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पन्द्रहवा सर्ग। . [ २१३ . जो विधि है उस विधिके अनुसार वहां निवास करनेवाले सास्त उपमंगोको सहनेवाले, दुष्कर्मरूप शत्रुओंका भेइन करनेवाले मुनिके निपंद्या परीपहका विजय मानना चाहिये ॥ ११३ ॥ ध्यान करनेमें या आगमका अध्ययन करनेमें जो परिश्रम पड़ा उससे निद्रा आगई पर उसको दूर कहीं किया और कितनी देर तक तो ऊंत्री नीत्री जगहमें और कुछ क्षणके लिये । फिर भी शरीरको चलायमान न किया, वह इस भयसे कि कहीं ऐसा करनेसे कुंथु आदिकजीवोंका मर्दन न हो जायं । ऐसा करनेवाले यभी-साधुके शय्यापरीपहका विजय माना जाता है ।। .१४. | जिनका हृदय मिथ्यात्वसे सदा लिस रहता है. ऐसे. मनुष्योंके क्रोधाग्निको उद्दीप्त करनेवाले और • अत्यंत निंद्य तथा असत्य आदिक विरस वाक्योंको सुनते हुए भी
जो उस तरफ हृदयका व्यासंग-उपयोग न लगाकर महती क्षमाको धारण करता है. उसी सद्बुद्धिं यतिके आक्रोश परीपहका विनय मानना चाहिये ॥ १.१५ ॥ शत्रुगण अनेक प्रकारके हथियारों से मारते हैं, काटते हैं, छेदते हैं, तया यंत्रमें डालकर पेलते हैं। इत्यादि अनेक उपायोंसे शरीरका हनन करते हैं तो भी जो वीतराग मोक्षमें. उद्यत हुआ उत्कृष्ट गानसे किसी भी तरह चलायमान नहीं होता, वह असह्य भी वधपरीषहको सहता है ॥ ११६ ।। 'नाना प्रकार के रोगोंसे बाधित रहते हुए भी जो बिल्कुल स्वप्नमें भी दूमरोसे औषध आदिककी याचना नहीं करता है किंतु निस शांतात्माने ध्यानके द्वारा-मोहको नष्ट कर दिया है स्वयं मालूम हो जाता है कि इसने याचा परीषहको जीत लिया है॥११७॥ विनीत है चित्त जिमका ऐसा.जो योगी महान् उपवासके करनेसे कृश हो जाने ।
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