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अद्वारहवाँ सर्ग। ininema
[ २७१ मी नव पदार्थ हैं । और दोनों ही महान्, निर्मल, निरुपम, तथा निवृत्तिकै कारण हैं ॥ ६४ ॥ हे स्वामिन् ! आपने धैर्य से समुद्रको, महत्वंसे आकाशको, समुन्नति कनकाचर-मेहको, कांतिस सूर्यको, समासे पृथ्वीको, और प्रशमसे चन्द्रमाको जीत लिया है ।। ६५ ॥ हैं जिनेश! क्रिपथ्यकी युति के धारण करनेवाले आपके चरणयुगल ऐसे जान पड़ते हैं म.नों पवित्र समाधिक बलसे निको हृदय निकाल दिया था इसी राँगका ये वमन कर रहे हैं ॥ ६६ ॥ हे जिन! ये मक्ति करनेवाले लोकं आपकी दिश्वनिको सुनकर . अत्यंत हर्षित होते हैं। नवीन मेवोंकी महान् ध्वनि क्या मयूरोंको
आनन्दित नहीं कर देती है ? १७ ॥ जो मनुष्य आपके निमन गुणोंको हृदयसे धारण करता है उसको पाप स्वमावसे ही छोड़ देता है । रात्रि में पूर्णचन्द्रकी किरणों से युक्त हुआ सुत्मार्ग क्या अंधारसे लिम होता है ? ॥६॥ हे जिन ! यह अनंत ऋष्ट का वैभव आपके सिवाय और किसीक भी नहीं पाया जाता । तीर । समुद्र सपान क्या जगतमें कोई दूसरा और मी स्मुद्र है जो कि सुवामय नको धारण करता हो । ६९ ॥ जिस प्रकार कुमुदिनी कुमुद्रपति-चंद्रमांक पादों-किरणांको पाकर विशद बोधको प्राप्त हो। जाती है उसी तरह हे जिनेश्वर ! अतासे अन्वित तया आपके .पार्दा चरणोंकी आधित हुई यह मन्य समा विशद बोधपय परम "सुखको प्राप्त हो रही हैं या होनाती है ।। ७० ॥ हे जिन! नित प्रकार भ्रपर बौराए-फूले हुए अमकी सेवा करते हैं उसी प्रकार जो गुणविशेषके जानकार हैं. वे अपने मुखकी इच्छासे आपकी खूब ही उपासना करते हैं ! ठीक ही है-त्राणिगण अपने उपकार