चन्द्र-मुखको नीचा करके हे सुमुख ! विमुख होकर कहीं। जा रही है ॥७५॥ नवीन मोतियों के समान है आमा :निनकी ऐमी : ओमकी बूनोंसे व्याप्त हुए वृक्ष ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों .. शीतल है वांति निसकी तथा कोमल है कर-किरण जिसकी ऐसे चंद्रपाके रससे भीगे हुए तारागणों के स्वद-जलकी आकाश पड़ी हुई.. . बड़ी बड़ी बूंदोंसे ही व्याप्त हो रहे हैं ॥७६॥ विकाशलक्ष्मीने जिनको
छोड़ दिया है ऐसे कुमुदोंको-चंद्र विकाशी कमलोंको मधुरानसे लोल हुए भ्रमर हे नाथ ! खिते हुए कमलोंकी सुगंधिसे सुगंधित कर दिया है दिशाओंको निसने ऐसे कमलाकर-कमलवनकी तरफ ना रहे हैं। उत्तम सुगंधिवाले के पास सभी लोग जाते हैं ।।.७७ ॥ थके हुए कोक-चक्राकने जबतक दोनों पंखोंको फड़फड़ाया भी। नहीं है तबतक रात्रिके विरह-जागरणसे खिन्न हुई भी कई गाने ।
लगी। अधिकतर युवतियां ही पुरुषों से स्नेह किया करती हैं.॥ - ७८ ॥ तत्काल खिले हुए कमल ही हैं नेत्र जिसके ऐसी: यह
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तेरहवां सर्ग। [१८५ दिवसलक्ष्मी अति रक्त ( लाल रंगवाला; दूसरे पक्षमें आशक्त) धीरे धीरे प्रकट होकर पूर्व प्रकाशित कर' (पूर्व दिशामें फैलाया है किरणोंको जिसने दूसरे पक्षमें पहलेसे फैलाये हैं हाय जिसने ) ऐसे इस सूर्यका इस तरहसे आलिंगन करती है जैसे कोई मानिनी युचाका आलिंगन करे. ।। ७९ ॥ इस प्रकार मागधों-चंदीगणों के वचनोंसे-वचनोंको सुनकर उसी समय निद्राका परित्याग कर वह गाना-कामदेवकी फांसकी तरह.गलेमें पड़ी हुई प्रियाकी दोनों बाह लताओंकों मुफलसे अलहदा करता हुआ सोनेके स्थानसे उठा ॥८०॥ - इस प्रकार, स्फटिक समान निसल, अखंड-निरतीचार श्रावक बतोंको तथा राज्यलक्ष्मीको धारण करनेवाले उस नग्नाथपति-राजराजेश्वरके अनेक संख्यांयुक्त वर्ष सुखपूर्वक वीत गये ॥ १ ॥ तब एक दिन यह सेना प्रमद वनमें विराजमान सुरतिष्ठ नापक मुनिराजको देखकर तपोवन होगया । और प्रशममें रत रहता हुआ चिरकाल तक तपस्या करने लगा ॥ ८२ ॥ विधिक जाननेवाले इस प्रसिद्ध मुनिने आयुके अंत में विधिपूर्वक सल्लेखनाको धारण करके अपनी कीर्तिसे पृथ्वीको और मूर्तिसे-शरीरसे या आत्मासे महाशुक्र
वर्गकों अलंकृत. किंग ॥ ८३ ॥ अनला हैं मान--प्रमाण जिसका : ऐसे प्रीतिवर्धन विमानमें पहुंचकर सोलह सागरकी आयुका धारक
देव हुआ । इसकी सूप-संपत्ति दिव्यः अंगनाजोंके मनका हरण करनेवाली थी। वहांपर विचित्र -अनेकप्रकारके सुखोंको भोगता हुआ रहने लगा ।। ८४ ॥ .. . . .
इस प्रकार अशर्ग कवि कृत वर्धमान.चरित्रमें हरिषेण महाशुक्र :.. गमनो' नाम .तेरहवां सर्ग समाप्त हुआ।
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महावीर चरित्र ।
चौदहवाँ सर्ग |
इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहमें सदा मनोहर ऐसा कच्छ नामका एक देश है । जो कि सुरसरित सीताके परिचय-तटको अपनी कांतिके द्वारा प्रकाशित कर प्रकट रूपसे अवस्थित है ॥१॥ पृथ्वी तलको भेदकर उठ खड़ा हुआ लोक है क्या? अथवा, क्या देवताओंका निवास स्थान स्वर्ग पृथ्वीको देखनेको आया है ? इस प्रकार इन नगरीकी महती शोभाको देखते हुए स्वयं देवगण भी क्षणभरके लिये विस्मेय- आइचर्य: करने लगते हैं ||२|| इस देशमें क्षेपति नामको धारण करनेवाला नगर है जो ऐमा मालूम पड़ता है मानों तीनों लोक इकडे. हो गये हों। यह नगर सद्वृत्त - बिल्कुल गोल या सदाचार प्रकृति से युक्त विभिन्न वर्णोंसे व्याप्त, और पृथ्वीके तिलकके समान था ॥ ३ ॥ नीतिको जाननेवाला जिसने शत्रुओंको नमा दिया है ऐसा धनंजय नामका राजा उम नगरका स्वामी था । जिसने अति चपल लक्ष्मीको भी वश में कर लिया था। महा पुरुषोंको दुःष्कर कुछ भी नहीं है ॥ ४ ॥ इस राजाकी ईषत् हासयुक्त है मुखं जिसका तथा सकल चलाओं में दक्ष है बुद्धि जिनकी ऐसी कल्याणीकल्याण करनेवाली प्रभावती नामकी प्रसिद्ध रानी थीं। जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों उज्जाका हृदय हो, अथवा कामदेवकी अद्वितीय विजयपताका हो || ५ || श्रेष्ठ स्वप्नोंके द्वारा पहले से
१८६ ]
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सुचित कर दी है चक्रवर्तीकी लक्ष्मी जिसने ऐना वह देव उ स्वर्ग से - महाशुक्र नामकं दशर्वे स्वर्गसे पृथ्वीपर उतरकर इन दोनोंके
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. चौदहवां सर्ग। . [ १८७ mimiminnan nown यहां मूर्तिमान् प्रशस्त यज्ञके समान प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ ॥६॥ बुद्धिवपत्रके लोममें पड़ी हुई समस्त विद्यायें उसकी पहलेसे ही प्रत्यक्ष उपासना करने लगी। मालूम हुआ मानों उसको शीघ्र पाने के लिये अत्यंत उत्सुक हुई साम्राज्य-क्ष्मीकी प्रधान 'दुतिकार्य ही हों ।। ७ ।। निम तरह निर्मल रत्नोंका आधार समुद्र होता है. उसी तरह वह कुमार भी अत्यंत निर्मल समस्त गुणोंका भानन बन गया । पर यह बड़ी विचित्र हुई जो लावण्य (सौंदर्य; समुद्र पक्षमें खारापन ) को धारण करते हुए भी समस्त दिशाओं में ही नहीं किंतु लोकमामें मधुरता फैल गई ॥ ८ ॥ चंद्र. माकी तरह द्वित्त (सदाचारी; दुमरे पक्षमें बिल्कुल गोल ) समस्त कलाओंको धारण करनेवाला, अनेक. मृदु पादों (चरणों; दुसरे पक्ष में किरणों ) की सेवा करनेवालों को आनंद बहानवाला, तथा सम्पूर्ण कुमारने नवीन यौवनके द्वारा बड़ी मारी रूपशोभाकी सामग्रीको प्राप्त किया ॥ ९ ॥ वसंत समयमें नवीन पुष्ष लक्ष्मीको निसने धारण कर रखा है ऐमा कुमार दुमरोंको छोड़कर हर्पको प्रप्तकर .पड़ते हुए.मत्त बधुओंके चंचल नेत्रोंसे ऐसा मालूम पड़ता था मानों भ्रमर समूहोंसे ही एकत्रित हो रहा हो ॥ १० ॥
___ एक दिन वह रामा धनंजय क्षेमंकर मुनिराजके निकट जाकर तथा उनके अदिष्ट धर्मको एकाग्र चित्तसे भले प्रकार सुनकर अत्यंत-उत्कृष्ट विरक्त बुद्धि-मुनि हो गया ॥ ११ ॥ अपने मुल उस मुख्य पुत्रके ऊपर लक्ष्मी-राज्यलक्ष्मीको छोड़कर शीघ्र ही दीक्षित हुभा राना बहुत ही शोमाको प्राप्त हुआ । संसारके व्यहनको नष्ट कर देनेवाली तपस्था कि मुमुक्षुकी शोमाके लिये नहीं
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महावीर चरित्र 1.
होती है ॥ १२ ॥ वह राजा स्वभावमय आत्मस्वरूप और उज्ज arrest तथा समस्त अणुत्रतों को पंथावत् धारण करता हुआ जैसा हर्षित हुआ तैसा दुःबाप्प दुः पाप्य राजाधिराजलक्ष्मी को पाकर मी हैंर्षित न हुआ ॥ १३ ॥ स्वरित्रोंके द्वारा शत्रुगणने स्वयं खिचे हुए आकर उसकी किंकरता धारण की। चंद्रमा की किरणोंक स -मान शुभ्र सत्रुषोंके गुण के समूह किसको विश्वास नहीं कर देते हैं ॥ १४ ॥
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एक दिन सभागृह में बैठे हुए नरपतिके पास समाचार सुनाने चाला घड़ाता हुआ कोई सेवक आकर विना नमस्कार किये हो हर्षसे इस तरह बोला । अत्यंत हर्ष होनेपर कौन संचनन - सावधान रहता है || १५ || हे विनत नरेन्द्रक ! (नत्र बना दिया है राजा, ओंका समूह जिनसे) निर्मल कांतिनले उत्कृष्ट आयुर्योकी शाला में चक्र उत्पन्न हुआ है। वह कोटि सुर्योकी विम्बके समान दुःप्रेक्ष्य है। और उसकी यक्षोंके स्वामीगण रक्षा कर रहे हैं ॥ १६ ॥ वहीं पर • निकलती हुई मणियोंकी प्रमासे वेष्टित दंड रत्न और शरद ऋतु के
आकाश समान आमाका धारक खड्ग रत्न उत्पन्न हुआ है तथ
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चंद्रमा की चुतिके समान रुचिर श्वेत छत्र उत्पन्न हुआ है जो ऐस - मालूम पड़ता है मानों साक्षात् आपका मनोहर यश ही हों ॥१॥ कोषगृह - खजाने में फैलती हुई किरणों के समूहसे जिसने दिशाभाको व्याप्त कर दिया है ऐसी चू नामक मणि उत्पन्न हुई है । इमोक . साथ साथ तत्क्षणं किरण पंक्तिले प्रकाशित होनेशका काकीणी, रत्न हुआ है और हे भूपेन्द्र ! वृति- ांति से विस्तृत धर्मरत्न उत्पन्न हुआ है ॥ १८ ॥ पुण्यके फरसे आकृष्ट हुए मंत्री गृहपति
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चौदहवां सर्ग |
[ १८९ और स्पाति हैं, मुख्य जिनमें ऐसे द्वारपर खड़े हुए रत्नभूत - रत्नस्त्ररूप सेनापति हस्ती और घोड़ा हे' मूगल ! कन्यारत्नके ऊपर मापके कटाक्षपात की अपेक्षा कर रहें हैं ॥ १९ ॥ कुबेरकी लक्ष्मीसे नव निधि उत्पन्न हुई हैं जो कि अपने वैभवोंसे सदा विभूतियोंको उत्पन्न किया करती हैं। पूर्वजन्नके संचिन महापुण्यकी शक्तिकिसको किस चीज उत्पन्न करनेवाली नहीं हो सकती है ॥ २० ॥ इस प्रकार सेवक जिसका वर्णन किया है ऐसी मनुष्यजन्मकी सारभूत उत्पन्न हुई - चक्रवर्त्तिकी विभूतिको भी सुनकर महाराज साधारण 'मनुष्योंकी तरह आश्चर्यको प्राप्त न हुए। प्राज्ञ पुरुषों को इसमें कौतूहलका. क्या कारण है ? ||२१|| समस्त राज परिवार के साथ साथ भक्ति जिनेन्द्र भगवानके समक्ष जाकर सबसे पहले आनंदके साथ उनकी ' पूजा की। पूना करने के बाद मार्ग - विधिके जानने वाले इस राजाने यथोक्त विधिके अनुमार की विस्तारसे अनेकों बड़े बड़े राजाओं व्याप्त इस समस्त पखंड पृथ्वी को उसने चक्के द्वारा कुछ ही दिनों में अपने वश में - कर लिया | महापुण्यशालियोंको जगत् में दुःसाध्य कुछ भी नहीं है || २३ || इस प्रकार वह सम्राट प्रसिद्ध र बत्तीस हजार राजाधिराजांभोंसे और सोलह हजार देवोंसे तथा छ्यानवे हजार रमणीय त्रियोंसे वेष्टित होकर रहने लगा ॥ २४ ॥ कुबेरकी दिशा-उत्तर : दिशा में नैसर्प, पांडु, पिंगल, काल, भूरिकाल या महाकाल, शंख, पद्म, माणव और सर्वरत्न इन नव निधियोंने निवास किया ||२५|| 'सर्प निधि मनुष्यों को सदा महल, शयन-सोनेके रख, उपधान *. (त किया), आसंदी आदिक श्रेष्ठ आसनके भेद, पलंग, तथा अनेक जातिके
पूजा की ॥ २२ ॥
विद्याधरों और देवोंसे
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..१८०] महावीर चरित्र । . . गौओंके खुरोंसे उठी हुई गधेके वालों के समान धूम्रवर्णवाली धूलिसे आकाश रुंध गया-व्याप्त हो गया। मानों वह सबका सब आकाश चक्रवाक युगलको दाह उत्पन्न करनेवाली वामदेवरूप अग्निसे उठते हुए सांद्र निविड़-घने धूमके पटलोंसे ही आछन्न हो गया हो ॥ ४६ ॥ इसी समय सांद्र विनिन्द्र बेलाकी अधखिली कलियोंकी शीतल गन्धसे युक्त सायंकालकी वायु भ्रमरोंके साथ साथ मानिनियों को भी अंधा बनाती हुई मंदमंद वहने लगी।। ४७ ।।
क्रीड़ाके द्वारा शीघ्र ही कोकिनके सराग वचन कानके निकट आ • कर प्राप्त हुए। आम्रग्ल्लाकी तरह उसने भी मानिनियों के मुखकी
शोभा विचित्र ही बढ़ाई ।। ४८ ।। जो अंधकार दिनमें दिननाथसूर्यके भयसे पर्वतोंकी बड़ी बड़ी गुफाओं छिा गया था वहीं अन्धकार सूर्यके जाते ही बढ़ने लगा । जो मलिन होता है। वह रन्ध्रको पाकर बलवान् हो ही जाता है ।। ४९ ॥ अंधकारके सबन पटलोंसे व्याप्त हुआ नगत् भी विल्कुल काला पड़ ग. । विदलित की है अंजनकी प्रभाको निपने ऐसे अंधकारके साथ हुआ योगसम्बन्ध-श्री-शोभाके लिये थोड़े ही हो सकता है ।॥ ५० ॥.जो प्रकाशयुक्त हैं उनका अविषण, निकी गति कष्टसे भी नहीं. मालूम हो सकती है, जिसने सीमा-मर्यादाको छोड़ दिया. है ऐसे तथा सरको अपने समान बनानेवाले मलिनात्मा. अंधकार-समूहने. दुर्जनकी वृत्तिको धारण किया ।। ५१ ॥ रत्न दीपकों के समूहने
गाढ़ अन्धकारको महलोंसे दूर भगा दिया। मालूम हुआ मान! . सूर्यके अंधकारको नष्ट करनेके लिये अपने करांकुरका. दंड ही भेजा, . है ॥.५२ ॥ छिलिगा है रूपको जिन्होंने तथा रक्त (आशक्त.
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चौदहवाँ सर्गः ।
[ १९१ तथा रंजाई आदिके साथ रत्न कम्बलादिको देती है ॥ ३२ ॥ मा-: णत्र निधि, अनुगत है लक्षण और स्थिति जिनकी ऐमे दिव्य हथियारोंके दुर्गे कवच शिरोधर्म ( शिरपर लगनेका कवच ) आदिक प्रसिद्ध अनेक भेदोंको मनुष्योंके लिये देना है ।। ३३ ॥ सर्व रत्ननिधि, रत्नोंकी आपस में मिली हुई किरणोंके जाल - समूह से आकाश में इन्द्रधनुषको बनानेवाली संपदाओंकी समग्र सामग्रीको समय लोगों के लिये उत्पन्न कर देती है ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार वर्षाऋतु चारो तरफ नवीन जलकी वर्षा करनेवाले मेत्रोंके द्वारा : मयूरों के मनोरथोंको पूर्ण करती है उसी तरह यह राजाधिराज नवीन नवनिधियोंके द्वारा लोगोंके समस्त मनोरथों को अच्छी तरह पूर्ण करता था. ॥ ३५ ॥ जिस प्रकार नद-नदियोंके द्वारा बड़े भारी जनसमूह को भी प्राप्त करके समुद्र निर्विकार रहता है उसी तरह उसने भी नवनिधियोंके द्वारा दिये गये अपरिमित द्रव्यसे उद्धाता धारण न की । जो धीर हैं उनके लिये, वैभव विकास कारण नहीं होता है ॥ ३६ ॥ इस प्रकार दशinsोगोंको भोगते हुए भी तथा अत्यंत नम्र हुए देवों तथा राजाओंसे वेष्ठित रहते हुए भी उसने अपने हृदयसे धर्मकी आस्थाको शिथिच न क्रिया । जो महानुभाव हैं वे वैभवसे मोहित नहीं होते ||३७|| राजलक्ष्मी से अत्यंत आशिष्ट रहते हुए भी वह राजेन्द्र प्रशमरतिको ही सुखकर मानता हुआ । जिन्होंने सम्यग्दर्शन के प्रभावसे महान संपत्तिको पाया है उनकी निर्मल बुद्धि कल्याणकारी विषयोंको नहीं छोड़ती ||३८| विषय सुखके अमृत से भरे हुए विस्तिर्ण समुद्र में निमग्न है चित्त जिपका ऐसे उस चक्रवर्तीने
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१९२ ]. : महावीर चरित्र । समस्त लोगोंको आनंद बहाते हुए तिरासी लाख पुर्व वर्ष वितादिये ॥३७॥ ___एकदिन चक्रवर्ती अत्यंत निर्मल दर्पगमे अपनी छवि देख रहा था। उसने कानके मूलमें लगा हुमा पलितादुर-खेत केशः । देखा । मालूम हुआ मानों भविश्यत्-भागे होनेवाली वृद्धावस्थाको सुचना देनेके लिये दूत ही आया हो । ४०॥ केशको देखकर मणिर्पको छोड़कर राना उसी समय विवारने लगा। वह बहुत देर तक सोचता रहा कि जगतमें मेरे समान दूसरा कौन ऐसा-विचार-. शील होगा कि निकी आत्माको संपारमें विषयविर्षोंने वश कर लिया हो ॥४१॥ साम्राज में क्राीकी विभूतिको पाकर देवताओं के राजाओं और विद्यधरोंके द्वाग प्राप्त हुए मातुरम्य-कदाचित् म णीय भोंगोपभोगोंसे मी मेरो बिकुल तृप्ति नहीं होती । फिर साधारण पुरुषोंकी तो बान ही क्या है । यद्यपि ऐसा है तो भी
लोमका गई पूरा करना-परला दुःपा है ॥४२॥ जो पणि . हैं संसारक स्वरूपको जानन वाई हैं वे भी विषय सुखोंमें खिये ... हुए महान् दुःखयुक्त संपारमें डरते नहीं हैं-भपनी आत्माको । . खोटे:परिणामों से दुःखी बनाते हैं, अहो ! यह समस्त जीवलोक मोहसे .: अंधा हो रहा है ॥ ४३ ॥ जगत्में विद्वानों में वे ही मुख्य औं
धन्य हैं और उन्हीने महान् पुण्यफलको प्राप्त किया जिन्होने शीघ्र ही '. तृष्णारूपी विष वेठको जड़ समेत उखाड़कर दिशाओं में दूर के .: दिया ॥ ४४-॥ नाश या पंतन अथवा दुःखोंकी तरफ पड़ते हुए।
नीवकी रक्षा करने में न भार्या समर्थ है, न पुत्र समर्थ है, न बन्धुवर्ग : समय है, कोई समर्थ नहीं है। फिर भी यदी यह शरीरधारी उनमें ।
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سببينيشن
चौदहवा सर्ग। . [ १९३ अपनी आस्थाको शिथिल नहीं करना चाहता है तो उसकी इस मूद प्रकृतिको धिक्कार है ॥ ४५ ॥ सेवन किये हुए इन्द्रियों के वि- पयोंसे तृप्ति नहीं होती, उनसे.तो और भी घोर तृा ही होती है।
तृषासे दुःखी हुआ नीव हित और अहितको कुछ नहीं जानता । इसीलिये यह संसार दुःखरूा और आत्माका अहि कर है ।। ४६ ॥ यह जीव संसारको कुशलतासे रहित तथा जन्म जरा-वृद्धावस्या और मृत्यु . स्वभावंबाला स्वयं जानता है प्रत्यक्ष देखता है और सुनता है तो भी यह आत्मा भ्रांतिसे प्रशममें कभी स नहीं है .४.७. ॥ लेशमात्र सुखके पानेकी इच्छ.से इन्द्रियों के वशमें पड़कर पापकार्यमें फंस जाता है किंतु परलोकमें होनेवाले विचित्र दुःखोंको विल्कुरे नहीं देखा है । जीवों का अहितमें रति करना स्वभाव हो गया है ।। ४८ ॥ समस्त सम्पदाथै विमलोकी तरह चंचल हैं। तारुण्य-यौवन तुंगों में लगी हुई अग्निकी दीप्तिके समान है। जिस तरह फूटे घड़े में से सारा नल निकल जाता है उसी तरह क्या मनुप्योंकी समस्त. आयु नहीं गल जाती है ? ॥ ४२ ॥ बीपत्त, स्व. म वाले ही विनश्वर, अत्यंत दुःपूर, अनेक प्रकारके रोगों के निराप्त करनेका घा, विष्ट, मूत्र, राद वगैरहसे पूर्ण जीर्ण. वर्तनके समान शरीरमें कौन विद्वान् बन्धुताकी बुद्धि करेगा ॥ ५० ॥ इस प्रकार । हृदयसे संसार-परिस्थितिकी निश.करके मोक्ष मार्गको जाननेकी है इच्छा जिसकी तथा प्रस्थानकी भेरी बनवाकर बुला लिया है भन्योंको जिसने ऐसे भूगालने उसी समय जिनमगवान्की बंदना करनेके लिये स्वयं प्रस्थान किया ।। ५.१ ॥ और सुरपदवीके समान तारता (1) मम पूर्णचन्द्र लक्ष्मीवाले जिनेन्द्र भगवान्के चारो .
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१९४.] : . महावीर चरित्र । तरफ प्रसन्न हुए भायोंकी श्रेणियोंसे वेष्टित समवशरणको उपने प्राप्त किया । अर्थात् वह प्रियमित्र चक्रवर्ती अनेक भन्यों के साथ र समवशरणमें पहुंचा ।। ५२ ।। द्विगुणित हो गई है प्रशम संपत्ति ।। जिसमें ऐसी भक्तके द्वारा नम्र हो गया है उत्तमांग : शिर निस ऐसे उस चक्रवर्तीन चार निकायवाले देवोंसे सेवित और केवलज्ञान ही है नेत्र जिनका, स्तुति करने योग्य ऐसे अनंर में : जिनेन्द्र भगवानकी हाथ जोड़कर बंदना की ॥५२॥ इस प्रकार अशग कवि कृत वर्धमान चरित्रमें प्रियमित्रं चक्रवति ।
सम्भवो नाम चौदहवां सर्ग समाप्त हुशार
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.:. पन्द्रह सम्। 'संसारकी अमे:--अनंत दुग्वस्थाको जानवर भक्तिसे नम्र
हुए पृथ्वीपालने हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान्में मोक्षमार्गक विषयों · प्रश्न किया । ऐमा कोनसा भव्य है जो सिद्धिके
ज हो! ॥ १ ॥ निश्चित हैं समस्त तत्व निनको ऐसे हितोपदेशी भगवान भिन्न भिन्न जातियोंवाले समस्त मध्य प्राणियों को मोक्षः । मार्गका बोध देते हुए अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा स्थानको व्याप्त कर
इस तरहके वचन बोले ।। २ ॥ . ..... : सम्वदर्शन निर्मल-सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र है. चक्र • पाणे ! ये तीन मोक्षमार्ग हैं। मुमुक्षु प्राणियोंको इनके. सिवाय
और कोई या इनमें से एक दो मोक्षके मार्ग नहीं हो सकते । अर्थात्, येतीनों मिले हुओंकी एक अवस्था मोक्षका मार्ग है ॥३॥
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पन्द्रहवाँ संग।
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तत्वार्षके श्रद्धानको सम्यक्त्व बनाया है, और इन्हीका-तत्वार्थों का जो निश्चय करके-पंशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहितपनेमे जो अबरोध होता है उसको सम्यग्ज्ञान कहते हैं, सैम परिग्रहोंसे सम्बन्धके छूटनेको सम्प्रनारित्र कहते हैं
४॥ लो में समस्त प्राणियों के हितका उपदेश देनेवाले इन्द्रादिकंके द्वारा. पूज्य. जिनेन्द्र भगवान्ने ये नव पदार्थ बनाये हैंजीव, अनीव, पुणे, पोप, आश्रा, बन्ध, “सर, निर्जरा, मोक्ष
६॥ इनमें से जीव दो प्रकारक हैं- सारी दुमरे मुक्त । इनका. सामान्य दोनों में व्यापनेवाला लक्षण उपयो।-चेनाकी परिगति-ज्ञानदर्शन है । इसके भी दों में हैं (ज्ञानदर्शन ) निमेंसे एकके ज्ञानके आठ. भेद हैं, 'मरे-दर्शक चार भेद हैं ॥६॥ जो संसारी नीय हैं वे योनिस्थान तथा गति आदिक नाना प्रकार के भेदोंसे अनेक प्रकारके बताये हैं । जो कि नाना प्रकारके दुःखोंकी दावानरसे युक्त जन्म मरणरूपी दुरंत-खराब है अंत निमका ऐसे अरण्यमें अनादिकालसे भ्रमण कर रहे हैं ॥ ७ ॥ वीतराग गिनन्द्र भगवान्ने ऐसा. स्पष्ट कहा है कि यह आत्मा समस्त तीनों लोकमें गति इन्द्रिय और स्थानके भेदसे तथा. इन ( जिनका आगे आगे चर्णन करते हैं:) मावोंसे शेष सुख और दुःखको पाता है ॥ ८ ॥ भाव पांच प्रकारके हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारणामिकं । सर्वज्ञदेवने इनको भीवका तत्व-स्वतत्व बाया है। . इनके कमसे दो नव अठारह "इक्कीस और तीन उत्तरभेद होते हैं
९॥ पहला भेट औपशमिक है । इसके दो भेद हैं-सम्यक्त्व । और चारित्र.। ये दोनों सम्बत और चारित्र तथा इनके साथ साथ
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महावीर चरित्र।
............ranies, ज्ञान दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ये सात इनको मिला-, . कर क्षायिकके नव भेद होते हैं ॥ १० ॥ तीन अज्ञान-मिथ्याज्ञान (कुमति, कुश्रुा, विभंग), चार सम्यग्ज्ञान, तीन दर्शन, पांच लब्धि: सम्यक्त्व, चारित्र, और संयमासयम, सबको मिलकर क्षायोरशमिके. अठारह भेद होते हैं ॥ ११ ॥ एक अज्ञान-ज्ञानका अभाव, तीन. वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंपक), उह लेश्या (हश, नील, यापोत.. पीत, पद्म, शुक्ल ), एक मिथ्यादर्शन, एक असंयत, चार कायं । (क्रोध, मान, मावा, लोभी और एक असिद्धत्व और चार गति (नरक, तिर्यंच, मनुष्य, और देव) इस प्रकार ये इकोस भेद औदयिक भावके : हैं ।। १२ ।। पांच-पारणामिक भावके तीन भेद हैं-जीवत्व, भारत्व, अमरत्व । इन पांच भ.वोंके सिाय एक मुट्ठा सांनिपातिक". भाव भी है । इसके आचार्योंने छत्तीय भेद बताये हैं ॥१३॥ मुक्त जीव सब समान हैं। वे अक्षय-कभी नष्ट न होनेवाले सम्पत्तव . आदिक श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त हैं-इन गुणों के साथ उनका तादात्म्य : सम्बन्ध है । और वे इस दुस्तर संसार-समुद्रसे तिरका त्रिलोकीके • अग्रभागमें विराजमान हो चुके हैं ॥१४॥ धर्म अधर्म पुदल आकाश.
