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चौदहवा सर्ग। . [ १९३ अपनी आस्थाको शिथिल नहीं करना चाहता है तो उसकी इस मूद प्रकृतिको धिक्कार है ॥ ४५ ॥ सेवन किये हुए इन्द्रियों के वि- पयोंसे तृप्ति नहीं होती, उनसे.तो और भी घोर तृा ही होती है।
तृषासे दुःखी हुआ नीव हित और अहितको कुछ नहीं जानता । इसीलिये यह संसार दुःखरूा और आत्माका अहि कर है ।। ४६ ॥ यह जीव संसारको कुशलतासे रहित तथा जन्म जरा-वृद्धावस्या और मृत्यु . स्वभावंबाला स्वयं जानता है प्रत्यक्ष देखता है और सुनता है तो भी यह आत्मा भ्रांतिसे प्रशममें कभी स नहीं है .४.७. ॥ लेशमात्र सुखके पानेकी इच्छ.से इन्द्रियों के वशमें पड़कर पापकार्यमें फंस जाता है किंतु परलोकमें होनेवाले विचित्र दुःखोंको विल्कुरे नहीं देखा है । जीवों का अहितमें रति करना स्वभाव हो गया है ।। ४८ ॥ समस्त सम्पदाथै विमलोकी तरह चंचल हैं। तारुण्य-यौवन तुंगों में लगी हुई अग्निकी दीप्तिके समान है। जिस तरह फूटे घड़े में से सारा नल निकल जाता है उसी तरह क्या मनुप्योंकी समस्त. आयु नहीं गल जाती है ? ॥ ४२ ॥ बीपत्त, स्व. म वाले ही विनश्वर, अत्यंत दुःपूर, अनेक प्रकारके रोगों के निराप्त करनेका घा, विष्ट, मूत्र, राद वगैरहसे पूर्ण जीर्ण. वर्तनके समान शरीरमें कौन विद्वान् बन्धुताकी बुद्धि करेगा ॥ ५० ॥ इस प्रकार । हृदयसे संसार-परिस्थितिकी निश.करके मोक्ष मार्गको जाननेकी है इच्छा जिसकी तथा प्रस्थानकी भेरी बनवाकर बुला लिया है भन्योंको जिसने ऐसे भूगालने उसी समय जिनमगवान्की बंदना करनेके लिये स्वयं प्रस्थान किया ।। ५.१ ॥ और सुरपदवीके समान तारता (1) मम पूर्णचन्द्र लक्ष्मीवाले जिनेन्द्र भगवान्के चारो .