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________________ - बारहवां सर्ग। [१७१ गया है ऐसी अपनी कांताको छोड़कर उसी समय उन मुनिके 'निकट तपोधन-साधु होगया । जो महापुरुष हैं वै हितकर कामके सिद्ध करने में समय नहीं गमाते हैं ॥ ११ ॥ प्रमादको दुर छोड़कर आवश्यक क्रियाओं में प्रकट रूपसे प्रवृत्त हुआ। और गुरुकी आज्ञाको पाकर साधुओंके समस्त उत्तर गुणों को सदा पालने लगा ॥ १२ ॥ I.प्मऋतु में जहां पर तीन गरमीसे समस्त प्राणी व्याकुल हो उठते हैं पर्वतकै उस शिखरके ऊपर प्रखर किरणवाले सूर्यके सम्मुख मुख करके प्रशमला छत्रके द्वारा दूर की गई है उष्णता जिसकी ऐसा "वह साधु महान् प्रतिमायोगको धारण कर सदा खड़ा रहता था । ६३॥ ऋतुमें वे मुनि जो कि दोश द्विरण करनेवाले तथा उग्रनाद करनेवाले और जलधाराको छोड़कर उसके द्वारा आठो दिशाओंको स्थगित करनेवाले सघन मेघोंके कारण विजली के चमक जानसे.देखने में आते थे, वृक्षोंके मूलमें निवास करते थे ॥ ६४ ॥ मायके महीनेमें-शीतऋतुमें जब कि धर्फके पड़नसे पद्मावंड क्षत हो जाते हैं बाहर-जंगल में रात्रियोंको जब कि हवा चल रही है वे धीर मुनि धेर्या कंबल के बलसे एक करवटसे पड़कर श्रमको दूर करते थे ॥ ६॥. आगमोक्त विधिके अनुसार विचित्र विचित्र प्रकारके समस्त महा उपवासोंको करनेवाले उस मुनिका शरीर ही कृष हुआ किंतु उदारताके धारक उसका धैर्य बिल्कुल मी कृष नहीं हुआ॥६६॥ इस संसाररूप दलदलमें फसे हुएआत्माका उद्धार किस तरह करूंगा यह.विचार करता हुआ यह इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला योगी दुष्टः .योगों-मन, वचन, कायकी प्रवृत्तियों के द्वारा प्रमादको प्राप्त न हुआ । ६७ ॥ दूर होगई है शंका जिसकी-निःशंकित अंगका पालक,
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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