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१८. ] महावीर चरित्र : : गौओंके खुरोंसे उठी हुई गधेके वालोंके समान धूम्रवर्णवाली धूलिसे आकाश रुंध गया-व्याप्त हो गया। मानों वह सत्रका सब आकाश चक्रवाक युगलको दाह उत्पन्न करनेवाली कामदेवरूप अग्निसे : उठते हुए सांद्र निविड़-घने धूमके पटोसे ही आछन्न हो गया हो ॥ ४६ ॥ इसी समय सांद्र विनिन्द्र चेलाकी अधखिली कलियों की शीतल गन्धसे युक्त सायंकालकी वायु भ्रमरोंके साथ साथ :: मानिनियों को भी अंधा बनाती हुई मंदमंद वहने लगी.॥४७॥ क्रीड़ाके द्वारा शीघ्र ही कोकिनके सराग वचन कानके निकट मा कर प्राप्त हुए। आम्रगलाकी तरह उसने भी मानिनियों के मुखको शोभा विचित्र ही बढ़ाई ।। ४८ ॥ जो अवकार दिमें दिननाथसूर्यके भयसे पर्वतोंकी बड़ी बड़ी गुफाओं छिी गुण था वहीं अन्धकार सर्यके जाते ही बहने लगा । जो मलिन होता है. वह : रन्ध्रको पाकर बलवान हो ही जाता है ॥ ४९॥ अधकारके सपन । 'पटलोंसे प्राप्त हुआ नात भी चिरकुल काला पड़ ग. । विदलित' : की है अननंकी प्रभाको जिपने ऐसे अंधकारके.साथं हुआ. योगसम्बन्ध-श्री-शोमाके लिये थोड़े ही हो सकता है ।। ५० नो.
प्रकाशयुक्त हैं उनका अविषण, निऽकी गति कष्टसे भी नहीं मा.. लूम हो सकती है, जिसने सीमा-पर्यादाको छोड़ दिया. है: ऐसे...
तथा. सड़को अपने समान बनानेवाले मलिनात्मा अंधकार-समूहने । दर्जनकी वृत्तिको धारण किया ।। ५१ ॥ रत्न दीपकों के समूहन गाढ़ अन्धकारको महलोंसे दूर भगा दिया। मालूम हुभाः मानो मर्यके अंकारको नष्ट करनेके लिये अपने करांकुरका दंड ही भेजा है ॥:५२ ॥ छिगलिगा है रूपको जिन्होंने तथा रक्त (आशक्तः ।