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महावीर चरित्र । इसी भरतक्षेत्रमें कुलाचलके सरोवरसे हिमवान् पर्वतके पादहस उत्पन्न होनेवाली गंगा नामकी नदी है। वह अपने फेनोंसे ऐसी मालूम पडती है मानों दूसरी निम्नगाओंकी हसी कर रही है |१३|| . उसके उत्तर तट पर वराह नामका पर्वत है । जो अपने शिखरोंसे . आकाशका उल्लंघन कर चुका है। जिससे ऐसा मालुम होता है मानों यह स्वर्गको देखनेके लिये ही खड़ा है ॥ १४॥ हे राजेन्द्र ! इस भवसे पहले नौगे भवमें तू उसी पर्वतरर मृगेन्द्र सिंह था । बड़े २ मत्त हस्तियोंको त्रास दिया करता था ॥१५॥ वाल चंद्रपाकी सा करने वाली डाढोंसे वह विखाल मुख भयंकर-विकराल मालूम पड़ता था। कंधेपर जो सटाएं थीं वे दावानलकी शिखाके समान पीली और टेढ़ी थीं ॥ १६ ॥ भौंरूपी धनुपसे भयंकर, पोले जाज्वल्यमान उल्काके समान नेत्र थे। पूंछ उठानेपर वह पीठको तरफ लौट जाती थी और अंतका भांग कुछ मुड़ जाता था। तब ऐसा मालूम पड़ता था कि मानो इसने अपनी ध्वना ऊंची कर रक्खी हो ॥ १७ ॥.. शरीरके अत्युन्नत-विशाल पूर्वभागसे मानो. आकाशपर आक्रमण । करना चाहता है ऐसा मालूम पड़ता था । स्निग्ध चंद्रमाकी किरणोंके पड़नेसे खिले हुए कुमुदके समान शरीरकी छवि थी ॥१८॥ उस पहाड़की: शिखर पर नो मेवःगर्नते थे उनपर क्रोध करता और अपनी गर्जनासे उनकी तर्जना करता था, तथा वेगके साथ उछल . . २. कर अपने प्रखर नखोंसे उनका . विदारण · करता था ॥१९॥ जबतक हस्ती भाग कर पर्वतकी. किसी कुंनमें नहीं घुस जाते तबतक उनके पीछे भागता ही जाता था। इस प्रकार : स्वतन्त्रतासे उस पर्वतपर रहते हुए उस सिंहको बहुत काल वीत गया ॥२०॥