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: पन्द्रहवाँ सर्ग ।
[ २२७ काय नहीं है। सर्वज्ञ देव लोककें बाहर के क्षेत्रको धर्मास्तिकाय आदिसे रहित होनेके कारण लोक कहते हैं । भावार्थ - अलोक में -गमन करनेका सहकारी- कारण धर्म क्रय नहीं है इसलिये सिद्ध भगवान् वहाँ गमन नहीं कर सकते हैं ॥ १९९ ॥ वर्तमान और मनसे सम्बन्ध रखनेवाली दो नयों वळसे नयक सम्यग्ज्ञाताओंन सिद्धों में भी क्षेत्र, काल, चारित्र, लिंग, गति, तीर्थ, अवगाह, “प्रत्येक बुद्ध, बोधित, ज्ञान, अन्तर, संख्या, अल्पबहुत्व, इन कारणोंसे भेद माना है । भावार्थ- वर्तमान में सिद्धांका जो क्षेत्रादिक है 1 "वह पूर्वकाल में न था इसी अपेक्षासे उनमें परस्पर में भेद है । १९२ ॥ इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्ने समामें विधिपूर्वक उस चक्रवर्तीको -नव पदार्थों का उपदेश देकर विराम लिया । भगवान्की गो ( वाण े चंद्रमा पक्ष किरण ) के द्वारा प्राप्त किया है समीचीन बोध ( ज्ञान; दूसरे पक्ष में विक्रांश) को जिसने ऐसा वह राजा - चक्री • इस तरह अत्यंत शोम को प्राप्त हुआ जैसे पद्मधुचंद्रके द्वारा नवीन पद्म ॥ - १९३ ॥
इस प्रकार चक्रवर्तीने मोक्षमार्गको जानकर चक्रवर्तीकी दुरंत विभूतिको भी तृणकी तरह छोड़ दिया । ठीक ही है- निर्मल है जल जिसमें ऐसे सरोवर के स्थानको जानता हुआ मृग क्या फिर मृगतृष्णिका - मरीचिका में जल पीनेका प्रयत्न करता है ? ॥ १९४ ॥ अपने बड़े पुत्र अरिंजयको प्रीतिपूर्वक समस्त राज्य देकर सोलह हजार राजाओंके साथ क्षेमंकर जिराज आचार्यके पास नाकर अपने कल्याणके लिये भक्तिपूर्वक दीक्षा धारण की ॥ १९५ ॥ मन शुद्ध प्रशमको धारण कर वह विधि पूर्वक चोर किंतु समीचीन
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