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महावीर चरित्र । - .: तप तपने लगा । लोकमें भव्यजनोंका वत्सल होनेसे प्रियमित्रने वस्तुतः प्रिय मित्रताको प्राप्त किया ॥ १९६ ॥ . __कुछ दिन बाद आयुके अंतमें तपके द्वारा कृषताको प्राप्त हुए शरीरको विधिसे-सल्लेखनाके द्वारा छोड़कर अपने अनल्प पुण्योंसे अर्जित और खेदों-दुखोंसे वनित सहस्त्रार कल्पको प्रप्त किया ॥ १९७ ॥ वहां पर अठारह सागरकी है आयु निरुकी और स्त्रियोंके मनको वल्लम तथा हंसका है चिन्ह निसका ऐसे रुंबक नामके उत्कृष्ट विमानमें रहते हुए उस सूर्यप्रम नामके देवने अपने शरीरकी.. मनोज्ञ कांतिके द्वारा सुर्यकी बालप्रभाको भी लज्जित करते हुए मनोज्ञ : ' अष्टगुणविशिष्ट । दैवी संपत्तिको प्राप्त किया ॥ १९८ ॥ ... इस प्रकार अशग कविकृत वर्धमान चरित्रमें ." सूर्यप्रभ संभव" .
नामक पन्द्रहवां सर्ग समाप्त हुआ। .:::
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खोलहवा सर्ग। ख-दुःखोंके सम्बन्धसे रहित, तथा अचिंत्य है वैभव जिनको ऐसे नाना प्रकारके स्वर्गीय सुखोंको भोगकर, वहांसे उतर-स्वर्गसें : आकर यहां (पूर्व देशकी श्वेतातपत्रा नगरीमें) तू स्वभावसे ही सौम्य नन्दन नामका राजा हुआ है ॥ १ ॥ जिस प्रकार मेव वायुके वशसे... आकाशमें इधरसे उधर घूमा करता है उसी तरह यह जीव कर्मके : उदयसे नाना प्रकारके शरीरोंको धारण करता तथा छोड़ता हुआ संसार.समुद्र में इधर उधर भटकता फिरता है ॥ २ ॥ क्योंकि जो. मोक्षका मार्ग है और जिससे युक्त आत्माको मुक्ति शीघ्र ही प्राप्त :