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सत्रहवा सर्ग !
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कपनेवाले सिंहासन उनके हृदयोंके साथ साथ कपने लगे ॥ ६ ॥ सहसा उन्मीलित अवधि ज्ञानरूप नेत्रके द्वारा भगवान्के जन्मको जानकर भक्तिभारसे नमः गया है उत्तशंग-शिरं जिनका ऐसे घंटांक शब्दसे कहें हुए निकायों-मवासियों में मुख्य इन्द्र ( अर्थात् देव और. इन्द्र सभी मिलकर) आनंदके साथ-उस कुंडलपुरको गये ॥६१।। परिजन आनाकी प्रतीक्षामें लगा हुआ था तो भी अनुरागके कारण किसी देवेने उस भगवान्की पूजा करनेके लिये पुष्पमालको स्वयं दोनों हाथोंसे धारण कर लिया। ठीक ही है-जो पृज्यों में सर्वोत्कृष्ट है उसमें किसकी भक्ति नहीं होती है ? ॥ ६२ ॥ भगवान्के अभिषक समयमें यहाँ पर जो कुछ भी करना है उस सबको मैं स्वयं अच्छी तरहसे करूंगा. उसको करनेके लिये दूमरोंको हुक्म न करेगा..यही युक्त हैं इसी.लिये मानों भक्तिसे वह इन्द्र अकेला था तो भी उसने अपने अनेक रूप.बना लिये ॥ ६३ ॥ किसी देवने कितने ही हमारं.हाथ बना ऊपरको कर उनमें अपनी भक्तिसे खिळे हुए कमल धारण कर लिया। उस समय उसने आकाशमें कमलबनेकी शोभाको विस्तृत कर दिया। अति भक्ति शक्तिसशक्ति पूर्वक किससे क्या नहीं करा लेती है ? ॥ ६४ ॥ अपने अपने मुकुटोंके ऊपर लगी हुई बाल सूर्यसमान परम राग मणियों के अरुग-किरण जालके छालसे कोई कोई देव ऐसे नान पड़े मानों . जिनेन्द्र में जो उनका अनुराग था वह अंतरङ्गमें मर जानेसे उसी समय बाहर फैल गया, उस फैले हुए अनुरागको ही मानों शिरसे ढोकर लेना रहे हैं ॥६५॥ एकावली (नीलमणिकी इकहरी कंठी) के तरल नील । मंणियोंकी किरणरूप अंकुरोंकी श्रेणीसे काला पड़ गया है मनोक्ष