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पन्द्रहवाँ सर्ग |
[ २२१ ।। १५४ ।। ध्येयरूप जो क्रय है उसको अथवा उस द्रव्यकी पर्यायको अर्थ ऐसा माना है । दूसरा व्यंजन है उसका अर्थ वचन ऐसा समझो । शरीर, वचन, और मनके परिस्पन्दको योग कहते हैं। विधिपूर्वक और क्रमसे इन समस्त अर्थादिकोंमें से किसी मी एकका आलम्बन लेकर जो परिवर्तन होता है उसको संक्रांति ऐमा कहा है ॥ १५५ ॥ वशमें कर लिया है इन्द्रियरूपी घोड़ोंको जिसने; तथा प्राप्त कर ली है वितर्क शक्ति जिसने ऐसा पापरहित और आदरयुक्त जो मुनि समीचीन पृयक्त के द्वारा क्रषाणु या भावाणुको ध्यान करता हुआ तथा अर्थादिकोंको क्रमसे पहटते हुए मनके द्वारा ध्यान करता हुआ मोहकर्मकी प्रकृतियोंका सदा उन्मूलन करता है वही मुनि प्रथम ध्यानको विस्तृत करता है ॥१९६॥ • विशेषता के क्रमसे अनंतगुणी अद्वितीय विशुद्धिसे युक्त योगको पा
कर शीघ्र ही मूलमें से ही. मोहवृक्षका छेदन करता हुआ, निरंतर ज्ञा
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..नावरण कर्म के बंधको रोता हुआ, स्थितिके ह्रास और क्षयको करता हुआ निश्चल यति एकत्ववितर्क ध्यानको धारण करता है । और यही कर्मोंको नष्ट करनेके लिये, समर्थ है ॥ १५७ ॥ अर्थ व्यंजन और योगके संक्रमण से उसी समय निवृत्त होगया है श्रुत जिसका, साधुकृत उपयोग से युक्त, ध्यानके योग्य आकारको धारण करनेवाला, अविचल है अंतःकरण जिसका, क्षीण हो गये हैं कपाय जिसके, ऐसा निर्लेप - साधु फिर ध्यानसे निवृत्त नहीं होता । वह मणिके समान अथवा स्फटिकके समान स्वच्छ आकारको धारण करता है
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- ॥ १५८ ॥ एकत्ववितर्क शुक्लै ध्यानरूपी अग्निके द्वारा दग्ध: कर 'दिया है समस्त घातिकर्मरूपी काष्ठको जिन्होंने ऐसे तीर्थकर अथवा