और काल ये अजीव द्रव्य वताये हैं। इनमें से पुदल द्रव्यरूपी है इन द्रव्यों में से कालको छोड़कर बांकीके चार द्रव्य और जीव इस प्रकार पांच द्रव्योंको अस्तिकाय कहते हैं ॥१५॥ छहों द्रव्यों में से एक जीव . द्रव्य ही कर्ता है, और द्रव्य कर्ता नहीं है । असंख्यात प्रदेशोंकी अपेक्षा धर्म क्रय और अधुर्म द्रव्य एक. जीव द्रव्यके समान हैंजितने असंख्यात प्रदेश एक नीव. द्रन्यके हैं उतने ही असंख्यात '. धर्म द्रव्यके और उतने ही अधर्म द्रव्यके हैं । आकाश द्रव्य अनंत
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पन्द्रहवाँ सर्ग ! [ १९७ प्रदेशी है, वह लोक और अलोकमें व्याप्त होकरर हा है ॥ १६ ॥ धर्म और अधर्म क्रम जीव और पुद्गलोंको गपन और स्थितिमें उनकारी है धर्म गमनमें उपकारी है और अधर्म द्रम स्थिति में उरकारी है। ये दोनों ही देग लोक में व्याप्त होकर रह रहे हैं । कालका लक्षण • वर्तना है | इसके दो भेद हैं- एक मुख्य काल दूसरा व्यवहार काल ।
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आकाश द्रव्यं मगह देने में उपकार करता है ॥ १७ ॥ रूप, स्पर्श, वर्ण (?), गंध, रस, स्थूलता, भेड, सुक्ष्मता, संस्थान, शब्द, छाया, उद्योत, आतप अधकार और बंध ये पुल द्रव्यके गुण-उपकार हैं ॥ १८ ॥ 'पदल दो प्रकारके हैं - एक स्कन्ध दूसरे अणु । स्कन्धोंको दो आदिक अनंत प्रदेशों से संयुक्त बनाया है। अणु अप्रदेशी- एक प्रदेशी होता
| सभी स्कन्ध: मेद और संघातसे उत्पन्न होते हैं । अणु से • ही उत्पन्न होता है ॥ १९ ॥ जन्म मरणरूपी समृद्रमें निमग्न होत हुए जंतु को ये स्कंध को या उसके कारणभूत शरीर मन, वच नकी क्रिया झासोच्छ्ांस जीवन मरण सुख दुःख उत्पन्न करते हैं ॥ २० ॥ शरीर, वचन और मनके द्वारा जो कर्म - क्रिश- आत्मप्रदेश परिस्पंद होता है उसीको योग कहते हैं और उसीको सर्वज्ञ देवने आखा बताया है । वह पुण्य और पान दोनोंमें कारण होता है। इसलिये उसके दो भेद हैं- एक शुभ दूसरा अशुभ अर्थान .जो. पुण्यका कारण है उसको शुभ योग कहते हैं और जो पापका कारण है उनको अशुभ योग कहते हैं ॥ २१ ॥ आचार्योंने उस योगके दो स्वामी बताये हैं - एक कपाय सहिन दुसरा कपाय रहित । पहले स्वामीके सांपरायिक आंख होता है और दूसरेके ईर्यापथ
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१९८] महावीर चरित्र । ..... आस्रव होता है ॥ २२ ॥ विद्वानोंको चारों कपायोंके साथ साथः । पांच इन्द्रिय पांच व्रत और पच्चीस क्रिया ये पहले-सापरायिक
आस्रवके भेद समझने चाहिये ॥ २३ ॥ तीव्र मंद्र अज्ञात औरः . ज्ञात भावोंसे तथा द्रव्य उद्रेक-वीर्यसे आपमें विशेषता होती.. ' है । उसका साधन--अधिारणभूत द्वन्य दो प्रकारका है। और वे दो प्रकार जीव अजीव हैं ऐमा आगपके ज्ञाता कहते हैं ॥२४॥ संरम्भादिक और व.पायादिकवा परस्परमें गुणा करनेसे जीवाधि.. करणके एकसौ आठ भेद होते हैं। दूसरे-भनीवाधिकरणक निर्वर्तना': आदिक भेद होते हैं ॥ २५ ॥ शरीरधारियोंके ज्ञानावरण और दर्शनावरण के कारण आत्माके जाननेवाले-पर्वत देवादिने मात्सर्य अंतराय, प्रदोप, निहाआलादना और उपघात बताये हैं।२६। प्राणियोंके असाता वेदनीय कर्म का जो आस्रव होता है उसके कारण निज पर." या दोनोमें उत्पन्न हुए दुःख, शोक, आक्रंदन, ताप और हिमा-बंध ये हैं ॥ २७ ॥ साता वेदनीय कर्मसे आत्रके भेद ये हैं-समस्त : प्राणियोंपर अनुकंगा-दया करना, व्रतियोंको दान देना और राग : सहित अनुकंपा भी करना, योग-मन, वचन, कायकी समीचीन : प्रवृत्ति, क्षमा, शौच-लोम न करता इत्यादि ॥ २८ ॥ संघ-मुनिः: आयिका श्रावक श्राविका, धर्म, केवली, और सर्वज्ञोक्त श्रुत आगम, .. इनके अवर्णवादको-जो दोष नहीं हैं.उन दोपोंके लगानेको सम्पूर्ण प्राणियों के हितैषी यतिवरोंने जंतुके दर्शन मोहनीय कर्मकें आनाका कारण बताया है ॥ २९ ॥ कषायके उदयसे जीवके जो तीव-परिणाम मेद होते हैं उनको ही जीवादि.. पदार्थोके जाननेवाले सर्वज्ञ . देवने चारित्र मोहनीय कर्मके अस्त्राका कारण बताया है ॥ ३०॥
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: पन्द्रहवाँ सर्ग। . [ १९९ rinarianmmmirmiwwwwwwwwwwwwwin अपनेको या परको पीड़ा उत्पन्न करना, कपायोंका उत्पन्न होना, यतियोंकी निन्दा, क्लेशं सहित लिंग या बांका धारण करना इत्यादिक कंपाय वेदनीयः कमैके आत्रके कारण होते हैं ॥ ३१ ॥ 'दीनोंकी अति हसी करना, बहुतसा वित्रलाप करना, हमने का स्वभाव, नित्य धर्मका उपहासदिक करना इनको उदार-सर्वज्ञदेव हास्यवेदनीय कर्मक आत्राका कारण बताते हैं ॥३२॥ अनेक प्रकारकी क्रीड़ाओंमें तत्परता रखना, नोंमें तथा शीलों में अरुचि आदिक रखना, इसको सत्पुरुषोंने शरीरधारियों के रतिवेदनीय कर्मके आत्रका कारण बनाया हैं ॥ ३३ ॥ पाप प्रवृत्ति करनेवालों के साथ संगति करना, रति-प्रेमका विनाश, दुमरे मनुष्योंसे अरति प्रकट करना इत्यादिको प्रशस्त पुरुषोंने अरतिवेदनीय कर्मके आटे का कारण बताया है ॥३४॥ अपने शोकस चुर रहना या दुमरेके शो की स्तुति निंदा "आदि करना शोकवेदनीय. कर्मके आश्रवका कारण होता हैं ऐमा समस्त पदार्थोके जाननेवाले आर्य-आचार्य या सर्वज्ञ कहते हैं ॥ ३५॥ नित्य- अपने. मयरूप परिणाम रखना या दूसरेको भए उत्पन्न करना या किसीका वध करना इससे भगवंदनीय कर्मका आत्र होता है। आर्य पुरुष इस बातको जगतमें देखते हैं कि कारणके अनुरूप ही कार्य हुआ करता है ।। ३६ ।। सावुओंकी 'क्रिया या आचारविधिमें जुगुप्सा-लानि रखना, दूसरेकी निंदा
करनमें उद्यत रहना.यां उस तरहका. स्वभाव रखना इत्यादिक जुगुप्यावेदनीय-कर्मक आस्त्रत्रके निमित्त हैं ऐमा आस्रवके दोषोंसे रहित यति कहते हैं ॥३७॥ असत्य भाषा, नित्य रति, दुमरेका अतिसंधान, रागादिककी वृद्धि इन बातोंको आय स्त्री वेदनीय कर्मके '
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२०० ] महावीर चरित्र । आस्रवका कारण बताते हैं ।। ३८ ॥ गर्व न करना, मन्दकपायता, , स्वदारसंतोष आदि गुणोंका होना, इन बातोंको समस्त तत्वों ज्ञाता भागवानने सत्पुरुषोंको पुरुष वेदनीय , कर्मक आत्रम . कारण बताया है ॥ ३९ ॥ सदा कपायोंकी अधिकता रखना, दूसरोंकी गुह्येन्द्रियोंका छेदन करना, परस्त्रीसे गमन-व्यभिचार करना इत्यादिकको आर्य तीसरे-नपुंसक वंदनीय कर्मके आन्त्रक कारण बताते हैं।॥ ४०॥ बहुत आरम्भ और परिग्रह रखना, अतुल
हिंसा क्रियाओंका उत्पन्न करना, रौद्रध्यानसे मरना, दूसरेके धनका . हरण करना, अत्यंत कृष्ण लेश्या, विपयोंमें तीव्र गृद्धि, ये सम्पूर्ण
ज्ञानरूप नेत्रके धारक और मत्र जीवोंक हितेपी भगवन्ने नरक . आयुके अस्त्र के कारण बताये हैं ॥ ४१ ॥ विद्व नामें श्रेष्ठ आचायोने प्राणियोंको तिर्यग्गति सम्बन्धी आयुके अस्त्राका कारण मागा बताई है। दूसरेको ठगनेके लिये दक्षता केवल निःशीलता, मिथ्या. स्वयुक्त धर्मके उपदेशमें रति-प्रेम, तथा मृत्यु समयमें आतिशान, और नील कापोन ये दो लेश्शायें, ये उस मायाके ही भेद हैं ॥ ४२ ॥ अल्प आरम्भ और परिग्रह मनुष्य आयुके आत्रामा कारण बताया है । मन्द पायता, मरणमें सक्लेश आदिका न होना, अत्यंत भद्रता, प्रगुण क्रियाओंका व्यवहार, स्वामाविक प्रश्रय, तथा . शील और 'ब्रतोंसे उन्नत स्वभावकी कोमलता, ये सब उस कारणके विशेष भेद हैं ॥ ४३ ॥ सरागसंयम संयमासंयम अामनिरा बाल ता इनको ज्ञानी पुरुष देवायुके आत्राका कारण बताते हैं और '
उदार कारण सम्यता भी है ।। ४४॥ योगोंकी अत्यंत वक्ता ___ और विवाद-झगड़ा आदिक करना, अशुभ नाम. कर्मके आखरका :
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पन्द्रहवाँ सर्ग 1
[२०१ कारण है और इससे विपरीत प्रवृत्तिको भगमके वेत्ता शुभ नाम कम आत्रका कारण बताते हैं ॥ ४५ ॥ सम्पत्ती शुद्धि, विनयकी अधिकता, शील और व्रतोंमें दोप न लगाकर चर्या करना, उनका पालन करना, निरंतर ज्ञानोपयोग शक्तिके अनुपार उत्कृष्ट त्याग और तप, संसार से भीरुता, साधुओं की समाधि - कष्ट आदिक दूर करना, भक्तिपूर्वक वैयावृत्य करना, जिनागम आचार्य बहुश्रुत और थुनमें भक्ति तथा वात्सल्यका रखना, पडावश्यकको कभी न छोड़ना, मार्ग - जिमार्गकी प्रकटरूपसे अत्यंत प्रभावना करना, इन सोलह बातोंको आर्य - आचार्य अत्यंत असुन तीर्थकर नामकर्मके आस्त्र व का कारण बताते हैं ॥४६ ४८|| अपनी प्रशंपा, दूसरेकी अत्यंत निंदा तथा सद्द्भुत गुणका ढकना और असद्मा गुणोंका प्रकट करना, इनको नीचगोत्र कर्म अत्र के कारण बताते हैं ||४९ ॥ नीचगोत्र कर्मके आंख के जो कारण हैं उनसे विपरीत वृत्ति, जो गुणोंकी अपेक्षा अधिक हैं उनसे विनश्से नम्र रहना, मद और मानका निरास, इनको जिन भगवान् के उच्चगोत्र कर्मके आवका कारण बताया है ॥ ५० ॥ आचार्य दानादिकमें विघ्न करनेको अंतराय कर्म का कारण बताते हैं ।
पुण्यके कारण जिस शुभयोगको पहले सामान्यसे बता चुके उसको विस्तारसे कहता हूं | सुन ! ॥ ५१ ॥
हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इनके त्यागको न कहते हैं । एक तो एक देश दूसरा सर्व देश । हे भद्र ! सत्पुरुषने पहलेको अणुत्रन और दूसरेको महावन कहा है ॥ ५२ ॥ इन तोकी स्थिरता के लिये सर्वज्ञ भगवान्ने पांच पांच भावनायें बताई
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२०२] . . महावीर चरित्र ।
imminimimini हैं । जहां सिद्धोंका निवास है उस महलपर चढ़ने की इच्छा रखने : वाले भन्यको इनके सिवाय दुमरी कोई भी सीढ़ियां नहीं हैं। ५३ ॥ उत्कृष्ट मनोगुप्ति, एपगां आदिक . तीन समिति-पणा आदान निक्षेण, उत्सर्ग, प्रयत्न पूर्वक देखी हुई वस्तुका भोजन और पान, इन पांचोंको सत्पुरुष पहले अहिंसनाकी भावनायें बताते हैं । ।। ५४ ॥ क्रोध, लोभ, भीरुता और हास्यका त्याग तथा सुत्रके : अनुमार भ पण, विद्वान् पुरुप इन पांचोंको सत्यत्रत की भावना बतात: हैं ।। ५५ ॥ विमोचित या शुन्य गृहमें रहना, रोकना, साधर्मियोंसे कभी भी विसंवाद-झगड़ा अच्छी तरहसे मिक्षान्नकी शुद्धि रखना, ये पांच अत्रौर्य बाकी भावनायें हैं ॥६६॥ शून्य मकान आदिकमें न रहना, दूसरा जिसमें
रह रहा है उस स्थान में प्रवेश करना, या दूसरे को रोकना, दूसरे की.मा · क्षीसे भिक्षान्नकी शुद्धि करना, सहधर्मियोंसे विसंवाद काना ये पांच • अचौर्य महात्र के दोप हैं ॥१७॥ स्त्रियोंकी रागस्था आदिक सुननेसे. . विरक्त रहना, उनके सौंदर्यके देखने का त्याग, पूर्व कालमें मो. . स्तोत्साके सरणका त्याग, पौष्टिक और इष्ट आदि. रसोंका त्यं गः .. आन शरीरके संस्कार करने का त्याग, ये पांच ब्रह्मवय वाकी भाव
· नायें बताई हैं ।। ५८ ॥ समस्त इन्द्रियोंके मनोज्ञ और अमनोज्ञ. • 'पांचों विषयों में क्रमसे राग और द्वेषको छोड़नेको परिग्रह. त्यागः
व्रतकी पांच भावनायें बताई हैं ॥ ५९ ॥ संसारके निवाससे जो.. चकित-मयमीत है उसको इस लोक और परलोकमें हिमादिकंक
विषयमें अपाय और अवद्यदर्शनको माना चाहिये । अथवा अमेह : - बुद्धिके द्वारा यह भाना चाहिये कि हिंपादिक ही वयः
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نجيبنننبب.
पन्द्रहवाँ सर्गः। [ २०३ अपाय और अवद्यरूप हैं। प्रशम : युक्त. मव्योंका यह अंतर्धन ही. “सार है ॥ ६ ॥ समस्त सत्वोंमें मैत्रीकी भावना भानी चाहिये-दुःखकी अनुत्पत्तिकी अभिलाषा रखना चाहिये। जो गुणोंकी अपेक्षा अधिक हैं उनको देखकर प्रमुदित होना चाहिये, पीड़ित यो दुःखियों में करुणा बुद्धि रखनी चाहिये, जो अविनयी-मध्यस्थ हैं उनमें उपेक्षा बुद्धि रखनी चाहिये
६.१.शरीरके स्वभावका और जगतकी परिस्थितिका चितवन इसलिये करना चाहिये कि आचार्योने इनको संवेग और वैराग्यका कारण बताया है । अतएव इनका निरंतर यथावत् चितवन करना चाहिये। .... - अब संक्षेपसे बंत्रका स्वरूप बताते हैं ॥६२॥ मिथ्यात्व मात्र, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग ये बंधके कारण होते हैं । इस प्रसिद्ध मिथ्यात्वभावको आचार्य सात प्रकारका बताते हैं ।। ६३ ।। हे राजन् ! यह अविरति दो प्रकारकी है। इसीको असंयम भी कहते हैं । इसके मूलदो मंद-इन्द्रियासंयम और प्राणासंयम तथा उत्तर भैई. बारह हैं। पांच इन्द्रिय और छठे मनके विषयकी अपे. क्षासे छह भेद, और पट्कायकी अपेक्षा छह भेद ॥ ६४ ॥ हे नर-. नाथ । आगंसके. जाननेवाले :सत्पुरुषोंने आठ प्रकारकी शुद्धियों
और उत्तम क्षमा आदि दश धमीके.विषयक़ी अपेक्षासे जैनशासनमें 'प्रमादक अनेक भेद बताये हैं ॥६५ ॥ नो कपायों के साथ साथ-. नोकपायोंके मिलानेसे सत्पुरुष क.पायके पचीस भेद बताते हैं। योगका सामान्यसे एक. भेद है। विशेषकी अपेक्षा तीन (मन वचन काय) भेद हैं। तीनों के उत्तर भेद पन्द्रह होते हैं-चार मनोयोग:
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२०४] . महावीर चरित्र । (सत्य, अमत्य, उभय; अनुम), चार बचनयोग (सल्प, अमत्य .. उभय, अनुभय), सात काययोग (औदारिक, वैक्रियिक, आहारतः औदारिकमिश्र, वैकियि कमिश्र, आहार मिश्र, कार्माण) ॥६६॥ पांच बंधके कारणों से मिथ्यादृष्टिके ये सबके संब रहते हैं। इसके आगेके तीन गुणस्थानोंमें-पासादन, मिश्र, और असयतमें मिथ्यात्वको छोड़कर बाकीके चार बंधके कारण रहते हैं। पांचमें देशविरत गुणस्थानमें मिश्ररूप अविरति-कुछ विरति कुछ अविरति रह जाती : है। छठे गुणस्थानमें अविरति भी सर्वथा छूट नाती है। यहां पर केवल प्रमाद कपाय और योग ये तीन ही. बंधके कारण रह ज.ते : हैं। ऐन- प्राज्ञपुरुषोंने कहा है ॥ ६७ ।। इसके आगे सातवें आठवें । नौवें दंशवे इस चार गुणस्थानों में प्रमादको छोड़कर बाकी के दो कषाय और योग बंधके कारण रह जाते हैं। फिर उाशात कपाय · · क्षीणकषाय और सयोगकेवलीमें - कषाय भी छूट : जाती है और केवल योग ही बंधका कारण रहनाता है। चौदहवा : गुणस्थानवाले निनप्रति भगवान् योगसे रहित हैं अतएव वे बंधन .. क्रियासे भी रहित हैं। क्योंकि बंध का कारण योग हो जानेपर फिर बंध किस तरह हो सकता है ॥ ६८॥ हे रानन्। यह जीव कषायंयुक्त हो कर कर्मरूप होने के योग्यं जिन पद्दलोंको... 'निरंतर अच्छी तरह ग्रहण करता है उसीको निन· भगवान्ने बंध :
कहा है ।।६९॥ उदार -बोध बाले-पर्वज्ञने संक्षेपसे प्रकृति, स्थिति, 'अनुमाग और प्रदेश इस तरहसे चार भेद बता कारणसे जीव जन्म मरणके वनमें अतिशय भ्रमण करता है ॥७॥ प्राणियोंके प्रकृति और प्रदेश ये दो बंध तो योगके निमित्त होते :
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पन्द्रहवाँ सर्ग। [२०६ हैं। और बाकी के दो-स्थिति और अनुभाग बंध सदा कषायके कारणसे होते हैं ।। ७१ ॥ पहले-प्रकृति बंधके ये आठ भेद होते हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय ॥ ७२ ॥ मुनिवरोंने प्रकृतिबंधके उत्तर भेद इस तरह गिनाये हैं-ज्ञानावरणके छब्बीस भेद, आयुके चार भेद, नाम कर्मके सरसठ, गोत्र कर्मके दो मेह, और अंतरायके पांच भेद ॥ ७३ ॥ आदिके 'तीन कमौकी और अंतरायकी उत्कृष्ट मिति ती कोड़ाकोड़ी सागरकी हैं। मोहनीय कर्मकी स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरकी है। नाम और गोत्र कमकी स्थिति वीस कोड़ाकोड़ी साग'रकी है। और आयुर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरकी है || जघन्यस्थिति, आठो कोसे वेदनीयकी बारह मुहून, नाम और गोत्रकी आठ मुहूर्त, और हे राजन् ! शेष कर्माकी एक अमर्मुहूतकी होती है। ऐसा सर्वज्ञ भगवान्ने कहा है ।। ७५ ।। जीव, प्रहण-कर्मग्रहण करते समय अपने अपने योग्य स्थानोंके द्वारा समस्त कर्म प्रदेशों में आत्म निमित्तक समस्त मावोंसे अनंतगुण - रसको उत्पन्न करता है इसीको अनुभाग बंध कहते हैं ।। ७६ ॥ हे राजन्.! पूर्णज्ञान-नेत्रके धारक जिन भगवान्ने ऐसा कहा है कि
प्राणियोंको चार घातिकर्मीका.यह अनुभाग बंध एक दो तीन चार 'स्थानों के द्वारा होता है। और एक ही समयमें स्वप्रत्ययसे शेषका
द्रो तीन चार स्थानों के द्वारा होता है। वह बंध शुभ और अशुम - रूप. फलकी प्राप्तिका प्रधान कारण है ॥ ७७ ॥. जिनको जिन भगवान्ने नामप्रत्ययसे-समस्त कर्म प्रकृतियोंके कारणसे संयुक्त बताया है। वे एक ही क्षेत्रमें स्थित सूक्ष्म पुगलं युगवत् समस्त भावोंसे या
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महावीर नरित्र |
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सर्व काल में योगों की विशेषताएं आकर आत्माके समस्त प्रदेशों
एक क्षेत्रावगाहरू प्रवेश कर अनंनं
प्रदेशों से युक्त होका
कर्म निको प्राप्त होते हैं उनको प्रदेश सातावेदनी, शुभ अयु, शुभ मि । भगवान्ने पृण्य धर्म और बाकी कर्म बताया है । अब श्रेष्ठ संवरतत्वका
न
॥ ८० ॥ अमोघ - जिनके वचन आश्राके अच्छी तरह रुक जानेको हो और भावकी अपेक्षा दो में होना है- अर्थात्
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करते हैं ॥
७८ ॥ इन कप गोत्र : इनको
नाम और शुभ
सर कपकी निश्च
अच्छी तरह वर्णन करेंगे
होसके ऐमे जिनगनने
र कहा है। के
दो हैं एक द्रयसंवर, दूसरा भावसंवर। इन दोनों ही प्रहारकेदर्शी: सुनिलोग ही प्रशंश करते हैं- उनको आदरकी दृष्टिसे देखते हैं ॥ ८१ ॥ संसारकी कारणभूत क्रियाओंके छूट जानेको गुनीन भावसंबर कहा है । और उसके छूटनेवर कर्मपुल के ग्रहणका जाना इसको निश्चयसे द्वापर माना है ॥ ८२ ॥ यह सारभूत संचर गुप्ति समिति धर्म निरं र अनुप्रेक्षा परोपनय और चारित्र द्वारा होता है । विश्वके ज्ञाता जिन भगवान्ने कहा है कि तरसे निर्जरा भी होती है । अर्थात् तप संगर और निर्जरा दोनोंका कारण हैं ॥ ८३ ॥ समीचीन योग निग्रहको गुप्ति कहते हैं । दोषरहित इस गुप्तिको विद्वानोंने तीन प्रकारका बनाया है- एक वाग्गुप्ति-कांयगुप्ति तथा मनोगुप्ति | समीचीन प्रवृत्तिको समिति कहते हैं । इसके पांच मे हैं - ईर्यासमिति, भाषासमिति, आदाननिक्षेपतमिति ॥ ८४ ॥ विद्वानोंने धर्मको लोकमें दश प्रकारका बताया है- उत्तमक्षा, सत्य, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्प, ब्रह्मचर्यं ॥ ८५॥
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पन्द्रहवाँ सर्ग। [१०७ शत्रुओंके सदा बाधक होकर प्राप्त होते हुए भी कालुप्पका उत्पन्न न होना इसको तितिक्षा सहनशीलत:-क्षमा कहते हैं। आज्ञाआगमका उपदेश , और स्थितिसे युक्त समीचीन वचनों के बोलनेको सत्य कहते हैं ।। ८६ ॥ जति आदिकं मदरूप अमिमानका न होना इपको मार्दव कहते हैं । मन वचन और कायकी क्रियाओंमें क्र.ा-कुटिरता न रखना इसको आर्जव कहते हैं। लोभसे छूटनेको शौच कहते हैं ॥ ८७ || प्राणि और इन्द्रियों के एक परिहारको सत्पुरुष संयम कहते हैं। वो का क्षय करने के लिये जो तपा जाय उसको तप कहते हैं, इसके बारह भेद है ।।८।। यह मेरा है ऐसे अभिप्रायको छोड़कर शास्त्रादिकके देनेको दान कहते हैं इसी तरह निर्ममत्को धारणकर गुरुमूलमें निवास करनेको
आकिंचन्य कहते है ! और त गताको व चर्य कहते हैं।८९॥ श्रेयः सिद्धिके लिये प्राज्ञ पुरुषोंने ये बारह परीषह बताई हैं-अनित्य, अशरण, जन्म-संग, एका, अन्यता, अशुचिना, और अनेक प्रकारका व मोका. आश्रव, संवर, निर्जरा, जगत्-लोक, धर्म समीचीन वत्रस्तत्व-स्वाख्यातत्वके वोधिकी दुर्बलता ६.९०॥ -समस्त विद्वानोंको इस प्रकारसे सदा अनित्यताका चितवन करना चाहिये कि रूप यौवन आयु इन्द्रियोंका समूह या उनका विषय भोग, उपभोग, शरीर, वीर्य-शक्ति अपनी इष्ट वस्तुओंका समागम . चमुरति () सौभाग्य या भाग्यका उदयः इत्यादिक आत्माके ज्ञान, और दर्शनको छोड़कर बाकी समस्त पदार्थ प्रकट रूपसे अनित्यः । हैं।। ९१ || इस संसाररूप वन में नहीं मोह रूप दावानल बढ़ रहा.: हैं या जल रहा है और जिसको व्याधियोंने व्याधका रूप रख
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महावीर चरित्र । .... ...... कर भयंकर बना दिया है, पड़ी हुई आत्माओंको ऐमा मृगयोंका, टेना-झुंड समझना चाहिये जिनको मृत्युरूप. मृगराजने शीघ्र ही . अपने पंजेमें फसा लिया है अब उससे उनकी रक्षा करने के लिये . जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंके सिवाय दूसरे मित्र वगैह क्या कर. : सकते हैं, कुछ नहीं कर सकते। इस प्रकारसे संसारका उलंघन करने वाले भन्यों को संसार में अशरणताका चितवन करना चाहिये॥१२॥ गति, इन्द्रिय, योनि आदिक अनेक प्रकारके विपरीत बंधुओंके-.. शत्रओंके द्वारा कर्मरूप कारण के क्शसे जीवको जो जन्मान्तरको प्राप्ति होती है इसीको नियमसे संसार कहते हैं अधिक क्या कहें. : जिस संसारमें यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि आत्मा अपना ही पुत्र हो जाता है । अब बताइये कि सत्पुरुष इसमें किस तरहकीरति करें!.. ॥ ९३ ॥ जन्न मरण व्याधि नरा-वृद्वावस्था वियोग इत्यादिके. महान् दुःखरू। ' मुदमें निर। हो। हुआ मैं अकेला ही दुःखों को : 'निरंतर भोगता हूं । दुसरे न कोई मेरे मित्र हैं, न कोई शत्रु हैं,
