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- चौथा सर्ग। विशाखभूतिने शत्रुपक्षको. जीत लिया तथा षड्वर्गपर मी नय प्राप्त कर लिया । इसलिये राज्यलक्ष्मी इसको पाकर निरंतर इसतरह अतिवृद्धिको प्राप्त हुई जिस तरह कल्पवृक्षको पाकर कल्पलता वृद्धिको प्राप्त होती है ॥२४॥ युवराज नीति, वीरलक्ष्मी, और वलसंपत्तिकी अपेक्षा अधिक था तो भी अपने काकाका जो कि राज्यपदपर थे उल्लंघन नहीं किया। क्या कोई मी महापुरुष मर्यादाका आक्रमण करता है:॥२५॥ . :
युवराजने अच्छी तरहसे एक बहुत बढ़िया उपवन-बगीचा बनवाया। जोकि नंदनवनकी शोभाका मी तिरस्कार करता था। तथा जहांपर सम्पूर्ण ऋतु सदा निवास करती थीं। यह गीचामत्त भ्रमर और कोयलोक शब्दोंसे सदा शब्दायमान रहता था ॥२६॥ केवल दूसरी रतिके साथ सहकार-आम्रवृक्षके नीचे के हुए कामदेवको आदरसे मानों हूंढनके लिये ही क्या युवराज ललित और विलासपूर्ण स्त्रियोंके साथ तीनों समय उस रमणीय वनमें विहार करता था ॥ २७ ।। न राजाधिराज विशाखभूति और उनकी प्रिया लक्ष्मणाका पहला प्रियपुत्र विशाखनंदी नवीन यौवन और कामदेवसे मत्त तथा निरंकुश हस्तीकी तरह दीप्तिको प्राप्त होने लगा ॥ २८ ॥ एक दिन मत्त हस्तीकी तरहगमन करनेवाले विशाख़नंदीने युवराजके दर्शनीय वनको देखकर अन्नग्रहण करना छोड़ दिया, और मातासे नमस्कार करके वह दर्शनीय वन मुझको दे देगिलादे यह याचना की ॥२९॥ विशाखभूति यद्यपि युपरानपर हृदयसे अद्वितीय आत्महितको रखता था तथापिप्रियाके वचनसे सहसा विकारको प्राप्त हो गया । जिनको अपनी स्त्री ही प्रिय है :निश्चयसे उनको अपने दूसरे कुटुम्बके.