Book Title: Mahavira Charitra
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 296
________________ महावीर चरित्र । ... २७६ ] हुआ ॥९८ । उस मिनेन्द्रके अव्यावाध अतिशय अनंत सुखरूप पद-स्थानको प्राप्त करते ही सिंहासनोंके कॅपनेसे जानकर भगवानका मोक्षकल्याणक हुभा है ऐसा समझकर अपनी .. अपनी सैन्यके साथ शीघ्र ही अनुगमन. करनेवाले सारें : देव और उनके अधिपति भगवानके पवित्र . और अनुपम शरीरकी भक्तिपूर्वक पूजा करनेके लिये उस स्थानपर नाकर पहुँचे । ॥ ९९ ॥ अग्निकुमार देवोंके इन्द्रोंके मुकुटके रत्नों से निकली . हुई अग्निमें, निसको कि कपूर अगर सारभून चंदनका काष्ठ. इत्यादि हविष्य द्रव्यके द्वारा वायुकुमारके देषोंन शीघ्र ही. संधुक्षित कर दिया था-झपककर दहका दिया था, जिनपतिके शरीरकी । इन्द्रोंने अन्त्य क्रिण की ।। १०० ।। शीघ्र ही उस जिनपतिके पंचम कल्याणको अच्छी तरह करके स्तुतिके द्वारा मुखर-शब्दा यमान है मुख जिनका ऐसे प्रसन्न हुए कल्पवासी इन्द्रप्रभृति देवगण . उस स्थानकी प्रदक्षिणा करके अपने हृदय में यह विचार करते हुए.. कि 'इस भक्तिके प्रसादसे हमको भी शीघ्र ही निश्चयसे सिद्धि. सुखकी सिद्धि हो, अत्यंत नवीन संपत्तिसे युक्त अपने अपने स्थान-.. को गये ।। १०१।। - :इसप्रकार मैंने नो यह महावीरचरित्र बनाया है वह अपनेको '. और दूसरोंको बोध देने के लिये बनाया है। इसमें पुरुरवासे लेकर .. अंतिम वीरनाथ तक सेंतीस भवोंका निरूपण किया है ॥१०२॥ जो. पुरुष-इस वर्द्धमान चरित्रका व्याख्यान करता है और उसको सुनता - है.उसको परलोकमें अत्यन्त सुख प्राप्त होता है॥१०३॥ मौद्गल्य पर्वतका है निवांस जिसमें ऐसे . वन में रहनेवाली संपत्-संपत् नामकी

Loading...

Page Navigation
1 ... 294 295 296 297 298 299 300 301