और न कोई नातीय बन्धु ही है । इस लोकमें और परलोक यदि : कोई -बन्धु है तो केवल धर्म ही है । इस प्रकार उत्कृष्ट . एकत्वका चितवन करना चाहिये ॥ १४ ॥ यद्यपि बंधकी अपेक्षा. एकत्व हो रहा है तो भी मैं इस शरीरसे सर्वथा भिन्न हूं। क्योंकि मेरे : और इसके लक्षणमें भेद है । आत्मा ज्ञानमय है और विनाश रहित है। किंतु शरीर अज्ञ है और नश्वर है । तथा मैं इन्द्रियोंसे - अग्राह्य हूँ. क्योंकि सूक्ष्म हूं किंतु शरीर इन्द्रियग्राह्य. है. इस प्रकार शरीरसे मिन्नत्वका चितवन करना चाहिये । ९५ ॥ यह . शरीर स्वभाव से ही हमेशा अशुचिं रहता है, क्योंकि अत्यन्त अशुचिः :
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पन्द्रहवाँ सर्गः ।... [ १०९ naimaninmin wwwvwwwvas अपवित्र योनिस्थानसे यह उत्पन्न हुआ है। ऊपरसे केवल चामसे . ढका हुआ है. किंतु भीतरसे दुर्गंधियुक्त, कुत्सित नव द्वारोंसे युक्त, तथा कृषियोंसे व्याकुर है। और विष्टा मूत्रके उत्पन्न होनेका स्थान है, · त्रिदोष-मान, पित्त, कफसे युक्त है, शिरानालसे बंधा हुआ है तथा ग्लानियुक्त है। इस तरह इस शरीरकी अशुचिताका चितवन करना चाहिये ॥ ९६ ॥ जिनेन्द्र भगवानने इन्द्रियों के साथ साथ कपायोंको आत्रका कारण बताया है। ये विषय ही जीवोंको इस लोकमें तथा परलोकमें दुःखोंके समुद्र में ढकेलनेवाले हैं। आत्मा इनके वशमें पड़कर उस चतुर्गतिरूर गुहाका आश्रय लेता है जिसमें कि मृत्युरूपी सर्प बैठा हुआ है। इस प्रकारसे विवेकियोंको आत्रके दोषोंका निरंतर चितवन करना चाहिये ॥ ९७ ॥ जिस प्रकार समुद्रमें पड़ा हुआ नहान छेद होनाने पर जलसे मरकर शीघ्र ही डूब जाता है उसी तरह आत्रोंके द्वारा यह पुरुष भी अनंत दु:खोंके स्थानमा जन्ममें. निमग्न हो जाता है। इसलिये तीनों करणों-मन, वचन, कायके द्वारा अ.नाका निरोध करना-संबर करना ही युक्त है । क्योंकि जो संबर युक्त है वह शीघ्र ही मुक्त होता है. इस प्रकार सत्पुरुषोंको उत्कृष्ट संवरका ध्यान करना चाहिये ॥ ९८ ॥ विशेषरूपसे इकट्ठा हुआ भी दोप: जिस तरह प्रयत्नके द्वारा जीर्ण-उपशांत-नष्ट हो जाता है.' उसी प्रकार रलायसें अलंकृत यह धीर आत्मा ईशर-महान् तपके : द्वारा बंधे हुए और इबटे हुए गाद कर्माको भी नष्ट कर देता है । जो कातर हैं वह इन-व.मौको नष्ट नहीं कर सकता. तथा तपके सिवाय दुसरे उपायो नष्ट हो भी नहीं सकते। इस प्रकार भव्योंको
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२१० ]
महावीर चरित्र |
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निरंतर निर्जराका विचार करना चाहिये ॥ ९९ ॥ जिनेन्द्र भगवान्ने लोकका नीचे तिरछा और ऊपर जितना प्रमाण बताया है. उसका तथा अच्छी तरह खड़े हुए मनुष्य के समान उसके आकारका और जिसने भक्तिपूर्वक स्वप्न में भी कभी सम्यक्त्वरूप अमृत का पान नहीं किया ऐसी आत्मा के समस्त लोक में जन्ममरणके द्वारा हुए का भी चितवन करना चाहिये ॥ १०० ॥ तत्वज्ञान ही हैं नेत्र जि: नके ऐसे जिन भगवान्ने हिंसादिक दोषोंसे रहितं समीचीन धर्मको : ही जगज्जीवके हित के लिये बताया है । यह धर्म ही अपार संसारसमुद्र से पारकर मोक्षका देनेवाला है। प्रसिद्ध और अनंत सुखका -स्थानभूत मोक्षपदको उन्होंने ही प्राप्त किया है जो कि इसमें रत रहे हैं ॥ १०१ ॥ यह बात निश्चित है कि जगत् में इन चीजोंका मिलना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । सबसे पहले तो मनुष्य जन्मका ही मिलना दुर्लभ है, इसपर भी कमभूमिका मिलना दुर्लभ है, कमभूमि :: में भी उचित देशका मिलना दुर्लभ है, देशमें भी योग्यं कुल, कुछ. 'मिल्नेपर भी निरोगता, निरोगता के मिलने पर भी दीर्घ आयु, आयुकें मिलनेपर भी आत्महित में रति-प्रेम, आत्महित में रति होनेवर भी 'उपदेष्टा - गुरु एवं गुरुके मिटनेपर भी मक्तिपूर्वक धर्मश्रवणका मिलना अत्यंत दुर्लभ है । यदि ये सब अति दुर्लम सामग्रियां . मी . जीवको मिल जांय तो भी वोधि - सम्यग्ज्ञान या रत्नत्रयका : • मिलना अत्यंत दुर्लभ है। इस प्रकार रत्नत्रयसे अलंकृत धर्मात्माओंको निरंतर चितवन करना चाहिये ॥ १०२ ॥ सन्मार्ग - मुनिमार्गः
• न छूटे इसलिये, और कर्मोंकी विशेष निर्जरा हो इसलिये मुनिरा
नोंको समस्त परीषहों को सहना चाहिये। जिसको प्राप्त कर फिर
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पन्द्रहवाँ सर्ग। [२११ । भत्र धारण नहीं करना पड़ता उस श्रीको नो प्राप्त करना चाहते हैं, जो अपने हितमें प्रवृत्त हो चुके हैं या रहते हैं वे पुरुष कप्टोंसे कभी व्यथित नहीं होते हैं ॥ १०३. ॥ क्षुधावेदनीय कर्मके उदयसे बाधित होनेपर भी जो मुनि लामसे अलाभको ही अधिक प्रशस्त मानता: हुमा न्यायके द्वारा-आगमोक्त विधि के अनुसार पिंडशुद्धिमैदाशुद्धि करके भोजन करता है उसके क्षुधा परीषहके विनयकी प्रशंसा की जाती है ॥ १०४ ॥ नो साधु दुःसह पिपामाको नित्य
ही अपने हृदय कमण्डलुमें भरे हुए निर्मल समाधिरूप अलके द्वारा "शांत करता है वही वीरमति साधु तृषाके बढ़े हुए संतापको जीतता हैं।॥ १०६ ॥ जो साधु · माघ मासमें उस समयकी हिम समान शीतलं वायुकी ताड़नाका कुछ भी विचार न करके केवल सम्यग्ज्ञानरूप कम्बलके बसे शीतको दूर कर प्रत्येक रात्रि में बाहर ही सोता है.वही स्वभावसे.धीर और शी साधु शीतको नी:ता है॥ १०६ ।। जबकि वन वन्हियोंकी ज्वालाओं के द्वारा वन दहकने लगता है उस " के समयमें पर्वतके उपर सूर्यकी उप-मध्यान्ह समयकी किरगोंके सामने मुख करके खड़े रहनेसे जिसका शरीर तपगया है फिर भी जो एक क्षणके लिये भी धैर्यसे चलायमान नहीं होता उस प्रसिद्ध मुनिकी ही सहिष्णुता और उष्ण परीषहकी विनय समझनी चाहिये । १०७ ॥ देश मशक आदिकका निरंकुश समूह आकर मर्म स्थानों में अच्छी तरह काट खाय फिर भी नो उदार क्षगके लिये भी योगसे विचलित नहीं होता उसीके दंशमशक परीषहकां विनय जानना चाहिये ॥ १०८ ॥ निस्संगता-निष्परिग्रहपना ही जिसका लक्षण है, जो. याच्चा और प्राणिमध आदि दोपोंसे रहित
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२१२ ] महावीर चरित्र । . ... है, दूसरोंके दुष्प्राप्य मोक्षलक्ष्मीको उत्सुक बनानेमें जो समर्थ है, कातर पुरुप जिसको धारण नहीं कर सकते, . उस अचल ब्रतको करनेवाले योगी की ही नग्नता पर्याप्त होती है। यह नग्नता निय-: मसे तत्वज्ञानी विद्वानों के लिये मंगलरूप है॥ १०९॥ इन्द्रियोंके इष्ट विषयोंमें जिस अद्वितीय विमुक्तबुद्धिका मन इतना निरुत्सुक होगा, है कि पहले भोगी हुई भोगसम्पदाका भी वह कभी स्मरण नहीं करता! किंतु जो मोक्षके लिये दुश्चर तपको तपता है वही, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ साधु रतिपरीपंहको जीतता है ।।..११.० ॥ कामदे वरूप अगिको उत्पन्न होनेके लिये जो अरेणी के समान है.. ऐसी कामिनियोंके द्वारा बाधित होने : पर.जो साधु : अपने हृदयको इस तरह संकुचित करलेता जैसे कि कछुआः किसीसे : बाधित होनेपर अपने अंगोंको समेट लेता है, वही महात्मा स्त्रियोंकी बाधाको सहता है ॥ १११ ॥ एक अतिथि देशांतरमें रहे . हुए... चैत्य-प्रतिमा मुनि गुरु या दूसरे अपने अभिमतोंकी वंदना करने लिये अपने संयमके अनुकूल मार्गसे होकर और अपने उचित समयमें चला जारहा है। नाते जाते पैरमें कंकड या पत्थर : वगैरह । ऐसे लगे कि जिससे उसका पैर फट गया. फिर मी उसने पूर्वकालमें जिने सवारी आदिके द्वारा वह गमन किया करत स्मरण तक नहीं किया ऐसे ही साधुके सत्पुरुष चर्यापरीषहका विजय मानते हैं ॥ १.१२ ॥ पर्वतकी गुहा आदिकमें पहले अच्छी .. तरह देखकर-जमीनको शोधकर फिर वीरासन आदिक आसनोंकी .... एक प्रकारकी लकड़ी होती है जिसको . घिसते ही आगः ।। दा हो जाती है ! . . . . . .
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पन्द्रहवा सर्ग। . [ २१३ . जो विधि है उस विधिके अनुसार वहां निवास करनेवाले सास्त उपमंगोको सहनेवाले, दुष्कर्मरूप शत्रुओंका भेइन करनेवाले मुनिके निपंद्या परीपहका विजय मानना चाहिये ॥ ११३ ॥ ध्यान करनेमें या आगमका अध्ययन करनेमें जो परिश्रम पड़ा उससे निद्रा आगई पर उसको दूर कहीं किया और कितनी देर तक तो ऊंत्री नीत्री जगहमें और कुछ क्षणके लिये । फिर भी शरीरको चलायमान न किया, वह इस भयसे कि कहीं ऐसा करनेसे कुंथु आदिकजीवोंका मर्दन न हो जायं । ऐसा करनेवाले यभी-साधुके शय्यापरीपहका विजय माना जाता है ।। .१४. | जिनका हृदय मिथ्यात्वसे सदा लिस रहता है. ऐसे. मनुष्योंके क्रोधाग्निको उद्दीप्त करनेवाले और • अत्यंत निंद्य तथा असत्य आदिक विरस वाक्योंको सुनते हुए भी
जो उस तरफ हृदयका व्यासंग-उपयोग न लगाकर महती क्षमाको धारण करता है. उसी सद्बुद्धिं यतिके आक्रोश परीपहका विनय मानना चाहिये ॥ १.१५ ॥ शत्रुगण अनेक प्रकारके हथियारों से मारते हैं, काटते हैं, छेदते हैं, तया यंत्रमें डालकर पेलते हैं। इत्यादि अनेक उपायोंसे शरीरका हनन करते हैं तो भी जो वीतराग मोक्षमें. उद्यत हुआ उत्कृष्ट गानसे किसी भी तरह चलायमान नहीं होता, वह असह्य भी वधपरीषहको सहता है ॥ ११६ ।। 'नाना प्रकार के रोगोंसे बाधित रहते हुए भी जो बिल्कुल स्वप्नमें भी दूमरोसे औषध आदिककी याचना नहीं करता है किंतु निस शांतात्माने ध्यानके द्वारा-मोहको नष्ट कर दिया है स्वयं मालूम हो जाता है कि इसने याचा परीषहको जीत लिया है॥११७॥ विनीत है चित्त जिमका ऐसा.जो योगी महान् उपवासके करनेसे कृश हो जाने ।
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महावीर चरित्र । पर भी भिक्षाका लाभ हो जानेकी अपेक्षा उसका लाभ न होना ही मेरे लिये महान् तप है ऐसा मानता है वह अलाम परीपहको जीतता है ॥११८|| एक साथ रठे हुए विचित्र रोगोंसे ग्रस्त होकर मी जो योगी जल्लोषधादिक अनेक प्रकारकी ऋद्धियोंसे युक्त रहने पर भी सदा निस्पृह रहने के कारण नियमसे शरीरमें महान् उपेक्षाको धारण : करता है वही रोगपरीपहको जीतता है ॥ ११९ ॥ मार्ग में चलनेस : जिस मधुके तीक्ष्ण तृण-घास, कंटक, या कंकड़ आदिके द्वारा दोनों पैर विदीर्ण हो गये हैं फिर जो गमनादिक क्रियाओंमें प्रमाद रहित होकर प्रवृत्ति करता है, या अपनी दूसरी क्रियाओंमें विधि : पूर्वक प्रवृत्ति करता है उस मुनिरानके तृण परीपहका विनय समझो ॥ १२० ॥ निस योगीने ऐसा शरीर धारण कर रक्खा है कि जो प्रतिदिन चढ़ती हुई मलसंपत्ति-धूल मट्टी आदिके द्वारा ऐसा मालूम पड़ता है मानों वल्मीक हो, तथा जिसमें अत्यंत दुस्सह खान प्रकट हो रही है, फिर भी जिसने मरण पर्वतके लिये स्नान करनेका त्याग इस भयसे कर दिया है कि ऐसा करनेसे-स्नान करनेसे जलकायिक जीवोंका वध होगा। उस योगीके मलकृत। परीपहरू विजयका निश्चय किया जाता है ।। १२१॥ जो अपने.." ज्ञान या तपके विषयमें कभी अमिमान नहीं करता, नो निंदा या प्रशंसादिकमें समान रहता है, वह प्रमाद रहित धीर मुनि सत्कार : पुरस्कारपरीषहका जेता होता है ॥ १२२ ॥ समस्ने शास्त्र समुद्रको पार कर गया है फिर भी नो साधु " पशु समान अल्पज्ञ.नी दूसरे मनुप्य मेरे सामने तुच्छ मालूम पड़ते हैं ॥ इत्यादि प्रकारसे अपने ज्ञानका मद नहीं करता है। मोहं वृत्तिको नष्ट कर देनेवाले उस :
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पन्द्रहवाँ सर्ग |
[ २१५ योगीके प्रज्ञापुरी पहका विजय मानना चाहिये ॥ १२३॥ 'यह कुछ 'नहीं समझता है' इसके खाली सींग ही नहीं है, नहीं तो निरा पशु है. इस प्रकार नियमसे पद पदपर लोग जिसकी निंदा करते हैं फिर भी जो बिल्कुल भी क्षपाको नहीं छोड़ता है वह क्षमा ..गुण धारक साधुं अज्ञानजनित परीपह पीड़ाको सहता है ॥ १२४॥ बढ़े हुए वैराग्य से मेरा मन शुद्ध रहता है, मैं आगम समुद्रको भी पार कर गया हूं, मुनि मार्गको धारण कर चिरकालसे मैं तपस्या - भी करता हूं, तो मी मेरे कोई लब्धि उत्पन्न न हुई मुझे कोई ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई । शखों में जो इसका वर्णन मिलता है कि तप करने से अमुक ऋषिको अमुक ऋद्धि प्राप्त हुई थी ' सो सत्र झूठा मालूम पड़ता है। इस प्रकारसे जो साधु प्रवचनकी निंदा नहीं करता है किंतु जिसने आत्मासे संक्लेशको दूर कर दिया है उसके कल्याणकारी अदर्शन परीषहका विजय माना जाता है ॥ १२५ ॥
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चारित्र पाँच प्रकारका है - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सुक्ष्म पराय, और यथः ख्यात । इनमेंसे हे राजन् ! आदिके चरित्रको जिनेन्द्र भगवान ने एक तो नियत कालसे युक्त, दूसरा अनियंत. काउंसे युक्त इस प्रकारसे दो प्रकारका बताया है ऐसा निश्चय समझ ॥ १२६ ॥ त्रा या नियमोंमें जो प्रमादवश स्खलन होता है उसके सदागमके अनुसार नियमन करनेको छेदोपस्थापना कहते हैं, अथवा विकल्प से निवृत्तिको छेदोपस्थापना कहते 1 "यह छेदोपस्थापना ही दूसरा चारित्र है जो कि निरुपम सुखका "देनेवाला है, मुक्ति के लिये सोपान - सीढ़ीके समान है, पाप कर्मपर विजय प्राप्त करनेवाले मुनियोंका अमोघ अस्त्र है ॥ १२७ ॥ हे
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२१६ ] ___ महावीर चरित्र। ..
Annararamma राजन् ! तीसरे चारित्रका नाम परिहार विशुद्धि जान । समस्त प्रा-: णियोंके बधसे अत्यंत निवृत्तिको ही परिहार विशुद्धि कहते हैं । ॥ १२८ ॥ हे नरेश ! चौथे अनुपम:चारित्रका नाम सूक्ष्मसापराय: समझ । सत्पुरुष इस नामको अन्वर्थ बताते हैं। क्योंकि यह चारित्र कषायके अति सूक्ष्म होजानेपर होता है ॥१९९॥ जिन भगवान्ने .. पांचवें समीचीन चास्त्रिका नाम यथाख्यात कहा है। यह चारित्र . मोहनीय कर्मके उपशम या क्षणसे होता है। और इसीके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूपको प्राप्त करता है ।। १३० ॥ ... ___ हे राजन् ! अब तू तपका स्वरूप समझं । यह तप. सदा दो .. प्रकारका माना है-एक बाह्य दूसरा अभ्यंतर । इनमें भी प्रत्येक नियमसे छह छह भेद माने हैं । उक्त दो भेदोंके जो प्रभेद हैं : उनका भी मैं यहां संक्षेपसे वर्णन करूंगा ।। १३१ ॥ रागको शांत - करनेके लिये, कर्मसमूहको नष्ट करने के लिये दृष्ट फल मनोहर हो : तो भी उस विषयमें अनपेक्षा-लालसारहितपने के लिये, विधिपूर्वक : ध्यान तथा आगमकी प्राप्तिके लिये, और संयमसंपत्तिकी सिद्धिक: लिये जो धीर भक्तिपूर्वक अनशन करता है वह बुद्धिमान् इस एककें : द्वारा ही दुष्ट मनको वशमें कर लेता है ॥ १३२ ॥ ‘जागरणके : लिये-निद्रा-प्रमाद न आवे इसलिये, बढ़े : हुए दोपोंकी शांतिके : लिये, समीचीन संयमके निर्वाहके लिये, तथा सदा स्वाध्याय और संतोषके लिये उदार बोधके धारक भगवान्ने अवमौदर्य-उनोदर तप बताया है ।। १३३ ॥ एक मकान आदिकी अपेक्षासे-आज... एक ही मकानमें भोजन करनेको जाऊंगा, आज इस प्रकारका भोजन : मिलेगा तो भोजन करूंगा, आन ऐमा बनांव बनेगा तो मोंजन क..
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पन्द्रहवाँ सगं ।
[ २१७ रूंगा, इत्यादि प्रकारसे ऐसा संकल्प करना कि जिससे चित्तका - मनका निरोध हो, इसको तीसरा- वृत्तिपरिसंख्यान तप समझ । यही तप तृष्णारूप धूलिको शांत करनेके लिये नलके समान है और यही अविनश्वर लक्ष्मीको वश करनेवाला. अद्वितीय मन्त्रवशीकरण है ॥ १३४ ॥ इन्द्रिरूपी दुष्ट घोड़ोंके मदका निग्रह करनेके लिये, निद्रा - प्रमादपर विजय प्राप्त करनेके लिये चौथा तप घृत प्रभृति पौष्टिक रसोंका त्याग बताया है । यह तप स्वाध्याय और योगकी सुखः पूर्वक सिद्धिका निमित्त बताया है ॥१३५॥ आगमके अनुमार शून्य गृहआदिकमें एकांत शय्या आसन के रखने को मुनिका पांचवां विविक्त शय्यासन नामका तप बताते हैं । यह तप स्वाध्याय व त्रह्मचर्या और योगकी सिद्धिके लिये माना है ॥ १३६ ॥ श्रीमऋतु आताप-धूपमें स्थित 'रहना - आतापन. योग धारण करना, वर्षाऋतु में वृक्षके मूलमें निवास करना, और दूसरे समय में अनेक प्रकारका प्रतिमायोग धारण करना,
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हे राजन् ! यही उट्ठा कायक्लेश नामका उत्कृष्ट तप है। इसीको सब तपोंमें प्रधान तप समझ ॥१३७॥ प्रमादके वश जो दोप लगते उन दोषोंके सर्वज्ञकी आज्ञा के उपदेश के अनुसार जो विधान बना है 'उसीके अनुसार दूर करनेको प्रायश्चित पहला अंतरंग तप कहते
1. इसके दश भेद हैं। दीक्षा आदिककी अपेक्षा अधिक वयवाले पुरुषों में जो अत्यंत आदर करना इसको विनय नामका दूसरा अंतरंग तप कहते हैं । यह चार प्रकारका है, और मुक्तिके सुखका मूल है
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-१३-८ ॥ अपने शरीर से, वचनोंसे या दूसरी समीचीन द्रव्योंसे आगमके अनुसार जो साधुओंकी उपासना करना इसको वैयावृत्य कहते हैं।
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२१८ ]
महावीर चरित्र ।
यह दश प्रकारका बताया है । मनःस्थितिकी शुद्धिके लिये जो निरंतर ज्ञानका अभ्यास करना इसीको राम और सुखरूपं स्वाध्याय कहते हैं जो कि पांच प्रकारका माना है ॥१३९॥ ' इसका स्वामी हूं ' ' यह मेरी वस्तु है' इस प्रकारकी अपनी संकल्प बुद्धिके मले प्रकार छोड़नेको जिनेन्द्र भगवान्ने व्युत्सर्ग' बताया: है | यह दो प्रकारका है । अत्र इसके आगे मैं प्रभेदोंके साथ. व्यानका वर्णन करूंगा ॥ १४० ॥
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पूर्ण ज्ञानके धारक जिनेन्द्र भगवान्ने एकाग्र एक वयमं चिंता विचारके रोकनेको ध्यान कहा है। इसमें इतना और समझ किं. संहननवालेके भी यह अंतर्मुहूर्त तक ही हो सकता है । इम". ध्यानके चार भेद हैं ||१४१ || हे नरनाथ ! वे चार भेद इस प्रकार ' बताये हैं- आर्त्त, रौद्र, धर्म्य, शुक्ल; इनमें आदिके दो ध्यान संसारके कारण हैं और अंतके दो ध्यान स्वर्ग तथा मोक्षके कारण. ॥१४२॥ अतिध्यान मी चार प्रकारका समझो । अनिष्ट वस्तुका संयोग होनेपर उसके वियोगके लिये निरंतर चिंतंवन करना. यह पहला - अनिष्ट संयोग नामका आर्त्तध्यान है । इष्ट.. वस्तुका वियोग होजानेपर उसकी प्राप्तिके लिये चितवन : करते रहना यह इष्ट वियोग नामका दूसरा अतिध्यान है। अत्यंत बढ़ी हुई बेदनाको दूर करनेके लिये निरंतर चितवन करते
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रहना यह तीसरा वेदना नामका अतिध्यान है। इस प्रकार निदान - आगामी मोगोंकी प्राप्तिका संकल्प करनेके लिये निरंतर चितवन करते रहना यह निदान नामका चौथा आर्त्तिध्यान है। इस अध्यानकी उत्पत्ति आदिले - प्रथम गुणस्थान से लेकर छह गुणस्थानोंमें
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पन्द्रहवाँ मर्ग। [ २१९ बढ़ाई है:।। १४३॥ हिंमा अं चोरी परिग्रहका संरक्षण इनकी
अपहास जो निरंतर चितवन करना इसको नियम रौद्रव्यान कहा ...है। इस व्यानका करनेवाला अविरत-पहले गुणस्यान्स लंकर चौथ ...गुणस्थान तकवाला जीव होता है। कदाचित् पांचवें गुणास्थान
वाना भी होता है ।।१४। जो मले प्रकार विषय-निरंतर चितवन , करना यह धर्य ध्यान है, यह आना, अपाय, विराक और संस्थान - इन विषयोंकी अपेक्षासे टलन्न होता है इसलिये चार प्रकारका
है। भावार्थ-धम्यन्यानके आजा वित्रय, अपाय वित्रय, विषाक विचय और सम्यान वित्रय ये चार मेढ़ हैं। पदार्थ अति मुहम हैं . और आमा-कमकि उदयसे जड़ बना हुआ है, इस लिये उन ' विषयाम आगमक अनुसार न्यादिकका यळे प्रकार चितवन करना
इसको आना वित्रय धर्म्यन्यान कहते हैं ।। १४५ ॥ मिथ्यात्वक. • निमित्त अत्यंत मूह होगया है मन जिनका ऐसे अनानी प्राणी
मोसको बाहत हुए भी जन्मांधकी तरह सर्वज्ञोक्त मतसे त्रिकालसे · विनुस रहकर सम्यग्ज्ञान सन्मार्गमे दूर जा रहे हैं। इस प्रकार से : जो मार्गक अपायका चिंतन करना इसको विद्वानोंने दुसरा-अपाय वित्रय वयंच्यान बताया है।-१४६ ॥ अयवा आत्मास कमकि. दूर होने की विधिका निरंतर चिंतन करना इसको भी जिन मगवा-- नूनं अपाय वित्रयं ध्यान कहा है। यदी ये शरीरी अनादि मिथ्यात्व रुप अहितसे किस तरह छूटे इस बातक निरंतर स्मरण करनेको भी अपाय वित्रय कहते हैं ।। १४६ ॥ ज्ञानावरणादिक कमकि समूहका जो व्यादिक निमित्तके वशते उदय होता है जिससे कि विचित्र · फलोंका अनुभव होता है। इसी अनुमके विषयमें निरंतर मकः
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२२० ] . महावीर चरित्र। . प्रकार चितवन करना इसको विपाक विचय धर्म्यध्यान कहते हैं। लोकका जो आकार है उसका अप्रमत्त होकर जो निरूपण करना या चिंबना इसको संस्थान विचय नामका धर्यध्यान कहते ।
___ ध्यानके द्वारा नष्ट हो गया है मोह जिनका ऐसे मिन भाग-. वान्ने शुक्लध्यानके चार भेद बताये हैं। जिनमें से आदिके दो भेद 'पूर्ववित्-श्रुतकेवलीके होते हैं और अंतके दो भेद केवलीके होते हैं. : ॥ १४९ ॥ पूर्ण ज्ञानके धारक जिन भगवान्ने. पहला शुक्लध्यान पृथत्त्ववितर्क नामका बताया है जो कि त्रियोगीके होता है। और . दूसरा शुक्लध्यान एकत्ववितर्क नामका बताया है जो कि एक योग::: वालेके ही होता है ॥ १५० ॥ सूक्ष्म क्रियाओंमें प्रतिपादन के कारण तीसरे शुक्लध्यानका नाम ज्ञानके द्वारा देख लिया है . समस्त : जगतको जिन्होंने ऐसे सर्वज्ञ भगवान् सुक्ष्म क्रिया प्रतिपाति बतातें :
हैं। यह ध्यान काययोगबालेके ही होता है ॥१५१॥ हे नरेन्द्र ! । समस्त दृष्टा भगवान्ने चौथे शुक्लध्यानका नाम व्युपरत क्रिया '. •त्ति बताया है। दूसरोंको दुर्लभ यह ध्यान योग रहितके ही होता .. ; है ॥ १५२ ॥ हे कुशाग्रबुद्धे ! आदिके दोनों शुक्लध्यान वितर्क .
