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१९२ ]. : महावीर चरित्र । समस्त लोगोंको आनंद बहाते हुए तिरासी लाख पुर्व वर्ष वितादिये ॥३७॥ ___एकदिन चक्रवर्ती अत्यंत निर्मल दर्पगमे अपनी छवि देख रहा था। उसने कानके मूलमें लगा हुमा पलितादुर-खेत केशः । देखा । मालूम हुआ मानों भविश्यत्-भागे होनेवाली वृद्धावस्थाको सुचना देनेके लिये दूत ही आया हो । ४०॥ केशको देखकर मणिर्पको छोड़कर राना उसी समय विवारने लगा। वह बहुत देर तक सोचता रहा कि जगतमें मेरे समान दूसरा कौन ऐसा-विचार-. शील होगा कि निकी आत्माको संपारमें विषयविर्षोंने वश कर लिया हो ॥४१॥ साम्राज में क्राीकी विभूतिको पाकर देवताओं के राजाओं और विद्यधरोंके द्वाग प्राप्त हुए मातुरम्य-कदाचित् म णीय भोंगोपभोगोंसे मी मेरो बिकुल तृप्ति नहीं होती । फिर साधारण पुरुषोंकी तो बान ही क्या है । यद्यपि ऐसा है तो भी
लोमका गई पूरा करना-परला दुःपा है ॥४२॥ जो पणि . हैं संसारक स्वरूपको जानन वाई हैं वे भी विषय सुखोंमें खिये ... हुए महान् दुःखयुक्त संपारमें डरते नहीं हैं-भपनी आत्माको । . खोटे:परिणामों से दुःखी बनाते हैं, अहो ! यह समस्त जीवलोक मोहसे .: अंधा हो रहा है ॥ ४३ ॥ जगत्में विद्वानों में वे ही मुख्य औं
धन्य हैं और उन्हीने महान् पुण्यफलको प्राप्त किया जिन्होने शीघ्र ही '. तृष्णारूपी विष वेठको जड़ समेत उखाड़कर दिशाओं में दूर के .: दिया ॥ ४४-॥ नाश या पंतन अथवा दुःखोंकी तरफ पड़ते हुए।
नीवकी रक्षा करने में न भार्या समर्थ है, न पुत्र समर्थ है, न बन्धुवर्ग : समय है, कोई समर्थ नहीं है। फिर भी यदी यह शरीरधारी उनमें ।