________________
२४ ]
महावीर चरित्र । विचित्र रत्नोंकी दीप्तिमान् किरणोंके द्वारा इन्द्र धनुपका मंडलं बन गया था ॥ ३१ ॥ उस समय नंदिवर्धन राजा दूसरे राजाओंसे जो कि शिर नवाये हुए और हाथ जोड़े हुए खड़े थे मंत्रियोंक साथ इस प्रकार बोला । ' मैं जाता हूं, परन्तु अपने हाथकी निशानीके तौर पर अपने पुत्रको आप महात्मागोंके हाथमें छोड़े जाता हूं। ॥३२॥ उस समय रुदनके शब्दोंका अनुसरण करनेवाली बुद्धि
और दृष्टिको आगे रखकर, तथा स्त्री, मित्र, स्थिर-बंधु बांधवास यथायोग्य पूछकर, राजा नंदिवर्धन बरसे बाहर हो गयां ॥ ३३ ॥ पांचमी गतिको प्राप्त करनेकी इच्छासे नंदिवर्धनने पांच सौ राजाओंक साथमें पिहिताश्रव मुनिके निकट दिक्षा ग्रहण की। और . ज्ञानावरण आदि आठ उद्धत कर्मों पर विजय प्राप्त करनेके लिये निरवद्य चेष्टा करने लगा ॥ ३४ ॥ आत्मकल्याणके लिये चले जानेसे अपने श्रेष्ठ पिताका जो वियोग हुआ उससे पुत्रको विपाद हुभा :वह दुःखी होने लगा । ठीक ही है सज्जनोंका वियोग होनेसे संसारकी स्थितिको जाननेलाले विद्वानोंको भी संताप होता ही हैं॥३५॥ पिताके वियोगसे व्यथित हुए नंदनको मंत्री सेनापति
आदि समस्त लोगोंकी समा दूसरी अनेक प्रकारकी कथा करके प्रसन्न करती हुई। ठीक ही है, महापुरुषोंके सुखके लिये कौन चेष्टा नहीं करता है। सभी करते हैं । ॥३६॥ समाने महाराजसे कहा कि "हे राजन् ! इस प्रनाका नाथ चला गया है। इसलिये अब आप विषादको छोड़कर प्रजाको आश्वासन दीजिये। जो कापुरुष होते हैं वे ही शोक्के वश होते हैं। किन्तु जो धीरबुद्धि हैं वे कमी उसके अधीन नहीं होते ॥३७ । इसलिये हे नरेन्द्र आप अपनी इच्छा