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________________ सत्र वा सर्ग। . [ १९९ उसी समय देवोंकी बनाई हुई दुमियोंका मन्द्र मन्द्र शब्द मी आकाशमें होने लगा।।१२२ ।-नवीन पारिजातके (हारगारके) पुष्पोंकी गंधको फैलाती हुई वायु-दिशाओंको सुगंधित करती हुई अच्छी तरह वहने लगी । अत्यंत विस्मित हो गया है चित्त जिनका ऐसे देवोंके : अहो, इस तरह के दानके वचनोंसे. अर्थात् दानकी प्रशसा सूचक शब्दों से आकाश पूर्ण हो गया ॥ १२३ ॥ इमप्रकार दानके फलसे उस राजाने देवोंसे पात्र आश्चर्योको प्राप्त किया । गृहधर्म के पालन करनेवालोंको पात्रदान यश, सुख और संपत्तिका कारण होता है ॥ १.२४ ॥ . एक समय भगवान् अतिमुक्तक नामके स्मशानमें रात्रिके समय प्रतिमायोग धारण कर खड़े हुए थे उस समय भव नामकेरुद्रने अपनी अनेक प्रकारकी विधाओं के विभक्से व त कुछ उपसर्ग क्रिये पर वह उन विभव-संसाररहितको जीत न सका ॥ १२५॥ तब उन निन नायको बहुत देर तक नमस्कार करके उस.भव नामक रुद्रने काशीमें अत्यंत हर्षले वीर भगवानका अतिवीर और महावीर ये नाम रक्खे ॥ १२६ । इस प्रकार नाति और कुल रूप निर्मल आकाशमें चंद्रमाके समान तथा तीन लोरके अद्वितीय बंधु भगवानने परिहार विशुद्धि संयमके द्वारा प्रकटतया तर करते हुए बारह वर्ष विता 'दिये ।। १२७ ।।.:. . . : '. एक दिन ऋजुकूश नदी किनारे पर बसे हुए, श्री जृम्भक नामके ग्राम में पहुंचकर अरह समय अच्छी तरहसेठो वासको धारण कर साल वृसके नीचे एक चट्टानपर.अच्छी तरह बैटका निानाथने वैशाख शुक्ला. दशमीको ना कि चंद्र' सूर्यके अपर था ध्यान
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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