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- पहला सर्गः । -
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था । तथापि यह आश्चर्य है कि उससे शत्रुओं की, त्रियोंके मुखरूप चंद्रमा अति मलिन हो जाते थे ॥ ४२ ॥
इस नन्दिवर्धन राजाकी प्रियांका नाम वीरवती था । वह ऐसी मालूम पड़ती थी मानों कान्तिकी अधिदेवता हो, लावण्यरूपी महासमुद्रकी वेला (तरङ्ग - सीमा) हो, अथवा कामदेवकी मूर्तिमती विजयलक्ष्मी हो ॥ ४३ ॥ जिस तरह विजली नवीन मेचको विभूषित करती है, अथवा नवीन मंजरी आम्रवृक्षको विभूषित करती है, यद्वा फैलती हुई प्रभा निर्मल पद्मराग मणिको विभूषित करती है,. उसी तरह यह विशालनयनी भी अपने स्वामीको विभूषित करती थी ॥ ४४ ॥ ये दोनों ही पति पत्नी सम्पूर्ण गुणोंके निवास स्थान थे, और परस्पर के लिये - एक दूसरेके लिये योग्य थे, अर्थात् पति पत्नी के योग्य था और पत्नी पतिके योग्य थी। इन दोनोंको विधिपूर्वक बनाकर विधिने भी निश्चयसे कुछ दिनके बीत जानेपर किसी तरहसे इन दोनोंकी सृष्टिका प्रथम फल देखा | भावाथ - नंदिवर्धनकी प्रिया वीरवतीके गर्मसे कुछ दिनके बाद प्रथम पुत्रकी उत्पत्ति हुई ॥ ४५ ॥ जिस तरह प्रातः काल पूर्वदिशामें प्रतापके पीछे २ गमन करनेवाले सूर्यको उत्पन्न करता है। उसी तरह उस राजाने भी रानीके गर्भ से प्रफुलित पद्माकरके समान सुंदर चरणोंके धारक और जगतको प्रकाशित करनेके लिये दीपकके समान पुत्रको उत्पन्न किया ॥ ४६ ॥ जिस समय उस पुत्रका जन्म हुआ उस समय आकाश निर्मल हो गया, सम्पूर्ण दिशाओंके साथ में पृथ्वीने भी अनुरागको धारण किया, कैदियों के बंधन स्वयं छूट गये, और सुगन्धित - वायु मंद २ बहने लगी ||४७ ॥ राजाने पुत्रके नन्मके दिनसे दशमे दिन
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