Book Title: Mahavira Charitra
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 275
________________ सत्रहवा सर्ग। [ २५५ 'दिन: हर्षसे देवोंके साथ साथ गजान उस भगवान्का श्री वर्धमान यह नाम रखा ॥.९१ ॥ .. .. .. :इस तरह कुछ दिनों के बीत जाने पर एक दिन भगवान्को देखते ही जिनका संशयार्थ दुर हो गया है ऐसे चारण लव्धिके धारक विनय: संजय नामके दो यतिओंने उस भगवानका सन्मति यह नाम प्रसिद्ध किया ॥ १२ ॥ किरणोंसे जटिल हुए अनुरूप मणिमय भूपर्णोसे कुवर इन्द्रकी आज्ञासे प्रतिदिन भगवान की पूजा करता था। भगवान श्री भन्शेत्माओंके अनलय प्रमोदके साथ २ शुक्लपक्षमें चन्द्रमाकी तरह बहने लंगे ।। ९३ ॥ बाल्प शरीरस्वरूपको मैं फिर नहीं ही पाऊा। क्योंकि संसारके कारण ही नष्ट होचुके हैं। इस लिये अब इस दशाको सफल बनालं-रलूं । मानों ऐमा मानकर ही जिन भगवान् महान् देवोंके साथ क्रीड़ा करते थे ॥ ९ ॥ . : . एक.दिन बालकोंके साथ साथ महान् वट वृसके ऊपर चढ़ कर खेरते हुए बर्द्धमान. भगवानको देखकर संगम नामका एक देव उनको त्रास देनेके लिये आ. पहुंचा ।। ९९ ॥ भयंकर फणाले नांगता रूप रखकर उस देवन शीघ्र ही आसपासके दूसरे छोटे २ वृक्षों के साथ उस वृसके मूलको घेर लिया। बालकोंने ज्यों ही उसको देखा त्यों ही व गिरने लगे ॥ ९६ ॥ किंतु शंका रहित वे भगवान लीलाके द्वारा उस नागरानके मस्तक पर दोनों चरणोंको रखकर वृक्षसे उतरे। ठीक ही है-वीर पुरुषको नगत्में भयका कारण कुछ भी नहीं है ।। ९७ ॥ भगवान्की निपप्तासे हृष्ट हो गया है 'चित्त जिसका ऐसे उस देवने अपने रूपको प्रकाशित कर सुवर्णमय घटोंके जलसे उनका अभिषेक कर महावीर यह नाम रखा ॥२८॥

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