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पन्द्रहवाँ सर्ग |
[ २१५ योगीके प्रज्ञापुरी पहका विजय मानना चाहिये ॥ १२३॥ 'यह कुछ 'नहीं समझता है' इसके खाली सींग ही नहीं है, नहीं तो निरा पशु है. इस प्रकार नियमसे पद पदपर लोग जिसकी निंदा करते हैं फिर भी जो बिल्कुल भी क्षपाको नहीं छोड़ता है वह क्षमा ..गुण धारक साधुं अज्ञानजनित परीपह पीड़ाको सहता है ॥ १२४॥ बढ़े हुए वैराग्य से मेरा मन शुद्ध रहता है, मैं आगम समुद्रको भी पार कर गया हूं, मुनि मार्गको धारण कर चिरकालसे मैं तपस्या - भी करता हूं, तो मी मेरे कोई लब्धि उत्पन्न न हुई मुझे कोई ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई । शखों में जो इसका वर्णन मिलता है कि तप करने से अमुक ऋषिको अमुक ऋद्धि प्राप्त हुई थी ' सो सत्र झूठा मालूम पड़ता है। इस प्रकारसे जो साधु प्रवचनकी निंदा नहीं करता है किंतु जिसने आत्मासे संक्लेशको दूर कर दिया है उसके कल्याणकारी अदर्शन परीषहका विजय माना जाता है ॥ १२५ ॥
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चारित्र पाँच प्रकारका है - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सुक्ष्म पराय, और यथः ख्यात । इनमेंसे हे राजन् ! आदिके चरित्रको जिनेन्द्र भगवान ने एक तो नियत कालसे युक्त, दूसरा अनियंत. काउंसे युक्त इस प्रकारसे दो प्रकारका बताया है ऐसा निश्चय समझ ॥ १२६ ॥ त्रा या नियमोंमें जो प्रमादवश स्खलन होता है उसके सदागमके अनुसार नियमन करनेको छेदोपस्थापना कहते हैं, अथवा विकल्प से निवृत्तिको छेदोपस्थापना कहते 1 "यह छेदोपस्थापना ही दूसरा चारित्र है जो कि निरुपम सुखका "देनेवाला है, मुक्ति के लिये सोपान - सीढ़ीके समान है, पाप कर्मपर विजय प्राप्त करनेवाले मुनियोंका अमोघ अस्त्र है ॥ १२७ ॥ हे