और वीचारसे युक्त हैं; तथा दोनों ही का आश्रय एक श्रुतकेवली ही . है। तीन लोकके लिये प्रदीपके समान जिन भगवान्ने दूसरे ध्यानको चीचार-रहितं बताया है ॥ १५३ ॥ प्रशन और अद्वितीय सुखको जिन्होंने प्राप्त कर लिया है, तथा आचरण है प्रधान जिनका ऐसे : ज्ञानीपुरुष वितर्क शब्दका अर्थ श्रुत बताते हैं, और वीचार शब्दका : अर्थ, अर्थ, व्यंजन, और योग, इनकी संक्रांति पल्टन ऐसा बताते
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पन्द्रहवाँ सर्ग |
[ २२१ ।। १५४ ।। ध्येयरूप जो क्रय है उसको अथवा उस द्रव्यकी पर्यायको अर्थ ऐसा माना है । दूसरा व्यंजन है उसका अर्थ वचन ऐसा समझो । शरीर, वचन, और मनके परिस्पन्दको योग कहते हैं। विधिपूर्वक और क्रमसे इन समस्त अर्थादिकोंमें से किसी मी एकका आलम्बन लेकर जो परिवर्तन होता है उसको संक्रांति ऐमा कहा है ॥ १५५ ॥ वशमें कर लिया है इन्द्रियरूपी घोड़ोंको जिसने; तथा प्राप्त कर ली है वितर्क शक्ति जिसने ऐसा पापरहित और आदरयुक्त जो मुनि समीचीन पृयक्त के द्वारा क्रषाणु या भावाणुको ध्यान करता हुआ तथा अर्थादिकोंको क्रमसे पहटते हुए मनके द्वारा ध्यान करता हुआ मोहकर्मकी प्रकृतियोंका सदा उन्मूलन करता है वही मुनि प्रथम ध्यानको विस्तृत करता है ॥१९६॥ • विशेषता के क्रमसे अनंतगुणी अद्वितीय विशुद्धिसे युक्त योगको पा
कर शीघ्र ही मूलमें से ही. मोहवृक्षका छेदन करता हुआ, निरंतर ज्ञा
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..नावरण कर्म के बंधको रोता हुआ, स्थितिके ह्रास और क्षयको करता हुआ निश्चल यति एकत्ववितर्क ध्यानको धारण करता है । और यही कर्मोंको नष्ट करनेके लिये, समर्थ है ॥ १५७ ॥ अर्थ व्यंजन और योगके संक्रमण से उसी समय निवृत्त होगया है श्रुत जिसका, साधुकृत उपयोग से युक्त, ध्यानके योग्य आकारको धारण करनेवाला, अविचल है अंतःकरण जिसका, क्षीण हो गये हैं कपाय जिसके, ऐसा निर्लेप - साधु फिर ध्यानसे निवृत्त नहीं होता । वह मणिके समान अथवा स्फटिकके समान स्वच्छ आकारको धारण करता है
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- ॥ १५८ ॥ एकत्ववितर्क शुक्लै ध्यानरूपी अग्निके द्वारा दग्ध: कर 'दिया है समस्त घातिकर्मरूपी काष्ठको जिन्होंने ऐसे तीर्थकर अथवा
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महावीर चरित्र। . .... दूसरे केवली ही पूर्ण और उत्कृष्ट केवलज्ञानको प्राप्त करते हैं. : ॥ १५९ ।। चूड़ामणिकी किरणनालसे युक्त तथा किसलय नवीन पल्लबके रूपको धारण करनेवाले हैं का-स्त जिनके ऐसे इन्द्र जिनकी वंदना करते हैं, जिसके भीतर तीनों जगत् निमग्न हो जाते हैं ऐसे अपने ज्ञानके द्वारा अनुपम, जिन्होंने संसार समुद्रको पार कर लिया है, जिन्होंने चंद्र समान विशद निर्मल यशोराशिके द्वरा दिशाओंको श्वेत बना दिया है, ऐसे भगवान् उत्कृष्ट आयुकी : अपेक्षा कुछ कम एक कोटि पूर्व वर्ष पर्यंत भव्य समूहसे वैटित हुए विहार करते हैं॥१६०॥ जिसकी आयुकी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी रह गई . है, और इसीके समान जिसके वेदनीय नाप और गोत्र कर्मकी स्थिति . रह गई है, वह जीव वचनयोग दूसरे मनोयोग तथा अपने वादर काययोग भी छोड़कर सूक्ष्मरूप किये गये काययोगका आलम्बन लेका. ध्यानके बलसे अयोगताको प्राप्त करता हुआ और कुछ काम नहीं.. करना केवल सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान ही करता है ॥१६१-१६२॥ आयुर्मकी स्थितिसे यदि शेष तीन कर्माकी-वेदनीय नाम, गोत्रकी स्थिति अधिक हो तो उन तीनोंकी स्थितिको आयुको स्थितिके समान करनेके लिये वह योगी समुद्घात करता है ।।१६॥ अपनी आत्माको चार समयोंमें निर्दोष दंड, कपाट, प्रतर, और लोकपूर्ण तथा इतने ही-चार-ही समयोंमें आत्माको उपसंहा-संकुचित-शरीराकार करके फिर पूर्ववत् तीसरे ध्यानको करता है ॥१६४॥ इसके :: बाद.वह केवली उत्कृष्ट व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यानके द्वारा कोकी शक्तिको नष्ट कर पूर्ण अयोगताको प्राप्त कर मोक्षको प्राप्त करता
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पन्द्रहवाँ संर्ग [ २२३ अपने पूर्वकून काँके छूटनेको निर्जरा कहा है। वह दो प्रकारकी है-एक पाकजा दुमरी अपाकना । हे नरनाथ ! जिस तरह लोकमें वनस्पतियोंके फलदो प्रकार से पकते हैं, एक तो स्वयं काल पाकर और दूसरे योग्य उपाय-वगैरहके द्वारा। इसी तरह कर्म भी हैं। वे भी दो प्रकारस पते हैं देकर निर्माण होते हैं, एक तो कालके अनुमार, दुसरे योग्य उपायके द्वारा ॥१६६॥ सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत-छठे और सातवें गुणस्थानवाला, अनंतानुबंधी कपायका विसंयोजन करनेवाला, निमोहका क्षाक, चारित्रमोहका उपशमक, उपशांतमोह, चारित्रमोहका साक, क्षीणमोह, और जिनसयोंगी अयोगी। इन स्थानों में क्रमसे असंख्यातगुणी कर्मोंकी उत्कृष्ट निर्जरा होती है ।। १६.७ ।। इस प्रकार संवर और निराके निमितभूत दो प्रकारके श्रेष्ट तपका निरूपण किया । अब क्रमके अनुसार सुनने योग्य मेमनत्वका मैं वर्णन करूंगा सो तू एकाग्र चित्तसे उसको सुन ॥ १६८ ॥
। 'बंधक हेतुओंना अत्यंत अमाव होजानेपर, और निराका 5च्छी तरहसे संनिवान होनेपर समस्त कर्मोकी स्थितिका सर्वथा छूट जाना इसको जिनेन्द्र भगवान्न मोक्ष बताया है ॥ १६९ ।। समस्त मोहकर्मका पहले ही विनाशकर, क्षीण कपाय व्यपदेशसंज्ञा-नामको पाकर, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतरायको नष्ट कर केवलज्ञानको प्राप्त करता है ।। १७०॥ ... " असंयत सम्यग्दृष्टिं आदिक आदिके चार गुणस्थानों से किसी मी-गुणस्थानमें विशुद्धि युक्त जीव मोहकर्मकी सात प्रकृतियोंकामिथ्यात्व, मिश्र, सम्यत्व प्रकृति मिथ्यात्व ये तीन और अनंतानु
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२२४ ] . महावीर चरित्र । : . . .. वधी क्रोध मान माया लोभ ये चार कषायोंको नष्ट कर देता है। ॥१७१॥ निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, त्यान गृद्धि, नरकं गति, नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, ऐकेन्द्रिाद्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ये चार जाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण इन सोलह प्रकृतियोंका हे राजन् ! अनिवृत्तिगुणस्थान में स्थित हुभा शुद्धि सहित जीव क्षय करता है। और इसके बादः यतिरान उसी गुणस्थानमें आठ कपायोंको एक बारमें ही नए कर देता है ॥१७२-७३-७४॥ इसके बाद प्राप्त किया है शुद्ध वृत्तचारित्रको जिसने ऐसा वह धीर उसी गुणस्थानमें नपुंपंक वेइको नष्ट करता है, इसके बाद स्त्री वेदकोट करता है, और उसके भी बाद समस्त छह नो कषायोंको युगपत नष्ट कर देता है. ॥ १७ ॥ इसके बाद उसी गुणस्थानमें पुत्रदका मी. नाश कर बाद तीन संज्वलन कपायका-क्रोध, मान, मायाका पृथक् पृथक् नाश:
करता है। लोम संचालन सूक्ष्मसाराय गुणस्थानके अंतमें नाशको · प्राप्त होता है ।। १७६ ॥ इसके बाद क्षीण कषाय वीतराग गुण। स्थानपर स्थित हुए. जीवके आन्त्य समयमें-अंतके समयसे पूर्वके:
समयमें निद्रा और प्रबलाका नाश होता है ॥ १७७.। और • अंतके समयमें पांच ज्ञानावरण, चार प्रकारका दर्शनावरण.
तथा. पांच.., प्रकारका अंतराय कर्म नाशको प्रप्त होता है.. : . ॥ १७८ ॥ इसके बाद दो बदनीय-साता. और .. असाता: मेंसे कोई एक. वेदनीय, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी औदा
रिकं, वैक्रियिक, आहारक, तैनस, कार्माण ये पांच शरीर, आठ: - स्पर्श, पांच रस, पांच संघात; पांच वर्ण, अगुरु लघु, उपघात, परपात :
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': पन्द्रहवाँ सर्ग।.
___ [ २२५ प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे दो प्रकारकी विहायोगति, शुभ, अशुभ, 'स्थिर, अस्थिर, सुस्वर, दुःस्वर, पर्याप्त, उच्छास, दुर्मग, प्रत्येक काय, अयशस्कीर्ति, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र, पांचप्रकारके शरीर बंधन, छह संस्थान, तीन शरीरके आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो गंध इन बहत्तर प्रकृतियोंको.अयोग गुगस्थानवाला जीव अंतसे पूर्वक समयमें नष्ट करता हैं ॥१७९-८३॥ और अयके समयमें वह जिनेन्द्र दो वेदनीय काँमें से एक मनुष्य आयु, मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्तक, बस, बादर, तीर्थकर, सुभग, यशस्क्रीति, आदेय, उच्च गोत्र, इन तेरह प्रकृतियोंको युगपत नष्ट करता है ।। १८४-८५ ॥ दुर हो गई हैं लेश्या निसकी ऐसा . अयोगी शैलेशिता-ब्रह्मवयकी सामिताको पाकर अत्यंत शोभाको प्राप्त होता है सो ठीक ही है । रात्रिके प्रारम्भमें मेघोंकी रुकाघटसे दूर हुआ. पूर्ण शशी-चन्द्र क्या शोभाको प्राप्त नहीं होता है ! ॥ १८६ ।। अत्यंत निरंजन निहाम और उत्कृष्ट सुखको धारण करनेवाली तथा भव्य प्राणियोंको उत्कंठा बढानेवाली मुक्ति केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्वको छोड़कर बाकी के औषशमिकादिक भावोंके तथा भव्यत्वके अभाव होनेसे होती है ।। १८७|| इसके बाद सौम्य कोका क्षय हो नानके अनंतर वह मूर्ति रहित मुक्त नीव लोकके अंत तक ऊपरको ही जाता है । और एक ही समयमें मुक्ति श्री उसका आलिंगन कर लेती है ॥ १८८ ॥ पूर्व प्रयोग, असंगता-शरीरसे अलग होना, कर्मबन्धसे छूटना तथा उसी तरहका गतिस्वभाव, इन प्रकृष्ट नियमोंसे आत्माके ऊर्मगमनकी सिद्धि होती है ॥ १८९ ॥ तत्वैषी सत्पुरुषोंने ऊर्व.. १५ . . .
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२२६ ]
महावीर चरित्र |
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गतिका निश्चय करानेके लिये जो हेतु दिये हैं उन पूर्वोक्त चारों हेतुओंका दृढ़ निश्चय करानेके लिये कपसे चार समीचीनं दृष्टांत. दिये हैं, वे ये हैं-घुमाया हुआ कुंभारका चाक, लेपरहित तूंबी, ऊंडीका बीन, और अग्निकी शिखा । भावार्थ-संसार अवस्थामें जीव जिस प्रयोग के द्वारा गमन करता था उसी प्रयोगंके द्वारा घूमता है उस प्रयोगके संसारसे छूटने पर भी गमन करता है । जैसे कुंभारका चाकु प्रारम्भ में जिस प्रयोगके द्वारा निमित्तके हट जाने पर डंडा आदिके दुरकर लेने पर भी पूर्वं प्रयोगके द्वारा ही घूमा करता है । दूसरा हेतु असंगता है जिनका उदाहरण लेपरहित तूंत्री है । अर्थात् जिस 'तरह तूंच के ऊपरसे मट्टीका लेप दूर कर दिया जाय तो वह निश्मसे नलके ऊपर ही जाती है उसी तरह शरीरसे रहिन होनेपर "आत्मा नियमसे ऊपरको ही गमन करता है। तीसरा हेतु कमसे छूटना है जिसका उदाहरण अंडीका बीज बताया है। इसका अभि प्राय यह है कि जिस तरह अंडीका बीजं गवामेंसे फूटकर जब निकलता है तब नियमसे ऊपरको ही जाता है उसी तरह कर्मोसे 'छूटने पर जीव मी ऊपरको ही जाता है। चौथा हेतु ऊर्ध्वगमन करनेका स्वभाव बताया है fear दृष्टांत अग्निat शिखा है । इसका भी अभिप्राय यह है कि जिस तरह बिना किसी प्रतिबंधक कारण अनिकी शिला स्वभावसे ही ऊपरको गमन करती है उसी तरह जीव भी प्रतिबंधक कारणके न रहने से स्वभावसे ही ऊपरको “गमन करता है ॥ १९० ॥ सिद्धिका है सुख जिनको ऐसे पूर्वोक सिद्ध भगवान् लोकके अंत तक ही क्यों जाते हैं उसके आगे भी चयों नहीं आते ? इसका उत्तर यह है कि लोकके आगे. धर्मास्ति
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: पन्द्रहवाँ सर्ग ।
[ २२७ काय नहीं है। सर्वज्ञ देव लोककें बाहर के क्षेत्रको धर्मास्तिकाय आदिसे रहित होनेके कारण लोक कहते हैं । भावार्थ - अलोक में -गमन करनेका सहकारी- कारण धर्म क्रय नहीं है इसलिये सिद्ध भगवान् वहाँ गमन नहीं कर सकते हैं ॥ १९९ ॥ वर्तमान और मनसे सम्बन्ध रखनेवाली दो नयों वळसे नयक सम्यग्ज्ञाताओंन सिद्धों में भी क्षेत्र, काल, चारित्र, लिंग, गति, तीर्थ, अवगाह, “प्रत्येक बुद्ध, बोधित, ज्ञान, अन्तर, संख्या, अल्पबहुत्व, इन कारणोंसे भेद माना है । भावार्थ- वर्तमान में सिद्धांका जो क्षेत्रादिक है 1 "वह पूर्वकाल में न था इसी अपेक्षासे उनमें परस्पर में भेद है । १९२ ॥ इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्ने समामें विधिपूर्वक उस चक्रवर्तीको -नव पदार्थों का उपदेश देकर विराम लिया । भगवान्की गो ( वाण े चंद्रमा पक्ष किरण ) के द्वारा प्राप्त किया है समीचीन बोध ( ज्ञान; दूसरे पक्ष में विक्रांश) को जिसने ऐसा वह राजा - चक्री • इस तरह अत्यंत शोम को प्राप्त हुआ जैसे पद्मधुचंद्रके द्वारा नवीन पद्म ॥ - १९३ ॥
इस प्रकार चक्रवर्तीने मोक्षमार्गको जानकर चक्रवर्तीकी दुरंत विभूतिको भी तृणकी तरह छोड़ दिया । ठीक ही है- निर्मल है जल जिसमें ऐसे सरोवर के स्थानको जानता हुआ मृग क्या फिर मृगतृष्णिका - मरीचिका में जल पीनेका प्रयत्न करता है ? ॥ १९४ ॥ अपने बड़े पुत्र अरिंजयको प्रीतिपूर्वक समस्त राज्य देकर सोलह हजार राजाओंके साथ क्षेमंकर जिराज आचार्यके पास नाकर अपने कल्याणके लिये भक्तिपूर्वक दीक्षा धारण की ॥ १९५ ॥ मन शुद्ध प्रशमको धारण कर वह विधि पूर्वक चोर किंतु समीचीन
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२२८ ]
महावीर चरित्र । - .: तप तपने लगा । लोकमें भव्यजनोंका वत्सल होनेसे प्रियमित्रने वस्तुतः प्रिय मित्रताको प्राप्त किया ॥ १९६ ॥ . __कुछ दिन बाद आयुके अंतमें तपके द्वारा कृषताको प्राप्त हुए शरीरको विधिसे-सल्लेखनाके द्वारा छोड़कर अपने अनल्प पुण्योंसे अर्जित और खेदों-दुखोंसे वनित सहस्त्रार कल्पको प्रप्त किया ॥ १९७ ॥ वहां पर अठारह सागरकी है आयु निरुकी और स्त्रियोंके मनको वल्लम तथा हंसका है चिन्ह निसका ऐसे रुंबक नामके उत्कृष्ट विमानमें रहते हुए उस सूर्यप्रम नामके देवने अपने शरीरकी.. मनोज्ञ कांतिके द्वारा सुर्यकी बालप्रभाको भी लज्जित करते हुए मनोज्ञ : ' अष्टगुणविशिष्ट । दैवी संपत्तिको प्राप्त किया ॥ १९८ ॥ ... इस प्रकार अशग कविकृत वर्धमान चरित्रमें ." सूर्यप्रभ संभव" .
नामक पन्द्रहवां सर्ग समाप्त हुआ। .:::
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खोलहवा सर्ग। ख-दुःखोंके सम्बन्धसे रहित, तथा अचिंत्य है वैभव जिनको ऐसे नाना प्रकारके स्वर्गीय सुखोंको भोगकर, वहांसे उतर-स्वर्गसें : आकर यहां (पूर्व देशकी श्वेतातपत्रा नगरीमें) तू स्वभावसे ही सौम्य नन्दन नामका राजा हुआ है ॥ १ ॥ जिस प्रकार मेव वायुके वशसे... आकाशमें इधरसे उधर घूमा करता है उसी तरह यह जीव कर्मके : उदयसे नाना प्रकारके शरीरोंको धारण करता तथा छोड़ता हुआ संसार.समुद्र में इधर उधर भटकता फिरता है ॥ २ ॥ क्योंकि जो. मोक्षका मार्ग है और जिससे युक्त आत्माको मुक्ति शीघ्र ही प्राप्त :
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सोलहवाँ सर्ग |
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होती है, इसी लिये उस अविनर सम्यग्दर्शनको उत्कृष्ट समझ - इसको बड़ी कठिनता प्राप्त कर मकता है ॥ ३ ॥ जिन जीवके सारो ने लिये गुनियोंक द्वारा रोक दिया है पापकर्माका आना जिसने ऐमा चारित्र होता है वही जीव निश्चयले जगतमें विद्वानोंका अग्रगीय है और उसीका जन्म भी मत है | ॥ ४ ॥ अत्यंत मजबूत जमी हुई है नड़ जिनकी ऐसे वृक्षको जिम -तरह महान मतंगज हस्ती शीघ्र ही उड़ाता है उसी तरह अत्यंत कठोर जमा हुआ है नुक जिपका ऐसे मोहको वह जीव शीघ्र ही नष्ट कर देता है जो कि सम्मति युक्त हैं -11-4 | जिप्रकार सरोवर मध्यमें बैंठें हुए मनुन्यको अन्नि नहीं मंत्र की टसी प्रकार शान्ति करनेवाला और पवित्र ज्ञान जंक जिसके हृदयमें मौजूद है उसको, समस्त जानार कर लिया है आपण जिसने ऐसी मी कामदेवकी अभिजा नहीं मस्ती है ॥ ६ ॥ संयमपन पर हुए निमंत्र प्रशमरूप हथियारको दिये हुए अत्यंत पहरे हुए और शीरूप योद्धाओं - अङ्गरक्षकों द्वारा सुरक्षित नुनिरानके
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सामने समीचीन तपञ्चरणरूप रणमें पापकर्मरूप शत्रु उद्धत हैं तो मी उह नहीं सकता है । जो garm se
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हैं उनको दुर्जय कुछ नहीं है || ७-८ ॥ इन्द्रिय और मनको जिसने अच्छी तरह वशमें ॠ लिया है, जिसने प्रशनके द्वारा मोहकी सम्पत्तिको नष्ट कर दिया है, जिनका चारित्र दीनासे रहित हैं, ऐसे मत्युको इमी लोकमें क्या दूसरी मुक्ति मौजूद नहीं है ? ॥ ९ ॥ जो योद्धा युद्धक मौके पर मयसे वित्र हो जाता है
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महावीर चरित्र |
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उसका तीक्ष्ण हथियार भी केवल निप्फल ही है। उसी तरह, जो मनुष्य अपनी चर्या में विषयोंमें निरत-तल्लीन रहता है उसका : बढ़ा हुआ भी श्रुत व्यर्थ ही है ॥ १० ॥ विबुधों विद्वानों या देवोंके द्वारा पूजित, अंधकारको दूर करनेवाली, तथा जिससे अमृत टपक रहा है ऐसी मुनिराजकी वाणीके द्वारा निकट भव्य इस तरह, प्रबुद्ध हो जाता है जैसे लोक में शशिरशिर चन्द्रमाको किरणसे पद्म प्रबुद्ध - विकशित हो जाता है ॥ ११ ॥ अनेक प्रकारके गुणोंस युक्त, अर्चित्य, अद्भुत, और अत्यंत दुर्लम, रत्नके समान मुनिवाक्योंको दोनों कणोंमें धारण कर भव्य जीव जगतमें' 'कुनार्थ हो.. जाता है || १२ || अवधिज्ञान ही हैं नेत्र जिनके ऐसे व मुनिशन तत्वज्ञानी राजा नंदुरको पूर्वोक्त प्रकारसे उसके पूर्व भवको सिंहसे लेकर यहां तकके भवोंको तथा पुरुषार्थ तत्वको भी अच्छी तरह बताकर विरत हो गये ॥ १३ ॥ झरते हुए हैं जल बिन्दु जिसमें तथा चन्द्रमा की किरणजालसे सम्बन्ध हुई चन्द्रकांत मणि मिस प्रकार शोभाको प्राप्त होती है उसी प्रकार मुनिराजके वचनों को धारण कर पवित्र हर्षके अशुओंको बहाता हुआ नन्दन राजा भी. शोभाको प्राप्त हुआ || १४ || भक्तिके प्रप्तारसे गद्गद हो गया है. शरीर जिसका ऐसा वह राजा मुकुटके ऊपर किनारे पर मुकुलित करपल्लवोंको लगाकर नमस्कार कर इम तरहके वचन बोला ॥१५॥ ॥ जिस प्रकार जनताके हितके लिये विचित्र मणिगणौकोंछोड़नेवाले समुद्र जगत् में विरल हैं, उसी तरह भक्त जनताके:हितके लिये प्रयत्न करनेवाले मृति भी विरल - दुर्लभ हैं ॥ १६ ॥ इसमें भी प्रकाशमान हैं अवधिज्ञान रूप नेत्र जिनके ऐसे मुनि तो
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सोलहवाँ सर्ग..... . २३१... wweinemiaminirror कितने दुर्लभ हैं अर्थात् बहुत ही दुर्लभ हैं। रत्नोंकी किरणोंसे . व्याप्त कर दिया है जल.या स्थल संपत्तिको जिन्होंने ऐसे जलाशय अत्यंत दुर्लभ ही होते हैं ।। १७ ॥ हे देव ! आपके समक्ष अप्रिय शन्दोंके पर्थ अधिकं कहनेसे :क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? हे ईशः। इतना भी कहना. वश है कि आपके बचन
आन मेरे: जीवनको सफल करेंगे यह निश्चय है ॥१८॥ इस तरहके बचनोंको धीरताके साथ कहकर भूपालने समुद्रवसना पृथ्वीको उसका शामन करने के लिये अत्यंत नम्र उप पुत्र वर्महरको देदी ॥ १९॥ इस प्रकार राज्यलक्ष्मीकों छोड़कर राजा नंदनने दश हजार राना..ओके साथ जगत्प्रसिद्ध प्रोष्ठिय मुनिके निकट उनको प्रणामकर
तपश्चर्या-दीक्षा धारण की ॥ २० ॥ द्वादशांगरूप निर्मल वीचियां जिसमें विलास करती हैं तथा जो अनेक प्रकारके अंग बाह्यरूप भवरोंसे व्याकुल-ज्याप्त है ऐसे श्रुतसागरको वह योगी अपने महान बुद्धिरूपी:मुनाके बलसे शीघ्र ही पार कर गया ॥ २१ ॥ विषयोंसे पराकख मनके द्वारा अनेकवार श्रुतार्थका विचार-मनन करते हुए वह योगी अंतरंग और वह्य इस तरह दो प्रकारके दोनोंके भी छह छह मेदोंकी अपेक्षा बारह प्रकारके अद्वितीय और घोर तोको तपने का उपक्रर करने लगा ॥ २२ ।। वह निश्चित मुनि अनमिलषित रागकी शांतिके लिये आत्मदृष्टके फलमें लोलुाताको छोड़ना हुआ अपमत्त होकर शान और पठनकी सुखपूर्वक सिद्धि करनेवाला अनशन करने लगा ॥ २३ ॥ जागरण और वितर्क"श्रुत परिचित सामाधिकी सिद्धि के लिये वह निर्मल बुद्धि मुनि । निर्दोष पराकीका अवलम्बन लेकर विधिपूर्वक परिमित भोजन
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महावीर चरित्रं । . . . . . rammmmmmmmmmmmmmmmmernamr.umariwowwwwwwrementiremiunrin . :
उनोदर तप करता था ॥ २४ ॥ भूखसे कृष हुए भी उन मुनिने अभिलाषाओंके प्रसारको दो तीन. मकानोंमें जानकी अपेक्षा उचित और विधियुक्त वृत्तिपरिसंख्यान तपके द्वारा अच्छीतरह रोक लिया. ॥ २५ ॥ जीत लिया है अपनी इन्द्रियोंकी चपलताको निसने ऐसे . उस मुनिने रस परित्याग तपको धारण कर हृदयमें से नियमसे क्षो... . भका प्रसार करनेवाले कारणोंको रोक दिया ॥ २६ ॥ वह समर्थ- :
बुद्धि ध्यानसे परिचित श्रेष्ठ चौथ व्रतकी रक्षा करने के लिये 'जहाँ · जन्तुओंको बाधा नहीं होती ऐसे एकांत स्थानोंमें शयन- आतन. । और स्थिति-निवास करता था ॥ २७ ॥ अचल है धैर्य निसा
ऐसा वह मुनि दुःसह ग्रीष्मऋतुमें तपोंके द्वारा-पस्या करते हुए ...
