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सत्रहवा सर्ग। . . . [ २१६ anoniminiminnan समान आक्रारवाली उस शिलाके ऊपर जो पांचसौ धनुष लम्बा तथाः ढाईसौं धनुष चौड़ा और ऊंचा महान् सिंहासन है उस पर श्री जिन भगवान्को विराजमान कर देवोंने उनके जन्माभिषेककी महिमाकल्याणोत्सव किया ॥ ४० ॥ प्रकाशं करती हुई हैं महामणियां जिनकी ऐसे एक हजार आठ घटोंसे शीघ्र ही अत्यंत हर्पके साथ लाये हुए क्षीर स्मुद्रके, जलसे मङ्गल रूप शंख और भेरीके शब्दोंसे दिशाओंकों शब्दांयमान कर इन्द्रादिक देवोंने एक साथ उस जिनेन्द्रका अभिषेक किया ॥८१ ॥ अभिषेक विशाल था यह इसीसे मालूम पड़ सकता है. कि उसका जल नाकोंमें भर गया था। उस समय "निरंतर अभिषेकमें, जिसने कि मेरुको भी कपादिया, इन्द्र जीर्ण तणकी तरह एकदम पड़ गयं या पड़े रहे-ड्रवे रहे।
अहो! जिन भगवान्का नैसर्गिक पराक्रम अनंत है ।। ८२ ॥ नम्री. , भूतं सुरेन्द्रने वीर यह नाम रखकर उनके आगे अप्सराओं के साथ
अपने और देव तथा असुरोंके नेत्र: युगलको सफल करते हुए हावभावके साथ ऐसा नृत्य किया जिसमें समस्त रस साक्षात् प्रकाशित हो गये।। ८३ ॥ विविध लक्षणोंसें लक्षित-चिन्हित हैं अंग जिनका तथा जो निर्मल तीन ज्ञानोंसे विराजमान है ऐसे अत्यद्भुत
श्री वीर भगवानको बाल्योचित-बाल्यवस्थाके योग्य मणिमय भूप‘णोंसे विभूषित कर देवगण इष्ट सिद्धिके लिये भक्तिसे उसकी इस • प्रकार स्तुति करने लगे। ८४॥ .. . .
हे:वीर ! यदि संसारमें आपके रुचिर वचन न हों तो भन्यात्माओंको . निश्चयसे तत्त्वबोध किस तरह हो सकता है। पद्मा. . (कमलश्री.या ज्ञानश्री प्रातःकालमें,सूर्यके तेनके विना.क्या अपने