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पांचवां सर्ग ...
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कर दिया तब विवश होकर वह किसी अद्वितीय रक्षास्थानकी चिंता करने लगा || ८५ ॥ कुमारने नवीन कमलनालके तंतुकी तरह उस मृगराजका विदारण करके उसके रूधिरसे जगत् में जो संताप बढ़ रहा था उसको शांत कर दिया। जिस तरह मैत्र जलके द्वारा जगत्के तापको शांत कर देता है। उसका वह खून जगत्को तृप्त करनेवाला था ॥ ८६ ॥ जो महा पुरुष होते है वे नियमसे अपने बड़े भारी साहससे भी हर्षित नहीं होता । यही कारण हुआ कि जिसका कोई भी दूसरा वध नहीं कर सकता था ऐसे सिंहका वध करके भी वह हरी - नारायण पढ़वीका धारक - राजकुमार निर्विकार ही रहा ॥ ८७ ॥
एक दिन हरिने अपने दोनों हाथोंसे उस कोटिशिलाको भी लीला मात्र में ऊपरको उठाकर अपना पराक्रम प्रकट कर दिया, नोकि बलवानोंकी अंतिम कसोटी है। भावार्थ - साधारण पुरुप कोटिशिला को
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नहीं उठा सकता, जो नारायण होता है वही उठा सकता है, और वही उठाता है इसलिये वह उनके वरपरीक्षाकी कसौटी है ॥ ८८ ॥ विजयपताकाओं से सूर्यकी किरणोंको ढकता हुआ, तथा अनुरागमें लीन बालकों के भी द्वारा गाये गये अपने यशको सुनता हुआ वह कुमार वहांसे लौटकर नगर में आगया ॥ ८९ ॥ विजयके छोटे भाई. इस विनयी राजकुमार ने शीघ्र ही राजघर में जहांपर अनेक तरहका मंगलाचार हो रहा था. प्रवेश कर चंचल शिखामणिसे भूषित शिरको नमाकर पहले विजयको और पीछे - विजयके साथ साथ
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जाकर महारानको नमस्कार किया. ॥ ९० ॥ राजाने पहले तो हर्षके आंसुओंसे मरे हुए दोनों नेत्रोंसे उनका अच्छी तरह
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