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तरहवा सर्ग।
[ १७१ रीर वजका-साररूर-उत्कृष्ट संहननका धारक था । बजायुध-इन्द्रके समान इसका हाय मी वज्रने भूपित रहता था ॥ १३ ॥ जिसके हृदयमें निरंतर निवास करनेवाली लक्ष्मीको देखकर और निरंतर ही 'जिनके मुख में रही हुई श्रादेवीको देखकर मानों कोप करके हो उस रानाकी कुंद पुष्पके समान धाल कीर्ति दिशाओंमें ऐसी गई जो फिर लौटी ही नहीं ॥ १४ ॥ निपका हृदय युद्धकी अभिलापाओंके वश हो रहा था ऐना यह राजा कभी भी युद्धको न देखकरें अपने उन.प्रतापके प्रारकी बड़ी निंदा करता था जिसने कि दूरसे ही समस्त शत्रुओंको नम्र बना दिया ॥ १५ ॥
निर्म-निर्दीर है कर (टेक्स; दूसरे पक्ष किरण समूह) जिका ऐसें इस रान.की कमनीय और अमिन्न पुशीला नामकी महिपी. थी। जो ऐसी मलू। पड़ी थी मानों कमलवनके बंधुचंद्रमाकी चांदनी हो ॥ १६ ॥ पृथ्वी में दूसरा कोई भी जिनके समान नहीं ऐसे वे दम्पति-त्री पुरुष परस्सरको एक दूसरेको पाकर "रहने लगे। वे दोनों ही ऐसे मला पड़ते थे मानों सर्व लोक के “नेत्रको आनंदित करनेवाले मूर्तिमान् कांति और यौवन 'ये दो. गुण हैं ॥ १७॥ वह पूर्वोक्त देव स्वर्गके सुख मोंग कर अंतमें पृथ्वीरर इन दोनों श्रीमानोंके यहां सत्पुरुषोंका अधिति अग्रगीय धीवुद्धि और अत्यंत मनोज्ञ हरिषेण नामका पुत्र हुभा ॥ १८ ॥ अपनी देवी-रानी के साथ साथ अत्यंत स्पृहा करता हुआ राना नवीन उठे हुए-(उत्पन्न हुए; दूसरे पक्षमें उदय ईए) कलाधर-चंद्रमाकी तरह किसको. प्रीतिका कारण नहीं होता है। ॥ १.९ ॥ लोक-जीवन-कर स्थितिसे युक्त तथा अनंदिनसत्व