सूर्यके सम्मुख रहता-आतापन योग धारण करता था। जिसने __ अपने शरीरसे रुचिको छोड़ दिया है ऐसे महापुरुषको यहाँपर संता- . ... पका कारण क्या हो सकता है ॥ २८ ॥ वर्षाऋतु अति संघन.. .. मेघ समूहसे वर्षते हुए जलसे भींन गया है शरीर जिसका ऐमा..
भी वह मुनि वृक्षोंके मूलमें निवास करता था। अहो! निश्चल और .:. प्रशांत पुरुषोंका चरित्र अद्भुतताका ठिकाना है ॥ २९ ॥ हिम पड़नेसे मयप्रद शिशिर ऋतुमें बाहर-जंगलमें रात्रिके समय निर्भप.
सदाचारका पालन करनेवाला वह योगी शयन-निवास करता था। • क्या महापुरुष दुष्कर कार्य करनेमें भी मोहित होते हैं ?॥ ३०॥ - ध्यान, विनय, अध्ययन, तीनों गुप्तिगं, इत्यादिके द्वारा धारण किया .
है महान संबर जिसने ऐसा वह अप्रमत्त योगी उत्कृष्ट तथा अनुपम: . .... 'अंतरंग तपको भी करता था ॥ ३१ ॥ उत्कृष्ट ज्ञानके द्वारा अत्यंत :
- निर्मल है बुद्धि जिसकी ऐमा वह साधु तीर्थकर इस नामकर्मकी ...
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सोलहवाँ सर्ग |
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जो कारण मानी हैं उन सोलह प्रकारकी भावनाओंको भाता था ॥ ३२ ॥ बढ़ा हुआ है ज्ञान जिसका तथा महान् धैर्यका धारक यह निश्चल मुनि जिनेन्द्र भगवान् के उपदिष्ट मार्ग में मोक्षके लिये चिरकाल तक दर्शन विशुद्धिकी भावना करता था ॥ ३३ ॥ मोक्षके कारणभूत पदार्थोंसे घटित भक्ति से भूषित वह मुनि गुरुओंकी नित्य ही भक्तिपूर्वक अप्रतिम विनय करता था ॥ ३४ ॥ निर्मल है विधि जिसकी ऐसी समाधिके द्वारा शीलकी वृत्ति - बाढ़से वेष्टित
तों में संदा निरतीचारताका अच्छी तरह 'भांचरण करता हुआ 'गुप्तियों का पालन करता था ॥ ३९ ॥ नव पदार्थोंकी विधि - स्वरूपका है निरूपण, जिसमें ऐसे वाङ्मयका निरंतर अभ्यास करता हुआ समस्त जगत्के पूर्ण तत्त्वों को निःशंक होकर इस तरह देखता था मानों ये सब उसके सामने ही रक्खे हों ॥ ३६ ॥ इस दुरंत संसार जनसे मैं अपने को किस तरह दूर करूं इस तरह नित्य ही विचार करनेवाले इस साधुकी निर्मल बुद्धि समादिके वेगवर विराजमान हुई || ३७ ॥ जान लिया है मोक्षका मार्ग जिसने ऐसे दिनरात चंचलता रहित बुद्धिके. धारक "मेरा" यह भाव छोड़ दिया है - इस वस्तुका मैं स्वामी हूं, यह मेरी वस्तु है जब ऐसा भाव ही छोड़ दिया तब वह अपने हृदय में लोभके अंशको भी किस तरह रख सकता है ॥ ३८ ॥ वह तपोधन अपनी अद्वितीय शक्तिको न छिपाकर तप करता था । भा कौन ऐसा मतिमान् होगा जो कि अनुपम भविष्यत् सुखकी अभिलापासे शक्ति मर प्रयत्न न करता हो ॥ ३९ ॥ भेदक. कारण के उपस्थित होनेपर वह अपना समाधान करता था। अथवा ठीक ही है - जान
सावुने जत्र अपने से "मैं" और
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२३४ ] . महावीर चरित्र। .. लिया है पदार्थोंकी गति--स्वभावको निसने ऐसा मनुष्य क्या कष्टोंमें : पड़ने पर मी उत्कृष्ट धैयको छोड़ देता है ! ॥४०॥ छोड़ दिया है। सब प्रकारके ममत्वको जिसने तथा निपुण है बुद्धि जिसकी ऐसा : वह साधु यदि गुणियोंमें कोई रोगी होते तो उनका प्रतीकारः करता था। ठीक ही है । जो सज्जन हैं वे सदा परोपकार,.. ही प्रयत्न करते हैं ॥ ४१ ॥ निर्दोष है चेष्टा-चारित्र निसका ऐसा वह साधु भावपूर्ण विशव हृदयसे महु श्रुनोंकी, अर्हतोको, गुरुओंआचर्योकी, तथा समीचीन आगमकी भक्ति करता था॥४२॥ वह कालको न गमाकर छह प्रकारकी समीचीन नियम विधियों पडावश्यकोंमें उद्या रहता था। जो अपना हित करनेमें उद्यन है,.. सकल विमल.अवगम-आगमके ज्ञाता हैं वे प्रमादका कभी अवलम्बन नहीं लेते ।। ४३ ॥ श्रेष्ठ वाङ्मय, ता, और जितपतिकी पूजाके : द्वारा निरंतर धर्मको प्रकाशित करता हुआ वह साधु सदा जिन शासनकी प्रभावना करता था ॥ ४४ ॥ खनकी धारके समान
तीक्ष्ण और अत्यंत दुष्कर तपको आगमके अनुसार तपता हुआ . वह ज्ञाननिधि अपने साधर्मियों में स्वभावसे ही वात्सल्य रखता.या .... ॥१५॥ विधि पूर्वक कनकावली और रत्नमालिकाको समाप्त कर .. उसके बाद मुक्तिके लिये मुक्तावली तथा महान् सिंह विलसित
उपवास करता था ॥४६॥ मारून.. चातक समूहके हर्षको. निरंतर बढ़ाता हुआ ज्ञानरूप जलके द्वारा शांत कर दिया है पाए...
साधु मुनियोंमें आकाशमें मेवकी तरह शोमाको. प्राप्त होता था ॥ ४५ ॥ निर्भय होकर गुप्ति और समितियों में प्रवृत्ति करनेवाला वह महाबुद्धि नितेन्द्रिय. निर्मल शरीरका धारक.
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‘सोलहवाँ सर्ग:। [ २३९ - nimmmmmm होकर भी क्षीण शरीर था और परिग्रह रहित होकर भी महर्द्धि-- महान ऋद्धियोंका धारक था ॥ ४८.॥ हृदयमें महान् क्रोधाग्निको अप्रमाण क्षमारूप अमृत जलसे बुझा दिया। अहो! समस्त तत्ववेत्ता
ओंकी कुशला नियमसे अचिन्त्य होती है ॥ ४९ ॥ उसने उचित मार्दव द्वारा मनमेंसे मानरूप विपका निराकरण किया । जो कृतबुद्धिं हैं व यमियोंके ज्ञानका. यही उत्कृष्ट फल बताते हैं ॥५०॥. स्वभावसे ही सौम्य और विशद हैं हृदय जिसका ऐसे उस मुनिको मांग कदाचित् : भी न :पा. सकी। निर्मल किरणसमूहके धारक. चन्द्रमाको अधकारपूर्ण रात्रि किस तरह पा सकती है? ॥५१॥ जिसको हृदयमैं अपने शरीरके विषयमें भी रंचमात्र भी स्पृहा नहीं है उसने लोम शत्रुको जीत लिया तो. इसमें मनीषियोंको आश्चर्यका. स्थान क्या हो सकता है ? ॥ ५२ ॥ अंधकारको दूर करनेवाले अत्यंत निर्मल मुनियोंके गुणगण अत्यंत निर्मल उस मुनिराजको पाकर इस तरह :अधिक शोभाको प्राप्त हुए जैसे स्फटिक्के उन्नत. पर्वतको पाकर चन्द्रकिरणं शोभाको प्राप्त हों ॥ ५३ ॥ अल्प है. मूल जिसका ऐसे नीर्ण वृक्षको जैसे वायु मूलमेंसे उखाड़ डालती. है उसी तरह संगरहित.है समीचीन आचरण निसका ऐसे उस उदारमतिने मदको बिल्कुल मूलमेंसे उखाड़ डाला ॥५४॥ अहो !.
और तो कुछ नहीं यह एक बड़ा आश्चर्य था कि आत्मामें स्थित-पूर्व, . बद्ध समस्त कर्माको तपके द्वारा जला दिया फिर भी स्वयं विलकुल. भी नहीं तपा--जला ।। ६५ ।। जो भक्ति और नमस्कार करता. उससे तो तुष्ट नहीं होता था, जो द्वेष करता उसपर कोप नहीं. . करता, अपने अनुसार चलनेवाले . यतियोंपर प्रेम नहीं करता था ।.
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ठीक ही है - सत्पुरुपों का सब जगह समभाव ही रहता है ।। ५६ । प्रशम संपत्तिवर विराजमान उस मुनिको पाकर तप भी शोभाको.. प्राप्त हुआ । मेघोंके हट जानेपर निर्मल सूर्यमंडलको पाकर क् मेघमार्ग नहीं शोमता है ? || १७ || अति दुःसह परीपहोंके आने पर भी वह अपने धैर्यसे चलायमान - च्युत न हुआ । प्रचण्ड वायुसे ताड़ित होने पर भी समुद्र क्या तटका उल्लंघन कर जाता है ? ॥ ५८ ॥ जिस प्रकार शरद् ऋतुके समय में अमृत रस जिनसे टपक रहा है ऐसी शीतल किरणें चन्द्रमाको प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार इस प्रशमनिधिके पास जनता के हित के लिये अनेक लब्धियां आ पहुंची ॥ १९ ॥ विरहित बुद्धि भरज्ञानी भी मनुष्य उस विमलाशयको पाकर अनुपम धर्मको ग्रहण कर लेते थे। दयासे आर्द्र है बुद्धि जिसकी ऐसा मनुष्य क्या मृगोंको शांत नहीं बना देता है ? ॥ ६० ॥ अपने अभिमत अर्थकी सिद्धिको देखकर भव्यगण उनकी सेवा करते थे । पुष्पमारसे नम्र हुए आमके वृक्षको हर्षसे क्श भ्रमरपक्ति घेर नहीं लेती है ? ॥ ६१ ॥ इस प्रकार गुणगणोंके द्वारा श्री वासुपूज्य भगवान् के तीथको प्रकाशित करता हुआ वह - योगिराज चिरकाल तक ऐसे समीचीन और उत्कृष्ट तपको करता रहा जो दूसरे यतियोंके लिये अत्यंत दुश्वर था ॥ ६२ ॥ इम - तरह कुछ समय बीत जाने पर वह मुनिराज आयुके अंत में जब एक -महीना बाकी रहा तब विधिपूर्वक प्रायोप्रवेशन - एलेखना व्रत करके विन्डंग गिरिके ऊपर धर्म - ध्यान पूर्वक प्राणका परित्याग कर प्राणत कल्पमें पहुंचा ॥ ६३ ॥ वहाँपर वह पुष्पोत्तर विमान में पुष्प समान सुगंधियुक्त है देह जिसकी ऐसा बीस सागर आयुका धारक देवों का
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सोलहवा सर्ग। [२३७ miniminium स्वामी हुआ.1.महान् तपके फलसे क्या नहीं मिल सकता है ? - ॥ ६४ ॥ उसको ' यह इन्द्र.. उत्पन्न हुआ है । ऐसा समझकर सिंहासनपर बैठाकर समस्त देवोंने उसका अभिषेक किया, और रक्तकमलकी युतिक हरण करनेवाले उसके चरणयुगलको मुकुटोपर इस.तरह लगाकर मानों ये क्रीडावतंस ही हैं प्रणाम किया ॥६५|| अविनश्वर, अवधिज्ञानके धारक इस इन्द्रकी देवगण ' यह भावी तीर्थकर हैं ऐसा समझकर पूजा करते थे । अप्सराजनोंसे वेष्टित वह भी हर्षसे वहीं रमण करता था। उसके गलेमें जो नीहार-हिमकी धुतिको हरनेवाले हारकी लड्डी पड़ी थी उससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों मुक्ति लक्ष्मीको , उत्सुकता दिलानेके लिये
गुणसम्पत्तिने ग़लेमें आलिंगन कर रक्खा है ॥ ६६ ।। • इस प्रकार अशंग कवि कृत वर्धमान चरित्रमें 'नंदन पुष्पोत्तरविमान' ....: नामक सोलहवां -सर्ग समाप्त हुआ।
....संहका सर्ग।
इसी. मरतक्षेत्रमें विदेह नामका लक्ष्मीसे पूर्ण देश है जो कि 'उन्न-महापुरुषों का निवासस्थान, है, समस्त दिशाओंमें अत्यंत ' प्रसिद्ध है। जो ऐसा मालूम पड़ता है मानों स्वयं पृथ्वीका इकट्ठा किया हुआ अपनी कांतिका सारा सार है ॥१॥ जहांकी, गौओंके धवलमंडलसे.सदा व्याप्त, और इच्छानुसार बैठे हुए हरिणसे अकित है मध्य देश निनका. तथा बालकको भी चिरकाल तक दर्शनीय ऐसी समस्त अटवीं बनीं ऐसी मालूम पड़ती हैं . मानों चंद्रमाकी
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२३८ ] . महावीर चरित्र.। .. मूर्ति ही हो ॥ २ ॥ जिस देशमें खलता (दुर्मनता; दूसरे पक्षम: खलिहान ) और कहीं नहीं थी, थी तो केवल खेतों में ही थी। कुटिलता (मायाचार; दूसरे पक्षमें टेढ़ापन ) और कहीं नहीं थी, श्री तो केवल ललनाओंके केशों में ही थी। मधुप प्रलाप (मद्य पीनेवालों की वकबाद दूसरे पक्षमें भ्रश्रों का झंगर) और कहीं नहीं था,था... तो केवल कमों में ही था। पं स्थिति ( कीचड़की तरह रहना; दूमरे पक्षमें कीचड़में रहना ) और कहीं नहीं थी, थी तो केवल :: धानके पेड़ों में ही थी । एवं विचित्रता भी शिखिकुल-मयूरोंमें ही : देखनेमें आती थी॥ ३॥ अपने पर लगी हुई नांगलताकी आमासे... या आमाके समान श्याम वर्ण बना दिया है आकाशको जिन्होंने ऐसे सुपारीके वृक्षोंसे चारों तरफसे व्यप्त नगर जहां पर एसे मालूम : पड़ते हैं मानों प्रकाशमान महान् मरकत मणियों-पन्नाओंक पाषाण : बने हुए अत्युन्नत परकोटाओंकी पङ्क्तिते ही वेष्टिन-घिरे हुए हो॥४ माधितननोंकी तृप्णाको सदा दूर करनेवाले, अंतरंगमं प्रशत्ति-निर्मल ताको धारण करनेवाले, अपने तप (कमलोंसे पूर्ण तथा सज्जनों के पसमें : लक्ष्मीसे पूर्ण), निर्मल द्विनों (पक्षियों; सजनोंकी पक्षमें उत्तम वर्णमाले
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यों ) के द्वारा सेवनीय, ऐसे असंख्य सरोवरों से - और सज्जनोंसे वह देश पृथ्वीपर शोभायमान है ॥ ६॥ उस देशमें : - जगत्में प्रसिद्ध कुंडपुर नामका एक नगर है जो अपने समान शोभाके ", "धारक आकाशकी तरह मालूम पड़ता है । क्योंकि आकाश समस्त । ... वस्तुओंके अवगाहसे युक्त है। नगर भी सब तरहकी वस्तुओंसे मा।
हुआ है। आकाशमें भास्वत्कलाधरबुध ( सूर्य चंद्र और बुध नक्षत्र) रहतें हैं; नगरमें भी भास्वान्-तेजस्वी कलाधर-कलाओंको धारण
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सत्रहवाँ सग। monom, minanananana करनेवाले बुध-विद्वान् रहते हैं। आकाश सवृष-वृष नक्षत्र युक्त है नगरं भी. स्वर-धर्मसे या बैलोंसे पूर्ण हैं। आंकाश सतार-तारागणोंसे बात है, नगर मी सतार चांदी और मोतियोंसे भा हुआ. अथवा सफाईदार है ॥ ७ ॥ जहां पर कोंटके किनारों पर लगी हुई उ.रुगमणियों पन्नाओंकी प्रमाके छायामय पटलोंसे चारों तरफ व्याप्त जलपूर्ण खाई दिनमें मी बिल्कुल एमी मालम पड़ती है मानों इसने सन्ध्याकालीन श्री-शोमाको धारण कर रखा है। घोर-चोई हई या जिलों की हई इन्द्रनील मणियोंकी बनी हुई भूमिरर आहारके लिये सनाये गये या स्कन्वे गाये नीलकमल समान वर्णके कारण एकमें एक मिल गये हैं-पहचान नहीं सकते कि कमल कहां पर रक्खे हैं। तो भी, चारों तरफसे पड़ते हुए भ्रमरोंकी झंकारसे वे पहचानमें आनात हैं ॥९॥ जो मलें. मनवाला होता है वह दूसरोंको जीतना नहीं चाहता; पर, यहांकी मेणि भले मनवाली होकर भी कामदेवको जीतना चाहती । थीं। जो.निम्तेन है.बह कांतियुक्त नहीं हो सकता; पर यहांकी मणियां निस्तजिताम्बुनरुच् (निस्तन हो गई है कमलममान कांति निनकी ऐमी) होकर भी चन्द्रप्रमा यी-अर्थात् वे कमलोंकी कांतिको निम्न कानेवाली और चंद्र समान कांतिकी धारक थीं। यहांकी रमणी'वर्षाऋतुरूप नहीं थीं तो भी नवीन पयोवरों (स्तनों दूसरे पक्ष मेघा)को धारण करनेवाली थी । और नदीप न हो कर भी उस (शारादिरससे युक्त; दूसरे पक्षमें रामल) थीं॥१०॥ इस नगरक नागरिक पुरुष और महल दोनों एक सरीखे मालूम पडत थे। क्योंकि दोनों ही अत्यंत उन्नत, चन्द्रमाक्री किरणजालके
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२४० ]
महावीर चरित्र |
समान अवदात स्वच्छ मासे युक्त, मस्तकपर रक्खे हुए (मुकुंट आदिकमें लगे हुए; महलोंके पक्ष छत वगैरह जड़े हुए), रत्नोंकी. में न कांति से जिन्होंने आकाशको पल्लवित कर दिया है ऐसे, तथा गोदीके भीतर अच्छी तरह बैठा लिया है रमणीय - रमणियोंको जिन्होंने ऐसे थे ॥ ११ ॥ जहां पर स्त्रियोंके निःश्वासकी सुगंधिमें रत हुए. भ्रमर, उनके हाथमें लगे हुए महान् क्रीड़ा कमलको और झरता हुआ है मधु जिससे ऐसे कर्णेललको भी छोड़कर मुंखपर पड़ते हैं । वे चाहते हैं कि ये त्रिशं अपने कोमल करोंसे बार बार हमारी ताड़ना करें ॥ १२ ॥ उस नगर में, मोतियों के.. भूषणोंकी चारो तरफ छोड़ी हुई किरणजालसे शेत बना दी है.. समस्त दिशाओंको जिन्होंने ऐसी वाराङ्गनायें बेश्यायें मदक्रीड़ा करती हुई - इठलाती हुई इधर उधर घूमती फिरती हैं। मालूम पड़ता है मानों दिनमें भी सुभग ज्योत्स्नाको दिखाती फिरती ॥ १३ ॥ विमानोंमें लगे हुए निर्मल चित्र रत्नोंकी छायाके वितान चंदोआसे चित्र विचित्र बना दिया है समस्त दिशाओंको जिसने ऐसी दिनश्री - दिनकी शोभा जहां पर प्रतिदिन ऐसी मालूम पड़ती
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है मानों इसने अपने शरीरको इन्द्र धनुषके दुपट्टे में ढक रक्खा हो ॥ १४ ॥ जहां पर निवास करनेवाली जनता अ-हीन उत्तम
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शरीरकी धारक (श्लेषके अनुसार दूसरा अर्थ होता हैं कि सर्पशनके
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समान शरीरकी धारक) होकर भी अभुजंगशीला है--अर्थात भुजंगविटपुरुषकासा (श्लेषसे, दूसरा अर्थ सर्पकासा) शील-स्वभाव रखनेवाली नहीं है। मित्र (श्लेषके अनुसार मित्र शब्दका अथ सूर्य भी होता.
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सत्रहवाँ सर्गः1 [ २४१ .. है) में अनुराग करनेवाली मी हैं और कलाधर ( शिल्ल आदिक कलाओंको धारण करनेवाले श्लेषके अनुसार दूसरा अर्थ चंद्रमा)को भी चाहनेवाली हैं। अपक्षमाता- (पक्षात रहित; दुसरा अर्थ पंखोंसे रहित) है तो भी प्रतीत सुक्यःस्थिति (निश्चित है पसियों में स्थिति जिसकी ऐमी दुसरा अर्थ-निश्चित है.समीचीन वय-उम्रकी स्थिति जिसकी ऐसी ) है.। सरस होकर भी रोग रहित है ॥१५॥ झरोखोंमें लगी हुई हरिमणियों-गन्नाओंकी, किरणोंसे मिलकर मकानों के भीतर पड़ी हुई सूर्यकी किरणों में नवीन अभ्यागत-आये हुए मनुष्यको तिरछे रक्खे हुए नवीन लम्बे वासका धोखा हो जाता है। १६ -11...इसः नगरमें यह एक दोष था कि रात्रिमें चन्द्रमाका उदय होते ही कामदेवसे पीड़ित होकर. प्रियके निवासगृहको जाती हुई युवतिः बीच रास्तमें, महलोंके ऊपर लगी हुई स्वच्छ चन्द्रकीन मणियोंके द्वारा कसित दुर्दिनसे मीन नाती हैं ॥ १८ ॥ 'नहाँकी कामिनियों के स्वच्छ कपोलमें रात्रिके समय चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब पड़ने लगता है। मालूम होता है कि मानों स्वयं चन्द्र अपनी कांतिकी समलाके तिरकारके लिये-स्मलताका ति.स्कार होता है इसलिये स्त्रियोंके मुखकी महान् शोभ.को लेनेके लिये आया है।॥ १६ ॥
इस. नगरमें सिद्धार्थ नामका राना निगास करता था । निाने आत्ममति और विक्रमके द्वारा अर्थ-प्रयोजनको सिद्ध कर लिा था। जिसके चरणकमलोंको बालसूर्य के प्रसारके समान ननीभूत राज.ओंकी। शिखाओं मुकुटों में लगे हुए अरुणरनों-नाओंकी किरणोंने स्पर्शित कर रखा था ।। २० ॥: निर्मल चन्द्रम की किरणोंके समान अंदार .
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महावीर चरित्र ! . . . --स्वच्छ वह श्रीमान् राजा झंडकी तरह आयतिमान् (रानाकी पक्षों : ५ प्रभाववान् यो भाग्यवान और झंडाके पक्षमें लम्बा.) था। उसने ला:
कर पृथ्वीका उद्धार कर दिया था (झंडाकी पक्षों जो उठाकर जमीन... पर गाढ़ दिया गया है। जिसने परंपराके द्वारा प्रकाशित होनेवाले.. उन्नत ज्ञातिवंश (कुर, दूसरे पक्षमें बांस) को निर्यानरूसें अलकन कर दिया था ॥ २१ ॥ अपने (ग्यिाओंके) फलसे समाप्त लोकको : संयोजित करनेवाले उम.मिर्मल रानाको पाकर रानविद्याय प्रशाशित होने लगी थीं। ऐसे समयको जब कि मेवोंका विनाश हो चुका. . है पाकर समस्त दिशायें क्या प्रसादयुक्त कातिको नहीं...रण । करती हैं । ॥ २२ ॥ पृथ्वीपर अतुल प्रतापको धारण करते इस गुणी राजामें एक ही बड़ामारी दोप था कि वलसें वक्षःस्थलार रही : हुई मी उसकी प्रियतमा लक्ष्मीको इष्टजन निरंतर उनके सामने ही: भोगते थे ॥ २३ ॥ . इस नरपतिकी प्रियकारिणी नामकी महिषी-पट्टरानी थी जो ... कि लोकमें अद्वितीय रत्न थी। तथा विवाह समयमें जिसको देख कर इन्द्र भी यह मानने लगा कि ये मेरे हमार मंत्र आन कृतार्थ हुए हैं ॥ २४ ॥ अपूर्व मनुष्य उसको देखकर अर्थ निश्चय नहीं ...
