Book Title: Mahavira Charitra
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 257
________________ सोलहवा सर्ग। [२३७ miniminium स्वामी हुआ.1.महान् तपके फलसे क्या नहीं मिल सकता है ? - ॥ ६४ ॥ उसको ' यह इन्द्र.. उत्पन्न हुआ है । ऐसा समझकर सिंहासनपर बैठाकर समस्त देवोंने उसका अभिषेक किया, और रक्तकमलकी युतिक हरण करनेवाले उसके चरणयुगलको मुकुटोपर इस.तरह लगाकर मानों ये क्रीडावतंस ही हैं प्रणाम किया ॥६५|| अविनश्वर, अवधिज्ञानके धारक इस इन्द्रकी देवगण ' यह भावी तीर्थकर हैं ऐसा समझकर पूजा करते थे । अप्सराजनोंसे वेष्टित वह भी हर्षसे वहीं रमण करता था। उसके गलेमें जो नीहार-हिमकी धुतिको हरनेवाले हारकी लड्डी पड़ी थी उससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों मुक्ति लक्ष्मीको , उत्सुकता दिलानेके लिये गुणसम्पत्तिने ग़लेमें आलिंगन कर रक्खा है ॥ ६६ ।। • इस प्रकार अशंग कवि कृत वर्धमान चरित्रमें 'नंदन पुष्पोत्तरविमान' ....: नामक सोलहवां -सर्ग समाप्त हुआ। ....संहका सर्ग। इसी. मरतक्षेत्रमें विदेह नामका लक्ष्मीसे पूर्ण देश है जो कि 'उन्न-महापुरुषों का निवासस्थान, है, समस्त दिशाओंमें अत्यंत ' प्रसिद्ध है। जो ऐसा मालूम पड़ता है मानों स्वयं पृथ्वीका इकट्ठा किया हुआ अपनी कांतिका सारा सार है ॥१॥ जहांकी, गौओंके धवलमंडलसे.सदा व्याप्त, और इच्छानुसार बैठे हुए हरिणसे अकित है मध्य देश निनका. तथा बालकको भी चिरकाल तक दर्शनीय ऐसी समस्त अटवीं बनीं ऐसी मालूम पड़ती हैं . मानों चंद्रमाकी

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