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आठवां सर्ग ।
[ १०९ दूत मौन धारणकर बैठ गया; तंत्र त्रिपिष्टने बलसे कहनेके लिये विनयपूर्वक अखिके इशारसे प्रेरणा की । और उसने भी शत्रुके विषय में अपनी भारती को इस तरह प्रकट किया ॥ २९॥ अर्थशास्त्रनीतिशास्त्रसे जो मार्गविहित - सिद्ध-युक्त है उसी मार्गसे जिसमें
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इष्टको साधा गया है ऐसे ओजस्वी वचनोंका तुम्हारे सिवाय और कौन ऐसा है जो समामें कहनेका उत्साह कर सके। ये वचन दूसरोंके लिये दुर्वच ( दुःखसे कहे जा सकने योग्य, दूसरी पक्षमें खोटे वचन ) हैं ||२६|| अश्वग्रीवको छोड़कर सत्पुरुषोंका वल्लमतथा व्यवहार कुशल और कौन कहा जा सकता है । पर ऐसा होकर भी वह नियमसे किक क्रियाओंको नहीं जानता । अथवा ठीक ही है- जगत् में ऐसा कौन है जो सब बातोंको जानता हो ॥२७॥ जगतमें जो को वर लेता है वही उसका नियमसे वर समझा जाता है। और वहीं क्यों समझा जाता है। इसका निश्चित कारण भाग्य ही माना गया है । ऐसा कोई भी शक्तिधारी नहीं है जो उम देवका उल्लंघन कर सके ||२८|| तुम्हारा मालिक नीतिरहित काम करनेपर उतारू हुआ है, मला तुम तो समझदार हो और सज्जन भी हो तुमने उसको क्यों नहीं रोका ? अथवा भाश्चर्य है कि विद्वान् लोग भी अपने मालिक के मतको - चाहे वह खोटा ही क्यों न हो - निश्चित मान लेते हैं ||२९|| पूर्व पृण्यके उदयसे अनेक प्रकारकी मनोहर वस्तुएं किसको नहीं मिल जाती ? फिर
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१. मूलमें वर्त्मना - साधितेष्टम् ' ऐसा पाठ है। इसमें 'असाधितेम' ऐसा भी पदच्छेद हो सकती है। जिससे यह अर्थ भी हो जाता है के जिसमें इष्टको नहीं साधा गया है।
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