कर सकता था-पह नहीं जान सकता था कि यह कौन हैं। क्योंकि : • वह उसको देखते ही विस्मय-आश्चर्यके वशमें पड़कर ऐसा मानने
लगता था-संशयमें पड़कर विचार करने लगता था कि क्या यह
भूतिमती कौमुदी है ? पर यह ठीक नहीं मालूम पड़ता क्योंकि . यह दिनमें भी रमणीय मालुम पड़ती है। किंतु कौमुदी तो ऐसी : . - नहीं होती। तो क्या देवांगना है ? पर यह भी ठीक नहीं, क्योंकि
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· सत्रहवाँ पुगे । i २४३ इसके नेत्र चंचल है । देवाङ्गनाओं के नेत्र निर्निमेष होते हैं ||२५|| एक तो यह भूपति स्वयं ही स्वाभाविक रमणीयताका धारक था परंतु दूसरा कोई जिसकी समानता नहीं कर सकता ऐसी कांतिको धारण करनेवाली उस प्रियाको पाकर और भी अधिक शोभायमान होने लगा ! शरद ऋतुका चन्द्र वयं ही मनोहर होता है पर पौर्णमासीको पाकर क्या वह विलक्षण शोभाको नहीं धारण कर लेवा है ! ॥ २६ ॥ प्रियकारिणी भी अपने समान उस मनोज
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पति को पाकर इस तरह दीप्त हुई निम तरह रतिं कामदेवको पाकर प्रकटमें दीप्त हो उठती है। यही बात लोकमें भी तो देते हैं कि दूसरा
की समानता नहीं कर सकता ऐसा अत्यंत अनुरूप योग किसकी कांतिको नहीं दीप्त कर देता है ? || २७ ॥ मनोहर कीर्तिके "चारक इन दोनों वधूवरोंमें एक बड़ा मरी दोष था । वह यह कि अपने पैरोको प्रकाशमः सुमनसों (देवों या विद्वानों) के कार रखकर मी अर्थात् बड़े भारी बडी और विवेकी होकर भी दोनों ही कामदेवसे दररोज डरते रहते थे ॥ २८ ॥ इस प्रकार धर्म और अर्थ 'पुरुषार्थक अविरोधी काम पुरुषार्थ हो मी उप मृग यिनीके साथ निरंतर भोगता हुआ, और यशके द्वारा घाल बना दी हैं दिशाओको निश्न ऐसा वह राजा संरक्षण - शासन से समस्त पृथ्वीको 'हर्पित करता हुआ' कालातिपात करने लगा || २९ ॥
देवपर्या में जिसका जीवन छह महीना बाकी रहा है, जो -अनंतर मग ही संसार समुद्र पार करने के लिये अद्वितीय तीर्थ ऐसा तीर्थकर होनेवाला है उस देवराजेको पाकर देवगण चित्त लगा१- देखों सोलहवां सर्ग श्लोक ६३-६४ 1
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कर भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे ॥ ३० ॥ विकसित है अवधिज्ञानरूप नेत्र जिसका ऐसे सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने आठ दिकन्यकाओं को यह यथोचित हुक्म दिया कि तुम जिन भगवान्की यांविनी जननीके पास पहले से ही जीओ ॥ ३१ ॥ जगत में चूड़ामणिकी युति से विराजमान है पृष्णचूला जिसका ऐसी चूलावती और मालिनिका कांता सदा शरीरियोंकी पर्याप्त पुष्पोंसे नम्र नवमालिका के समान दीखनेवाली नवमालिका || ३२ ॥ पीन और उन्नत दो स्तनरूप घटोंक मूरि भारसे खिन्न हो रहा है शरीर और त्रिवली जिसकी ऐसी त्रिशिरा, क्रीड़ावतंस बनाया है कल्प वृक्षके सुंदर पृष्पोंको जिसने तथा पुष्पोंके, प्रहास पृष्पतमान प्रहारसे मुभग पुष्पचूला ॥ ३३ ॥ चित्रांगदा अथवा चित्र हैं अंगद जिसके ऐसी कनकचित्रा, अपने तेनसे तिरस्कृत करदिन है कनक - सुवर्णको जिसने ऐसी कनकदेवी तथा सुभगा वारुणी, अपने नीभूत शिरपर रक्खे हैं अयं हस्त जिन्होंने ऐसी ये देवियां प्रिकारिणी त्रिशलाके पाप्त प्राप्त हुई ॥ ३४ ॥ अत्यंत कांतियुक्त वह एक प्रियकारिणी स्वाभाविक रुचिर- मनोज्ञ: 'आकार के धारण करनेवाली उन देवियोंसे वेष्टित होकर और भी अधिक शोभित होने लगी । तारावलीस वेष्टित अकेली चन्द्रलेखा' भी तो लोकोंके नेत्रोंको आनंद बढ़ाती है || ३५ ॥ निधियोंके -रक्षक तिर्यग्विमण करनेवाले देव कुबेरकी आज्ञा से वहां पर सिद्धार्यं और प्रियकारिणीके यहां पन्द्रह महीने तक प्रतिदिन लोगों को हर्पित करनेके लिये साढ़े तीन करोड़ रत्नोंकी वर्षा करते थे॥ ३६ ॥
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२इस श्लोक "वित्तत्तकुंडल शैलवासाः ' इस शब्दका अर्थ - हमारी समझ में नहीं आया है इस लिये लिखा नहीं है ।
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सत्रहवा सगे। ... ... . •iwwiviariwirinewmaichrvawwwwvvvidioinin...rue
सुधा धवलित (अमृत समान धवल. अथवा कलई किया हुआ) महलमें कोमल हंसतूल शय्यापर सुखसे सोई हुई प्रियकारिणीने रात्रिके पिछले प्रहरमें, जिनराजकी उत्पत्तिकै सूचक जिनको कि भयगण नमस्कार करते हैं ये निम्नलिखित स्वप्न देखें ।। ३७ ॥
मदनलसे गोला हो गया हैं कपोलमूल जिसका ऐसा ऐरावत हस्ती । अत्यंत उन्नत, चन्द्र समान धवल वृषभ, पिंगल हैं नेत्र निसकें और उज्ज्वल हैं सटा जिसकी ऐमा शब्द-गर्जना करता हुआ-उग्र मृगरान । बनगन निसका हर्षसे अभिषेक कर रहे हैं ऐसी लक्ष्मी । घूम रहे हैं. अलिकुछ-भ्रमरसमूह जिनपर ऐसी 'आकाशमें लटकती हुई दो.. मालायें । नष्ट करदिया है अन्धतम जिसने ऐसा पूर्ण चन्द्र । कमलोंको प्रसन्न करता हुआ बाल-सूर्य । निर्मल मेलमें मंदसे क्रीड़ा करता हुआ मीनयुगल ।। ३९ ॥ जिनके मुख फलोंसे ढके हुए हैं ऐसे कमलोंसें औवृत दो घट । कमलोंसे रमणीय और स्फटिक समान स्वच्छ है जल जितका ऐमा सरोवर । तरंगोंसे.जिसने दिग्वलयको ढक दिया है ऐसा समुद्र । मणियोंकी किरणोंसे विभूषित कर दिया है दिशाओंको जिसने ऐसा सिंहासन ॥ ४० ॥ जिस पर बनायें फहरा रही हैं ऐसा बड़ा भारी लम्बा चौडा देवोंका विमान मत्त नागिनियोंका है निवास जिसमें ऐसा नागमान । जिसकी किरणजाल चारोतरफ फैल रही है ऐसी 'आकाशमें रत्नराशि । कपिल बनादिया है दिशाओंको निसने ऐसी . निर्धूम अग्नि ॥ ४१ ॥ ... प्रियंकारिणीने पुत्रके मुखकें देखने का है कौतुक निसको ऐसे सुपालसे ये स्वप्न समामें कहे । प्रमोदभर-हर्षके अतिरेकसे विह्वल
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२४६ ] महावीर नारिन। हो गये हैं हृदय और नेत्र जिसके ऐसे भृपालने मी उस देवीको स्वप्नों के फल क्रमसे इस प्रकार-नीचे लिग्न अनुसार बताये ॥२॥ . ___हन्ती जो देखा है इससे तर तीन भुवनका स्वामी पुत्र होगा । वृप-बैंक सनसे वह घर-धमका का होगा। सिंहके देखनेस सिंह समान पराकमशाली होगा । है माता लक्ष्मीक देखनसे कारण देवगिरिमा-सुमेरपर ले जाकर उसका हर अभिषेक करेंगे ॥ ४२ ॥ दो मालाओंक देखन वह यशाम निवान होगा। हे चन्द्रमुग्वि ! चन्द्रके देखनसे मोहनाका भदनाना होगा। मुर्गक " देखनेसे भव्यरूर कमलों के प्रतिबोधका कर्ता. होगा ! मीन्युगद्र देखनेसे यह अनन्त सुख प्राप्त करेगा ॥ १४ ॥ दो घटोंक देखनेस : मंगलमय शरीरका धारक उत्कृष्ट पानी होगा। सरोवरके देखनसे भीवोंकी तृष्णाको सदा दूर करेगा। समुद्र देखनसे यह पूर्ण नामका : धारक होगा। सिंहासन देखनेका फल यह होगा कि वह अंत में .. उत्कृष्ट पदको प्राप्त करेगा ॥ ४५ ॥ विमान देखनेका अभिप्राय .. यह है कि वह स्वर्गसे उतर कर आयेगा । नागमनक देखका : फल यह है कि वह यहां पर मुख्य तीर्थको प्रवृत्त कंगा । रत्नराशिका देखना यह सूचित करता है कि वह अनंत गुणोंका धारक ... होगा और निघूम अग्निका देखना बताता है कि वह समान कमीकां क्षय करेगा ॥ ४६ ॥ इस प्रकार प्रियसे स्वप्नावलीका यह फल . सुनकर कि वह-फल जिनपतिके अवतारको सूचित करता है : प्रियकारिणी परम प्रमन्न हुई। तथा वसुधाधिपति सिद्धार्थने भी । अपना जन्म सफल माना । तीन लोकके गुरुकी गुरुता किसको प्रमुदित . नहीं कर देती है। ॥ १७॥ अषाढ शुक्ला षष्ठोके दिन जब कि नन्द्र' !
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सत्रहवाँ सर्ग ..
[ २४७ 'उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रपर वृद्धियुक्त विराजमान था पुष्पोत्तर विमानसे उतर कर उस देवराजने रात्रि के समय स्वप्न में धवल गजराज के रूपसे देवीके मुखमें प्रवेश किया ॥ ४८ ॥ उसी समय अपने सिंहासनके • कंपित होनेसे इन्द्र और देवगण भी जानकर - भगवान् के गर्म कल्या
को जानकर आये और दिव्य मणिमय भूपगोंसे तथा गंधमाल्य और वस्त्रादिकसे देवीका अच्छी तरह पूजनकर अपने २ स्थानको • गये ||४९ || अपनी कांतिसे प्रकाशित कर दिया है वायु मार्गको जिन्होंने ऐसी श्री, ही, धृति, लेवणा, चला, कीर्ति, लक्ष्मी और सरस्वती ये देवियां इन्द्रकी आज्ञानुसारं विकशित हर्षके साथ प्रियकारिणी - त्रिशला के निकट आकर उपस्थित हुई ॥ ५० ॥ इन - देवियोंने प्रियकारिणी के यथोचित स्थानों में हर्षसे इस प्रकार निवास -क्रिया 'लक्ष्मीने मुखमें, धृतिने हृदय में, उवणाने तेजमें, कीर्तिने गुणों में, बलाने बलमें, श्रीने महत्व में, सरस्वतीने वचनमें, और लज्जाने दोनों नेत्रों में निवास किया ॥ ११ ॥ जगत् के लिये - जग
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तुको प्रकाशित करनेके लिये अथवा जगत् में अद्वितीय चक्षुके समान
तीन निर्मल ज्ञानोंने माता के उस गर्मस्थित बालकको भी बिल्कुल न छोड़ा | उदयाचलकी तटी - तलहटीरूप विशाल कुक्षिमें स्थित सूर्यको रुचिर- मनोज्ञ तेज क्या घेरे नहीं रहता है ? ॥५२॥ मलोंसे विल्कुल अलिप्त है कोमल अंग जिपका ऐसे उस बालक ने गर्ममें निवास करनेका या निवास करने से कुछ भी दुःख न पाया । सरो-घरके जलके भीतर मग्नं किंतु कीचके लेपसे रहिन मुकुलित पद्मकों ..क्या कुछ भी खेद होता है ? ॥ ५३ ॥ उसी समय उस मृगनयिनीके पीन और उन्नत तथा कनक कुम्भके समान दोनों रत्नोंके
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महावीर चरित्र ।
२४८ ]
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मुख श्याम होगये । उस समय वे दोनों स्तन ऐसे जान पड़ते थे. मानों गर्भस्थत बालकके निर्मल ज्ञानसे -प्रणुन्न- खिन्न अथवा भांगनेके लिये व्याकुल किये गये हृदयगत मोहरूप अंधकारंका वमन कर रहे हैं ॥ ५४ ॥ उस नवांगीका शरीर का सब पीला पड़ गया। मालूम होता था मानों निकलते हुए फैलते हुए यशने उसको धवल वना दिया है । उस देवीका अनुवण-अप्रकट उदर पहले त्रिवली पढ़नेसे वैसा नहीं शोषता था जैसा कि बढ़ने से शोभने लगा । ॥ ११ ॥ जिन भगवान्में लगी हुई अपनी भक्तिको प्रकाशित करता हुआ सौधर्म स्वर्गका इन्द्र पटलिकामें रखे हुए क्षौम-अंग-राग मनोज्ञ मणिमय भूषणोंको स्वयं धारण कर तीनों कालं आकर प्रियकारिणीकी सेवा करता था || १६ || तृष्णा रहित उस गर्भः स्थको धारण कर प्रियकारिणी गर्मपीड़ा से कभी भी बाधित न हुई । कुछ दिन बाद भूपालने यह वंश कम है ऐना समझकर चिदुधदेवों या विद्वानों से पूजित त्रिशलाकी पत्रन क्रिम की ॥ ५७ ॥
कुछ दिनके बाद उच्च स्थानपर प्राप्त समस्त ग्रहोंक लानको
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जैसा काल आपड़ा वैसे ही समय में रानीने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवारको रात्रिके अंत समय में जब कि चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनियर था जिनेन्द्रका प्रमुख किया ॥ ५८ ॥ प्राणियोंके हृदयोंके साथ साथ समस्त दिशायें प्रपन्न होगई । आकाशने विना धुलें ही निर्मलता धारण कर ली। उसी समय देवोंकी की हुई मत्त भ्रमरोंसे व्याप्त पुष्पों की वर्षा हुई। और दुंदुभियोंने आकाशमें गम्भीर शब्द किया ॥ ५९ ॥ संसारको छेदन करनेवाले तीन लोकके अद्वितीय स्वामी उस प्रसिद्ध : महानुभाव तीर्थकरके उत्पन्न होते ही इन्द्रोंके कभी न
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सत्रहवा सर्ग !
[ २५९
Firmwammam
PRAMMAR
कपनेवाले सिंहासन उनके हृदयोंके साथ साथ कपने लगे ॥ ६ ॥ सहसा उन्मीलित अवधि ज्ञानरूप नेत्रके द्वारा भगवान्के जन्मको जानकर भक्तिभारसे नमः गया है उत्तशंग-शिरं जिनका ऐसे घंटांक शब्दसे कहें हुए निकायों-मवासियों में मुख्य इन्द्र ( अर्थात् देव और. इन्द्र सभी मिलकर) आनंदके साथ-उस कुंडलपुरको गये ॥६१।। परिजन आनाकी प्रतीक्षामें लगा हुआ था तो भी अनुरागके कारण किसी देवेने उस भगवान्की पूजा करनेके लिये पुष्पमालको स्वयं दोनों हाथोंसे धारण कर लिया। ठीक ही है-जो पृज्यों में सर्वोत्कृष्ट है उसमें किसकी भक्ति नहीं होती है ? ॥ ६२ ॥ भगवान्के अभिषक समयमें यहाँ पर जो कुछ भी करना है उस सबको मैं स्वयं अच्छी तरहसे करूंगा. उसको करनेके लिये दूमरोंको हुक्म न करेगा..यही युक्त हैं इसी.लिये मानों भक्तिसे वह इन्द्र अकेला था तो भी उसने अपने अनेक रूप.बना लिये ॥ ६३ ॥ किसी देवने कितने ही हमारं.हाथ बना ऊपरको कर उनमें अपनी भक्तिसे खिळे हुए कमल धारण कर लिया। उस समय उसने आकाशमें कमलबनेकी शोभाको विस्तृत कर दिया। अति भक्ति शक्तिसशक्ति पूर्वक किससे क्या नहीं करा लेती है ? ॥ ६४ ॥ अपने अपने मुकुटोंके ऊपर लगी हुई बाल सूर्यसमान परम राग मणियों के अरुग-किरण जालके छालसे कोई कोई देव ऐसे नान पड़े मानों . जिनेन्द्र में जो उनका अनुराग था वह अंतरङ्गमें मर जानेसे उसी समय बाहर फैल गया, उस फैले हुए अनुरागको ही मानों शिरसे ढोकर लेना रहे हैं ॥६५॥ एकावली (नीलमणिकी इकहरी कंठी) के तरल नील । मंणियोंकी किरणरूप अंकुरोंकी श्रेणीसे काला पड़ गया है मनोक्ष
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.२५० ]
महावीर चरित्र |
सुनाओं का अंतराल जिसका ऐसे कोईर देव तो तत्क्षण ऐसे होगये. मानों प्रसन्न जिन भक्ति जिसको दूर कर रही है ऐसा हृदत मोहला अंधकार है । अर्थात् निमणियोंकी काली प्रभा या उस प्रमासे काले पड़े हुए देव ऐसे जान पड़े मानों ये मोहरूप का ही हैं जिनको कि प्रकाशमान जिन भक्तिने हृदयमंसे बाहर निकाल दिया है || ६६ || देवोंके चारो तरफ दूर दूरसे आई हुई वेगकी - विमानके वेगकी पवनसे खिचकर आते हुए मेन विमानों में जड़हुए रत्नों से - त्नोंकी किरणोंसे बने हुए इन्द्र धनुषकी लक्ष्मी -शोभाको प्राप्त करने की इच्छासे मानों आकाशमें उनका शीघ्र ही अनुमरण किया ॥ ६७ ॥ विचित्र मणिपय भूषण बंध और मान- विमानोंको धारणकर उतरकर आते हुए उन देवोंसे जब समस्त दिशायें घिर गई तब लोग उसकी तरफ आश्चर्यसे देखने लगे । उन्होंने समझा कि आकाश बिना मीतके सहारे ही किसीके बनाये हुए सभी चित्रोंको धारण कर रहा है ॥ ६८ ॥
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इसी समय चन्द्र आदिक पांच प्रकारके ज्योतिषी देव जिनका !! कि अनुपरण सिंह शब्दसे- सिंहका शब्द सुनकर शीघ्र ही आकर " मिले हुए अपने भृत्योंके साथ चमरादिक भवनवासी देव भी आकर प्राप्त हुए ॥ ६९ ॥ पटह-मेरीके शब्दसे बुलाये हुए सेवकोंसे भर दिया है समस्त दिशाओंका मध्य जिन्होंने ऐसे व्यंतरोंके अधिपति मी उस नगर में आकर प्राप्त हुए। आते समय जिन विमानों में वे सवार थे उनके वेगसे उनके ( व्यंजक ) कुंडल हिलने लगते थे जिससे उनमें लगी हुई मणियोंकी युतिसे उनका गंडस्थल लिप जाता था ॥ ७० ॥ पुत्रजन्मका समाचार पाते ही सिद्धार्थने
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. . सत्रहवा सर्गः।
[ २५१ mininmin... - जिसकों उत्सवोंसे पर दिया है ऐसे राजमहलमें आकर इन्द्रोंने माताके ...आगे विराजमान अनन्यसम' उस जिनेन्द्रको नतमस्तक होकर देखा
७१ । जन्मकल्याणककी अमियक क्रिया करनेके लिये सौधर्म. स्वर्गके इन्द्रने माताकं आगे मायामय बालकको रखकर अपनी कांतिसे दुसरे कार्योको प्रकाशित करते हुए बाल मिनमगवान्को हर लिया। अहो! वुध भी अकार्य किया करते हैं । ॥ ७२ ॥ देवोंसे अनुगत इन्द्र, शत्रीक द्वारा दोनों हाथों से धारण किये गये -अर्थात् निसको
शत्रीने दोनों हाथोंसे दिया और स्वयं धारण कर लिया ऐसे 'बाल निनभगवान्को शरद ऋतुके मेत्र समान मूर्तिक धारक-अर्थात् शुभ्र वर्ण और मईकी गंघस आ गई हैं भ्रमर पंक्ति जहां पर ऐसे ऐरावत हस्तीके स्कन्ध पर विराजमान कर, कमल-नीलकमलके समान कांतिके धारक आकाश मार्गसे ले गया || ७३ || कानोंको सुखकर और नवान मंत्रकी अनिके समान मन्द्र-गम्मीर तुईका शब्द दशोदिशाओंको रोकता हुआ सब जगह फैल गया । भगवान्के नामका ख्यापन करनेवाले और अनुगत है त्रिवर्ग (गाना, बनाना, नाचना) जिसमें ऐसे गानका आकाशमें प्रितकिन्नरेन्द्रोंने अच्छी तरह • अनुगान किया ! ७४ ॥ चन्द्रमाकी युति और कृतिके हरण करनेवाले, धवल बना दिया है दिशाओंको निसने, ऐसे छत्रको ईशान कल्पके स्वामीने .तीनलोकके स्वामीक ऊपर अच्छी तरह लगाया ॥७५ ॥ दोनों बाजुओंमें स्थित हस्तियोंपर बैठे हुए • सनत्कुमार तथा माहेन्द्रने हाथों में चार धारण किये जिनसे कि. समस्त. दिशाओं के व्याप्त हो जाने पर आकाश ऐमा मालपे पड़ने लगा मानों उसं जिनेश्वरका अभिषेक करनेके लिये स्वयं उद्धृतः
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२५२ ]
महावीर चरित्र । ... न होते हुए क्षीरसमुद्रने ही घेर लिया हो ॥ ७६ ॥ भगवान्के : आगे बनाये स्फटिकका दर्पण तालन-पंखा भंगार-झारी और : उन्नत कलश इत्यादिक मंगल द्रव्योंको तथा पटलिका (एक प्रकारको -टोकनी)में रखी हुई करसवृक्षक पुष्पोंकी मालाओंको : सुराज- .. इन्द्रकी वधुओंने धारण किया ॥ ७७ ॥ मार्गके खेदको दूर करते . हुए तीन गुणोंसे युक्त उसके शिखर या किनारेसे उत्पन्न हुए मरुतसे उपगृह हुए मस्त-देवगण, अकृत्रिम चैत्यालयोंने जिसकी शोमाको । महान् बना दिया है ऐसे मेरु-पर्वत पर शीघ्र ही जा पहुंचे ||८il : देवता मेरुके पाण्डुक वनमें पहुंचकर शरबन्द्रके समान धवल पाण्डक । शिला पर पहुंचे जो कि ऐकसों पांच योनन लम्बी और लम्बाईसे आधी अर्थात् साढ़े आपन योनन चौड़ी तया युग-आठ योनन उंची. .. है ॥ ७९ ॥ रजनीनाथ-चंद्रमाकी कलाकें आकार-अष्टमी के चंद्र
१ शिलाका प्रमाण जिसमें बताया है वह मूल पाठ ऐसा : है- पंचशतयोजनमात्रदीघादीर्घिविस्तृतिरयो युगयोजनोचा"... इसका अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि वह शिला ५०० योजन .. ' लम्बी २५० योजन चौड़ी और युग (2) योजन ऊंनी है । परंतु. यह अर्थ दूसरे ग्रंथोंसे बाधित होता है क्योंकि दूसरी जगह शिलाका .." प्रमाण १०० योजन लम्बा ५० योजन चौड़ा.८ योजन ऊंचा वताया है। इसी लिये हमने उपर्युक्त अर्थ किया है । दूसरी जगहके प्रमाणकी अपेक्षा जो यहां पर कुछ अधिक प्रमाण बताया : है उसपर विद्वानोंको विचार करना चाहिये । युग शमका अर्थ . . आठ हमने यहां पर दूसरी जगह की अपेक्षासे किया है ।. कोपर्मे:... इस शब्दका अर्थ चार और बारह मिला है । सम्भव हैं कि -कहीं पर भाठ अर्थ भी होता हो या युग शब्दकी जगह वसुं पाठ हो। ::
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सत्रहवा सर्ग। . . . [ २१६ anoniminiminnan समान आक्रारवाली उस शिलाके ऊपर जो पांचसौ धनुष लम्बा तथाः ढाईसौं धनुष चौड़ा और ऊंचा महान् सिंहासन है उस पर श्री जिन भगवान्को विराजमान कर देवोंने उनके जन्माभिषेककी महिमाकल्याणोत्सव किया ॥ ४० ॥ प्रकाशं करती हुई हैं महामणियां जिनकी ऐसे एक हजार आठ घटोंसे शीघ्र ही अत्यंत हर्पके साथ लाये हुए क्षीर स्मुद्रके, जलसे मङ्गल रूप शंख और भेरीके शब्दोंसे दिशाओंकों शब्दांयमान कर इन्द्रादिक देवोंने एक साथ उस जिनेन्द्रका अभिषेक किया ॥८१ ॥ अभिषेक विशाल था यह इसीसे मालूम पड़ सकता है. कि उसका जल नाकोंमें भर गया था। उस समय "निरंतर अभिषेकमें, जिसने कि मेरुको भी कपादिया, इन्द्र जीर्ण तणकी तरह एकदम पड़ गयं या पड़े रहे-ड्रवे रहे।
अहो! जिन भगवान्का नैसर्गिक पराक्रम अनंत है ।। ८२ ॥ नम्री. , भूतं सुरेन्द्रने वीर यह नाम रखकर उनके आगे अप्सराओं के साथ
अपने और देव तथा असुरोंके नेत्र: युगलको सफल करते हुए हावभावके साथ ऐसा नृत्य किया जिसमें समस्त रस साक्षात् प्रकाशित हो गये।। ८३ ॥ विविध लक्षणोंसें लक्षित-चिन्हित हैं अंग जिनका तथा जो निर्मल तीन ज्ञानोंसे विराजमान है ऐसे अत्यद्भुत
श्री वीर भगवानको बाल्योचित-बाल्यवस्थाके योग्य मणिमय भूप‘णोंसे विभूषित कर देवगण इष्ट सिद्धिके लिये भक्तिसे उसकी इस • प्रकार स्तुति करने लगे। ८४॥ .. . .
हे:वीर ! यदि संसारमें आपके रुचिर वचन न हों तो भन्यात्माओंको . निश्चयसे तत्त्वबोध किस तरह हो सकता है। पद्मा. . (कमलश्री.या ज्ञानश्री प्रातःकालमें,सूर्यके तेनके विना.क्या अपने
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२५४ ] महावीर चरित्र । .. ... आप ही विकशित हो जाती है ? || ८५. ॥ स्नेह रहित दशाक... धारक आप जगत्के अद्वितीय दीपक हैं। कठिनतासे रहिन है. अन्तरात्मा जिसकी ऐसे आप चिन्तामणि हो । पालवृत्तिसे : सम्बन्ध न रखते हुए आप मलयगिरि हो। और हे नाथ ! उष्णतासे. रहित आप तेजपुंन भी हो ॥ ८६ ॥ हे जगदीश ! क्षीरसागरके . . फेनपटलके पंकिजालके समानं गौर और मनोहर आपका यश अमृ.. तरशिश-चन्द्रके व्याजसे आकाशमें रहकर यह विचार करता है. : या बताता है कि इस अप्राप्त जानको क्षणभरमें मैंने कितना व्याप्त कर लिया ॥ ८७ ॥ इस प्रकार स्तुति करके देवगण - पुप्पोंसे भूपित हैं समीचीन नमेरु वृक्ष जहांपर ऐसे उसे महसे . भगवान्को मकानों के आगे बंध हुए कदलो बजाओंसे रुके हुए और . 'विमानोंके अवतार समयसे व्याप्त ऐसे नगरमें शीघ्र ही फिर वापिस ," लौटाकर ले आये ॥ ८८ ॥ " पुत्रके हर जानेसे उत्पन्न : हुई पोड़ा- खेद आप मातापिताको न हो इस लिये : पुत्रकी प्रकृति बनाकर-अर्थात् माताके निाट मायामय पुत्रको छोड़ . कर आपके पुत्रको मेरुपर लेजाकर और वहां उसका अभिषेक कर वापिस लाये हैं । " यह कहकर देवोंने पुत्रको माता पिताके सुपुर्द । किया ।। ८९॥ दिव्य वस्त्र आभरण माला विलेपन-चंदन लेप . . इत्यादिके द्वारा नरेश्वर-सिद्धार्थ राना तथा प्रियकारिणी-त्रिशलाकी .... पूजा कर और भगवान्के वज्ञ तथा नामका निवेदन कर प्रसन्न हुए, देवगण वहां नृत्य करके अपने अपने स्थानको चले :11.80 ॥ गर्मसे-जिस दिन गर्म में आये उसी दिनसे अपने कुलकी. लक्ष्मीको " चन्द्रमाकी कलाकी तरह प्रतिदिन बढ़ती हुई देखकर दशमें-जन्मसे दशमें:
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सत्रहवा सर्ग। [ २५५ 'दिन: हर्षसे देवोंके साथ साथ गजान उस भगवान्का श्री वर्धमान
यह नाम रखा ॥.९१ ॥ .. .. .. :इस तरह कुछ दिनों के बीत जाने पर एक दिन भगवान्को देखते ही जिनका संशयार्थ दुर हो गया है ऐसे चारण लव्धिके धारक विनय: संजय नामके दो यतिओंने उस भगवानका सन्मति यह नाम प्रसिद्ध किया ॥ १२ ॥ किरणोंसे जटिल हुए अनुरूप मणिमय भूपर्णोसे कुवर इन्द्रकी आज्ञासे प्रतिदिन भगवान की पूजा करता था। भगवान श्री भन्शेत्माओंके अनलय प्रमोदके साथ २ शुक्लपक्षमें चन्द्रमाकी तरह बहने लंगे ।। ९३ ॥ बाल्प शरीरस्वरूपको मैं फिर नहीं ही पाऊा। क्योंकि संसारके कारण ही नष्ट होचुके हैं। इस लिये अब इस दशाको सफल बनालं-रलूं । मानों ऐमा मानकर ही जिन भगवान् महान् देवोंके साथ क्रीड़ा करते थे ॥ ९ ॥ . : . एक.दिन बालकोंके साथ साथ महान् वट वृसके ऊपर चढ़ कर
खेरते हुए बर्द्धमान. भगवानको देखकर संगम नामका एक देव उनको त्रास देनेके लिये आ. पहुंचा ।। ९९ ॥ भयंकर फणाले नांगता रूप रखकर उस देवन शीघ्र ही आसपासके दूसरे छोटे २ वृक्षों के साथ उस वृसके मूलको घेर लिया। बालकोंने ज्यों ही उसको देखा त्यों ही व गिरने लगे ॥ ९६ ॥ किंतु शंका रहित वे भगवान लीलाके द्वारा उस नागरानके मस्तक पर दोनों चरणोंको रखकर वृक्षसे उतरे। ठीक ही है-वीर पुरुषको नगत्में भयका कारण कुछ भी नहीं है ।। ९७ ॥ भगवान्की निपप्तासे हृष्ट हो गया है 'चित्त जिसका ऐसे उस देवने अपने रूपको प्रकाशित कर सुवर्णमय
घटोंके जलसे उनका अभिषेक कर महावीर यह नाम रखा ॥२८॥
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२५६ ] महावीर चरित्र
पद्धते हुए भगवान् अपनी चपलताको दूर करने के लिये स्त्रय. उद्युक्त हुए। और शैशवको लांचर क्रमसे उन्होंने नवीन यौवन । लक्ष्मीको प्राप्त किया ॥ ९९ ॥ उनका नवीन कन्नरक समान है वर्ग निसका ऐसा सात हायका मनोज्ञ शरीर, निःस्वंदना (पहीला न आना) आदिक स्वामाविक दश अतिशयोंसे युक्त था ॥ १० ॥ संपारके. हंता, नवीन कमल समान हैं सुकुमार त्राणं युगड जिनके ऐसे कुपार भगवान्ने देवोपनीत भोगोंको भोगते हुए तीस वर्ष बिता दिये॥१२॥
एक दिन भगवान् सन्मति विना किसी निमित्तंक ही विषयोंसे वित होगये । पहायोगी स्थिति निनको विदित है ऐसे : नुनुचः . पुरुष प्रशमके लिये सदा वाहा कारणों को ही नहीं देख कर ॥ १०२॥ स्वामी निर्मल अवधिज्ञानके द्वारा नम अग्ने पूर्व मोन: तथा उद्धन इन्द्रियोंकी विषयोंमें ऐसी अतृप्तिका कि मिस वृत्तको :: प्रमट कर दिया गया है विचार करने लगे॥१०६॥ आकाशमः . विना मंत्रके ही नछुटोंकी विचित्र किरणोंस इन्द्रधनुषत्री शोभाको.
