Book Title: Mahavira Charitra
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 292
________________ २७२ ] महावीर चरित्र। करनेवाले के पास भी नहीं फटकते ॥ ७१ ॥ हे तीन जगत्के ईश! भूपण वेष और परिग्रहसे रहित आपका शरीर बहुत ही सुंदर. मालूम होता है । जिसमें सूर्य, चन्द्र और ताराओं में किसीका भी उदय नहीं हुआ है ऐसा आकाश क्या मनोहर नहीं लगता है ? ॥ ७९ ॥ प्राणियोंकी दृष्टि, नवीन खिला हुआ महोत्पल, निर्मलजलसे पूर्ण सरोवर, समस्त कलाओंसे युक्त चन्द्र, इनमेस ऐसी किसी में भी नहीं ठहरती जैसी कि आपमें ॥ ७३ ॥ हे वीर नम्रीभूत हुए मस्तकोंपर, चन्द्रमाकी किरणों के मान है घुति निसकी ऐसा स्वयं पड़ता हुआ आपके चरणयुगलकी नखश्रेणीकी किरणोंका वितान-मूह ऐसा जान पड़ता है मानों नहीं नष्ट हुई है संगति जिसकी ऐसा स्वयं पड़ता हुआ पुण्य ही हो ।। ७४ ।। हे स्वामिन् ! अगाध संसार सागर में निमग्न हुए इस जगतको आनि ही उभारा . है । निविड़ अंधकारसे व्याप्त आकाशको सूर्यके सिवाय और कोई निर्मल बनाता है क्या ? ॥ ५५ ॥ महान् रनको दूर करनेवाली ऐसी जलधाराके द्वारा सुधरित है आशा (दिशा) जहां पर ऐसे .. नवीन मेघकी तरह हे जिन ! आप फल न देखकर ही-प्रतिफलकी इच्छा न करके ही जीवोंका अपनी वाणीके द्वारा सदा अनुग्रह करते हो ।। ७६ ॥ हे जिन ! यह निश्चय है कि आपके शुद्ध दयापूर्ण मतमें दोषका लेश भी देखने में नहीं आता है। स्वभावसे ही शीतल चंद्रमंडलमें क्या उष्मा-गरमी-संतापके कण भी स्थान पासकते हैं ॥ ७७ ॥ हे जिन-! जो मनुष्य श्रोत्ररूप, अनलिके द्वारा । आपके वचनामृतका मक्तिपूर्वक पान करता है उस हितबुद्धिको · जगतमें निरंकुश भी तृष्णा कभी बाधित नहीं कर सकती है .

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