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अढारहवाँ संर्ग। [२६७ थी मानों अंधकारको नष्ट करनेवाली ज्योत्स्ना ही दिनमें प्रकट हो गई है। सुननेमें सुखकर-मधुर मालूप होनेवाला दुन्दुमिके शब्द
आंकाशके अन्तर्गतः तीनों लोकों व्याप्त होगया । जान पड़ा मानों 'निनपतिका दर्शन करनेके लिये तीन लोकमें रहनेवाले भव्योंको बुला रहा हो ॥.४४ ॥ मेघ मार्गपर आक्रमण करनेवाले अनेक विटपों
आसपासके छोटे छोटे वृक्षों से दिशाओंके मध्यको रोका हुआ 'अत्यंत पवित्र रक्त वर्णका अशोक वृक्ष था जिसके तल भागमें देवगग 'निवास करते थे। अनेक पुष्पों तथा नवीन पल्लवोंसे सुभा-सुंदर वह ऐसा. जान पड़ता मानों स्वयं मूर्तिमान् वसंत हो । अथवा निनपतिके दर्शन करनेके लिये कुरु-देवकुरु और उत्तर कुरुके वृक्षोंकल्पवृक्षों का समूह एक होकर आ गया है ॥४५॥ उस भगवान्के चन्द्रद्युतिके समान शुभ्र, निरंतर भव्य समूहको राग उत्पन्न करनेवाले तीन.लोककी स्वामिताके चिन्हभूत तीन छत्र शोभायमान थे । जो ऐसें जान पड़ते थे मानों अपनी प्रभाकी प्रसिद्धिके लिये तीन वि'भागोंमें विभक्त हुए क्षीरसमुद्रके जलको देवोंने आकाशमें चन्द्राकार बनाकर तर ऊपर-एकके कार दूसरा और दुमरेके जार तीमग इस. क्रमसे रख दिया है।॥ १६ ॥ दो यक्ष उस प्रमुकी चमरोंके व्याजसे सेवा करते थे। जान पड़ता' मानों दिनमें दृश्यरूपको प्राप्त हुई। ज्योत्स्नाकी कंपनी हुई दो तरंगे हैं। भगवान् के शरीरका मंडन भामंडल था जिसमें मन्यसमूह अपने. अनेक पूर्वजन्मोंको इस तरह, देखते थे जैसे रत्नोंके दर्पणमें ॥ ४७ ॥ उस जिनपतिका सुर्वणका वना हुआ उन्नतं प्रकाशमान सिंहासन था जो मेरुकी शिखरके समान मालम पड़ता था। उसकी सुरं असुर तथा मनुष्य सदा सेवा