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सोलहवाँ सर्ग |
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जो कारण मानी हैं उन सोलह प्रकारकी भावनाओंको भाता था ॥ ३२ ॥ बढ़ा हुआ है ज्ञान जिसका तथा महान् धैर्यका धारक यह निश्चल मुनि जिनेन्द्र भगवान् के उपदिष्ट मार्ग में मोक्षके लिये चिरकाल तक दर्शन विशुद्धिकी भावना करता था ॥ ३३ ॥ मोक्षके कारणभूत पदार्थोंसे घटित भक्ति से भूषित वह मुनि गुरुओंकी नित्य ही भक्तिपूर्वक अप्रतिम विनय करता था ॥ ३४ ॥ निर्मल है विधि जिसकी ऐसी समाधिके द्वारा शीलकी वृत्ति - बाढ़से वेष्टित
तों में संदा निरतीचारताका अच्छी तरह 'भांचरण करता हुआ 'गुप्तियों का पालन करता था ॥ ३९ ॥ नव पदार्थोंकी विधि - स्वरूपका है निरूपण, जिसमें ऐसे वाङ्मयका निरंतर अभ्यास करता हुआ समस्त जगत्के पूर्ण तत्त्वों को निःशंक होकर इस तरह देखता था मानों ये सब उसके सामने ही रक्खे हों ॥ ३६ ॥ इस दुरंत संसार जनसे मैं अपने को किस तरह दूर करूं इस तरह नित्य ही विचार करनेवाले इस साधुकी निर्मल बुद्धि समादिके वेगवर विराजमान हुई || ३७ ॥ जान लिया है मोक्षका मार्ग जिसने ऐसे दिनरात चंचलता रहित बुद्धिके. धारक "मेरा" यह भाव छोड़ दिया है - इस वस्तुका मैं स्वामी हूं, यह मेरी वस्तु है जब ऐसा भाव ही छोड़ दिया तब वह अपने हृदय में लोभके अंशको भी किस तरह रख सकता है ॥ ३८ ॥ वह तपोधन अपनी अद्वितीय शक्तिको न छिपाकर तप करता था । भा कौन ऐसा मतिमान् होगा जो कि अनुपम भविष्यत् सुखकी अभिलापासे शक्ति मर प्रयत्न न करता हो ॥ ३९ ॥ भेदक. कारण के उपस्थित होनेपर वह अपना समाधान करता था। अथवा ठीक ही है - जान
सावुने जत्र अपने से "मैं" और
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