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सोलहवाँ सर्ग..... . २३१... wweinemiaminirror कितने दुर्लभ हैं अर्थात् बहुत ही दुर्लभ हैं। रत्नोंकी किरणोंसे . व्याप्त कर दिया है जल.या स्थल संपत्तिको जिन्होंने ऐसे जलाशय अत्यंत दुर्लभ ही होते हैं ।। १७ ॥ हे देव ! आपके समक्ष अप्रिय शन्दोंके पर्थ अधिकं कहनेसे :क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? हे ईशः। इतना भी कहना. वश है कि आपके बचन
आन मेरे: जीवनको सफल करेंगे यह निश्चय है ॥१८॥ इस तरहके बचनोंको धीरताके साथ कहकर भूपालने समुद्रवसना पृथ्वीको उसका शामन करने के लिये अत्यंत नम्र उप पुत्र वर्महरको देदी ॥ १९॥ इस प्रकार राज्यलक्ष्मीकों छोड़कर राजा नंदनने दश हजार राना..ओके साथ जगत्प्रसिद्ध प्रोष्ठिय मुनिके निकट उनको प्रणामकर
तपश्चर्या-दीक्षा धारण की ॥ २० ॥ द्वादशांगरूप निर्मल वीचियां जिसमें विलास करती हैं तथा जो अनेक प्रकारके अंग बाह्यरूप भवरोंसे व्याकुल-ज्याप्त है ऐसे श्रुतसागरको वह योगी अपने महान बुद्धिरूपी:मुनाके बलसे शीघ्र ही पार कर गया ॥ २१ ॥ विषयोंसे पराकख मनके द्वारा अनेकवार श्रुतार्थका विचार-मनन करते हुए वह योगी अंतरंग और वह्य इस तरह दो प्रकारके दोनोंके भी छह छह मेदोंकी अपेक्षा बारह प्रकारके अद्वितीय और घोर तोको तपने का उपक्रर करने लगा ॥ २२ ।। वह निश्चित मुनि अनमिलषित रागकी शांतिके लिये आत्मदृष्टके फलमें लोलुाताको छोड़ना हुआ अपमत्त होकर शान और पठनकी सुखपूर्वक सिद्धि करनेवाला अनशन करने लगा ॥ २३ ॥ जागरण और वितर्क"श्रुत परिचित सामाधिकी सिद्धि के लिये वह निर्मल बुद्धि मुनि । निर्दोष पराकीका अवलम्बन लेकर विधिपूर्वक परिमित भोजन