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चौदहवाँ सर्गः ।
[ १९१ तथा रंजाई आदिके साथ रत्न कम्बलादिको देती है ॥ ३२ ॥ मा-: णत्र निधि, अनुगत है लक्षण और स्थिति जिनकी ऐमे दिव्य हथियारोंके दुर्गे कवच शिरोधर्म ( शिरपर लगनेका कवच ) आदिक प्रसिद्ध अनेक भेदोंको मनुष्योंके लिये देना है ।। ३३ ॥ सर्व रत्ननिधि, रत्नोंकी आपस में मिली हुई किरणोंके जाल - समूह से आकाश में इन्द्रधनुषको बनानेवाली संपदाओंकी समग्र सामग्रीको समय लोगों के लिये उत्पन्न कर देती है ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार वर्षाऋतु चारो तरफ नवीन जलकी वर्षा करनेवाले मेत्रोंके द्वारा : मयूरों के मनोरथोंको पूर्ण करती है उसी तरह यह राजाधिराज नवीन नवनिधियोंके द्वारा लोगोंके समस्त मनोरथों को अच्छी तरह पूर्ण करता था. ॥ ३५ ॥ जिस प्रकार नद-नदियोंके द्वारा बड़े भारी जनसमूह को भी प्राप्त करके समुद्र निर्विकार रहता है उसी तरह उसने भी नवनिधियोंके द्वारा दिये गये अपरिमित द्रव्यसे उद्धाता धारण न की । जो धीर हैं उनके लिये, वैभव विकास कारण नहीं होता है ॥ ३६ ॥ इस प्रकार दशinsोगोंको भोगते हुए भी तथा अत्यंत नम्र हुए देवों तथा राजाओंसे वेष्ठित रहते हुए भी उसने अपने हृदयसे धर्मकी आस्थाको शिथिच न क्रिया । जो महानुभाव हैं वे वैभवसे मोहित नहीं होते ||३७|| राजलक्ष्मी से अत्यंत आशिष्ट रहते हुए भी वह राजेन्द्र प्रशमरतिको ही सुखकर मानता हुआ । जिन्होंने सम्यग्दर्शन के प्रभावसे महान संपत्तिको पाया है उनकी निर्मल बुद्धि कल्याणकारी विषयोंको नहीं छोड़ती ||३८| विषय सुखके अमृत से भरे हुए विस्तिर्ण समुद्र में निमग्न है चित्त जिपका ऐसे उस चक्रवर्तीने
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