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पन्द्रहवाँ सर्ग। [१०७ शत्रुओंके सदा बाधक होकर प्राप्त होते हुए भी कालुप्पका उत्पन्न न होना इसको तितिक्षा सहनशीलत:-क्षमा कहते हैं। आज्ञाआगमका उपदेश , और स्थितिसे युक्त समीचीन वचनों के बोलनेको सत्य कहते हैं ।। ८६ ॥ जति आदिकं मदरूप अमिमानका न होना इपको मार्दव कहते हैं । मन वचन और कायकी क्रियाओंमें क्र.ा-कुटिरता न रखना इसको आर्जव कहते हैं। लोभसे छूटनेको शौच कहते हैं ॥ ८७ || प्राणि और इन्द्रियों के एक परिहारको सत्पुरुष संयम कहते हैं। वो का क्षय करने के लिये जो तपा जाय उसको तप कहते हैं, इसके बारह भेद है ।।८।। यह मेरा है ऐसे अभिप्रायको छोड़कर शास्त्रादिकके देनेको दान कहते हैं इसी तरह निर्ममत्को धारणकर गुरुमूलमें निवास करनेको
आकिंचन्य कहते है ! और त गताको व चर्य कहते हैं।८९॥ श्रेयः सिद्धिके लिये प्राज्ञ पुरुषोंने ये बारह परीषह बताई हैं-अनित्य, अशरण, जन्म-संग, एका, अन्यता, अशुचिना, और अनेक प्रकारका व मोका. आश्रव, संवर, निर्जरा, जगत्-लोक, धर्म समीचीन वत्रस्तत्व-स्वाख्यातत्वके वोधिकी दुर्बलता ६.९०॥ -समस्त विद्वानोंको इस प्रकारसे सदा अनित्यताका चितवन करना चाहिये कि रूप यौवन आयु इन्द्रियोंका समूह या उनका विषय भोग, उपभोग, शरीर, वीर्य-शक्ति अपनी इष्ट वस्तुओंका समागम . चमुरति () सौभाग्य या भाग्यका उदयः इत्यादिक आत्माके ज्ञान, और दर्शनको छोड़कर बाकी समस्त पदार्थ प्रकट रूपसे अनित्यः । हैं।। ९१ || इस संसाररूप वन में नहीं मोह रूप दावानल बढ़ रहा.: हैं या जल रहा है और जिसको व्याधियोंने व्याधका रूप रख