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: पहला सर्ग। [३ मोक्षमार्गरम रसत्रयको. नमत्कार करते है
मैं उस उत्कृष्ट परम पवित्र रत्नत्रय (सम्यदार्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र)को नमस्कार करता हूं जो कि तत्त्वका एक पात्र है,
और दुष्कर्माके छेदन करनेके लिये अस्त्र है, तथा मुक्तिरूप लक्ष्मीका मुक्तामय ( मोतियोंका बना हुआ) हार है। और जो अमूल्य होकर भी आत्महित करनेवाले भन्योंके द्वारा दत्तार्थ है । भावार्थयहां विरोधामास है। वह इस प्रकार है कि रत्नत्रय अमूल्य होकर भी दत्तार्थ ( मूल्यवान् ) हैं । यह विरोध है। क्योंकि जिसका मूल्य हो चुका उसको अमूल्य किस तरह कह सकते हैं ? इसका परिहार इस प्रकार है कि रखत्रय आत्महित करनेवालोंके लिये दत्तार्थ है
उनके समस्त प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाला है । अतएव वह अमूल्य "भी है । जो रत्नत्रयको धारण करते हैं वे मुक्तिरूप लक्ष्मीके गलेके हार होते हैं वे मुक्तिको प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार दूध वगैरहके पान करने के लिये पात्रकी आवश्यकता होती है, उसी प्रकार तत्त्व स्वरूपका पान करनेके लिये-उसका अवगम करनेके लिये यह रत्नत्रय अद्वितीय पात्रके समान है। जिस प्रकार किसी अस्त्र द्वारा शत्रुओंका छंदन किया जा सकता है, उसी प्रकार कर्मशत्रुओंका छेदन करनेके लिये यह रत्नत्रय एक अन है। अतएव इस उत्कृष्ट पवित्र रत्नत्रयको मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥ मंगलकी इच्छासे जिनशासनको आशीर्वादात्मक नमस्कार करते हैं
: जो.अनेक दुःखरूपी ग्राहोंसे (मकरमच्छ आदि जलजन्तुओंसे) व्यात, अतिशय दुस्तर, अनादि, और दुरन्त,-बड़े भारी संसाररूप समुद्रके:वेगमेंसे निकाल कर सम्पूर्ण भन्योंका उद्धार करनेमें
पान करने
करने के लिया है। जिस प्रकार का कर्मशत्रुओका