बनाती हुई.लोकांतिक देवोंकी संहति (समूह) उस प्रमुको प्रतिरोधित ' करनेके लिय हर्षसे. उसी समय आई ॥ १० ॥ विनयसे कर... • . पल्लवोंको मुकुलिन कर उस मुनुको नमस्कार करके उनके समभा- '.
वासे पूर्ण दृष्टिगतके द्वारा प्रमुदित हुए देव समूहन इस तरहके कवन । कहे ॥ १.०५ ॥ हे नाथ ! आपके दीक्षा कल्याणक योग्य यह . कालकाला निकट आ पहुंची है। जान पड़ता है मानों नालीने: - आपसे समागम करनेके उद्देश्य से स्वयं उत्कंठिन होकर अपनी प्रिय' : दूती भेजी है.॥१०६ ॥ साहजिक तीन निर्मल ज्ञानोंसे युक्त .. आप स्वामीको तत्वके एक लेश मात्रको समझने वाले दूसरे लोग
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सत्रहवाँ सर्ग :
[२५७ मुक्तिका उपदेश किनंतरह दे सकते हैं ? ॥ १०७ ॥ तपके द्वारा समस्त घातिकर्मेकी प्रकृतियोंको दूर- नष्ट कर केवलज्ञानको प्राप्त कर संसारवास के व्यसन से भयभीत हो गया है चित्त जिनका ऐसे
प्राणियोंको मुक्तिका उपाय बताकर आप प्रतिबोधित करो ॥ १०८ ॥ इस प्रकार कालोचित बचनों को कह कर लौकांतिक देवगणने विराम लिया और मगवानने भी मुक्ति के लिये निश्चय किया । वचन अपने अवसर पर ही तो सिद्ध होता है ॥ १०९ ॥ उसी समय चतुर्निकायके चारों प्रकारके देवगणोंने शीघ्र ही कुंडलपुर में दर्शन के कौतुकसे निमेवरहित नगरकी स्त्रियोंको मानों अपनी 'वधुओं - देवाङ्गनाओंकी शंका ही देखा ॥ ११० ॥ विधिपूर्वक देवोंने की है महान् पूजा जिसकी और पूछ लिया है समन्धु वर्गको जिसने ऐसे वे मुमुक्षु भगवान् वनको लक्ष्यकर महलसे सात पैर तक अपने चरणोंसे चले ॥ १११ ॥ बादमें, श्रेष्ठ रत्नमयी चन्द्रमा नामकी पालकी में जिसकों कि आकाशमें स्वयं इन्होंने धारण कर रक्खा था आरूढ़ होकर भव्यननों से वेष्टित वीरनाथ नगरसे बाहर निकले ॥ ११२ ॥ नागखण्ड वनमें पहुंचकर इन्द्रोंने यान-लकीसे जिनको उतारा है ऐसे वे भगवान् अत्यंत निर्मल अपने पुण्यसमान दृश्य स्फटिक पापाण पर विराजमान हुए || ११३ ॥ उत्तर दिशा की तरफ मुख किये हुए उन भगवान्ने एक-एकाग्र चित्तसे समस्त कर्मरहित सिद्धोंको नमस्कार कर रागकी तरह प्रकट रूपमें प्रकाशमान आभरणोंके समूहको स्वतः हार्थोके द्वारा दूर कर दिया ॥ ११४ ॥ श्रीसे प्रथित हुए उन भगवान्ने वहां पर मगशिर शुक्ला दशमीको जब कि चन्द्रमा परमार्थमणि पर विराजमान था सायंकालके
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२५८] महावीर चरित्र। .. ...
......... .......................rer armirewor' समय पप्ठोपवास कर तपको धारण किया ॥ ११५ ॥ भगवान .. भ्रमरंसमान नील केशीको निनको कि उन्होंने पांत्र मुष्टियोंके द्वारा पाड़, डाला था इकट्ठा करके और स्वयं मणिमय माननमें रख कर इन्द्रने : सीर समुद्र में पधरा दिया ॥ ११९ ॥ देवगण विचित्य और त लक्ष्मीसे युक्त भगवान्की वंदना करके अपने अपने स्थानको गये। : इधर 'यह वह इस तरह जनता क्षणमात्र तक ऊपरको दृष्टि करके : उनको आकाशमें देखती रही ।।११७॥ ___भगवान्ने शीघ्र ही सात लगियोंको प्राप्त कर लिया ! और । मनापर्यय ज्ञानको पाकर वे तम हित भगवान् रात्रिके समय नहीं , प्राप्त किया है एक कलाको जिसने ऐमे चन्द्रमाकी तरह विलकुल. :: शोभने लगे ॥ ११८ ॥ एक दिन महान् सत्व-पराक्रमसे युक्त वीर : भगवान्ने जब कि सूर्य आकाशके मध्यभागमें आ गण उस समय : बड़े महलोंसे भरे हुए कूल्यपुरमें पारणाके लिये-अर्थात् उसके अनंतर आहार करनेके लिये प्रवेश किया ॥११२ । कूल यह
पृथ्वीमें प्रसिद्ध है नाम निपका ऐसा एक राजा उस नगरका स्वामी . . था। वह अणुव्रतोंका धारक और अतिथियों का पालक-सकार:
करनेवाला था । उसने अपने घरमें प्रवेश करते हुए भगवान्को पड़ गाया-आहार करनेके लिये ठहराया ॥ १२० ॥ पृथ्वीपर नवीन । पुण्यक्रमके वेत्ताओंमें अतिशय श्रेष्ठ उस राजाने नवीन . पुण्यकी
चिकीर्षा-संचन करनेकी इच्छ,से भगवान्को भोजन कराया। '.: भगवान् भी भोजन करके उसके महलसे निकले ॥ १२१ ॥ भोजन .. - करके महलके बाहर भगवान्के निकलते ही उस रानाके घरके ".. " आंगनमें आकाशसे पुष्पवृष्टिके साथ साथ रत्नवर्षा होने लगी।
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सत्र वा सर्ग। . [ १९९ उसी समय देवोंकी बनाई हुई दुमियोंका मन्द्र मन्द्र शब्द मी आकाशमें होने लगा।।१२२ ।-नवीन पारिजातके (हारगारके) पुष्पोंकी गंधको फैलाती हुई वायु-दिशाओंको सुगंधित करती हुई अच्छी तरह वहने लगी । अत्यंत विस्मित हो गया है चित्त जिनका ऐसे देवोंके : अहो, इस तरह के दानके वचनोंसे. अर्थात् दानकी प्रशसा सूचक शब्दों से आकाश पूर्ण हो गया ॥ १२३ ॥ इमप्रकार दानके फलसे उस राजाने देवोंसे पात्र आश्चर्योको प्राप्त किया । गृहधर्म के पालन करनेवालोंको पात्रदान यश, सुख और संपत्तिका कारण होता है ॥ १.२४ ॥ .
एक समय भगवान् अतिमुक्तक नामके स्मशानमें रात्रिके समय प्रतिमायोग धारण कर खड़े हुए थे उस समय भव नामकेरुद्रने अपनी अनेक प्रकारकी विधाओं के विभक्से व त कुछ उपसर्ग क्रिये पर वह उन विभव-संसाररहितको जीत न सका ॥ १२५॥ तब उन निन नायको बहुत देर तक नमस्कार करके उस.भव नामक रुद्रने काशीमें अत्यंत हर्षले वीर भगवानका अतिवीर और महावीर ये नाम रक्खे ॥ १२६ । इस प्रकार नाति और कुल रूप निर्मल आकाशमें चंद्रमाके समान तथा तीन लोरके अद्वितीय बंधु भगवानने परिहार विशुद्धि संयमके द्वारा प्रकटतया तर करते हुए बारह वर्ष विता 'दिये ।। १२७ ।।.:. . . :
'. एक दिन ऋजुकूश नदी किनारे पर बसे हुए, श्री जृम्भक नामके ग्राम में पहुंचकर अरह समय अच्छी तरहसेठो वासको धारण कर साल वृसके नीचे एक चट्टानपर.अच्छी तरह बैटका निानाथने वैशाख शुक्ला. दशमीको ना कि चंद्र' सूर्यके अपर था ध्यान
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२६० ] महावीर चरित्र । रूपी रुनके द्वारा सत्तामें बैठे हुए घाति कर्माको नष्ट कर केवल ज्ञानको प्राप्त किया ॥१२८-२९॥ अपनी केवलज्ञान संपत्तिके द्वारा सदा यथास्थित समस्त लोक और अलोकको युगपत् प्रकाशित करते.. हुए, इन्द्रियोंकी अपेक्षासे रहित, अच्छाया ( शरीरकी छायाका न पड़ना) इत्यादिक दश प्रकारके गुणोंसे युक्त जिनेश्वरको. त्रिदशेश्वरोंने आकर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ॥ १३०॥ इस प्रकार अशग कवि कृत वर्द्धमान चरित्रमें "भगवत्केवलं
शनोत्पत्ति' नामक सत्रहवां सर्ग समाप्त हुआ।
अढारहकर सम्। .. . इन्द्रकी आज्ञासे और अपनी मक्तिसे कुवरन उसी समय उन भगवान्की रमणीय तथा विविध प्रकारकी श्रेष्ठ विभूतिसे. युक्त समवसरण भूमिको बनाया । तीन लोकमें ऐसी कौनसी अभिपतः . वस्तु है जिसको देव सिद्ध नहीं कर सरते॥2॥ बारह योजना.. लम्बे नीलमणिमय पृथ्वीतलको चन्द्रपमान निर्मल रजोमय शाल. (परकोटा)ने इस तरह घेर लिया जैसे शरद् ऋतुके नमोभाग-आकार शको मेव समूह घेर लेता है ॥ २ ॥ इस प्रकाशमान रेणुशालके परे सिद्ध रूपके धारक, मानस्तम्भ थे। जो ऐसे मालूम पड़ते थे ।
मानों महादिशाओं में अंत देखनेकी इच्छासे पृथ्वीपर आये हुए मुक्तिके : .. प्रदेश हो ॥३॥ मानस्तम्भोंके बाद नंदाद नामके धारक - चार -सरोवर थे जो निर्मल जलके भरे हुए और कमलपत्रोंसे पूर्ण थे। वे... मेघ-वर्षा के अंत समयमें-शरामें हुए. दिशाओंके मुखकी तरह । मान पड़ते थे ॥ ४ ॥ इनके बाद वेदिका सहित निर्मल जलसे भरी
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_ अहारहवाँ सर्ग। इंई खाई थी । जो खिले हुए धवल कालोसे व्याप्त थी। वह ऐसी जान पड़ती थीं मानों तारागणोंसे मण्डित सुरपदवी (आकाश मार्ग) देवोंके साथ साथ स्वयं पृथ्वीपर आकर विराजमान होगई हैं ॥ ५ ॥ खाईके बाद चारोतरफ बल्लियोंका विस्तृत या मनोहर वन था। जो सुमनों (पुषों; दुमरे पक्षमें विद्वानों या देवा)से युक्त होकर मी अबोध था, बहुतसे पत्रोंसे आकुल-र्ण होकर भी असैन्य था, तथा विपरीत (पक्षियों से व्याप्त दूसरे पक्षमें विरुद्ध-शत्रु) "शकर भी प्रशंमा करने योग्ग था ॥ ६ ॥ इस वनके वाद चादीक बने हुए चार गोपुर-बड़े बड़े दरवाजोंसे युक्त सुवर्णमय प्राकार था जो ऐमा जान पड़ता था मानों चार निर्मल मेघोंसे युक्त स्थिर रहनेचारा अचिर प्रमाका समूह पृथ्वी पर आगया है ।। ७ ॥ पूर्व दिशामें जो उन्नत गोपुर था उसका नाम विनय था । दक्षिण दिशा में रत्नोंके तोरणोंसे युक्त नो गोपुर था उसका नाम वैजयंत था। पश्चिम दिशामें पूर्ण कदलीवजोंसे मनोहर जो गोपुर था उसका नाम जयंत था। उत्तर दिशामें देवोंसे घिरा हुआ है वेदीतट जिसका ऐसा नो गोपुर था उसका नाम अपराजित था ॥८॥ इन गोपुरोंकी उंचाई पर तोरण लगे हुए थे। उनके दोनों भागोंमें नेत्रोंको अपहरण करनेवाली विधिमै प्रत्येक एकसौ आठ आठ प्रकारके निर्मल अंकुश चमर आदिक मंगल द्रव्य रखे हुए थे नो कि भगवान्की विभूतिको प्रकट कर रहे थे ॥९॥ उनमें-गोपुरोंमें, जिनके बीच बीच में मोतियोंके गुच्छे लगे हुए हैं ऐसी मणिमय मालामें, टिकार्य, वा सुवर्णपय जाल लटकते हुए शोमा पा रहे थे। जो कि दर्शकोंकी दृष्टियोंको कैद कर देते थे ॥ १० ॥ उन गो
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महावीर चरित्र ।
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पुरोंके भीतर एक सुंदर वीथी-गली थी। उनके दोनों भागों में (ऊपर) दो दो उन्नत नाट्यशालाये बनी हुई थीं। जो कि मृदंगों
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की ध्वनि मानों भव्य जीवोंको दर्शन करनेके लिये बुला रहीं हैं ऐसी जान पड़ती थीं ॥ ११ ॥ विधियों के दोनों भागों में नाट्यशालाओंके बाद देवोंके द्वारा सेविन क्रमसे अशोक, सप्तच्छंद, चंपक, आम्रोंसे व्याप्त चार प्रमदन थे ॥ १२ ॥ उनमें, जो विस्तृत शाखाओं के द्वारा चंचल बाल प्रवालों - कोमल पत्तोंसे मानों दिशारूपी बन्धुओं की कर्णपूर श्री को बना रहे हैं ऐसे, अथवा जो जिन भगबोनकी निर्मल प्रतिकृतिको धारण किये हुए हैं ऐसे अशोक आदिके.. चार प्रकारके जाग वृक्ष थे। जो कि कमलखंडों को छोड़कर प्रत्येक.. पुण्य से लिये हुए मत्त मधु रोंके मंउनसे मंडित हो रहे थे ॥ १॥ .. उन चार वनों में निर्मल मटकी भरी हुई तीन तीन व. पिकायें शोभायमान थीं। जो कि गोल त्रिकोण और प्रकट चतुष्कोण आकारको धारण करनेवाली थीं । नंदा सुवर्ण कमलों से, नंदवंती उत्पन्न समूहोंसे, : 'मेघा' नील कमलोंसे, और नंदोत्तरा स्फटि के कुमुदोंसे व्याप्त थी ॥ १४ ॥ हुन बनों में ही सुर और असुरोंसे व्याप्त, प्रतिवर्ती लता मंडपोंसे घिरे हुए, जिन पर त "यूहों का मंडल शब्द कर रहा
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कीड़ापर्वत बने हुए थे। कहीं पर महल, कहीं मणिमंडप, कहीं अनेक प्रकारकी आधार भूमित्राली गृहपंक्ति, कहीं चक्रांदोल (!) सभामंडप, और वहीं पर अत्यंत मनोज्ञ मुक्तामय शिश्रपद बने हुए थे ॥ १५ ॥ बनके बाद वज्रपय वेदी थी जिपने आनी -किरण - संपत्ति के द्वारा नभस्तलमें इन्द्र धनुषका मंडल प्रसारित कर रक्खा था। जो कि चार श्रेष्ठ रत्नतोरणों से युक्त थी ॥ १६ ॥ वीथि योंके
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अढारहवाँ सर्ग। . [ २६३ mimmmmmmmm परे चारों तरफ मयूर, माला, वस्त्र, हंस, केसरी, हस्ती, बैल, गरुड़, कमल, चक्र, इन दश चिन्होंवाली ध्वजायें थीं। इन दश धनाओं में से प्रत्येक एकसौं आठ आठ थीं ॥ १७ ॥ गंगाकी कल्लोलपंगके समान- मालूम पड़नेवाली, जिन्होंने मेव मार्गपर आक्रमण कर लिया है. ऐसी ये ध्वजायें प्रत्येक दिशामें एक हजार अस्सी अस्सी थीं। फैली हुई है कांति जिनकी ऐसी ये ध्वनायें चारो दिशाओंकी मिलाकर सब एक जगह जोड़नसे चार हजार तीनसौ वीस होती हैं ॥ १.८॥ इसके बाद स्कुरायमान है प्रभा जिसकी ऐमा सुवर्णमय प्राकार है जो कि कमल समान वर्णके धारक चार गोपुरोंसे युक्त चार महान् संध्याकालीन घन-मेघोंसे समस्त विद्युम्पमूहको विडंबित करता हुआ जान पड़ता है ।। १९ ।। उन गोपुरों में कलश आदिक प्रसिद्ध मङ्गल वस्तुएं रक्खी हुई थीं। उनके बाद जिनमें मृदंगका मनोहर शब्द होरहा है ऐसी दो दो नाट्यशालायें थीं ॥ २०॥ उनके बाद मार्गके दोनों भागोंमें रखे हुए उन्नन और सुगंधित धूपसे उत्पन्न हुए धूमसे भरे हुए मनोज्ञ सुवर्णपय दो दो धूपघर शोभायमान थे। जो ऐसे जान पडतेथे मानों काले काले मेघण्टलोंसे ढके हुए दो. सुवर्ण पर्वत हों ।। २१ ॥ वहीं पर इन्द्र भी जिनकी , सेवा करता है ऐसे कल्पवृक्षों के वन थे। उनके नाम चार महा. दिशाओं में स्थित सिद्ध है सा.निनका ऐसे सिद्धार्थ वृक्षों से अंकित थे ॥२२।। इसके बाद चार गोपुरोंसे युक्त उत्पल (8).वनवेदिका थी। जो ऐसी जान पड़ती थी मानों अंजन गिरिकी विस्तृत अधित्यकाको ही देवोंने यहां लाकर रख दी है ॥. २.३.। उनपर द्युत-कांतिसे निचित-पूर्ण तथा कल्पवृक्षोंके पुष्प और लाल लाल कोमल पत्तों
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महावीर चरित्र।. . . . .. बनी हुई वंदनमालाओंको धारण करनेवाले श्रेष्ठ रत्नमय दश.. दश तोरण लगे हुए थे ।। २४ ॥ उनके-तोरणों के बीच वीचमें नव नव स्तुए थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानों कौतुकसे जिनेन्द्रवका दर्शन करने के लिये पदार्थ ही प्रकट हुए हैं। अथवा सिद्धोंकी प्रतिगतनासे विनत होने के कारण चन्द्रातप श्रीमुख पृथक् पृथक् मुक्तिक एकदेश स्वयं इकट्ठे होकर पृथ्वीपर आकर विराजमान होगये हैं ॥ २५ ॥. उनके चारोतरफ अनेक प्रकारके बड़े बड़े कूट :
और.सभागृह शोमायमान थे जिनमें ऋषि मुनि अनगार निवास करते थे तथा घना और मालाओंके द्वारा जिनका आतप विरल बना दिया गया था ॥ २६ ॥ उसके बाद तीसा पिङ्गल मणियों का बना हुआ है गेपुर जिसका ऐमा आकाश-झाकाशपमान सच्छ अथवा प्रकाशमान स्फटिकका बना हुआ प्राकार.था जो ऐमा जान पड़ता मानों मूनताको धारण कर जिनमगवानकी महिमाको देखने के .. लिये स्वयं पृथ्वीपर आया हुआ वायुमार्ग ही है॥२७॥ उन व्योम-..
चुम्बी गोपुरोंके दोनों बाजुओंमें विचित्र रत्नोंकी बनी हुई कलश -- आदिक आठ मंगल वस्तुएं रखी हुई शोमायमान थीं ॥ २८॥.. · कोटसे लेकर फैली हुई दक्षिगमें महापीठसे. स्पर्श करनेवाली प्रकाशन ...मान बेदिकायें थीं जो कि परस्पर प्रथक रूपसे प्रकाशमान आकाश . ' समान स्वच्छ स्फटिककी बनाई हुई थीं। जिसपर विनय सहितं बारह गण हर्षसे विराजमान हो रहे थे। उनके बीचमें रूचिरकांतियुक्त
और मनोज्ञ तीन कटनीका सिंहासन शोमायमान था ॥२९॥ "उनके ऊपरं अनुपम धुतिके धारक- सुवर्णके बने हुए स्तम्भोंके द्वारा धारण किया गया। भ्रमरंमंडलसे घिरे हुए, और खिले हुए सुवर्ण
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भढारहवाँ सर्ग. 1.
[ २६५ कमलोंसे, जिसका उपहार (पूजा) किया गया है ऐसा अनेक प्रकारके रत्नोंका बना हुआ श्रीमंडप था ॥ ३०॥ पहली कटनी पर मणि- मंगल द्रव्यों के समूह के साथ साथ चार धर्मचक्र शोभायमान थे जिनको कि चारो महादिशाओं में यक्षोंने मुकुटोंसे उज्जल हुए मस्तकके द्वारा धारण कर रक्खा था ॥ ३१ ॥ सुवर्णकी बनी हुई और
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मणियों से जटिन दूसरी कटनी पर आठो दिशाओं में अत्यंत निर्मल आठ "वायें थीं जिनमें चक्र, हस्ती, बैल, कमल, वस्त्र, हंस, गरुड और माला के चिन्ह थे। जिनके दंड अनेक प्रकारके रत्नोंसे जड़े हुए थं ॥ ३२ ॥ तीरी. कटनी के ऊपर तीन लोक के चूड़ामणि रत्नके समान . गंधकुटी नामको मनोहर विमान सर्वार्थसिद्धिमें बढ़ी हुई है विमानलीला जिसकी ऐना शोभायमान था जिसके ऊपर भगवानका निवास था ॥ ३३ ॥ तीनों जगत् के लिये प्रतीक्षा करने योग्य तथा जिसकी निर्मन वाणीकी प्रतीक्षा करते हैं ऐसे निबंधनकर्मबंधनों से रहिन जिनेन्द्र भगवान् उप गंधकुट पर विराजमान हुए जिनपर आये हुए भाव जीवोंने सुगंधित वस्तु से किये हुए जलसे छिड़काव कर दिया था ॥ ३४ ॥ उन भगवा- नूके चारो तरफ क्रपसे यतीन्द्र ( गणधर और मुनि) कल्पवासिनी देवी, आर्यिकार्ये, ज्योति देवकी देवियां, व्यंवर देवकी देवियां, भवनवासी देवकी देवियां, भवनवासी देव, व्यंतर देव,
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ज्योतिषी देव, कल्पवासी देव, मनुष्य, और मृग (तिर्थंच ) आकर
बैठे हुए थे ॥ ३५ ॥ चारो महां दिशाओंके वलयके भेइसे अनल
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गणोंके भी बारह में थे । अर्थात् चारों दिशाओंके मिलाकर सब
बारह कोठे थें. जिनमें उक्त बारह प्रकारके नीवसमूह बैठे हुए थे ।
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२६६.] महावीर चरित्र। . . . . . . प्रकाशमान सिंहासनके अन्त तक सोलह सीदियोंकी माला लगी हुई . थी ॥ ३६ ॥ तीन परकोटाभोंके सुंदर और उन्नत रत्नमय गोपुरोंमें . क्रमसे व्यंतर, मवनवासी और कल्पवासी इस तरह तीन द्वारपाल थे . जो उदार वेपके धारक थे और जिन्होंने हाथमें सुंदर सुवर्ण का वेत. धारण कर रखा था ।। ३७ ॥ प्रमाणवेत्ताओं-गणितज्ञोंमें जो श्रेष्ठ : हैं उन्होंने पहले परकोटेका और मनोज मानस्तम्भका अनेक प्रकारकी विभूतिसे युक्त अंतरका-बीके क्षेत्रका प्रमाण आध योजनका बताया है ।। ३८ ॥ जिनागमके जाननेवालोंने कृत्रिम पर्वत पंक्तियों से शोभायमान मनोहर पहले और दूमरे कोटके बीच क्षेत्रका प्रमाण तीन योजनका बताया है ॥ ३९॥ विचित्र. रस्नकी प्रभाकी पंक्तिसे मारित-हटा दिया-तिस्कृत कर दिया है. सूर्यको प्रमाको • जिसने ऐसे दूसरे और ती रे कोटका र आचार्योने दो योननका बताया है ॥ ४० ॥ तीसरे. कोटका और व्यवधान रहित विचित्र : ध्वजाओंसे आच्छादित ढके हुए वायुमार्ग-आकाशमार्गका, और.. स्फुरायमान है प्रमा-नि:सकी ऐसे सिंहासनका अंतर विद्वानोंने आधे । योजनका बताया. है ।। ४.१ ।। जिन. भगवान् जहां बैठते हैं उस · महान् कांतिके धारक प्रदेशका और पृथ्वीतलके भूषण, रस्नोंसे । . "शोभायमान स्तम्भोका आचालीने छह योजनका अंतर बताया है । ॥ ४२ ॥ इस प्रकार उस निनेश्वरका बारह योजनका धाम-समव-." शरणःशोमायमानः था । देवेन्द्रों धरणेन्द्रों और नरेन्द्रोंसे व्याप्त वह . : त्रिलोकीको दुमरा और जैसा मालुम पड़ता था ॥४३॥ भ्रम निसका । • अनुमरण कर रहे हैं; निसने दिश ओंके मुखको श्वेत बना दिया है ऐसी
पुष्पवृष्टिं भगवान्के आगे आकाशसे पड़ती थी। जो ऐसी जान पड़ती.
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अढारहवाँ संर्ग। [२६७ थी मानों अंधकारको नष्ट करनेवाली ज्योत्स्ना ही दिनमें प्रकट हो गई है। सुननेमें सुखकर-मधुर मालूप होनेवाला दुन्दुमिके शब्द
आंकाशके अन्तर्गतः तीनों लोकों व्याप्त होगया । जान पड़ा मानों 'निनपतिका दर्शन करनेके लिये तीन लोकमें रहनेवाले भव्योंको बुला रहा हो ॥.४४ ॥ मेघ मार्गपर आक्रमण करनेवाले अनेक विटपों
आसपासके छोटे छोटे वृक्षों से दिशाओंके मध्यको रोका हुआ 'अत्यंत पवित्र रक्त वर्णका अशोक वृक्ष था जिसके तल भागमें देवगग 'निवास करते थे। अनेक पुष्पों तथा नवीन पल्लवोंसे सुभा-सुंदर वह ऐसा. जान पड़ता मानों स्वयं मूर्तिमान् वसंत हो । अथवा निनपतिके दर्शन करनेके लिये कुरु-देवकुरु और उत्तर कुरुके वृक्षोंकल्पवृक्षों का समूह एक होकर आ गया है ॥४५॥ उस भगवान्के चन्द्रद्युतिके समान शुभ्र, निरंतर भव्य समूहको राग उत्पन्न करनेवाले तीन.लोककी स्वामिताके चिन्हभूत तीन छत्र शोभायमान थे । जो ऐसें जान पड़ते थे मानों अपनी प्रभाकी प्रसिद्धिके लिये तीन वि'भागोंमें विभक्त हुए क्षीरसमुद्रके जलको देवोंने आकाशमें चन्द्राकार बनाकर तर ऊपर-एकके कार दूसरा और दुमरेके जार तीमग इस. क्रमसे रख दिया है।॥ १६ ॥ दो यक्ष उस प्रमुकी चमरोंके व्याजसे सेवा करते थे। जान पड़ता' मानों दिनमें दृश्यरूपको प्राप्त हुई। ज्योत्स्नाकी कंपनी हुई दो तरंगे हैं। भगवान् के शरीरका मंडन भामंडल था जिसमें मन्यसमूह अपने. अनेक पूर्वजन्मोंको इस तरह, देखते थे जैसे रत्नोंके दर्पणमें ॥ ४७ ॥ उस जिनपतिका सुर्वणका वना हुआ उन्नतं प्रकाशमान सिंहासन था जो मेरुकी शिखरके समान मालम पड़ता था। उसकी सुरं असुर तथा मनुष्य सदा सेवा
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: २६८ ] महावीर चरित्र । . . . . . .
