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४२ ] - महावीर चरित्र । मेरे पुण्यका. दीपक बुझ गया है, आज मैं अंधकारसे क गया है। ॥ १०३ ॥ विभ्रम-विलास करनेवाली दिव्य देवाशनाओंसे पृजित । स्वर्ग! मैं अत्यंत दुःखी और निराश्रय होकर गिर रहा हूं, हा! क्या तू मी मुझे आधार न देगा? ॥ १०४ || मैं किसकी शरण : लूं, क्या करूं, मेरी क्या गति हो होगी अथवा किस उपायसे . में असलमें मृत्युका निवारण कर॥१०शा हाय! हाय! शरीरका साहनिक-स्वाभाविक लावण्य भी न मालुम कहां चला गया। अथवा ठीक ही है-पुण्यके क्षीण होनेपर कौन अलग नहीं हो जाता ॥ १०६ ॥ प्रेमसे मेरे कंठका गाढ़ आलिंगन करके हे कृशोदर ! मेरे शरीरसे जो ये प्राण निकल रहे हैं उनको तो रोक ॥१०॥ करुगाके आंसुओंसे पूर्ण दोनों नेत्रोंसे अपने कष्टको प्रकाशित कर . उसकी दिव्य अङ्गनाएं उसको देखने लगी, और उनके देखते २ही वह उक्त प्रकारसे विलाप करता २ स्वर्गसे सहसा गिर पड़ा। मानों मानसिक दुःखके मारकी प्रेरणासे ही गिर पड़ा हो ॥ १०८॥
. जिसके बड़े भारी पुण्यका अस्त हो गया एवं जिसकी आत्मा मिथ्यात्वरूप दाहन्वरसे विह्वल रहती थी वह मारीचका जीव वहांसे उतरकर दुःखोंको भोगता हुआ स और स्यांवर योनिमें चिरकालतक भ्रमण करता रहा ॥१०९॥ कुयोनियों में चिरकालंतक
भ्रमण कर किसी तरह फिरभी मनुप्य भवको पाया; परन्तु यहां भी पापका • भार अद्मुत था। सो ठीक ही है-अपनर किये हुए कौके पाकसे यहं नीव संमार में किस चीनको तो पाता नहीं है, किसको छोड़ता नहीं है, और किसको धारण नहीं करता है ।।११०॥ भारतवर्षकी लक्ष्मीके क्रीडाकमल रानगृह नगरमें सांडिल्यं नामका ब्राह्मण रहता