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________________ 'चौथा सर्ग। rrrrrrrrn.in.vomwwwm विशाखनंदी दोनोंमें समान-वृत्ति-मध्यस्थ हैं ।।६३|| इस वातको जानकर और भयंसे कुछ शंकित हो कर यह लोकसमूह जल्दी २ भाग रहा है। हे देव ! जिस तरहकी बात लोगों में उड़ रही है यह वही बात मेंने कही है, इसके सिवाय मैं और कुछ नहीं जानता ॥६॥ 'अनिरुद्धके ये वचन सुनकर कुछ विचार करके विश्वनंदी गंभीर शब्दोंमें बोला-" निस कामके करनेमें मेरी चित्त-वृत्तिको 'लज्जा आती है, देखता हूं कि विधाता उसीको लेकर आगे खड़ा हुआ है ॥६५॥ यदि मैं लौटकर पीछा जाता हूं तो यह निर्भय सेवक नहीं लौटता है। यदि मैं मारता हूं तो लोकमें अपवाद होता है। अब आप इन दोनोंमेंसे एक काम बताइये कि कौनसा करना चाहिये या कौनसा न करना चाहिये ॥६६॥ जब विश्वनंदीने मंत्रीसे यह प्रश्न किया तब वह स्फुट शब्दों में इस तरह वोला"हे नर नाथ ! जिस काम करनेमें वीर, लक्ष्मी विमुख न हो बस एक .वही काम करना चाहिये ॥ ६७ ॥ पहले भी यह बात सुनकर कि विशाखनंदीने आपके बनको छीन लिया है, आप उससे विमुख न हुए । किंतु इस समय वह भाप ही के बनको छीन कर और जबर्दस्तीसे आपको मारनेकी मी चेष्टा करता है !!६८|| अथवा यह भी एक बड़ा आश्चर्य है कि ऐसे शख्सपर भी आपको क्रोध उत्पन्न क्यों नहीं होता! लोकमें यह देखा जाता है कि यदि कोई वृक्ष अत्यंत उद्धत हो और वह अपने मार्ग प्रतिकूल पड़ता हो तो उसको नदीका वेग उखाड़ डालता है ।। ६७ ॥ शत्रु अपना बहुत पराभव करता हो; किंतु उसपर जो मनुप्य अपने पौरुपका उलया प्रयोग करता हो-जिस तरह अपने पौरुपको काममें
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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