करते थे । फटे हुए हैं मुख जिनके ऐसे केसरियोंसे युक्त तथा: नाना प्रकारकी पत्रलताओंसे अन्वित वह बन. जैसा जान पड़ता था। अथवा
रत्न मकरसे युक्त वह ऐसा.जान पड़ता था मानों बड़ा भारी, समुद्र . ही हो ॥ ४८ ॥ इन्द्रने देखा कि जिनेश्वरकी दिव्य ध्वनि नहीं. : हो रही है तब वह अपने आधिज्ञानसे मिसको देखा था उसी
गणधरको लाने के लिये गौतमयामको गया । अर्थात् इन्द्रको अवधि: - ज्ञानसे मालूम हुआ कि गणधरके न होनेसे दिप ध्वनि नहीं हो ' रही है । और यह भी मालूम हुआ कि वर्तमानमें गणधर पदके
योग्य गौतम नामक विद्वान् है । यह जानकर वह उसको लानेके. लिये निम ग्राममें वह-गौतम रहता था उसी ग्राममें गया ॥४॥ उस ग्राममें रहनेवाले, निर्मलबुद्धि और कीर्तिसे जगतमें प्रसिद्ध गौतम गोत्रमें मुख्य उस इन्द्रभूति नामक ब्राह्मणको विद्यार्थी का
वेश धारण करनेवाला इन्द्र वादका छल करके उस ग्रामसे जिनवरके , निकट लिग लाश ॥ ५० ॥ मानस्तम्भके देखनेसे नम्रीभूत हुए
शिरको धारण करनेवाले उस विद्वान् गौतमने भगवान् से जीवस्वरूपका उद्देशकर प्रश्न किया। होने लगी है दिव्यध्वनि जिसकी ऐसे जिनपतिने उसके संदेइको दूर कर दिया। तब गौतमने ।
आने पांच सौ शिष्य ब्रह्मा पुत्रोंके साथ साथ दीक्षा धारण कर ली * ॥ ५१ ॥ उस गौतमने पूर्वाह्नमें द्रीक्षाके साथ ही निर्मल परिणामों.. के द्वारा तत्कल, बुद्धि, औषधि, अक्षय, ऊर्ज, रस, तप, और
विक्रिया इस सात लधियोंको प्राप्त किया । और उसी दिन आ. राह्नमें उस गौतमने जिनपतिके मुखसे निकले हुए पदार्थों का है विस्तारं जिसमें ऐसी उपांग सहित, द्वादशाङ्ग श्रुतकी पद रचना..
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. : : अढारहवा सर्ग। [२६९ की ॥ १२ ॥ स्तुतिके स्वरूपको जाननेवाले और विनयसे नम्र हुए इन्द्रने प्राप्त कर लिया है समस्त अतिशयोंको जिसने ऐसे उस मिनेन्द्रकी स्तुति करना प्रारम्भ किया । जो वस्तुत: करने योग्य है उसकी स्तुति करनेकी अमिलापा किमको नहीं होती ? ॥ १३ ॥. - हे जिनेन्द्र ! मी बुद्धि आपकी स्तुतिके श्रेष्ठ विधानमें-स्तु
स्पृहा-आकांक्षासे उद्युक्त तो होती है पर आपके गुणोंके गौरव (महत्व; दूसरे पक्षमें भारीपन) को देखकर स्खलित हो नती है । महान् भार इष्ट होनेपर मी श्रम उत्पन्न तो करता ही है ॥ १४ ॥ तो पी हे जिन ! मैं अपने हृदयमें रही हुई प्रचुर भक्तिके वशसे अत्यंत दुप्कर भी आपकी गुगन्तुतिको करूंगा। जो सच्चा अनुरागी है उसको लज्ना नहीं होती ॥ १५ ॥ हे वीर ! हानि रहित, दिनरात प्रकाशित रहनेवाला, खिलते हुए पअसमूहके द्वारा अमिनंदित, न्यूनता रहित आपका यश निरंतर
अपूर्व कलाधरकी श्रीको धारण करता है ॥ १६ ॥ हे जिन ! 'आर तीनों लोकोंको यथास्थित-जो निस रूमें है उसको जी रूपसे निरंतर विना भ्रमण किये ही करणक्रम और आवरणसे चंजित देखते हैं । जो परमेश्वर है उसके गुण चितवनमें नहीं मा सकते ॥ ५७ ॥.प्राणवायुके द्वारा मेरुको कपादेनेवाले आपने यदि कोमल पुष्पके धनुषको धारण करनेवाले मनोभू-कामदेवको परास्त कर दिया इसमें आश्चर्य क्या हुआ ? जो बलवान् है वह चाहे जैसे विषमको अभिभूत कर देता है ।। ५८॥ आपको जगतम जो परमकारुणिक कहते हैं यह कैसे बन सकता है? क्योंकि भापका इंजित शासन अकट और अत्यंत दुःसंह हैं । गुप्तिरूप निबंधन
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२७० ] महावीर चरित्रं । . निमका- ऐसा है तथा प्रसिद्ध है धैर्यधन जिनका ऐसे पुरुषोंको भी अत्यंत दुर्धर है ।। ५९ ॥ हे जिनपते! तुन अपूर्व तमोपहा. ( अंधकारके नष्ट करनेवाले चन्द्रमा) हो । प्रतिदिन कुमुदको-कु मुद पृथ्वीके हर्षको; दूसरे पक्षमें कमलको) बहानेवाले हो। परमप्राशी
और अविनाशीको तेनके धारक हो । आवरण रहित होकर भी अचल : स्थितिके धारक हो ॥६०॥ आकाशमें उत्पन्न हुई महानं रनके दूर करनेवाली वृष्टिसे नवीन जलको प्राप्त करनेको चातक जिस प्रकार . जगतमें तृषा रहित हो जाते हैं उसी प्रकार हे जिन ! आपकी वाणी--उपदेशामृतको पाकर साधुपुरुष तृपारहित नहीं हो जाते हैं यह बात नहीं हैं, अवश्य हो जाते हैं । ६१ ॥ आप श्रेष्ठ गुण.रधि-गुण:रत्नाकर होकर भी अनलाशय हो (जलाशय नहीं हो;
श्लेषसे दूसरा अर्थ होता है कि तुम जडाशय-गड़बुद्धि नहीं हो). ..' विमदन (मदन-कामदेवसे रहित श्लेषसे दूसरा अर्थ होता है कि : - मद-गर्वसे रहित) होकर भी महान् काम सुखके. देनेवाले हो। तीन ' . .. जगत्के स्वामी होकर परिग्रह रहित हो । हे जिन ! आप की ये... • चेष्टा सा विरुद्ध है ॥ ६२ ॥ हे स्वामिन् ! आपके गुण और चन्द्र
माकी किरणें दोनों समान हैं। दोनों ही सब लोगोंको आनन्द देनेवाले सुधा समान.(किरणोंकी पक्षमें सुधासे) विशद, और अंध
कारको नष्ट करनेवाले हैं । इसलिये आपके गुण चन्द्रमाकी किरण - समानं मालूम होते हैं और चन्द्रमाकी किरणें आपके गुणों के समान. • मालूम होती हैं.॥ ६३ ॥ हे जिन ! जिस तरह आपके दो.श्रेष्ठ
नया है, उस तरहसे ही आपका मत मी .शोमायमान है। क्योंकि दोनोंको ही जगतमें भव्यपुरुष नपस्कार करते हैं। दोनोंके विषय .
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अद्वारहवाँ सर्ग। ininema
[ २७१ मी नव पदार्थ हैं । और दोनों ही महान्, निर्मल, निरुपम, तथा निवृत्तिकै कारण हैं ॥ ६४ ॥ हे स्वामिन् ! आपने धैर्य से समुद्रको, महत्वंसे आकाशको, समुन्नति कनकाचर-मेहको, कांतिस सूर्यको, समासे पृथ्वीको, और प्रशमसे चन्द्रमाको जीत लिया है ।। ६५ ॥ हैं जिनेश! क्रिपथ्यकी युति के धारण करनेवाले आपके चरणयुगल ऐसे जान पड़ते हैं म.नों पवित्र समाधिक बलसे निको हृदय निकाल दिया था इसी राँगका ये वमन कर रहे हैं ॥ ६६ ॥ हे जिन! ये मक्ति करनेवाले लोकं आपकी दिश्वनिको सुनकर . अत्यंत हर्षित होते हैं। नवीन मेवोंकी महान् ध्वनि क्या मयूरोंको
आनन्दित नहीं कर देती है ? १७ ॥ जो मनुष्य आपके निमन गुणोंको हृदयसे धारण करता है उसको पाप स्वमावसे ही छोड़ देता है । रात्रि में पूर्णचन्द्रकी किरणों से युक्त हुआ सुत्मार्ग क्या अंधारसे लिम होता है ? ॥६॥ हे जिन ! यह अनंत ऋष्ट का वैभव आपके सिवाय और किसीक भी नहीं पाया जाता । तीर । समुद्र सपान क्या जगतमें कोई दूसरा और मी स्मुद्र है जो कि सुवामय नको धारण करता हो । ६९ ॥ जिस प्रकार कुमुदिनी कुमुद्रपति-चंद्रमांक पादों-किरणांको पाकर विशद बोधको प्राप्त हो। जाती है उसी तरह हे जिनेश्वर ! अतासे अन्वित तया आपके .पार्दा चरणोंकी आधित हुई यह मन्य समा विशद बोधपय परम "सुखको प्राप्त हो रही हैं या होनाती है ।। ७० ॥ हे जिन! नित प्रकार भ्रपर बौराए-फूले हुए अमकी सेवा करते हैं उसी प्रकार जो गुणविशेषके जानकार हैं. वे अपने मुखकी इच्छासे आपकी खूब ही उपासना करते हैं ! ठीक ही है-त्राणिगण अपने उपकार
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२७२ ] महावीर चरित्र। करनेवाले के पास भी नहीं फटकते ॥ ७१ ॥ हे तीन जगत्के ईश! भूपण वेष और परिग्रहसे रहित आपका शरीर बहुत ही सुंदर. मालूम होता है । जिसमें सूर्य, चन्द्र और ताराओं में किसीका भी उदय नहीं हुआ है ऐसा आकाश क्या मनोहर नहीं लगता है ? ॥ ७९ ॥ प्राणियोंकी दृष्टि, नवीन खिला हुआ महोत्पल, निर्मलजलसे पूर्ण सरोवर, समस्त कलाओंसे युक्त चन्द्र, इनमेस ऐसी किसी में भी नहीं ठहरती जैसी कि आपमें ॥ ७३ ॥ हे वीर नम्रीभूत हुए मस्तकोंपर, चन्द्रमाकी किरणों के मान है घुति निसकी ऐसा स्वयं पड़ता हुआ आपके चरणयुगलकी नखश्रेणीकी किरणोंका वितान-मूह ऐसा जान पड़ता है मानों नहीं नष्ट हुई है संगति जिसकी ऐसा स्वयं पड़ता हुआ पुण्य ही हो ।। ७४ ।। हे स्वामिन् ! अगाध संसार सागर में निमग्न हुए इस जगतको आनि ही उभारा . है । निविड़ अंधकारसे व्याप्त आकाशको सूर्यके सिवाय और कोई निर्मल बनाता है क्या ? ॥ ५५ ॥ महान् रनको दूर करनेवाली ऐसी जलधाराके द्वारा सुधरित है आशा (दिशा) जहां पर ऐसे .. नवीन मेघकी तरह हे जिन ! आप फल न देखकर ही-प्रतिफलकी इच्छा न करके ही जीवोंका अपनी वाणीके द्वारा सदा अनुग्रह करते हो ।। ७६ ॥ हे जिन ! यह निश्चय है कि आपके शुद्ध दयापूर्ण मतमें दोषका लेश भी देखने में नहीं आता है। स्वभावसे ही शीतल चंद्रमंडलमें क्या उष्मा-गरमी-संतापके कण भी स्थान पासकते हैं ॥ ७७ ॥ हे जिन-! जो मनुष्य श्रोत्ररूप, अनलिके द्वारा ।
आपके वचनामृतका मक्तिपूर्वक पान करता है उस हितबुद्धिको · जगतमें निरंकुश भी तृष्णा कभी बाधित नहीं कर सकती है .
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__ अढारहवाँ सर्ग। [२७३ ॥ ७८ ॥ हे ईश! प्राणियोंकी भव्यता आपमें रुचि-प्रीति
(सम्यग्दर्शन ) को उत्पन्न करती है। प्रीति सम्यग्ज्ञानको, : सम्यग्ज्ञान तपको, तप समस्त कर्माके क्षयको, और वह क्षय
अष्टगुणविशिष्ट अनंत सुखरूप मोक्षको उत्पन्न करता है ।। ७९ ।। हैं जिनेश्वर ! विना रंगे ही रक्क, वित्रम-विलासकी स्थितिसे रहित होने पर मी मनोज्ञ, विना धोये ही अत्यंत निर्मल ऐसे "आपके चरणयुगल. नमस्कार करनेवाले मुझको सदा प्रशमकी वृद्धि करो॥८० ॥ इस प्रकार मैंने किया है नमस्कार जिसको, तथा सघन घाति ककि निर्मूल कर देनेसे उत्पन्न हुए अतिशय ऋद्धिस युक्त भक्क आर्य पुरुषोंको आनन्दित करनेवाले, तीन भुवनके अधि. पति आप जिनभगवान्में, हे वीर ! मेरी एकांत भक्ति सदा स्थिर रहो।। ८१.। इस प्रकार जिन भगवान्की अच्छी तरहसे या बहुत देर तक स्तुति करके अनेकवार प्रणाम करनेसे नम्र हुए मुकुटको वाम हाथसें अपने स्थानार (शिरपर) रखते हुए बार बार वंदना
कर इन्द्रने इस प्रकार प्रश्न किया । ८२॥ . . .यह लोक किस प्रकारसे स्थित है ! और वह कितना बड़ा है ! तत्व कौन कौनसे हैं ! जीवका वध किस तरहसे होता है। और वह किसके साथ होता है ? अनादिनिधनकी मोक्ष किम तरह हो जाती है। वस्तुस्थिति कैसी हैं ! सो हे नाथ! आप अपनी दिव्य वाणीके द्वारा समझाइए ॥ ८३ ॥ इम प्रकार प्रश्न करनेवाले इन्द्रको वीर जिनेन्द्रने भन्योंको मोक्षके मार्गमें स्थापित करने के लिये जीवादिक पदार्थों (नव पदार्थो) और तत्वों (सात तत्वों) को या जी. वोदिक पदार्थोके स्वरूपा यथावत् उपदेश कर इस प्रकार-निम्नलि.
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महावीर चरित्र । खित प्रकारसे विहार किया ।। ८४॥ .
· मिन भावान्के आंगे मार्गमें पृथ्वीपरसे कंटक तृण और उपन, वगैरह दूर कर दिये गये। शीघ्र ही पृथ्वीतलपर योजनों में समान दिशाओंको सुगंधित बनानेवाली सुखकर वायु वहने लगी ।। ८५.।। विना मेवके ही ऐसी सुगंधित वृष्टि होने लगी जिससे कि कीचड़ तो बिलकुल भी नहीं हुई पर पृथ्वीकी रन-धूलि शान हो गई. दब गई। भाकाशमें सब तरफसे वायुके द्वारा उड़ती हुई बनाये बिना किसीके धारण किये ही स्वयं उस जिनेश्वरके भागे आगे चलने लगीं ॥ ८॥ विविध रत्नमयी पृथ्वी मणिमय दर्पणतलकी प्रतिमा बनगई। पृथ्वीमें समस्त धान्यों का समूह बढ़ गया। जान लिया है पक्षको-वैरको जिन्होंने ऐसे मृगोंने छोड़ दिया। अर्थात नातिविरोधी पशुओंने आपसमें नैर करना छोड़ दिया ॥८७|| नहीं पर भावान् चरण रखते थे उस अन्तरिक्ष-आकाशमें आगे और पीछे सात सात कमल रहते थे। आगे आगे देवोंके द्वारा भक्तिपूर्वक बनाई हुई दिव्य तुरई मंद मंद्र शब्द कर रही थीं।॥ ८ ॥ स्कुरायमान हैं भासुर रशिक्षचक (किरणसमूह) जिसका ऐसा धर्मचक उस भगवान के आगे आगे .
आकाशमें चलता था जो कि विद्वानों या देवोंको भी क्षणमाके लिये: दूसरे सूर्य विम्बकी शंकां कर देता था ॥ १९ ॥ उस भगवानके .. इंद्रभूति प्रभूति ग्यारह प्रसिद्ध महानुभाव गणधर थे। लोकमें पूज्य, • अत्यंत उन्नत ऐसे. तीन सौ मुनि चौदह पूर्वोक धारक थे ॥९॥ . नौ हजार नौ सौ उदार शिक्षक चारित्रकी शिक्षा देनेवाले थे।
तेह सौ.साधु अवधि ज्ञानके धारक थे ॥२१॥ धीर और जिनकी . विद्वान् या देव स्तुति करते हैं ऐसे पांच सौ मुनि मनापर्यय ज्ञानके
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धारक थे । उस समय में मनीषियोंको मान्य ऐसे सात सौ मुनि अनुत्तम केवली - श्रुत केवलज्ञान के धारक सदा रहते थे ॥ ९२ ॥ प्रसिद्ध अनिंदित और शांतचित्त ऐसे नौ सौ मुनि विक्रिश ऋद्धिक धारक थे । उखाड़ दिये हैं समस्त कृतीर्थ-कुमतरूपी वृक्ष जिन्होंन ऐसे चार सौ वादिगनेन्द्र - वादऋद्धिके धारक मुनि थे ॥ ९३ ॥ समीचीन नीतिशालियोंको बन्ध, शुद्ध चारित्र ही है भूषण जिनका ऐसी श्री चंदना प्रभृति छत्तीस हजार आर्यिकायें थीं ॥ ९४ ॥ अणुव्रत गुणत्रत और श्रेष्ठ शिक्षाव्रत के धारक, जगत् में ऊर्मित ऐसे तीन लाख श्रावक थे । व्रतरूपी रत्नसमूह ही है भूषण जिनका ऐसी तत्वमार्ग में प्रवीण तीन लाख उज्वल - निर्दोष श्राविकायें थीं ॥ ९९ ॥ उस भगवान्की सभा में असंख्यात देव और देवियां तथा संख्यात तियेचोंकी जातियाँ शांत चित्तवृत्तिसे जान लिया है समस्तपदार्थों को जिन्होंने ऐसी मोह रहित निश्चल सम्पत्तत्वकी धारक थीं ॥ ९६ ॥ तीन मुवनके अधिपति जिनेन्द्र देव उक्त गणधर आदिके साथ समस्त प्राणियोंको हितका उपदेश करते हुए करीब तीस वर्ष (छह दिन कम तीस वर्ष ) तक बिहार करके पाधापुर के फूले हुए
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वृक्षोंकी श्री - शोभासे रमणीय उपवनमें आकर प्राप्त हुए ॥ ९७ ॥ उस बनमें छोड़ दिया है समाको जिहने अथवा विघटित हो गया है समवसरण जिसका ऐसा वह निर्मल परमावगाढ़ सम्पत्त्रका धारक वह सन्मति भगवान् जिनेन्द्र पछोपवासको धारण कर योगनिरोध. कर कायोत्सर्गके द्वारा स्थित होकर समस्त कर्मों को निर्मूल कर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको रात्रिके अंत समय में
जब कि चन्द्र
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स्वाति नक्षत्र पर था, प्रसिद्ध है श्री. जिसकी ऐसी
मिद्धिको प्र
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महावीर चरित्र । ...
२७६ ] हुआ ॥९८ । उस मिनेन्द्रके अव्यावाध अतिशय अनंत सुखरूप पद-स्थानको प्राप्त करते ही सिंहासनोंके कॅपनेसे जानकर भगवानका मोक्षकल्याणक हुभा है ऐसा समझकर अपनी .. अपनी सैन्यके साथ शीघ्र ही अनुगमन. करनेवाले सारें : देव और उनके अधिपति भगवानके पवित्र . और अनुपम शरीरकी भक्तिपूर्वक पूजा करनेके लिये उस स्थानपर नाकर पहुँचे । ॥ ९९ ॥ अग्निकुमार देवोंके इन्द्रोंके मुकुटके रत्नों से निकली . हुई अग्निमें, निसको कि कपूर अगर सारभून चंदनका काष्ठ. इत्यादि हविष्य द्रव्यके द्वारा वायुकुमारके देषोंन शीघ्र ही. संधुक्षित कर दिया था-झपककर दहका दिया था, जिनपतिके शरीरकी । इन्द्रोंने अन्त्य क्रिण की ।। १०० ।। शीघ्र ही उस जिनपतिके पंचम कल्याणको अच्छी तरह करके स्तुतिके द्वारा मुखर-शब्दा यमान है मुख जिनका ऐसे प्रसन्न हुए कल्पवासी इन्द्रप्रभृति देवगण . उस स्थानकी प्रदक्षिणा करके अपने हृदय में यह विचार करते हुए..
कि 'इस भक्तिके प्रसादसे हमको भी शीघ्र ही निश्चयसे सिद्धि. सुखकी सिद्धि हो, अत्यंत नवीन संपत्तिसे युक्त अपने अपने स्थान-..
को गये ।। १०१।।
- :इसप्रकार मैंने नो यह महावीरचरित्र बनाया है वह अपनेको '. और दूसरोंको बोध देने के लिये बनाया है। इसमें पुरुरवासे लेकर ..
अंतिम वीरनाथ तक सेंतीस भवोंका निरूपण किया है ॥१०२॥ जो. पुरुष-इस वर्द्धमान चरित्रका व्याख्यान करता है और उसको सुनता - है.उसको परलोकमें अत्यन्त सुख प्राप्त होता है॥१०३॥ मौद्गल्य पर्वतका है निवांस जिसमें ऐसे . वन में रहनेवाली संपत्-संपत् नामकी
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___ अढारहवाँ सर्ग। [२७७ antaramin या संपत्तिके समान श्रेष्ठ श्राविकाके, अथवा मौद्गल्य पर्वतपर है निवास जिसका ऐसी वनस्थ संपत सच्छविकाके ममत्व प्रकट करनेपर-उसके कहनेसे भावकीर्ति मुनि नायकके पादमूलमें संवत् ९१० में मैंने विद्याका अध्ययन किया और चौड़ देश विरला नगरीमें श्रीनाथके जनताका उपकार करनेवाले पूर्ण राज्यको पाकर जिनोपदिष्ट आठ ग्रंथोंका निर्माण किया ॥ १०४ ॥
इस प्रकार अशग कविकृत वर्दमान चरित्रमें महापुराणोपनिषदि ... भगवनिर्वाणापगमन नामक अवारहवा सर्ग अमात हुआ।
श्रीमहावीरवरित्र समाप्त ।
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श्री महावीराष्टक स्तोत्र
SHERPER 42. **
(१) नित जीव भाव अजीव जिनके, मुकुर सदृश ज्ञानमें । उत्पाद धौव्य अनन्त व्यय सम, दीखते शुभ मानमें || आकाशमणि ज्यों लोक साक्षी, मार्ग प्रकटित करनमें । श्री वीरस्वामी मार्गगामी, हों हमारे नयनमें ||
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(२) हैं पद्मयुगसे नेत्र जिनके स्पंद क्रोधादिक नहीं । करते जनोंको प्रकट है, क्रोधादि चितमें हैं नहीं || अत्यन्त निर्मल मूर्ति जिनकी, शान्तमय हो स्फुरण में । श्री वीरस्वामी मार्गगामी, हों हमारे नयनमें !!
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(३) नमती हुई स्वर्गेन्द्र पंक्ति मुकुटमणि छवि व्याप्त हैं । शोभित युगल चरणान्न जिनके मानदोंके आप्त मवच नाशनके लिये हैं, शक्य पाथ स्मरणमें । श्री वीरस्वामी मार्गगामी, हों हमारे नयनमें || (४)
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मंडूक इह हर्षित. हृदय हो, नासु पूजन मावसे । गुणवृन्दशाली स्वर्ग पहुंचा, सुख समन्वित चावसे ॥ सद्भक्त शिवख वृन्दको किमु प्राप्त करते शरणमें ।
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श्री वीरस्वामी मार्गगामी, हों हमारे नयनमें ॥
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.. कंचन प्रमा भी तप्त निनके, ज्ञान निधि हैं गत तनु ।
सिद्धार्थ नृपवरके तनय हैं, चित्र आत्मा मी ननु । श्रीयुक्त और अजन्म गति मी, चित्र हैं मन नशनमें । .श्री वीरस्वामी मार्गगामी, हों हमारे नयनमें ॥
.., . (६) : . विमला विविध नय उर्मियोंसे, भारती. गंगा यही।
ज्ञानाम्मसे इह मानवोंको, स्तपित करती है सही ।। बुधजनमरालोंसे अमी, संतप्त है इह मुवनमें ।
श्री वीरस्वामी. मार्गगामी, हो हमारे नयनमें ॥
त्रिभुवन विनेता काय योद्धा, वेग जिसका प्रबल है।
सुकुमार कोमल उम्रमें, नीता स्व बलसे सबल है । वह प्रशम पदके राज्यको, आनन्द नित्य स्मरणमें।
" श्री वीरस्वामी. मार्गगामी, हों हमारे नवनमें ।
हैं वैद्य मोहातङ्कको, कश्चित् महा प्रशमनपरः ।
अनपेसबन्धु विदितमहिमा, और श्री मंगलकरः । • मन्त्र मीत साधु- प्राणियोंका, श्रेष्ठ गुण हैं शरणमें ।
श्री वीरस्वामी मार्गगामी, हों हमारे नयनमें ॥
.
सतीशचन्द्र गुप्ता सरत!
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*********** *** दिगंबरजैनपुस्तकालय-सूरतके
हिन्दी जैन् सुन्न । * श्रीमहावीरचरित्र (अशग कवि कृत) .. १) श्री श्रीश्रेणिकमहाराजका बृहत् चरित्र : १) * सागारधर्मामृत टीका (पं आशाधर कृतं पूर्ण) २. *.
श्रीश्रीपालचरित्र (नंदीश्वर व्रत माहात्म्य). .) सोलहकारण धर्म (षोडशकारण व्रतके लिये ..
उपयोगी) १) दसलक्षणधर्म (प!पण पर्वमें खास उपयोगी) * जंबूस्वामी चरित्र
हिन्दी भक्तामर और प्राणप्रिय काव्य * प्रातः स्मरण मंगल पाठ 26 श्री जिनचतुर्विंशति काव्य
समाधिमरण और मृत्यु महोत्सव ) पुत्रीको भाताका उपदेश (ससुराल नाते समय) -11) 3
और इ) सैकड़ा * दर्शनपाठ (पाठशालाके लिये उपयोगी) * आलोचना पाठ और भाषा सामायिक पाठ-) * भक्तामर तत्वार्थ सूत्र (भाषा सामायिक पाठ सहित)
मिलनेका पता* मैनेजर, दिगम्बरजैन पुस्तकालय-सूरत । *** ************
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