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महावीर चरित्र । .... ...... कर भयंकर बना दिया है, पड़ी हुई आत्माओंको ऐमा मृगयोंका, टेना-झुंड समझना चाहिये जिनको मृत्युरूप. मृगराजने शीघ्र ही . अपने पंजेमें फसा लिया है अब उससे उनकी रक्षा करने के लिये . जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंके सिवाय दूसरे मित्र वगैह क्या कर. : सकते हैं, कुछ नहीं कर सकते। इस प्रकारसे संसारका उलंघन करने वाले भन्यों को संसार में अशरणताका चितवन करना चाहिये॥१२॥ गति, इन्द्रिय, योनि आदिक अनेक प्रकारके विपरीत बंधुओंके-.. शत्रओंके द्वारा कर्मरूप कारण के क्शसे जीवको जो जन्मान्तरको प्राप्ति होती है इसीको नियमसे संसार कहते हैं अधिक क्या कहें. : जिस संसारमें यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि आत्मा अपना ही पुत्र हो जाता है । अब बताइये कि सत्पुरुष इसमें किस तरहकीरति करें!.. ॥ ९३ ॥ जन्न मरण व्याधि नरा-वृद्वावस्था वियोग इत्यादिके. महान् दुःखरू। ' मुदमें निर। हो। हुआ मैं अकेला ही दुःखों को : 'निरंतर भोगता हूं । दुसरे न कोई मेरे मित्र हैं, न कोई शत्रु हैं,
और न कोई नातीय बन्धु ही है । इस लोकमें और परलोक यदि : कोई -बन्धु है तो केवल धर्म ही है । इस प्रकार उत्कृष्ट . एकत्वका चितवन करना चाहिये ॥ १४ ॥ यद्यपि बंधकी अपेक्षा. एकत्व हो रहा है तो भी मैं इस शरीरसे सर्वथा भिन्न हूं। क्योंकि मेरे : और इसके लक्षणमें भेद है । आत्मा ज्ञानमय है और विनाश रहित है। किंतु शरीर अज्ञ है और नश्वर है । तथा मैं इन्द्रियोंसे - अग्राह्य हूँ. क्योंकि सूक्ष्म हूं किंतु शरीर इन्द्रियग्राह्य. है. इस प्रकार शरीरसे मिन्नत्वका चितवन करना चाहिये । ९५ ॥ यह . शरीर स्वभाव से ही हमेशा अशुचिं रहता है, क्योंकि अत्यन्त अशुचिः :